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यात्रा वृतांत - सावन में नीलकंठ महादेव - प्रकृति की गोद में श्रद्धा-रोमांच का अनूठा संगम

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मिले मन को शांति, हरे चित्त का संताप  नैक से जुड़ी लम्बी तैयारी, थकाउ पारी और काल की छलना पलटवारी के बीच जीवन का ताप कुछ बढ़ चला था, सो प्रकृति की गोद में चित्त को हल्का करने का मन बन गया था। ऐसे में स्वाभाविक ही कालकूट का शमन करने बाली नीलकंठ महादेव की मनोरम वादी की याद आ गई और लगा कि बुलावा आ गया। सावन में कांवर लिए यात्रा की इच्छा अधूरी थी, सो वह भी आज अनायास ही पूरी हो रही थी। कुछ ऐसी ही इच्छा लिए राह को प्रकाशित करते दीपक हमारे सारथी बने। और हम अपनी स्कूटी सफारी में नीलकंठ महादेव के औचक सफर पर निकल पड़े। दोपहर को अचानक प्रोग्राम बन गया था और तीन बजे हम चल दिए और लगभग दो घंटे बाद शाम पाँच बजे तक हम नीलकंठ महादेव पहुंच गए। रास्ते का सफर प्रकृति के सुरम्य आंचल में रोमाँच से भरा रहा, जितना गहरा हम इसके प्राकृतिक परिवेश में प्रवेश करते गए, उतना ही हम इसके आगोश में खोते गऐ और सहज ही मन शांत होता गया और संतप्त चित्त को एक हीलिंग टच मिलता गया। देसंविवि से यात्रा रेल्वे फाटक पार करते हए निर्मित हो रहे फोर लेन हाइवे से होती हुई नेपाली फॉर्म, श्यामपुर फाटक से आगे बढ़ी।

प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम

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प्रकृति की गोद में कितनी शांति, कितना सुकून, कितना आनन्द विश्राम, एक बार चख लिया स्वाद जो इसका, मचले कूदे फिर मन मासूम नादान, बन जाए यायावर इंसान ताउम्र फिर, प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम। झरते हैं स्वयं परमेश्वर प्रकृति से,  क्यों न हो फिर विराट से मिलान, हो जाता है अनंत से भी परिचय राह में,  आगोश में मिट जाए क्षुद्र स्व अभिमान, पा लेता है खुद को इंसान इस नीरवता में,  शाश्वत, सरल, सहज, स्फूर्त, आप्तकाम।   फिर क्या बादलों की गर्जन तर्जन, क्या राह की दुर्गम चढ़ाई, आँधी-तूफान, हिमध्वल शिखर पर ईष्ट-आराध्य अपने, प्रकृति की अधिष्ठात्री, कालेश्वर महाकाल, कौन रोक सके फिर दीवानगी इन पगों की, चल पड़े जो अपने ईष्ट के अक्षर धाम। यहीं से शुरु अंतर्यात्रा अपने उत्स की, एडवेंचर के संग प्रकटे दूसरा आयाम, बदले जिंदगी के मायने, अर्थ, परिभाषा सब, नहीं दूर जीवन पहेली का समाधान, चेतना के शिखर का आरोहण यह, प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम।

नश्वर भटकन के उस पार

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कब से तुम्हें पुकार रहा , कब से रहा निहार , बीत चले युगों-जन्म , करते-2 तुम्हारा इंतजार। कब सुमिरन होगा वह संकल्प शाश्वत-सनातन ,  कब कूच करोगे अपने ध्येय की ओर महान , क ैसे भूल गए तुम अमृतस्य पुत्र का आदि स्वरुप अपना , लोटपोट हो नश्वर में , कर रहे अपनी सत्ता का अपमान। धरती पर भेजा था क्यों , क्या जीवन का ठोस आधार, क्यों खो बैठे सुधबुध अपनी, यह कैसा मनमाना आचार, संसार में ही यह कैसे नष्ट-भ्रष्ट हो चले, आत्मन् ज़रा ठहर करो विचार। चले थे खोज में शांति-अमृत की, यह कैसा उन्मादी चिंतन-व्यवहार, कदम-कदम पर ठोकर खाकर, नहीं उतर रहा बेहोशी का खुमार । कौन बुझा सका लपट वासना की, लोभ-मोह की खाई अपार, अहंकार की माया निराली, सेवा में शर्तें, क्षुद्र व्यापार। कब तक इनके कुचक्र में पड़कर, रौर व नरक में झुलसते रहोगे हर बार, कितना धंसोगे और इस दलदल में, पथ यह अशांति, क्लेश, गुलामी का द्वार। बहुत हो गया वीर सब खेल तमाशा, समेट सकल क्षुद्र स्व, मन का ज़्वार, जाग्रत हो साधक-शिष्य संकल्प में, बढ़ चल नश्वर भटकन के उस पार।