मंगलवार, 30 जनवरी 2018

माँ गंगा की पुकार



एक नहीं असंख्य भगीरथों की आज जरुरत


मैं वही गंगा मैया हूँ जिसमें करोड़ों लोग पतितपावनी कहकर रोज डूबकी लगाते हैं और अपना सारा पाप-ताप मुझमें निमज्जित कर शुद्ध-बुद्ध होकर अपनी पाप-मुक्ति की कामना करते हैं। मुझे भी अच्छा लगता है कि अज्ञान-अंधकार में भटक रही संतानें मेरे आंचल का स्पर्श पाकर संताप मुक्त होकर जाती हैं। अच्छा लगे भी क्यों न, आखिर मैं माँ जो हूँ, मेरा धरती पर अवतरण का उद्देश्य ही शापयुक्त संतानों को सांसारिक संताप से मुक्त करना है। शापग्रस्त सगरसुतों को उबारने के लिए पुत्र भगीरथ ने कितना कठोर तप करके मेरा आवाह्न किया था।
मुझे अपार खुशी और संतोष होता है कि मेरे 2500 किमी लम्बे रास्ते के तट पर मानव बस्तियाँ बस्ती गई और धीरे-धीरे मानव सभ्यता-संस्कृति फलती फूलती गई। देश के एक बड़े भूखण्ड की मैं जीवन रेखा हूँ। साथ ही पूरे देश की संस्कृति के तार मुझसे जुड़े हैं। देश का आधिकाँश क्षेत्र मेरे आंचल में सिमटा है, जो इससे बाहर है वह भी मेरे ममत्व से रीता नहीं। अपनी क्षेत्रीय नदियों को वे मुझसे जोड़ते हुए मेरी संतान होने के भाव से तृप्त होते हैं। ईश्वरीय अनुग्रह कुछ ऐसा रहा कि मैं पूरे विश्व में वंदित पूजित मानी जाने लगी। इसे हिमालय की कृपा ही कहेंगे कि वहाँ से विचरण करते हुए कई वनौषधीय जड़ी-बूंटियों का सत्व और बहुमूल्य खनिजों का रसायन मुझमें मिलता जाता है जो मेरे जल को औषधीय गुणों से भरपूर बना देता है।
फिर मैं स्वर्गलोक की वासिनी जो ठहरी। कुछ तो दैवीय गुण मुझको विरासत से ही मिले हैं। विष्णु के चरण-नख से निस्सृत होने व देवाधिदेव शिव की जटाओं से अवतरित होने के कारण मेरा दिव्यत्व सहज रुप से ही अद्वितीय रहा है। फिर मेरे तट पर आत्मानुसंधान में निमग्न ऋषि-मुनियों, यति-तपस्वियों की तप ऊर्जा भी तो मुझमें ही समाहित होती रहती है। कितने तीर्थों का जल मुझमें मिलकर प्रवाहित होता है कि मैं चलता फिरता बहता तीर्थ बन जाती हूँ और मेरे नाना संगम तीर्थराज।
आश्चर्य नहीं कि इन गुणों के कारण विश्व की पवित्रतम नदी मानी जाती हूँ। सनातन धर्मावलम्बियों की तो जैसे मैं जीवन मरण की प्रेरणा हूँ। वे जीवन में एक बार डुबकी लगाए बिना जीवन को अधूरा मानते हैं। गंगाजल अपने घरों में सहेज कर रखते हैं। बिना मेरे जल के कोई भी पावन कार्य अधूरा माना जाता है। मरणासन व्यक्ति मेरे जल की बूँद को ग्रहण कर शांतिपूर्ण देहत्याग की भावना करता है।
आस्था है कि मेरे जल से जीवात्मा के सभी जन्मों के पाप धुल जाते हैं और सभी रोगों से यह मुक्त कर देता है। इन्हीं दिव्य गुणों के कारण विश्व के कौन-कौने से लोग अविभूत रहे हैं। अकबर मेरे जल के बिना नहीं रह पाता था। दूर यूरोप के कवियों ने मेरे गुणों का गान किया। सनातन धर्म के तमाम ग्रँथ तो मेरी महिमा से भरे पड़े हैं। मुझे इन सबसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मेरे गुणगान से मेरी संतानें खुश हैं तो अच्छा है, उनकी खुशी में ही मेरी खुशी है।
सदियों से मैं प्रवाहमान हूँ। मुझमें डुबकी लगाने वाले नादान शिशुओं की गंदगी-पाप तापों को पचाने की मेरी अदभुत क्षमता रही है। सदियों तक उन्हें अपने में आत्मसात करते हुए मैं अपनी पवित्रता-प्रखरता बर्करार रखी हूँ। लेकिन जब से मानव जीवन में विज्ञान ने प्रवेश किया, भौतिकवादी जीवन दर्शन इसका मार्गदर्शक बनता गया, इंसान अपनी मूल प्रकृति, अपनी संस्कृति से दूर होता गया। इसके साथ प्रकृति से उसका मानवीय रिश्ता भी टूटता गया। जिस प्रकृति को वह पूजनीय-वंदनीय मानता था, वही उसके लिए भोग्या बन जाती है। इंसान इतना लालची बनता गया कि वह प्रकृति शौषण को अपना धर्म मानने लगा।
मुझे मैया कह कर पुकारता है, मुझमें डुबकी लगाकर सब पापों से मुक्ति की कामना प्रार्थना भी करता है। यह तो समझ में आता है लेकिन मुझे ही गंदा कर, मेरे ही जल को विषाक्त कर मुझे बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। इंसान की यह वंचना, कृत्घनता, अमानुषिक आचरण समझ से परे है। मानव इतना स्वार्थी, कृत्घन पहले तो नहीं था।
मेरे उद्गम स्थल पर ही उसके अमानवीय कृत्यों की गाथा शुरु हो जाती है। हिमनदियों के किनारे शौच-मल के साथ मेरे साथ खिलवाड़ शुरु हो जाता है। आगे पहाड़ी कस्बों-शहरों का सारा गंदा जल यहाँ तक कि सीवर का पानी भी सीधे मेरी गोद में गिरता है। हरिद्वार आते-आते मेरा जल वैज्ञानिकों के मत में पीने योग्य नहीं रह जाता।   
आगे हर शहर में लाखों टन कचड़ा सीधे मुझमें उडेला जाता है, जैसे कि मैं कूढ़ादान हूँ। कानपुर, वनारस तक आते-आते तो मेरा जल आचमन के योग्य भी नहीं रह जाता। यह बात दूसरी है मेरे भक्त उस जल में डूबकी लगा कर पाप-ताप से मुक्ति की कामना करते हैं। महानगरों के किनारे बसे कारखानों से लाखों टन विषैला कचरा सीधे मुझमें समा जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि मेरे जल में बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु मौजूद हैं, जो विषाणु व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देते हैं। मेरी असीमित शुद्धीकरण क्षमता इन्हीं तत्वों के कारण है। लेकिन प्रदूषण से गिरते जहरीले कचरे से निपटते-निपटते अब मेरी यह क्षमता कुंद हो रही है।

मेरे किनारे बसे औद्योगिक नगरों के नालों से टनों गंदगी सीधे मुझमें उड़ेली जाती है। औद्योगिक कचरे के साथ प्लासिटक कचरा बहुतायत में गिरता रहता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मेरा बायोलोजिकल ऑक्सीजन स्तर 3 डिग्री के सामान्य स्तर से 6 डिग्री हो गया है। प्रतिदिन मुझमें 2 करोड़ 90 लाख लीटर कचरा गिर रहा है। विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह मेरा प्रदूषित जल है। घोर चिंता जतायी जा रही है कि मेरा जल न तो स्नान योग्य रह गया है, न पीने योग्य और न ही सिंचाई के योग्य। मेरे पराभव के साथ समूची सभ्यता के अंत की भविष्यवाणी की जा रही है।
मुझे बचाने के लिए करोड़ों नहीं अरबों रुपए खर्च हो चुका है, लेकिन वह भ्रष्टाचार के पेट में चला जाता है। अभी तक सारी योजनाएं कागज मे पड़ी हैं। सरकार ने मेरे सम्मान में मुझे राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित किया है, लेकिन ये सब खाली कागज की बातें हैं। लालची उद्योगपतियों की व्यापार बुद्धि औऱ लफ्फाज नेताओं-अधिकारियों की संवेदनहीनता तो मुझे समझ में आती है, लेकिन मेरा नाम लेकर जयकारा लगाने वाले श्रद्धालु भक्तों की भक्ति मेरी समझ से परे है। एक ओर मेरे जल का आचमन कर जीने मरने की कसमें खाते हैं, अपने को पवित्र करते हैं। दूसरी ओर मेरे ही किनारे साबुन, ब्रश से लेकर सारी गंदगी करते हैं और पूजा से लेकर कचरे का समान भी मुझमे ही फैंक देते हैं। धर्माचारी कितने ही पुत्रों के आश्रम मेरे तट पर बसे हैं। इन आश्रमों से रोज कितना कचरा, गंदा पानी, सीवर की गंदगी सीधे मुझमें गिरती है, यह सब एक दुखद कहानी है।
मेरा नाम लेकर धर्म-ध्वजा फहराने वालों का जब यह हाल है तो दूसरों से क्या उम्मीद करुँ। शायद यह कलिकाल का प्रभाव है कि अपनी अराध्य मैया के प्रति न्यूनतम् संवेदना से आज का धर्म-अध्यात्म हीन हो गया है। शायद इसीलिए धर्म-अध्यात्म में इंसान के ह्दय परिवर्तन की क्षमता लुप्त होती जा रही है।
मेरे अस्तित्व को लेकर काफी हायतौवा मचता रहता है, पिछले बर्षों तो मुझे राष्ट्रीय नदी भी घोषित कर दिया गया। मुझे शुद्ध-निर्मल करने के लिए कितने अभियान कागजों पर चल रहे हैं, लेकिन सरकारी घोषणा भर से क्या होने वाला। आज जरुरत है एक नहीं, कई भगीरथों की, जो मेरे अस्तित्व और इसकी निर्मलता को अक्षुण्ण बनाए रखने के भाव-संकल्प से तप करने को उद्यत हों।
फिर मैं तो ठहरी स्वर्ग वासिनी, मेरे अस्तित्व को क्या खतरा। इंसान को यदि अपने अस्तित्व से प्यार है तो उस खातिर उसे मेरा ध्यान रखना होगा। मुझमें में घुसी विकृति के शोधन के लिए उसे अपनी प्रकृति में सुधार करना होगा। अपने स्वभाव परिवर्तन और मानवीय संवेदना को उभारे बिना कुछ होने वाला नहीं।
 

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