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शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

जानता हूँ अँधेरा बहुत


मिल कर रहेगा समाधान

जानता हूँ अंधेरा बहुत,
लेकिन अंधेरा पीटने के मिटने वाला कहाँ,
जानता हूँ कीचड़-गंदगी बहुत,
लेकिन उछालने से यह हटने वाली कहाँ।।

अच्छा हो एक दिए का करलें इंतजाम,
या खुद ही बन जाएं प्रकाश की जलती मशाल,
अच्छा हो कर लें निर्मल जल-साबुन की व्यवस्था,
या एक बहते नद या सरोवर का इंतजाम।।

लेकिन यदि नहीं तो, फिर छोड़ दें कुछ काल पर, करें कुछ इंतजार,
शाश्वत बक्रता संग विचित्र सा है यह मानव प्रकृति का मायाजाल,
नहीं समाधान जब हाथ में, तो बेहतर मौन रह करें उपाय-उपचार,
समस्या को उलझाकर, क्यों करें इसे और विकराल।।

इसका मतलब नहीं कि हार गए हम, या,
मन की शातिर चाल या इसकी मनमानी से अनजान,
आजादी के हैं शाश्वत चितेरे,
मानते हैं अपना जन्मसिद्ध अधिकार।।

लेकिन क्या करेँ जब पूर्व कर्मों से आबद्ध, अभी,
गुलामी को मान बैठे हैं श्रृँगार,
लेकिन नहीं सो रहे, न ही पूरी बेहोशी में,
चिंगारी धधक रही, चल रहे तिमिर के उस पार।।

कड़ियाँ जुड़ी हैं कई जन्मों की,
नहीं एक झटके में कोई समाधान,
धीरे-धीरे कट रहे कर्म-बन्धन,
मुक्त गगन में गूँजेगा एक दिन शाश्वत गान।।

छिटक चुके होंगे बन्धन सारे,
छलक रहा होगा शांति, स्वतंत्रता, स्वाभिमान भरा जाम,
लेकिन जानता हूँ, मानता हूँ अभी अँधेरा बहुत,
पर, मिलकर रहेगा पूर्ण समाधान।।

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

हे सृजन साधक, हर दिन भरो कुछ रंग ऐसे


मिले जीवन को नया अर्थ और समाधान
हर दिवस, एक नूतन सृजन संभावना,
प्रकट होने के लिए जहाँ कुलबुला रहा कुछ विशेष,
एक खाली पट कर रहा जैसे इंतजार,
रचना है जिसमें अपने सपनों का सतरंगी संसार।1।

आपकी खूबियां और हुनर हैं रंग जिसके,
अभिव्यक्त होने का जो कर रहे हैं इंतजार,
 अनुपम छटा बिखरती है जीवन की या होता है यह बदरंग,
तुम्हारे ऊपर है सारा दारोमदार।2।


शब्द शिल्पी, युग साधक बन, हो सकता है सृजन कुछ मौलिक,
जिसे प्रकट होने का है बेसव्री से इंतजार,
आपके शब्द और आचरण से मिलेगी जिसे अभिव्यक्ति,
झरेगा जिनसे आपका चिंतन, चरित्र और संस्कार।3।

अतः हे पथिक, बन सृजन साधक,
भरो जीवन में हर दिन रंग कुछ ऐसे,
 झरता हो जिनमें जीवन का भव्यतम सत्य,
मिलता हो जहाँ जीवन को नया अर्थ और समाधान।4।
 

गुरुवार, 4 जुलाई 2019

चाह अमृतपुत्र की...

इसी जन्म में स्वयं को पाकर रहुँगा

नहीं चाह कोरे कागज पोतने की,
नहीं मंच से कोरी भाषण-लफ्फाजी की,
जो अनुभूत है वही कहूँगा,
जो छलकेगा वही लिखूंगा।।

नहीं किसी की नकल,
न किसी का अंधानुकरण,
न किसी से तुलना,
न किसी से कटाक्ष,
स्वयं से है प्रतिद्वन्दता अपनी,
रोज अपने रिकॉर्ड तोड़ते रहूंगा।।

स्वयं हूँ मैं मुकाम अपना,
नित नए शिखरों का आरोहण करता रहूँगा,
नहीं जब तक होता लक्ष्य प्रकाशित,
खुद की खुदाई करता रहूँगा,
जब तक नहीं होता अमृत से सामना,
स्वयं के अंतर को टटोलता रहूँगा।।

हूँ मैं अमृतपुत्र, ईश्वर अंश अविनाशी,
इसी जन्म में स्वयं को पाकर रहूँगा।।

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

महापुरुषों की साधु संगत


चित्त् का भ्रम-बन्धन और अपना विशुद्ध आत्म स्वरुप
चेतना(आत्मा) विशुद्ध तत्व है। चित्त उसका एक गुण है। इच्छाएं, कामनायें यह चित्त हैं, प्रवत्तियाँ हैं, किंतु आत्मा नहीं, इसलिए जो लोग शारीरिक प्रवृत्तियों काम, भोग, सौंदर्य सुख को ही जीवन मान लेते हैं, वह अपने जीवन धारण करने के उद्देश्य से भटक जाते हैं। चेतना का जन्म यद्यपि आनन्द, परम आनन्द, असीम आनन्द की प्राप्ति के लिए ही हुआ है, तथापि यह चित्तवृत्तियाँ उसे क्षणिक सुखों में आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करती हैं, मनुष्य इसी सांसारिक काम-क्रीड़ा में व्यस्त बना रहता है, तब तक चेतना अवधि समाप्त हो जाती है और वह इस संसार से दुःख, प्रारब्ध और संस्कारों का बोझ लिए हुए विदा हो जाता है। चित्त की मलीनता के कारण ही वह अविनाशी तत्व, आप आत्मा बार-बार जन्म लेने के लिए विवश होते हैं और परमानन्द से वंचित होते हैं। सुखों में भ्रम पैदा करने वाला यह चित्त ही आत्मा का, चेतना का बन्धन है।                  
                               – युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल

मानवीय योनि मिलने पर भी हमारा जीवन छोटी-छोटी बातों में ही नष्ट हो जाता है। मैं कहता हूँ कि सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ में ले लीजिए। इस सभ्य जीवन के सागर में अनगिनत बादल और तुफान होते हैं और जबर्दस्त दलदल हैं। इसमें ऐसी हजारों चीजें हैं कि यदि आदमी रसातल को नहीं जाना चाहता तो उसे बड़े हिसाब से रहना पड़ता है। अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल। दिन में तीन चार खाने की जगह, आवश्यक हो तो एक ही बार खाईए। सौ पकवानों की जगह पाँच ही रखिए और इसी अनुपात में और सभी चीजों की संख्या घटाइए। 
                                - हेनरी डेविड थोरो

जगत के ऐश्वर्य में ही न खोएं, इसके मालिक की भी सुध लें
ईश्वर और उनका ऐश्वर्य। यह जगत उनका ऐश्वर्य़ है। लेकिन ऐश्वर्य़ देखकर ही लोग भूल जाते हैं, जिनका ऐश्वर्य है, उनकी खोज नहीं करते। कामिनी-काँचन का भोग करने सभी जाते हैं। परन्तु उसमें दुःख और अशांति ही अधिक है। संसार मानो विशालाक्षी नदी का भँवर है। नाव भँवर में पड़ने पर फिर उसका बचना कठिन है। गुखरु काँटे की तरह एक छूटता है, तो दूसरा जकड़ जाता है। गोरखधन्धे में एक बार घुसने पर फिर निकलना कठिन है। मनुष्य मानो जल सा जाता है।

उपाय - साधुसंग और प्रार्थना।

वैद्य के पास गए बिना रोग ठीक नहीं होता। साधुसंग एक ही दिन करने से कुछ नहीं होता। सदा ही आवश्यक है। रोग लगा ही है। फिर वैद्य के पास बिना रहे नाड़ीज्ञान नहीं होता। साथ साथ घूमना पड़ता है, तब समझ में आता है कि कौन कफ नाड़ी है और कौन पित्त की नाड़ी।.साधु संग से ईश्वर पर अनुराग होता है। उनसे प्रेम होता है। व्याकुलता न आने से कुछ नहीं होता। साधुसंग करते करते ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होता है – जिस प्रकार घर में कोई अस्वस्थ होने पर मन सदा ही चिन्तित रहता है और यदि  किसी की नौकरी छूट जाती है तो वह जिस प्रकार आफिस आफिस में घुमता रहता है, व्याकुल होता रहता है, उसी प्रकार।

एक ओर उपाय है – व्याकुल होकर प्रार्थना करना। ईश्वर अपने हैं, उनसे कहना पड़ता है, तुम कैसे हो, दर्शन दो-दर्शन देना ही होगा-तुमने मुझे पैदा क्यों किया? सिक्खों ने कहा था, ईश्वर दयामय है। मैने उनसे कहा था, दयामय क्यों कहूँ? उन्होंने हमें पैदा किया है, यदि वे ऐसा करें जिससे हमारा मंगल हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? माँ-बाप बच्चों का पालन करेंगे ही, इसमें फिर दया की क्या बात है? यह तो करना ही होगा। इसीलिए उन पर जबरदस्ती करके उनसे प्रार्थना स्वीकार करानी होगी।
साधुसंग करने का एक और उपकार होता है – सत् और असत् का विचार। सत् नित्यपदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर मन जाते ही विचार करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड़ उठाता है तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता है।                - श्री रामकृष्ण परमहंस
 
    महापुुरुषों की साधुसंगत पर अन्य पोस्ट यहाँ पढ़ सकते हैं - 
 


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