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गल्तियों से सीखें व बढ़ते रहें मंजिल की ओर...

 असीम धैर्य, अनवरत प्रयास कहते हैं कि इंसान गल्तियों का पुतला है। अतः आश्चर्य़ नहीं कि गल्तियाँ इंसान से ही होती हैं। यदि उससे गल्तियाँ नहीं हो रही हैं, तो मानकर चलें कि या तो वह भगवान है या फिर पत्थर, पौध या जड़ इंसान। लेकिन इंसान अभी इन दो चरम छोर के बीच की कढ़ी है। विकास यात्रा में वह वृक्ष-वनस्पति व पशु से आगे मानव योनि की संक्रमणशील अवस्था में है, जहाँ वह एक ओर पशुता, पैशाचिकता के निम्न स्तर तक गिर सकता है, तो दूसरी ओर महामानव, देवमानव भी बन सकता है, यहाँ तक कि भगवान जैसी पूर्ण अवस्था को तक पा सकता है। लेकिन सामान्य इंसानी जीवन इन सभी संभावनाओं व यथार्थ का मिलाजुला स्वरुप है और फिर उसकी विकास यात्रा बहुत कुछ उसके चित्त में निहित संस्कारों द्वारा संचालित है, जो आदतों के रुप में व्यक्ति के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करती है। इसी चित्त को मनोविज्ञान की भाषा में अवचेतन व अचेतन मन कहा जाता है, जो वैज्ञानिकों के अनुसार 90-95 फीसदी सुप्तावस्था में है। साथ ही व्यक्ति के जीवन की असीम संभावनाएं चित्त के इस जखीरे में समाहित हैं, जिसमें जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कार बीज रुप में म

बस एक ही खासियत देखता हूँ इस अंधियारे में

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हिम्मत नहीं हारा हूँ अभी लिए अंतिम विजय की आश, खुद पर अटल विश्वास एक ईमानदार कोशिश करता हूँ रोज खुद को गढ़ने की,  लेकिन अभी, आदर्श से कितना दूर, अज्ञात से कितना मजबूर। लोग कहते हैं कि सफल इंसान हूं अपनी धुन का,  दे चुका हूँ कई सफल अभियानों को अंजाम,  सफलता की बुलंदियों पर खुशियों के शिखर देखे हैं कितने , लगा जब मुट्ठी में सारा जहाँ। फिर सफर ढलुआ उतराई का, सफलता से दूर, गुमनामी की खाई, सफलता का शिखर छूटता रहा पीछे, मिली संग जब असफलता की परछाई, मुट्ठी से रेत सा फिसलता समय, हाथ में जैसे झोली खाली, ठगा सा निशब्द देखता हूँ सफलता-असफलता की यह आँख-मिचौली। ऐसे में, सरक रही, जीवन की गाड़ी पूर्ण विराम की ओर, दिखता है, लौकिक जीवन का अवसान जिसका अंतिम छोर, सुना यह एक पड़ाव शाश्वत जीवन का, बाद इसके महायात्रा का नया दौर, क्षण-भंगुर जीवन का यह बोध, देता कुछ पल हाथ में शाश्वत जीवन की ढोर। जीवन की इस ढलती शाम में, माना मंजिल, अभी आदर्श से दूर, बहुत दूर, एक असफल इंसान महसूस करता हूँ खुद को, आदर्श के आयने में, आदर्श से अभी कितना दूर, अज्ञात से कितना मज