सोमवार, 28 अगस्त 2017

मेरा गाँव, मेरा देश – शिखर की गोद में बचपन की शेष यादें



यादें बचपन की, समाधान कल के
बचपन की बातें जो कभी सहज क्रम में घटीं थीं, आज वो यादों के रुप में गहन अचेतन में दफन हैं। बचपन के बाद किशोरावस्था, फिर युवा और अब प्रौढ़ावस्था के पार जीवन की ढलती शाम। बचपन के वे गाँव, घर, घाटी, पर्वत और परिजन - सब पीछे छूट चुके हैं, जीवन के अर्थ और मर्म की तलाश में। और इस तलाश को पूर्णता देने वाले नए मायने मिलते हैं दुबारा उसी बचपन में पहुँचकर, बचपन के बालसुलभ भाव-जिज्ञासा-सपनों और अरमानों को जिंदा पाकर, जब कभी संयोग घटित होता है उस अतीत में लौटने का, उसमें झांकने का, उसे जीने का।
कुछ ऐसे ही पल या कहें दिन के चंद घंटे मिले इस बार अगस्त माह में, जब अपने भाईयों के संग जन्मभूमि तक पहुँचने का संयोग बना। बचपन अधिकाँश नाना-नानी के घर शिखरों की गोद में बसी घाटी में बसे सेऊबाग गाँव में बीता, लेकिन दादा-दादी का घर पहाड़ के शिखर की गोद में बसे गाहर गाँव में था था, जहाँ पहुँचने के लिए 3-4 किमी की खड़ी चढ़ाई पार करनी पड़ती थी। इसका सफर बचपन में घंटों लेता था। नाले के पार सयो गाँव आता था। नाला सदावहार था। इसको पार करना स्वयं में एक रोमाँच से कम नहीं रहता था। क्योंकि इसी नाले की एक धारा, पतली कुल्ह(नहर) के रुप में घराट(आटा पीसने की चक्की) को चलाती थी। पत्थर के दो गोल पाटों के बीच गिरते अन्न के दाने और पीसकर बाहर निकलता आटा, बालमन को यह दृश्य बहुत अद्भुत प्रतीत होता था।

इसी घराट के पास बहती नाले की दूसरी धारा में पत्थरों और मिट्टी की दीवाल खड़ा कर हमारा स्वीमिंग पूल बन जाता, जिसमें हम तैराकी का शौक पूरा करते। पायजामा के तीनों खुले कौनों में गाँठ बाँधकर, इसे गिलाकर फुला देते और इस पर लेटकर हाथ-पैर मारते हुए तैरने का अभ्यास करते। इसी धारा के 3-400 मीटर पीछे था गाँव का वह झरना, जो हमें रहस्य-रोमाँच से भरी एक अलग ही दुनियाँ में ले जाता। इसी के रास्ते में अखरोट-खुमानी के पेड़ लगे थे, जो मौसम में हमें अपने फल प्रसाद से कृतार्थ करते। झरने के 100 मीटर पहले चट्टानी दिवार के तल पर थे  दो-तीन जायरू(शुद्ध जल के भूमिगत सोते या चश्में), जिनका निर्मल जल सर्दी में गर्म तो गर्मी में सर्द रहता। गाँव में तब नल नहीं थे, नाले का पानी ही पीने का प्रमुख स्रोत था। और ये जायरु ऐसे में प्रकृति के शुद्धतम उपहार के रुप में गाँववासियों की जुरुरत पूरा करते। हालाँकि आज स्थिति दूसरी है। घर-घर में नल आ चुके हैं। जायरु गर्मी में सूखने लगे हैं। एक ही जायरु सालभर जल देता है। लेकिन प्रकृति के शुद्धतम उपहार के रुप में जायरु जल का कोई विकल्प नहीं है।
इसी जायरु तथा झरने से मिलकर चट्टानी गुफानुमा घाटी बनती है। झरने के पीछे क्या है, बालमन के लिए एक अबुझ पहेली थी। इन्हीं चट्टानों में जब हम बचपन में आईटीबीपी के फौजियों को रैपलिंग (रस्सी के सहारे पहाड़ से नीचे उतरना) करते देखते, जो हमारे लिए कौतुक व आश्चर्य का शिखर होता। झरने से गिरते जल के वाष्पकणों से प्रतिबिंवित होती इंद्रधनुषी सतरंगी छटा हमेशा मंत्रमुग्ध करती। गाँववासी झरने के जल कणों में जोगनियों (सूक्ष्म देवशक्तियाँ) का वास मानते और इसी भाव के साथ इनका पूजन भी होता। जो भी हो हमारे लिए झरना और इसके साथ सटी घाटी एक रहस्यमयी एवं पावन स्थली थी, जहाँ हम भयमिश्रित श्रद्धा के साथ विचरण करते।
जब भी शिखर की गोद में बसे गाहर गाँव जाते तो नाला पार करते हुए इसी झरने के पास से गुजरते व जिसका दिव्य निनाद कानों में गूंजते हुए अंतर्मन को गहरे स्पर्श करता। इसकी पावन उपस्थिति एवं शीतल स्पर्श के साथ यात्रा आगे बढ़ती। सर्दी में इस राह पर छायादार क्षेत्रों में पानी जमकर बर्फ बनता। बर्फ की परत व इसकी बनी आकृतियों को तोड़कर खेलने का अलग ही रोमाँच रहता। इस सब के बीच सयो गाँव को पार करते हुए हम सदावहार कोहू के बन में प्रवेश करते। रास्ता पत्थरों की सीढियों से बना, सीधा चढ़ाई लिए था। कहीं सीधा रास्ता आता, तो थोड़ी राहत मिलती, लेकिन अधिकाँश चढ़ाई ही चढ़ाई सामने रहती। बीच-बीच में विश्राम स्थल बने होते, जहाँ कुछ पल दम लेकर आगे बढ़ते।
बढ़ती चढ़ाई के साथ नीचे स्यो, नालापारा व सेऊवाग गाँव का विहंगम दृश्य प्रकट होता, इसके खेत, उसके आगे घाटी को दो फाड़ करती ब्यास नदी दिखती। और ऊपर चढ़ने पर सुदूर काईस सेर(धान के खेत), उसके पार मंद्रोल क्षेत्र तक के दर्शन होते और दक्षिण दिशा में क्रमशः नदी पार के बाशिंग गांव, पुलिस लाईन दिखती। उसके आगे वैष्णुमाता मंदिर के दर्शन होते। थोड़ा ऊपर चढ़ने पर कुल्लू घाटी के दर्शन होते।


इसी के साथ गाहर गाँव की पहली झलक मिलती, जिसका दर्शन पाते ही जैसे जेहन में बिजली कौंधती, लगता अब मंजिल के पास पहुँच ही गए। खेत व बगीचों को पार करते ही गाँव की वाई(जल के प्राकृतिक स्रोत) के दर्शन होते। रास्ते में सेब के बगीचे आकर्षण का केंद्र रहते, विशेषरुप से कमर्शियल सेब के। यह सेब की वह किस्म है जो स्वाद में खट्टी-मीठी और काफी सख्त होती है, इसे तोड़ने के कई दिनों बाद ही पकने पर खाया जा सकता है। अपनी झारखण्ड यात्रा के दौरान हमने इसको बहुतायत में वहाँ बिकते देखा तो इनकी याद ताजा हुई थी। (http://himveeru.blogspot.in/2015/02/blog-post_18.html )

इस बगीचे को पार करते ही वाई आती। इसी के साथ गाँव में प्रवेश की जीवंत अनुभूति होती। यह जल दो धाराओं के रुप में पत्थर के बने नल से झरता। इन अक्षय जल धाराओं का स्रोत क्या है, ये कैसे कहाँ से आता है व बनता है, बालमन की समझ से परे था। प्रकृति के उपहार के रुप में, लोकजीवन व संस्कृति के अभिन्न घटक के रुप में दिल में इसकी गहरी छाप थी। यहाँ पर पानी भर रहे या कपड़े धो रहे रिश्तेदारों से मिलना-जुलना होता और दुआ-सलाम शुरु होती। तब यही गाँव में पानी का एकमात्र स्रोत था। हालाँकि आज घर-घर में नल से पानी की व्यवस्था हो चुकी है। लेकिन वाई के शुद्ध व शीतल जल का कोई तोड़ नहीं है।
इस वाई का जल सीधा हमारे खेत से होकर नीचे गुजरता था। खेत में फलों व सब्जियों को सींचते हुए यह आगे नीचे बढ़ता। ताऊजी के खेती-बागवानी से जुड़े होने के कारण इस बाग में उनके प्रगतिशील प्रयास हमें रोमाँचित करते थे। क्योंकि नीचे सेऊबाग गाँव में ऐसा कुछ नहीं था। यहाँ तैयार हो रहे जापानी फल, गोल्ड़न व रॉयल सेब, बैंगन-शिमला मिर्च जैसी सब्जियां हमें काफी चकित करती, जो हमारे बालमन के लिए एक कौतुक भरा सुखद आश्चर्य थी। उस समय गाँव व घाटी में फल व सब्जी का चलन नहीं था। गैंहूँ, चाबल व दालें ही उगाई जाती थी।
वाई के आगे मुश्किल से 100 मीटर ऊपर रास्ते में एक ढलानदार चट्टान थी, जिस पर रॉक क्लाइंविंग करते हुए चढ़ने का लोभ हम सब बच्चे संवरण नहीं कर पाते थे। चट्टान के ऊपर से फिर नीचे फिसलने का क्रम चलता। इस खेल में हम इतना रम जाते थे कि बढ़ों की डाँट डपट के बाद ही आगे बढ़ पाते। चट्टान पर घीसने से एक पट्टी का निशान बन चुका था। इसमें फिसलते हुए पेंट व पायजामा का घिस कर फट जाना सामान्य बात थी।
 
इसके आगे गाँव की बस्तियों व सोह(गाँव की क्रीडा स्थली) को पारकर हम कुलदेवता के मंदिर से होकर माथा टेकते हुए अपने दादा के घर पहुँचते। इसकी पहली झलक मिलते ही चित्त में रोमाँच की लहर दौड़ती। इस जन्मस्थल में पर्व-त्यौहार या मेले में ही हमारा आना-जाना होता। अतः इसकी यादें जेहन में एक अलग ही रुमानी भाव लिए हुए रहती।
यहाँ दादाजी के दर्शन तो हम नहीं कर पाए, लेकिन उनसे जुड़ी किवदंतियों को सुन एक दमदार इंसान का अक्स चित्त पर अंकित होता। सुबह अंधेरे में ही घर से खेत व जंगल में काम पर बाहर निकलना उनका नित्यक्रम था और सुबह रोशनी होने से पहले ही जब गाँव जागता, वो काम पूरा कर घर लौट आते। अपने दम पर चार मंजिला काठकुणी लकड़ी का घर कैसे वन मैन आर्मी बनकर डिजायन कर खड़ा किया होगा, आश्चर्य होता। आंगन की दिवार पर जो पत्थर हैं, इनका भारी-भरकम आकार और तराश देखकर आश्चर्य होता कि किस तकनीक से यह सब संभव हुआ होगा, क्योंकि यहाँ तक पैदल मार्ग के अलावा और कोई यातायात का साधन नहीं था। दादाजी के तो दर्शन नहीं हुए, लेकिन शांति, संवेदना और सरलता की प्रतिमूर्ति दादीजी का सान्निध्य लाभ लम्बे समय तक मिलता रहा। ताऊजी का मस्तमौला, कथाशिल्पी और रोमाँचक संगसाथ भी लम्बे समय तक मिलता रहता।

यहाँ घर की तीसरी मंजिल की खिड़की से ऊपर देवदार-बाँज से लदे घने जंगल व पहाड़ के दर्शन होते और नीचे कुल्लू घाटी का विहंगम दृश्य प्रत्यक्ष था। यहाँ से निहारते हुए मन पक्षीराज की भांति आसमान में पंख फैलाए घाटी का अवलोकन करता। नीचे एक गाँव, फिर दूसरा, तीसरा...बांज के जंगल, खेत, बगीचे....ब्यास नदी..दोनों ओर सड़कें, इनमें दौड़ते वाहन...फिर कुल्लू शहर व उसके पार दूसरे पर्वत शिखर। इन सबसे मिलकर बनता घाटी का विहंगम दृश्य़, सब अद्भुत-रोमाँचक-मनोरम-वर्णनातीत।
रात का नजारा तो और भी रोमाँचक रहता, जब घाटी के गाँव-घर तथा शहर में जगमगाती रोशनी जैसे आसमान के तारों को जमीं पर टिमटिमाने का बेजोड़ नजारा पेश करती। इसी के साथ पूरे परिवार के बड़ों का मिलन, बच्चों की फौज की भगदड़, खेल कूद – सारी चहलपहल गहरे अचेतन में सुखद यादों के रुप में संचित है। गाँव की सोह (क्रीडा मैदान) में साल में एक बार भव्य बीरशू मेला लगता। इसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त एक दिन फिल्म का शो भी रहता, जो हमारे लिए सबसे रोचक कार्यक्रम था। उस समय रील वाली फिल्म चलती थी। तब गाँव तो क्या शहर में भी फिल्म का चलन नहीं था, न ही टीवी आए थे। पर्दे पर फिल्म (ब्लैक एंड व्हाइट) देखने का जो उत्साह, कौतुहल व रोमाँच रहता वह वर्णन करना कठिन है। फिल्म के दिन हम सेऊबाग से यहाँ तक 3-4 किमी की चढ़ाई बिना किसी बिश्राम के एक सांस में पूरा करते। हम बच्चे क्या, गांँव के बड़े-बूढ़े, युवा, महिलाएं भी इसमें शुमार रहते।

फिर पढ़ाई-लिखाई व जीवन के अन्वेषण-संघर्ष के दौर में आगे बढ़ते-बढ़ते गाँव-घर कब पीछे छूट जाते हैं, पता नहीं चला। आज लगभग 20-25 वर्ष बाद एकदम नए अंदाज में यहाँ के बदले परिवेश में भ्रमण का संयोग बना। बचपन की सारी यादें एक के बाद दूसरी, तीसरी..इस तरह संगीत के अनगिन सुरों की भांति अचेतन मन से फूट पड़ीं। इनमें दर्द था यहाँ से उजड़ने का, टीस थी पुरानी यादों को फिर से उसी रुप में न जिंदा हो पाने की, खुशी थी कुछ अपनों से यहाँ मिलने की, आनन्द था यहाँ की उसी मिट्टी में लोटपोट होकर खोए-बीते बचपन को अनुभव करने का, सुकून था इन सबको समेटते हुए जीवन की पटकथा को किसी निष्कर्ष की ओर ले जाने का।
इस बीच कुछ बुजुर्ग इस मृत्युलोक को छोड़ चुके हैं, उनका समरण आना स्वाभाविक था और लगा जैसे वो घर में ही सूक्ष्मरुप में मौजूद हों। कुछ परिवारजन दूसरे परिवार का सदस्य बनकर आसपास या यहाँ से दूर हैं। घर के सुनसान कौने कुछ कह रहे थे। सबसे अधिक कचोटने बाली थी बचपन की उस चहल-पहल का अभाव, जिसकी गूँज से घर आबाद रहता था। लेकिन यह आज संभव हो भी तो कैसे। सब बच्चे बढ़े हो चुके हैं, युवा-प्रौढ़ बन चुके हैं। लेकिन खिड़की से घाटी का दृश्य, ऊपर देवदार-बाँज के जंगलों का नजारा ठीक बैसा ही था। इसी को निहारते पुरानी यादें एक-एक कर ताजा करते गए। अपनों से मिलकर वही जीवन की गर्माहट मिली। जीवन के उतार-चढ़ाव, संयोग-वियोग व संघर्ष के बीच जीवन की एक नई समझ व एक नया मकसद अंतर्मन में अंकित होते गए।
सबसे खास बात गाँव के जागरुक लोगों के प्रयास से सड़क का निर्माण दिखा। तमाम संघर्ष-विरोध-दुर्भिसंधियों के बावजूद सड़क गाँव के आर-पार बन चुकी है, लगभग पक्की बनने के कागार पर है। ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ प्रधान की भूमिका गाँव के विकास में क्या हो सकती है, इसका उदाहरण यहाँ स्पष्ट है। सड़क के साथ हुए गाँव व घाटी का कायकल्प प्रत्यक्ष दिख रहा था।
वही गाँव जहाँ पहुँचने व चढ़ने-उतरने में कभी घंटों लगते थे, आज कुछ मिनटों में यात्रा पूरी हो गई। अन्न, फल व सब्जियों को जिन्हें कभी पीठ में ढोकर चढ़ाना पड़ता था, आज सहज ही बाहनों में आ-जा रही हैं। यात्रा जो पहले कितनी थकाऊ व दुष्कर थी कितनी सरल व सुविधाजनक बन चुकी है, देखकर बहुत सुखद अहसास हुआ। सब्जि व फल उत्पादन के प्रति गाँववासी जागरुक हो चुके हैं। शिक्षा व स्वाबलम्बन का पाठ समय के साथ वे सीख चुके हैं। इनके साथ पूरी घाटी में विकास की वयार स्पष्ट बहती दिखाई दे रही है। 
हाँ, इस सबके बीच पुरानी राह की बचपन की यादें अब अपने जेहन तक सीमित हैं, क्योंकि पुराने रास्ते बदल चुके हैं। नयी पीढ़ी के पास नयी संभावनाओं के साथ नए रास्ते सामने खड़े हैं। फिर परिवर्तन के शाश्वत सत्य को स्वीकारने में कैसी आनाकानी, जब वह अवश्यंभावी हो। संतोष इतना ही है कि बचपन की यादें विकास पथ पर अग्रसर हैं औरर अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ करने का भाव दिल में जीवंत है। यहाँ की कुछ मूलभूत विसंगतियों से भी परिचित हैं, जिनके निराकरण की कवायद जेहन में चलती रहती है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रुप में इसके समाधान की दिशा में अपने ढंग से प्रयास जारी हैं। कुल मिलाकर, जन्मभूमि, मातृभूमि के अज्रस अनुदानों से उऋण होना अभी शेष है।

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