बुधवार, 29 नवंबर 2017

मेरा गाँव मेरा देश - हिमालय की गोद में बचपन की यादों को कुरेदती एक यात्रा

कुल्लू से रायसन वाया व्यासर-माछिंग

बादलों के संग कुल्लू-मानाली घाटी का मनोरम दृश्य

2011 के नवम्बर माह में सर्दी का दौर शुरु हो चुका था। कितने वसन्त विताए होंगे, सामने पश्चिम की ओर की घाटी को घर से निहारते हुए। पर्वत शिखरों पर सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय, फिर धीरे-धीरे धूप का पहाड़ की चोटी से घाटी में नीचे उतरना, घरों में लगे सीसों से टकराकर झिलमिलाना। फिर नीचे ब्यास नदी को छूकर हमारी घाटी में प्रवेश और धीरे-धीरे खेत-खलियान, बगीचों से होते हुए सूर्योदय का आलौकिक नजारा। पूर्व की ओर से पहाड़ियों के शिखर पर आसमान को छूते देवदार के वृक्षों के पीछे से सूर्य भगवान का प्रकट होकर पूरी घाटी को अपने आगोश में लेना।

सामने पहाड़ की गोद में बसी घाटी को बचपन से निहारते आए थे, हर मौसम में इसके अलग-अलग रुप-रंग, मिजाज व स्वरुप को देख चुके थे, लेकिन सब दूर से, घाटी के इस ओर से। चाहते हुए भी संयोग नहीं बन पाया था उस पार जाने का। मन था कि कभी उस पार गाँवों को पार करते हुए उस पहाड़ी के शिखर तक जाएंगे, वहाँ से चारों ओर क्या नजारा रहता है, इस रहस्य को निहारेंगे। लेकिन यह सब खुआब ही बना रहा। तब उस पार के लिए कोई पक्की सड़क थी नहीं, जहाँ से होकर किसी वाहन से होकर आसानी से वहाँ घूमकर आया जा सके। उस पार के गाँवों (माछिंग, बवेली, बनोगी, नलहाच) से बच्चे हमारे गाँव के मिडल स्कूल में पढ़ने आते थे। वे पहाड़ों व नदियों को लाँघते हुए रोज पैदल ही यहाँ आते और बापिस घर जाते।

हिमाच्छादित घाटी से उतरता सूर्योदय

लेकिन आज लगभग तीन दशकों के बाद स्थिति पूरी तरह से पलट चुकी है। आज उस पार घाटी में पहाड़ों को आर-पार चीरते हुए सड़क बन चुकी हैं। कुल्लु से रायसन तक वाया माछिंग-व्यासर इसका मुख्य लिंक रोड़ है। आज इसी घाटी को एक्सप्लोअर करने का मन था, भाईयों के साथ। वाहन की व्यवस्था हो चुकी थी। बचपन की चिरआकाँक्षित इच्छा पूरा होने वाली थी कि उस पार की घाटी व पहाड़ों के नजदीक से अवलोकन का तथा यह जानने का कि वहाँ से हमारा गाँव व घाटी कैसी दिखती है।

घर से यात्रा शुरु होती है, पहले लुग्डीभट्टी से होकर रामशीला, कुल्लू वाइपास पहुँचते हैं। मुख्य मार्ग से भेखली मार्ग पर चल पड़ते हैं। जैसे-जैसे जलेबी सड़क पर आगे बढ़ते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, बैसे बैसे नीचे कुल्लू-अखाड़ा बाजार का तथा उस पार खराहल घाटी का विहंगम नजारा निखरता जाता है। 

ब्यास नदी के संग खराहल घाटी कुल्लू का नजारा

कुछ ही देर में हम भेखली गाँव के नीचे से गुजरते हैं, यहाँ कन्या रुप में भगवती का रुप भेखली माता प्रतिष्ठित हैं, मालूम हो कि भेखली माता का कुल्लू के दशहरे के साथ रोचक सम्बन्ध है। भगवती की ओर से आदेश मिलने के बाद ही दशहरे का आगाज होता है। भेखली धारा से पंचम स्वरों में घोषणा होती है, ईशारा किया जाता है, जिसे पाकर फिर सुलतानपुर से रघुनाथजी की यात्रा शुरु होती है और ढालपुर मैदान में रथ यात्रा के साथ कुल्लू के दशहरे का शुभारम्भ होता है।
 
भेखली गाँव की राह में

भगवती को दूर से ही अपना भाव निवेदन करते हुए हम यहाँ से आगे बढ़ते हैं, अब यात्रा कोंगती गाँव को पार करते हुए उत्तर की ओर कुछ चढ़ाईदार सड़क के संग आगे बढ़ रही थी। रास्ते में देवदार के घने जंगल से प्रवेश होता है। रास्ते में स्कूल के बच्चे मिलते हैं, जो पैदल अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। इनको देखकर अपने बचपने के दिनों की याद आना स्वाभाविक थी। रास्ते में बनोगी और नलहाच गाँवों की झलक मिलना शुरु हो गई थी। इनके पास साथ ही पहाड़ियों के ऊपर जड़े टावर भी, जो हमारे गाँव के ठीक सामने पड़ते हैं। 

पहाड़ की गोद में बसे बनोगी-नलहाच गाँव की ओर

कुछ ही मिनटों में हम गाँव के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ पारम्परिक लकड़ी के घर अधिक दिखे, साथ ही खेतों में मक्का की फसल अपने अंतिम चरणों में थी। कुछ छत्तों पर मक्की के लालिमा लिए भुट्टे सूख रहे थे। मालूम हो कि यहाँ इनको स्लेट की छत पर कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता है और फिर सूखने पर भारी लट्ठों के सहारे इनकी मंडाई की जाती है, जिससे बीज अलग हो जाते हैं, जिन्हें फिर बोरी में एकत्र किया जाता है और पारम्परिक रुप में घराटों (पानी से चलने वाली पहाड़ी चक्की) में इनका आटा तैयार किया जाता था, जबकि आज बिजली से चलने वाली चक्कियों में आटा पीसा जाता है। 

छत पर सूखते मक्की के भुट्टे

किसी जमाने (अस्सी के दशक) में जब हम कुल्लू के स्कूल में पढने जाया करते थे, तो इस घाटी के मेहनतकश लोग प्रचूर मात्रा में उपलब्ध सूखी लकड़ी तथा घास को वहुतायत में बाजार में बेचा करते थे, आज समय के साथ फल-सब्जी उत्पादन की ओर रुझान तेजी से बढ़ रहा है, हालाँकि इस क्षेत्र में कृषि के पारम्परिक तौर तरीके अभी भी बर्करार दिख रहे थे।

लो हम एक ऐसे बिंदु पर आ गए थे, जहाँ से सामने का नजारा स्पष्ट था। गाड़ी को साइड में रोककर यहाँ से नदी के पार अपने गाँव, घाटी, पहाड़ों का अवलोकन करने के लिए बाहर निकलते हैं। 

सामने ब्यास नदी के संग हिमालयन गाँव-घाटी का विहंगम दृश्य

हमारा रोमाँचित होना स्वाभाविक था सामने के विहंगम दृश्य को देखते हुए, जिसकी गोद में हमारा बचपन और किशोरावस्था बीती थी। नजारे को जीभर कर निहारते रहे, यथासम्भव हर एंग्ल से केप्चर करते रहे। सूर्यास्त का नजारा, घाटी में पीछे की ओर चढ़ते सूरज के साथ अद्भुत लग रहा था।

इस स्थान पर हवा बहुत तेज बह रही थी। कुछ देर तसल्लीबख्श अवलोकन एवं फोटोग्राफी के बाद फिर हम गाड़ी में बैठकर आगे चल देते हैं। घाटी के नाले को पार कर जंदोउड़ गाँवों से होकर गुजरते हैं। यहाँ भी विकास की व्यार के स्पष्ट दर्शन हो रहे थे। सड़क के दोनों ओर सेब के बगीचे तैयार हो रहे थे, हालाँकि अभी ये प्रारम्भिक अवस्था में थे। गाँव तक बिजली, पानी, स्कूल व सड़कों की बुनियादी सुबिधाएं पहुँचने के साथ निश्चित रुप में लोगों के जीवन स्तर में इजाफा होता दिख रहा था। आज समय अधिक नहीं था कि किसी ढावे पर बैठकर या गाँववासियों से इस बारे में कुछ गुप्तगुह व चर्चा की जाए।

सामने शिखर की गोद में बसा व्यासर गाँव

 अब हमारा प्रवेश पहाड़ के पीछे एक नई घाटी के व्यासर गाँव में हो रहा था, जो हमारे गाँव से नहीं दिखता है, बस चर्चा में अपने बुजुर्गों से इसकी बातें सुनते रहे थे। क्योंकि पहाडों की ओट में छिपे इस गाँव में बादल पहाडियों में घिर जाते हैं और बरसकर ही बाहर निकल पाते हैं। अतः यहाँ खूब बारिश होती है, ऊँचाई भी ठीक-ठाक है। कुल्लू-नग्गर सड़क पर काईस गाँव की ओर अपने खेतों से तो इसकी हल्की सा झलक कई बार पा चुके थे, लेकिन नजदीक से इसको आज पहली बार देख रहे थे। प्रवेश करते ही सड़क के ऊपर नीचे सेब के बाग दिखे। शाम हो रही थी, अतः बहुत रुकने का समय नहीं था, लेकिन गाँव का विहंगम अवलोकन करते हुए हम पार हो जाते हैं, जहां से उस पार पीछे की ओर खराहल खाटी के सहित बिजली महादेव की झलक मिल रही थी।

कुल्लू घाटी के शिखर पर बिजली महादेव के दूरदर्शन

मालूम हो की इस घाटी एवं फाटी में सितम्बर माह में फुंगली का मेला हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, जब लगभग हर गाँव के लोग इसमें भाग लेते हैं। इसके तहत गाँवों के पीछे शिखर पर बसे बुग्यालों का पैदल आरोहण होता है, ट्रैकिंग की जाती है। और शिखर पर स्थित भुंगली माता को भेंट व श्रद्धाँजलि दी जाती है। फुंगली चोटी का ट्रैकिंग रुट अद्भुत दृश्यावलियों से भरा हुआ है, जिसे प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ ट्रैक करते रहते हैं।

व्यासर गाँव के वायीं और पहाड़ में एक स्पाट चट्टान है, जो हमारे गाँव से दिखती है, माना जाता है, जिसको महाभारत कालीन पाण्डवों के अज्ञातवास से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि पाण्डव यहाँ से गुजरे थे। इसके थोड़ा आगे एक व्यू प्वाइंट पर हम फिर रुकते हैं। यहाँ पर ढलती शाम के संग घाटी के कुछ यादगार फोटो लेते हैं। अब यहाँ से सामने काईस, सोईल, राऊगी नाला आदि गाँव दर्शनीय थे और ऊपर की ओर नग्गर, कटराईं, बड़ाग्राँ तथा अप्पर बैली के पहाड़। 

 कुल्लू-मानाली, अप्पर वैली का विहंगम दृश्य

रास्ते में ही हमें हिमाचल पथ परिवहन की एक लोकल बस मिली, जो इस रुट पर अपनी सेवा दे रही थी। यह संभवतः इसकी दिन की अंतिम पारी थी।

आगे फिर घने जंगलों और सेब के बगानों के बीच हमारा सफर पूरा होता है। रास्ते में जल्लोहरा गाँव को पार करते हुए आगे, शील्ड गाँव के सामने से गुजरते हैं, जहाँ रामगढ़िया के सेब के विशाल बागान मिलते हैं। मालूम हो कि बागवानी इस क्षेत्र में आर्थिकी का एक प्रमुख आधार है, जिसे प्रगतिशील एवं पढ़े-लिखे बागवानों ने समय रहते अपनी पहल के आधार पर अपनाया। यह बगीचा इसी का एक उदाहरण है। रास्ते में हमें अंधेरा हो चुका था। इसी को चीरते हुए हम नीचे मुख्य मार्ग में रायसन पहुँचते हैं, यहाँ पुल पार कर लेफ्ट बैंक से होते हुए काईस को पार करते हुए अपने गाँव में प्रवेश करते हैं।

पूरी यात्रा के साथ हमारे मन में बचपन से जेहेन को कुरेदती कई जिज्ञासाओं तथा कौतुहलों के समाधान मिल गए थे। इस क्षेत्र का नक्शा भी काफी साफ हो चुका था। साथ ही आगे के लिए कुछ नई यात्राओं का आधार भी तैयार हो गया था। शायद यात्राओं का उद्देश्य कुछ ऐसा ही रहता है, जो हमें कुछ शिक्षित करती हैं, कुछ आनंदित करती हैं, कुछ हमारे ज्ञान के दायरे को बढ़ाती हैं तथा स्मृति कोश में कुछ सुखद अनुभवों को जोड़कर जीवन को समृद्ध करती हैं।
 
हिमालय शिखरों पर सूर्यास्त, देवभूमि कुल्लू घाटी

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