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सोमवार, 29 जून 2020

मेरी पौलेंड यात्रा – 7, अकादमिक संवाद से भरा दिन

विद्यार्थियों से संवाद एवं पारम्परिक कॉफी का स्वाद

मार्ग में काजिमीर विल्किस यूनिवर्सिटी के कुछ भवन पड़े, जिनमें फिजिक्स व मेथेमेटिक्स विभाग प्रमुख थे। विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर भी मार्ग में पड़ता है, जिसका संक्षिप्त इतिहास यहाँ बताना चाहेंगे।

संस्थान 1969 में शिक्षकों के प्रशिक्षण केंद्र के रुप में स्थापित हुआ था, जो विस्तार पाते हुए सन 2005 से विश्वविद्यालय के रुप में प्रारम्भ होता है। इसमें इस समय 7000 विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिन्हें 1500 शिक्षक पढ़ाते हैं। मानविकी, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र, पर्यटन, कम्प्यूटर, गणति, भौतिकी, संगीत, खेल आदि इसके लोकप्रिय पाठ्यक्रम हैं। इसका इंन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतरीन एवं कैंप्स बहुत सुंदर है। कुछ विभागीय कैंपस शहर के अलग-2 स्थानों पर स्थित हैं, विशेषकर मनोविज्ञान विभाग पुल के उस पार पहाड़ी पर है। पुस्तकालय पास ही सड़क के उस पार। इसके ही सामने थोडे आगे सड़क के दूसरी ओर एक बहुमंजिले भवन में ह्यूमेनिटी एवं सोशल साइंस के विभाग मौजूद हैं।

यहाँ के लोग एक दम विंदास एवं खुलापन लिए दिखे, जो हम जैसे पुरातन पृष्ठभूमि के लोगों के लिए थोड़ा चौंकाने वाला नया अनुभव था। वस्त्रों के संदर्भ में महिलाओं में कोई संकोच का भाव नहीं दिखा, जैसे ये इनकी संस्कृति का हिस्सा हों। साथ ही इनकी सरलता-सहजता इस सबको स्वाभाविक बनाती है। भारतीयों के लिए इसमें समायोजित होने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ व्यक्ति परिवेश में ढल जाता है।


आज हमारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ पहला इंटरएक्शन था, जो यहाँ के अत्याधुनिक पुस्तकालय के एक कक्ष में हो रहा था। अध्यात्म को लेकर यहाँ के विद्यार्थियों में गहरी रुचि दिखी, क्योंकि यहाँ प्रचलित धर्म तक ही लोकजीवन सीमित है। अध्यात्म के प्रति अधिक चर्चा नहीं होती व इसे व्यैक्तिगत स्तर का विषय मानते हैं, जिस पर अकादमिक विमर्श खुलकर नहीं होता। यहाँ पत्रकारिता विभाग की इरेस्मस समन्वयक डॉ. अन्ना से रोचक संवाद हुआ। यहाँ की संस्कृति, लोकप्रचलन, रहन-सहन, जीवनशैली आदि की मोटा-मोटी जानकारी मिली।

साथ ही यहाँ की चाय की चर्चा जरुर करना चाहेंगे, जो कुछ सुखी जड़ी-बूटियों में उबलते पानी व कुछ शक्कर मिलाकर तैयार हुई थी। हम इसको यहाँ का विशिष्ट उपहार मानकर कुकीज के साथ गटकते रहे, हालाँकि स्वाद में यह हमारे बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। एसे अनुभव आगे भी होते रहे। ब्रेक के बाद यहाँ छात्र-छात्राओं से पुनः चर्चा होती है एवं ग्रुप फोटो के साथ आज का सत्र समाप्त होता है, इसके बाद हम मुख्य कैंपस में वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलते हैं, जिनसे पिछले कल हम उनकी थ्री-डी प्रिंटिंग लैब में मिल चुके थे।

वाइस रेक्टर, प्रो. मारेक मैको एक सज्जन, योगा अभ्यासी व्यक्ति हैं, जो पिछले दस वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनकी शाँत, धीर-गंभीर मुद्रा एक योगी का अहसास जगाती है और साथ ही इनकी सरलता, गंभीरता एवं प्रमुदता हमें कहीं गहरे प्रभावित करती है। अपने पद का अहंकार इन्हें कहीं छू तक नहीं पाया है, ये स्पष्ट झलकता रहा। यहीं आज का लंच इनके साथ होता है। शुरुआत अण्डे की स्लाइस से भरे सूप से होती है, जिसे देखकर हम चौंक जाते हैं, हमारे लिए यह मांसाहारी डिश बन गयी थी, जबकि ये इसे शाकाहारी मानते हैं। इसके स्थान पर दूसरी शाहाकारी डिश आती है और चाबल के साथ मिक्स वेज का लुत्फ लेते हैं, जो एक नया अनुभव रहा।

आज की शाम प्रो. क्रिस्टोफर के साथ बीती, जो यहाँ विजिटिंग प्रोफेसर हैं। प्रो. क्रिस्टोफर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय आ चुके हैं, और यहाँ के दो माह के प्रवास को अपने जीवन का रुपांतरणकारी अनुभव मानते हैं। ये अब पूरी तरह शाकाहारी हो गए हैं और परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री रामशर्माजी की दो पुस्तकों - हारिए न हिम्मत और मैं कौन हूँ, का पोलिश भाषा में अनुवाद कर चुके हैं।

इनके साथ शहर का भ्रमण करते हुए यहाँ के लोकप्रिय कॉफी हाउस पहुँचते हैं, जहाँ यहाँ की पारम्परिक कॉफी का स्वाद चखते हैं। इसमें विटामिन-सी से भरी खट्टी चैरी के दाने पड़े थे। चाय व कॉफी के साथ दूध डालने की परम्परा यहाँ नहीं है। यहाँ चाय हल्की, लेकिन कॉफी कडक रहती है, जिसमें शहद का उपयोग करते हैं। कॉफी के साथ चीज केक की व्यवस्था हुई, जिसमें शहद से सजावट दिखी। हवा में लटके फुलों से गमलों के बीच हमारा नाश्ता होता है, यहाँ के खान-पान व संस्कृति की चर्चा के साथ देवसंस्कृति की यादें ताजा होती हैं। यहाँ के प्राकृतिक परिवेश में विताए कुछ पल हमेशा याद रहेंगे।

बापसी में शहर के भव्य एवं विशाल चर्च के भी दर्शन किए, जहाँ ईसा मसीह के 14 फोटो दिवार में टंगे थे, जिसमें 14 ढंग से ईसा के आत्म-बलिदान के दृष्टांतों को दर्शाया गया था। रास्ते में पार्क में नॉबेल पुरस्कार विजेता, पोलिश साहित्यकार एवं पत्रकार हेनरिक सेन्कविच के दर्शन हुए व इनका परिचय पाया। इस तरह आज का दिन अकादमिक गतिविधियों से भरा रहा, जिसका शुभारम्भ ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन एवं समाप्न बिडगोश की पारम्परिक कॉफी के स्वाद के साथ हुआ।      बिडगोश में हमारा प्रवास अंतिम चरणों की ओर बढ़ रहा था। अगले ब्लॉग में प्रस्तुत है, पोलैंड यात्रा, भाग-8, अंतिम दिनों की कुछ दिलचस्प यादें।

मंगलवार, 26 मई 2020

यात्रा वृतांत – 6, पोलैंड का छिपा नगीना, तोरुण शहर


तोरुण के मध्यकालीन ऐतिहासिक शहर में...

आज का दिन हमारा बिडगोश शहर के पास के ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन का था। ज्ञात हो कि यह पोलैंड ही नहीं पूरे यूरोप का अपनी ऐतिहासिक विरासत को संजोए सबसे सुन्दर शहर माना जाता है। यह एक ऐसा सौभाग्यशाली शहर है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए ध्वंस एवं हवाई हमलों से बचा रहा। अतः इस की ऐतिहासिक इमारतों एवं समारकों का अपना विशिष्ट महत्व है, जो पौलेंड की मध्यकालीन संस्कृति की झलक देते हैं। अपनी ऐतिहासिक विशेषताओं के कारण तोरुण यूनेस्को द्वारा नामित विश्व की ऐतिहासिक धरोहरों में शुमार है, साथ ही प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक कॉपर्निक्स की जन्म एवं कर्मस्थली होने के कारण इस शहर का अपना महत्व है।
बिडगोश शहर से प्रातः नाश्ता कर हम तोरुण शहर के लिए निकल पड़ते हैं। काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी से काल्का मेडेम के पति प्रो. क्रिस्टोफ स्वयं ड्राईविंग कर रहे थे। वे कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। मितभाषी, स्वयं में मस्त-मग्न सरल स्वभाव के धनी प्रोफेसर साहब 100-120 किमी प्रति घंटे की गति के साथ गाड़ी को यहाँ की स्पाट, सुंदर सड़कों पर दौड़ा रहे थे। ट्रैफिक के नियम स्पष्ट होने के कारण शायद यहाँ ड्राइविंग सरल रहती होगी। गाड़ी की वायीं ओर ड्राईवर सीट हमारे लिए सदा की तरह नया अनुभव थी। रास्ता घने जंगलों, हरे-भरे खेतों एवं सुंदर गाँवों से होकर गुजर रहा था। बिडगोश शहर के बाहर निकलते ही विस्तुला नदी को पार करते हुए लगा जैसे गंगा नदी को पार कर रहे हैं।
यह नदी पोलैंड की सबसे लम्बी नदी है, जो पौलेंड के आर-पार 1047 किमी की यात्रा तय करते हुए बाल्टिक सागर में जा गिरती है। पौलेंड के दक्षिण की पर्वतश्रृंखलाओं से निकलने वाली इस नदी को पोलैंड की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान के रुप में देखा जाता है। तोरुण में पुनः इसके दर्शन होने वाले थे, जो इसके किनारे बसा हुआ ऐतिहासिक शहर है।
रास्ते में ही भव्य गिरिजाघर के दर्शन हुए, जो आधुनिक वास्तुशिल्प के साथ एक अलग ही नजारा पेश कर रहा था। एक घण्टे के सुखद सफर के बाद हम तोरुण के कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय के कैंप्स में पहुँच चुके थे, जहाँ हमें यहां की गाईड केरोलिना शहर का भ्रमण करवाती हैं। यहीं शहर में ही निर्मित ईँट से बने ऐतिहासिक भवन में प्रवेश से शुरुआत होती है, जिसके अन्दर नगरीय व्यवस्था की प्रारम्भिक प्रशासनिक एवं कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से बने भवन की जानकारी मिलती है।
इसी के मार्ग में गगनचूम्बी चार दिवारी में बने मध्यकालीन चर्च के दर्शन होते हैं। यहाँ मदर मेरी की प्रतिमा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे माँ भगवती के ही दर्शन हो रहे हों और प्रेम के प्रतीक भगवान ईसा मसीह की भव्य प्रतिमा बहुत सुंदर लग रही थी।
दिवार में संत भाई लारेंस के चित्र हमें इनके अगाध प्रभु प्रेम की याद दिलाते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा इन पर लिखी पुस्तक – भाई लारेंस के पत्र सहज ही स्मरण आईं, जो हर आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए पठनीय है। लगा सभी धर्म बाहरी रुप में भिन्न होते हुए, मूल भाव तो सबके एक ही हैं, जिन्हें एक आध्यात्मिक पिपासु होकर, खुले मन से विचार कर ह्दयंगम किया जा सकता है।
यहीं चौराहे पर खगोलविद कोपर्निक्स का समारक शहर का विशिष्ट आकर्षण लगा, जिसके सामने पर्यटकों की फोटो खिंचाने की होड़ लगी थी, हम भी एक यादगार फोटो के साथ आगे बढ़ते हैं। शहर के ही दूसरे छोर पर कोपर्निक्स की जन्म स्थली के भी दर्शन होते हैं, जो इनके समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हैं व अब यह भव्य भवन संग्रहालय के रुप में विकसित एवं संरक्षित है। मालूम हो कि कॉपर्निक्स ने सबसे पहले यह बताने की कोशिश की थी कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द घूमिती है, जो प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था। इससे पहले कि इनको कोई सजा होती, कॉपर्निक्स अपना शरीर छोड़ चुके थे।
यहीं चौराहे के उस पार एक स्टील का गधा बना हुआ दिखा, जिसके चारों ओर काफी भीड़ लगी थी। पता चला कि यह यहाँ की मध्यकालीन न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा था, जब अपराधियों को इसके ऊपर कई घण्टों बैठने की सजा दी जाती थी। इसकी पीठ पर कुछ सेमी ऊँची पट्टी लगी हुई है, जिस पर बैठना निसन्देह रुप में अपराधियों के लिए एक कष्टदायक अनुभव रहता रहा होगा।
यहाँ के ऐतिहासिक भवनों को पार करते हुए हम जिंजर-कूकीज की सजी दुकानों को देखते हुए आगे बढ़ते हैं, जिन्हें यहाँ के पारम्परिक आटे, शहद एवं विशिष्ट मसालों के साथ बनाया जाता है।
यह परम्परा चौदहवीं सदी से चल रही है, अतः तोरुण शहर की जिंजर कुकीज पौलेंड में विशेष दर्जा रखती हैं। यूरोप के व्यवसायिक मार्ग पर स्थित होने के कारण तोरुण की ये कूकीज पौलेंड एवं यूरोप के दूसरे हिस्सों में भी निर्यात होती रही हैं व हो रही हैं।
विस्तुला नदी भी शहर का एक प्राकृतिक आकर्षण है, जिसके तट पर यह बसा हुआ है। शहर को बाढ़ एवं बाह्य हमलों से संरक्षण देती ईंट की मोटी चार दिवारी को पार करते ही हम बिस्तुला नदी के सामने खड़़े थे। नदी का तट बहुत सुन्दर एवं भव्य लग रहा था, जिसमें छोटी नाव एवं बड़े स्टीमर चल रहे थे। स्पष्ट था कि नदी भी यहाँ यातायात का एक प्रमुख साधन है, जिसके माध्यम से व्यापार की बात हम कर चुके हैं।
शहर के एक कौने पर हमें झूकी मीनार के दर्शन होते हैं, जिसे पीसा की झुकी मीनार से भी अधिक प्राचीन माना जाता है औऱ लोग यहाँ खड़ा होकर स्वयं के पापी एवं पुण्यात्मा होनी की परीक्षा करते हैं। यदि मीनार के साथ खड़े होकर कुछ सैकण्ड टिककर खड़े हो सके तो पुण्यात्मा अन्यथा पापात्मा। इस परीक्षा में कोई विरला ही पास होता हो।
शहर का चप्पा-चप्पा मध्यकालीन वास्तुशिल्प की सुंदर स्मृतियों को समेटे हुए एक अलग ही अनुभव दे रहा था। यहाँ के गोइथिक शैली में बने भवन एवं एतिहासिक इमारतें अपनी अलग-अलग कहानी व्याँ कर रहे थे।
इसकी पारम्परिक साज-सज्जा में घर-आंगन एवं चौराहे पर रंग-विरंगे फूलों के गमलों की सजावट प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़़ी भव्य सांस्कृतिक परम्परा का अहसास दिला रही थी।
यहीं बीच में देशी जायके वाले रुबरु रेस्टोरेंट में हमारा दिन का भोजन होता है, जहाँ काल्का मेडेम और उनके पतिदेव प्रो. क्रिस्टोफ हमारा इंतजार कर रहे थे। रुचि के अनुकूल उनके लिए नोन-वेज भोजन आता है और हम शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।
यह बिडगोश के रुबरु होटल की ही श्रृंखला का विस्तार था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग चला रहे थे, लेकिन कुक नेपाल के भाई रोमेश थे, जिनसे मिलकर आत्मीयता का अहसास हुआ।
भोजन के बाद हम यहाँ की स्थानीय दुकानों से स्मृति स्वरुप कुछ उपहार खरीदते हैं, जो जलोटी में उचित दाम पर हमें मिले। गाइड केरोलिना के साथ भावभरी विदाई के साथ तोरुण के ऐतिहासिक शहर का यादगार सफर पूरा होता है। हालाँकि इतने कम समय में इस ऐतिहासिक शहर का एक विहंगावलोक ही हो सकता था, इसके विस्तार से दर्शन को भविष्य के लिए छोड़, हम हरे-भरे सुंदर मार्ग से होते हुए बापिस बिडगोश शहर आते हैं, जहाँ आकादमिक एक्सचेंज के कार्यक्रम सम्पन्न होने थे, जिसे आप अगली ब्लॉग पोस्ट, पोलैंड यात्रा, भाग-7 अकादमिक संवाद एवं पारंपरिक कॉफी का स्वाद, में पढ़ सकते हैं।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग 5


काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी कैंपस में पहला दिन


आज हमारा विश्वविद्यालय का पहला दिन था। अपने आवास से मुश्किल से आधा किमी पैदल चलकर हम विश्वविद्यालय गेट पर पहुँचते हैं। इसके साथ ही बोटेनिक्ल गार्डन सटा है, जो बाहर से देखने पर गगनचूम्बी वृक्षों एवं हरियाली से लैंस है। बीच-बीच में फूलों की क्यारियाँ अपनी सतरंगी छटा बिखेर रही थी। इसको फुर्सत में देखने व अवलोकन का मन बन चुका था। 
खेर अभी हम गेट से परिसर में प्रवेश करते हैं। विश्वविद्यालय का यह मुख्य परिसर है, जहाँ यूनिवर्सिटी का इंटरनेशनल रिलेशन विभाग स्थित है। विभाग की प्रमुख मेडेम अनिला से हमारी ऑफिशियल मुलाकात यहीं होनी थी। हालाँकि फोर्मल मुलाकाल पिछले कल उनके परिवार संग रुबरू रेस्टोरेंट में हो चुकी थी। उनकी सहयोगी मेडेम काल्का हमें यहाँ तक आने का रास्ता कल बता चुकी थी। इनसे भी मुलाकात होनी थी।
प्रकृति की गोद में बसा हुआ कैंपस बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। चेस्टनेट के पेड भी कतार में सजे मिले, रंग-बिरंगे फूलों के साथ क्यारियाँ सजीं थी। क्रिसमस ट्री एवं देवदार के पेड़ों के बीच यहाँ के पारम्परिक शैली में बने भव्य भवन नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का अनुभव दे रहे थे। अपने होस्ट से पहली ऑफिश्यल इंटरएक्शन की उत्सुक्तता स्वाभाविक थी।


बोटेनिक्ल गार्डन की साइड से युनिवर्सिटी कैंपस में प्रवेश होता है, हरे-भरे कैंपस के बीच पारम्परिक भवनों का संयोजन बहुत सुन्दर लग रहा था। यहाँ के शहरों की तरह कैंपस की स्वच्छता और सुव्यवस्था हर ओर नजर आ रही थी। भवन के चारों और तथा मार्ग में क्रिस्मस ट्री के छोटे-बड़े पौधे यहाँ की सुंदरता में चार-चाँद लगा रहे थे। प्रकृति की गोद में कैंपस की स्थिति हमें अपने घर का शीतल अहसास दिला रही थी। निश्चित रुप में इस ठण्डे इलाके में ऐसे वृक्ष किसी हिल-स्टेशन का अहसास दिला रहे थे।

अंतर्राष्ट्रीय संपर्क विभाग के भवन के गेट पर हमें चैरी का पेड़ मिला, जिसमें अभी चैरी के फूल झड़ चुके थे, नन्हीं-नन्हीं चैरियाँ हरे पत्तों के बीच से झाँकती दिख रहीं थी। रास्ते के दोनों ओर रंग-बिरंगे सुंदर फूल खिले थे। भवन में प्रवेश के बाद दूसरी मंजिल पर हम कमरे में प्रवेश करते हैं। मेडेम काल्का से मुलाकात होती है, वे अपनी बॉस अनिला मेडेम से उनके चैंबर में मिलवाती हैं। गर्मजोशी के साथ स्वागत होता है। मैडेम एनिला एक डायनमिक लेडी हैं, साथ ही मस्तमौला एवं व्यवहारकुशल। ये देवसंस्कृति पधार चुकी हैं व मुलाकात से यहां से जुड़ी पुरानी यादों को आज ताजा अनुभव कर रही थी। 
फिर काल्का मेडेम हमें अपनी गाड़ी में बिठाकर स्थानीय बैंक तक ले जाती हैं, जहाँ इरेस्मस स्कोलर्शिप की राशि को इनकैश किया जाना था।

शहर की सुंदर सडकों के बीच हम कुछ ही मिनट में कई चौराहों को पार करते हुए शहर के एक एकांतिक छोर तक पहुँच चुके थे, जिसके दायीं ओर ट्रेन रुट था व बीच में चीड़ के घने जंगल, जिनका जिक्र हम बिडगोश हवाई पट्टी पर कर चुके हैं। हमें इसकी सघन हरियाली खासी मनभावन एवं प्रशांतक लगी। थोड़ी ही देर में एक नवनिर्मित भवन के सामने पार्किंग में गाड़ी रुकती है। भवन यहाँ का बैंक था। भवन के अंदर खिड़कियों में लगे बड़े-बड़े सीसों से बाहर का प्राकृतिक नजारा स्पष्ट दिख रहा था। भवन का प्रकृति के साथ इतना सुंदर संयोजन हमें अंदर से आल्हादित कर रहा था।
देख हम सोचते रहे कि भारतीय शहरों में हम इस मामले में कितने लापरवाह रहते हैं। हमारे शहरों व कस्वों के भवन निर्माण में प्रकृति, हरियाली, पेड़ों के लिए कोई स्थान नहीं रहता। यहाँ भवन के अंदर जो स्पेस दिया गया था व जो स्वच्छता दिखी, लगा अध्यात्म का पहला पाठ – स्वच्छता एवं सुव्यवस्था यहाँ के लोग सीख चुके हैं। बस इनको आगे की गहराई में उतरना बाकि है।
बैंक से पैसा निकालने के बाद हम वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलने बाले थे। इनके दर्शन हम देवसंस्कृति विवि में कर चुके थे, जब से पूरे डेलीगेशन के साथ दो-तीन साल पहले आए थे। धीर-गंभीर, ऊँचा कद, सुगठित शरीर एवं एक जेंटलमेन लुक – अक्स अभी ही हमारे जेहन में था। आज किस रुप में इनसे मुलाकात होने वाली है, उत्सुक्तता थी। क्योंकि वाईस रेक्टर हमारे यहाँ के वाईस चांस्लर जैसा सीनियर अकादमिक पद होता है।
इनसे हमारी मुलाकात विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग एवं कम्प्यूटिंग कैंपस में होती है। जब हम भवन में पहुँचे तो प्रो. मैको प्रयोगशाल में यहाँ के वैज्ञानिकों के साथ काम कर रहे थे।
अपनी बर्दी में सफेद गाउन ओढ़े एक वैज्ञानिक, एक जैंटलमेन अपनी मासूम मुस्कान के साथ सामने खड़ा था व गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत कर रहा था। ये वैज्ञानिक के साथ एक योगी भी हैं, जो कई वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनसे मिलने के बाद समझ में आया कि यहाँ शोध को कितना महत्व दिया जाता है। प्रयोगशाला में ये अकादमिक अधिकारी नहीं होते, एक वैज्ञानिक की भाँति दतचित्त होकर अपने अनुसंधान में अपने छात्रों एवं सह वैज्ञानिको के साथ कुछ नए अन्वेषण में मग्न होते हैं।

इस बक्त इनका थ्री–डी प्रिंटिंग को लेकर महत्वपूर्ण प्रयोग चल रहे था, जिसे ये स्थानीय अस्पताल में दिव्यांग बच्चों की आवश्यकता को देखते हुए तैयार कर रहे थे। ऐसे ही इन्होंने तमाम सफल प्रयोग दिखाए जिन्हें चिकित्सा  से लेकर शिक्षा एवं इंडस्ट्री की माँग के हिसाब से तैयार किया गया था। बाद में पता चला कि प्रो. मैको अपनी फील्ड के जाने-माने वैज्ञानिक हैं व पौलेंड में अपने विषय़ के शीर्ष वैज्ञानिक एवं शोधकर्ता के रुप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी कार्य एवं व्यक्तित्व में हमें वैज्ञानिक अध्यात्म की झलक मिल रही थी, जहाँ एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि एवं मूल्यों के साथ शोध में संलग्न होता है तथा एक योगी एक वैज्ञानिक सी प्रयोगधर्मिता के साथ सत्य का शोध-अनुसंधान कर रहा होता है।
प्रयोगशाला में इनके कार्य को देखने के बाद हम इनके विभागीय ऑफिस में गए। जबकि इनका वाईस-रेक्टर के ऑफिस में इनसे मुलाकात कल होने वाली थी, जहाँ इनके साथ लंच का भी प्रावधान रखा गया था।

प्रो. मैको से मुलाकात के बाद हम यहाँ के सबसे बड़े माल में जाते हैं, जो कई मंजिला था। इसमें शायद ही कुछ ऐसा हो जो यहाँ न मिलता हो। यहाँ एक काउँटर पर करेंसी एक्सचेंज करते हैं, क्योंकि जो पैसे बैंक से निकाले थे, वे यूरो में थे, जबकि यहाँ खर्च के लिए हम पोलैंड की करेंसी ज्लोटी में आवश्यकता थी। कार पार्किंग तक आते-आते हम मॉल का विहंगावलोकन करते रहे, जहाँ अगले दिनों फुर्सत में एक दिन यहाँ आकर यहाँ से कुछ परचेजिंग करनी थी।
मैडेम काल्का का पग-पग पर अपनी गाड़ी में कैंपस का भ्रमण एवं आवश्यकताओं का ध्यान हमें गहरे छू रहा था। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं निष्ठ काल्का मैडेम हमें एक सुगड़ महिला प्रतीत हुई, अपने केयरिंग एवं जेंटल अंदाज के साथ बड़ी बहन जैसा फील दे रही थी, हालांकि उम्र में शायद वो हमसे छोटी ही रही होंगी।
बापसी में काल्का मैडेम हमें बोटेनिक्ल गार्डन पर उतारती हैं, जिसे देखने की इच्छा हम प्रातः जाहिर कर चुके थे। गेट में प्रवेश करते ही पहले कृत्रिम झील के दर्शन होते हैं, जिसके किनारे पेड़ के कटे ठूंठों की सुंदर बैठकें बनी थी। झील के किनारे व झील में पक्षी चहचहा रहे थे।
गगनचूम्बी देवदार के वृक्षों के बीच यहाँ का एकांत-शांत परिवेश हमें स्वर्ग का अहसास दे रहा था। पार्क के हर कौने में फूलों से लदी झाड़ियाँ हमारा स्वागत कर रही थीं। एक क्यारी में नीले फूलों के गुच्छ हमारे हिमाचल में उगने वाले फूलों की याद दिला रहे थे, जिसके नीले खुशबूदार गुच्छे हमें बचपन में प्रमुदित करते थे।
कुछ फूल तालाब में सजे थे, तो छोटे आर्किड के फूल अपनी ही रौनक बिखेर रहे थे। बुजुर्ग, युवा एवं बच्चे सभी पार्क में घूम रहे थे व यहाँ के एकांत-शांत एवं शीतल परिवेश का आनन्द ले रहे थे।
इस तरह आज का हमारा सफर पूरा होता है। बापसी में रास्ते के स्टोर से आवश्यक फल सब्जी, दूध एवं ब्रेड आदि लेते हैं व अपने विश्रामस्थल पहुँचते हैं। कल विभाग में परिचय एवं प्रेजन्टेशन का क्रम शुरु होना था और फुर्सत के पलों में पड़ोस के ऐतिहासिक शहर तोरुन के दर्शन भी करने थे, जो महान वैज्ञानिक कोपर्निक्स की जन्म स्थली एवं कार्यभूमि रहा है।
    अगली ब्लॉग पोस्ट यहाँ के यात्रा वृतांत, पोलैंड का छिपा नगीना - तोरुण शहर को पढ़ सकते हैं।

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