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रविवार, 30 सितंबर 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - मौसम का बदलता मिजाज और बारिश का कहर

प्रकृति के रौद्र रुप में निहित दैवीय वरदान


वर्ष 2018 की वरसात कई मायनों में यादगार रहेगी, अधिकाँशतः प्रकृति के लोमहर्षक कोप के लिए। अगस्त माह में भगवान के अपने घर – केरल में बारिश का करह, 80 बाँधों से एक साथ छोड़ा जा रहा पानी, जलमग्न होते लोकजीवन की विप्लवी त्रास्दी। सितम्बर माह के तीसरे सप्ताह में देवभूमि कुल्लू में तीन दिन की बारिश में प्रकृति प्रकोप का एक दूसरा विप्लवी मंजर दिखा, जिसने ऐसी तबाही की 25 साल पुरानी यादें ताजा कर दी।

     इन सब घटनाओं के पीछे कारणों की पड़ताल, इनमें मानवीय संवेदना के पहलु, यथासम्भव मदद और आगे के सबक व साबधानियां अपनी जगह हैं, लेकिन चर्चा प्रायः इनके नकारात्मक, ध्वंसात्मक पहलुओं की ही अधिक होती है। मीडिया हाईप को इममें पूरी तरह से सक्रिय देखे जा सकता है, जो इसका स्वभाव सा बन गया है। सोशल मीडिया पर अधिक हिट्स, तो टीवी में टीआरपी की दौड़। हालाँकि अखबारों में ऐसी संभावनाएं कम रहती हैं, लेकिन इनकी हेडिंग्ज में भी तबाही का ही मंजर अधिक दिखता रहा, पीछे निहित दैवीय वरदानों पर ध्यान नाममात्र का ही रहा।


     कुल्लू घाटी में 3 तीन तक बरसे लगातार पानी से क्षेत्र के नालों में पानी भर गया था, ऐसे में नदियों का फूलना स्वाभाविक था। इस पर बादल फटने की घटनाओं ने स्थिति को ओर विकराल स्वरुप दिया। मनाली, सोलांग घाटी के आगे धुंधी में बादल फटने की घटना घटी, तो दूसरी कुल्लू मनाली के बीच कटराईं के पास फोजल-ढोबी इलाके में, जिस कारण सामान्यतः शांत रहने वाली व्यास नदी ने रौद्ररुप धारण किया। रास्ते में जो भी इसकी चपेट में आता गया, सब इसकी गोद में समाता गया।

     मनाली के समीप प्राइवेट बस स्टैंड़ से वोल्बो बस के डूबने का लोमहर्षक दृश्य इस भयावह त्रास्दी का प्रतीक बना। इसके साथ नदी की धारा में बहता ट्रक ऐसी ही दूसरी घटना रही। रास्ते में कई पुल बहे, कई जगहों से सड़कें ध्वस्त हो गयी। कुल्लू से मानाली के बीच शुरुआती दौर में यातायात ठप्प रहा। कुल्लू-मनाली के बीचों-बीच राइट और लेफ्ट बैंक को जोड़ने वाले पतलीकुलह-नगर पुल का एक हिस्सा बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। फिर ढोबी का पुल बड़े बाहनों के लायक नहीं रहा। लुग्ड़ी भट्टी-छरुहड़ू के बीच का लेफ्ट बैंक रुट का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से गायब हो गया। इस कारण लेफ्ट बैंक से किसी तरह की यातायात की संभावनाएं सप्ताह भर बंद रहीं। हालांकि अब यह रुट कामचलाऊ रुप में शुरु हो चुका है।
इस बीच छोटे बाहनों के सहारे सेऊबाग पुल और रायसन पुल यातायात के लिए लाईफलाइन की तरह काम करते रहे। लेकिन अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम और हल्के पुलों पर अत्यधिक भार के चलते इनकी भी सीमाएं स्पष्ट होती गयी। फिर सेऊबाग पुल भी आधा क्षतिग्रस्त अवस्था में रहा। इस बीच रास्ते में कई जगहों से टुटे लिंक रोड़ के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
इसी बीच कुल्लू-मनाली में जब बारिश हो रही थी, यहाँ की ऊँचाईयों में व कुल्लू-मनाली के आगे रोहतांग दर्रे के उस पार लाहौल-स्पीति क्षेत्र में बर्फवारी हो रही थी। इस बेमौसमी बर्फवारी के कारण यहाँ की दुश्वारियाँ अलग रुप लेती हैं। लेट सीजन में यहाँ तैयार होने वाली सेब की फसल को इससे भारी नुकसान पहुँचा। सेब के फलदार वृक्षों पर बर्फ लदने के कारण पेड टूटने लगे। इस बेमौसमी बर्फवारी ने मौसम परिवर्तन की वैश्विक स्थिति व इसके दुष्परिणामों को स्पष्ट किया।
कूपित प्रकृति के इन दुष्प्रभावों व नुकसान के असर, इनके कारण, संभव निराकण आदि पर भी चर्चा होती रही। कई लोग नुकसान को लेकर ही चिल्लाते रहे, मीडिया इसे हाईप देता रहा। कभी न भरने वाले जख्म दे गयी यह बरसात, जैसी हेडिंग्ज के साथ अखबार एक तरफा व्यान देते रहे। टीवी एवं सोशल मीडिया पर इसके एक तरफा हालात व्याँ करते वीडियोज व पोस्ट को देखा जा सकता है।
लेकिन इन सबके बीच प्रकृति के रौद्र रुप के पीछे निहित दैवीय वरदानों का जिक्र न के बरावर दिखा। पीड़ित लोगों के कष्ट एवं व्यथा के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, प्रकृति के इन वरदानों का जिक्र भी जरुरी हो जाता है, जिससे अनावश्यक पैनिक पैदा करने की जगह स्थिति की सम्यक समझ विकसित हो सके।
जो सबसे बड़ा वरदान इस बारिश का रहा, वह था पानी के सूखते प्राकृतिक जल-स्रोतों का रिचार्ज होना। गाँव की ही बात करें, तो पिछले कई वर्षों से गाँव के नाले को देखकर चिंतित था। साल भर जो नाला कभी निर्बाध रुप में नदी तक बहता था, वह पिछले कई सालों से इस दौरान सूखा दिखता। इस बार बारिश के बाद दनदनाते हुए नदी तक बह रहे नाले को देखकर सुखद आश्चर्य़ हुआ। वहीं इस पर बना झरना, जिसको देख पिछले कई सालों से मायूसी छाई थी, अपने पूरे श्बाब पर झरता दिखा।
समझ में आया कि जितने जल की मात्रा को हम लाखों पेड़ लगाकर तैयार कर पाते, उससे कई गुणा अधिक जल यह बरसात वरदान के रुप में कुछ दिनों में दे गई। सूखते जलस्रोतों का रिचार्ज होना एक कितना बड़ा उपहार है, इसको पानी पीने से लेकेर सिंचाई के लिए तरस रहे आम इंसान व किसान भली-भांति समझ सकते हैं। फिर करोड़ों-अरबों की बन संपदा को ऐसी बारिश जो प्राण सींचन करती है, उसका अपना महत्व है।
इस बीच प्रकृति का अदृश्य न्याय देखने लायक रहा। इस दौरान आधा जल बर्फ के रुप में पहाड़ों में जमता गया और आधा बारिश के रुप में। यदि सारा जल बारिश के रुप में बरसता तो शायद तबाही का मंजर और अधिक भयावह होती। दूसरा जमी बर्फ के कारण सिकुड़ते ग्लेशियर पुनः रिचार्ज हुए। इनसे निकलने वाली हिमनदियों का जल अब साल भर निर्बाध रुप में बहता रहेगा, यह एक दूरा वरदान रहा।
इस तरह इस प्राकृति त्रास्दी में हुए नुक्सान के साथ प्रकृति के इन उपहारों को भी समझने की जरुरत है। इन दूरगामी फायदों की समझ तात्कालिक हानि के गम पर मलहम का काम करती है। साथ ही प्राकृतिक त्रास्दियों के मानव निर्मित कारणों को समझने, पकड़ने व इनके निराकरण के प्रयास जरुरी हैं। प्रकृति का रौद्र रुप हमारी जिन इंसानी वेबकूफियों को उजागर करता है, उनसे सबक लेने की जरुरत है। 
प्रकृति मूलतः ईश्वरीय विधान से चलती है, उसके अनुशासन को समझने व पालने की जरुरत है, ताकि हम इससे सामंजस्य बिठाकर रह सकें व इसके कोप-दंड़ की वजाए इसके वरदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

सोमवार, 30 जुलाई 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - यादें बरसात की।


सावन का महीना - शिव के संग प्रकृति की रौद्र स्मृतियां

बरसात का मौसम हर वर्ष एक वरदान की तरह धरती पर आता है, जब मई-जून की अंगार बरसाती गर्मी के बाद आकाश में बादल मंडराते हैं। प्यासी धरती की पुकार जैसे प्रकृति-परमेश्वर सुनते हैं, झमाझम बारिश होती है। तृषित धरती, प्यासे प्राणियों की प्यास शांत होती है। बारिश की बौछारों की आवाज, हल्की बारिश की संगीतमयी थाप के साथ सकल सृष्टि जैसे दिव्य सुरों में सज जाती है।
इन सबके साथ घर से दूर, पहाड़ों में बिताए बचपन की यादें बरबस ताजा होती हैं, बादलों की तरह चिदाकाश पर उमड़ती-घुमड़ती हैं और झमाझम बरस कर अंतःकरण में एक सुकूनभरा, रामाँचक एवं रुहानी सा भाव जगा जाती हैं, जिसको शब्दों में बाँधना कठिन है।
वरसात का यह मौसम हर वर्ष गर्मी और सर्दी के बीच की संधि वेला के रुप में आता है। प्रकृति ताप के हिसाब से न अधिक गर्म होती है न अधिक सर्द। पहाड़ों पर मंडराते आवारा बादल के टुकड़ों को देख मन भी उनके साथ घाटी की उड़ान भरने लगता है। पूरी घाटी कभी-कभी इनके आगोश में ढक-ढंप जाती है, तो कभी इक्का-दुक्के बादल के फाए घाटी में इधर-उधर मंडराते एक अलग ही दुनियाँ का नजारा पेश करते।

विशेषकर दर्शनीय रहता है हवा के साथ तैरता धुंध का नजारा, जो पूरी घाटी में छाकर घर-घाटी, पर्वत, शिखर व समस्त प्राणियों को छूकर गुजर रहा होता है। ऐसे में बादलों के आगोश में जिन पथिकों को पहाड़ियों की गोद में विचरण का दुर्लभ अवसर मिलता है, उनके भावों की अनुभूति वर्णन करना कठिन है, जिसे महज अनुभव ही किया जा सकता है। पहाड़ी घर की छत या बाल्कनी में बैठकर घाटी के आर-पार बादलों के बदलते रुप-रंग, चाल-ढाल को निहारना जैसे प्रकृति के वृहद कैन्वस में कई पात्र, भाव व घटनाओं के साथ पर्दे के पीछे उस महाकलाकार की अवर्णनीय लीला का प्रत्यक्ष दर्शन करने जैसा होता है।

सबसे सुखद रहता मधुर थाप के साथ बारिश का बरसना। इसके साथ छत पर, बाहर वृक्षों की पत्तियों पर, जमीं पर, मैदान पर और सकल पृथ्वी के आवरण पर एक नूतन संगीत गूँजता। बाहर निकलने पर जिसके अभिसिंचन का भाव चित्त को पावन कर देता। लगता जैसे प्रकृति की अजस्र कृपा पानी की असंख्य बूदों के साथ धरती सहित पथिक पर बरस रही हैं और इसके साथ स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर एक नयी चैतन्यता के साथ तरंगित हो रहे हैं। खासकर धरती की गर्भ में बोए बीजों, अंकुरित हो रही फसलों व वृक्षों में पनप रहे फलों के लिए यह बारिश अमृत सा फलदायी होती, किसान को जिसका बेसब्री से इंतजार रहता।


लेकिन प्रकृति के इस सौम्य एवं मोहक रुप के साथ इसे रौद्र रुप के भी दर्शन यदा-कदा होते रहते। कौंधती बिजली के साथ बादलों की गड़गड़ाहट और बारिश की तेज बौछारें प्रकृति के इस रुप की झलक देते। इनका प्रहार कभी बज्र सा कठोर, लोमहर्षक व भयावह लगता। हवा के तीव्र वेग के साथ इसका संयोग एक अलग ही नजारा पेश करता। पूरी घाटी जैसे सांय-सांय की आवाज के साथ सीटी मारते हुए गूँजती। कभी-कभी इसके साथ ओलों की मार फसल व फलों पर कहर बरपा देती। अचानक बारिश के साथ पहाड़ी नदी व नाले फूल जाते, इनकी जलराशी कई गुणा बढ़कर घाटी में स्थिति को विकराल कर देती, जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती।

घर के सामने ही घाटी के उस पार के तीन-चार नालों के दिग्दर्शन पूरी आभा, वेग व उफान के साथ होता, जो प्रायः साल के बाकि समय शांत रहते। अपनी घाटी की ओर के कझोरा नाला, ध्रोगीनाला, सयो नाला, बरींडू नाला, काईस नाला आदि के बरसाती मौसम के भयावह मंजर हम यदा-कदा देखते रहते। इनमें सयो नाला अपनी बनावट के कारण सबसे मजबूत तटबंध लिए होने के कारण सारी जल राशि अपने में समेटे रहता।
इसका प्रख्यात स्यो-झरना बरसात में देखने लायक होता। इसकी गर्जन-तर्जन से पूरा गाँव गूँज उठता। प्रायः स्कूल के दिनों में इसके पार के गाँव के विद्यार्थी पार नहीं कर पाते। अतः नाले के उफान के दिनों में अघोषित छुट्टी रहती। हालाँकि अब तो पुल बन चुके हैं, तब पत्थरों के ऊपर या छोटी पुलिया के सहारे इसको पार किया जाता था।

कझोरा नाले का बरसाती मंजर हम एक बार देख चुके हैं, जब इसके मलबे से गाँंव का खेल मैदान पट गया था। किसी जान-माल का नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन इसका मलबा घरों व खेतों में घुस गया था। इसी तरह ध्रोगी नाला के रात में बरपे कहर के दिगदर्शन हम सुबह वहाँ जाकर किए थे। इसका तटबंध मजबूत न होने के कारण सारा मलबा घरों व खेतों में घुस आया था और तबाही का मंजर कुछ ऐसा था कि कुछ मवेशी बहकर ब्यास नदी तक पहुँच गए थे। हालाँकि इंसान समय से पहले बाहर निकल कर सुरक्षित थे। इसके चलते लेफ्ट बैंक का हाईवे पूरे दिन ठप्प हो गया था।

ऐसे ही नालों की तरह कुल्लू-मानाली घाटी की जल रेखा ब्यास नदी में सावन के चरम पर तबाही की यादें ताजा हैं, जब ब्यास नदी के उद्गम स्थल की ओऱ से कहीँ बादल फटा था  और साथ में लैंड स्लाईड हुआ था, जिसमें बांहंग विहाली का नक्शा बदल गया था। तब बादल फटने की घटनाएं न के बराबर होती थी और यह शब्द भी अनजाना था। शायद यह उस बक्त के मूक मीडिया का भी असर था। दूरदर्शन का युग था। सोशल मीडिया तो दूर प्राइवेट न्यूज चैनल तक सही ढ़ंग से शुरु नहीं हुए थे। अतः ऐसे में इन घटनाओं के कारण व प्रभाव का विस्तार से सटीक जानकारी नहीं मिल पाती थी। अखबार भी घर पर नियमित रुप से नहीं आते थे। मुंहजुबानी सुनने पर पता चलता की बांहंग की पूरी विहाल बह गयी है, जिससे रास्ते भर के पेड़, लकड़ियाँ व कुछ संख्या में जानवर व वाहन भी व्यास नदी के उफान के बीच बहते हुए दिखते। ऐसे में लकड़ियों को इकट्ठा करने वालों का न्जारा विशेष रुप में दर्शनीय रहता। सुबह पुल के पार स्कूल जाते समय इसकी तबाही का मंजर पता चलता। यहाँ भी ब्यास नदी के किनारे बाढ़ के उफान के चलते रास्ते में पानी की छोटी-बड़ी नहरें बन चुकी होती।

लेकिन कुल मिलाकर बरसात में बचपन के पहाड़ों की ये घटनाएं लोक-जीवन का एक अभिन्न अंग प्रतीत होती। हालाँकि कभी भी भारी बारिश में अप्रत्याशित घटना की आशंका बनी रहती, लेकिन इनकी आवृति विरल ही रहती। तब आबादी का दबाव भी इतना अधिक नहीं था कि कहीं भी घर-मकान व दुकान-होटेल खड़े मिलते। प्रकृति के साथ इतनी छेड़खान नहीं हुई थी। वैश्विक स्तर पर भी पर्यावरण संतुलन बेहतरीन था। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में विकास के नाम पर इंसान ने प्रकृति के साथ पर्याप्त छेड़खान की है, इसके साथ अमानवीय व्यवहार हुआ है। पहाड़ों का सीना चीर कर सड़कों का जाल बिछता गया। वृक्षों का अंधाधुंध कटाव हुआ। इसके साथ विश्वस्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम का बदलता मिजाज भी अपना असर दिखा रहा है। जिस कारण हर वर्ष अप्रत्याशित घटनाओं में इजाफा हो रहा है।

इस साल इसका प्रभाव पहाड़ी क्षेत्रों में स्पष्ट रहा। एक ओर जहाँ अत्यधिक बारिश होती रही, वहीं कुछ इलाके बारिश से वंचित ही रहे। यहाँ के हालात बरसात में सूखाग्रस्त क्षेत्र जैसे थे, जिसके चलते फलों के नए पौंधों के सूखने की तक नौबत आ गयी थी। नमी के अभाव में फल पूरा आकार नहीं ले पाए। इसी के साथ कई क्षेत्रों में बारिश की अति ने व्यापक स्तर पर बादल फटने से लेकर भूस्खलन के साथ भारी तबाही मचाई। घर से दूर रहकर मीडिया हाईप के बीच सुनकर ऐसे लगता रहा जैसे पहाड़ी इलाकों में बरसात का मंजर लगातार जारी है। कुछ क्षेत्र विशेष की घटनाएं पूरे प्रांत पर लागू होती रहीं।
प्रभावित क्षेत्रों के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए ध्यान देने योग्य बातें हैं कि विकास के नाम पर प्रकृति के साथ हम कैसा रवैया अपना रहे हैं, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने के लिए कितना तैयार हैं। क्योंकि सावन सनातन धर्म में भगवान शिव का माह है, कूपित प्रकृति के रुप में शिव के रौद्र रुप और प्रकृति के काली तत्व के लोमहर्षक प्रहारों से इंसान नहीं बच सकता। आवश्यकता प्रकृति के माध्यम से झर रहे परमेश्वर तत्व को समझने व उसके अनुशासन का पालन करने की है, जिससे हम प्रकृति के कोप की बजाए इसके दिव्य संरक्षण व अनुदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

बुधवार, 20 जून 2018

यात्रा वृतांत – हरियाली माता के देश में, भाग-2



जंगलीजी का मिश्रित वन – एक अद्भुत प्रयोग, एक अनुकरणीय मिसाल

जगत सिंह जंगलीजी स्वयं स्वागत के लिए सड़क पर खड़े दिखे। उनकी व्यस्तता के बीच हमें उम्मीद नहीं थी कि आज मिल पाएंगे, लेकिन इन्हें प्रत्यक्ष देखकर व इनके आत्मीय स्पर्श को पाकर हम सब भावविभोर हुए। हाथ में देवदार व रिंगाल की ताजा हरि पत्तियों से इनका किया गया भावपूर्ण स्वागत ताउम्र याद रहेगा।
यहाँ सड़क के ऊपर और नीचे दो अलग-अलग संसार व विचार से अवगत हुए। सड़क के ऊपर था बन विभाग का चीड़ के वृक्षों से अटा जंगल और सड़क के नीचे था जंगली जी का लगभग 60 किस्मों के वृक्षों से जड़ा 4 हेक्टेयर में फैला मिश्रित बन। सड़क के ऊपर के जंगल गर्मी में किसी भी दिन एक चिंगारी दावानल का रुप लेकर पूरे जंगल, व वन्य जीवन को स्वाहा कर सकती थी, जबकि नीचे के हरे-भरे जंगल में ऐसी विभीषिका की संभावना न के बरावर थी।
सड़क से नीचे सीढ़ी दार ढलान से उतरते ही हम जंगलीजी के अद्भुत जंगल में प्रवेश कर चुके थे। जिसकी शीतल छाया, बह रही ठंड़ी हवा, रास्ते में स्वागत करते नन्हें से लेकर मध्यम व बड़े पेड़ और सबसे ऊपर बन प्रांतर की नीरव शांति – लग रहा था जैसे हम प्रकृति की गोद में किसी तीर्थ स्थल में आ गए हैं।
और इसमें अतिश्योक्ति भी कैसी, जिसमें एक व्यक्ति के चार दशकों से अधिक समय का तप लगा हो, उस जंगल का जर्रा-जर्रा प्रकृति प्रेम का एक संदेश देता प्रतीत हुआ। देखकर लग रहा था कि इंसान यदि ठान ले व प्रकृति के साथ जुड़कर निष्काम भाव से काम में जुट जाए तो कुछ भी असंभव नहीं। 
इस मिश्रित वन में जितनी तरह के प्रयोग चल रहे हैं, इसके जो  लाभ हैं, वे अद्भुत हैं, और यह प्रयोग एक अनुकरणीय मिसाल हैं, इसमें आज की पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं के समाधान निहित हैं।
दुर्लभ पेड़ – लगभग 4500 फीट की ऊँचाई पर बसाए गए इस जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार किया गया है कि इसमें 7000 से लेकर 9000 फीट की ऊँचाई के पौधे व जड़ी-बूटियाँ भी बखूबी पनप रही हैं। देवदार, भोजपत्र, बाँज से लेकर थनूर या रखाल(टेक्सस बकाटा) के पौधे यहाँ बढ़े हो रहे हैं। पहाड़ी कुटीर उद्योग की रीढ़ रिंंगाल (जो प्रायः आठ हजार फीट की ऊँचाई का पौधा है) यहाँ बखूवी बढ़ रहे हैं। आकाश छूता चीन का वाँस का जंगल यहाँ अपनी अनुपम उपस्थिति के साथ यात्रियों कोकरता है। वाँस की पौधा अपने तमाम औषधीय एवं अन्य गुणों के साथ अपने लचीलेपन व मजबूती के विरल संगम के लिए जाना जाता है, जिनके इंसानी जीवन में महत्व को भलीभांति समझा जा सकता है।

कीमती जड़ी-बूटियाँ – जंगल की तली में जड़ी-बूटियों को उगाया गया है। ईलाइची, तेजपत्र से लेकर चाय पत्ति जैसी तमाम तरह की उपयोगी जड़ी-बूटियाँ व झाड़ियाँ यहाँ पनप रही हैं। अदरक, हल्दी तो यहाँ जमीं के नीचे क्विंटलों की तादाद में लगा रखी हैं, जो अगले दिनों अपने ऑर्गेनिक गुणों के कारण खासी आमदनी देने वाली हैं। कुल मिलाकर वन आर्थिक स्वाबलम्बन का स्रोत्र भी हो सकता है, यहाँ आकर बखूबी देखा व समझा जा सकता है।
तैयार हो रहा माइक्रो क्लाइमेट – इसके साथ स्टोन एवं वुड टेक्नोलॉजी के साथ झूलते पत्थरों व वाँस के डंड़ों में फर्न व आर्किड जैसे छोटे पौधे लगाए गए हैं, जो हवा के साथ नमीं को वायुमंडल में घोलते हैं। इससे जंगल के वायुमंडल में एक नमीं व ठंड़क बनी रहती है, जो बहती हवा के साथ जंगल व परिवेश में एक माइक्रो क्लाइमेट को तैयार करती है। ऊँचाई के पौधों का यहाँ पनप पाना ऐसे ही प्रयोगों के चलते संभव हो पा रहा है।

     आज जब हमारे शहर से लेकर कस्वे गर्मी से तप रहे हैं, दिल्ली जैसे शहर गैस चेंबर का भयावह रुप ले चुके हैं, ऐसे में मिश्रित वन का यह प्रयोग एक अनुकरणीय मिसाल है, जिसका अपने-अपने ढंग से हर स्तर पर प्रयोग किया जा सकता है। घरों की छत पर, आंगन में, बाल्कोनी में अपने मुहल्ले में, पार्क में हम छोटे से लेकर मध्यम पौंधों को लगाकर आवश्यक वायुमंडल निर्मित कर सकते हैं।
अमृत जल स्रोत – जंगली जी के प्रयोग का एक अद्भुत फल दिखा, वन के नीचे शुद्ध,  स्वादिष्ट व निर्मल जल का स्रोत, जो जंगल के बीचों बीच फूटा है। इसको पीकर लगा जैसे इस तीर्थ के अमृत प्रसाद का पान कर रहे हैं। इस शीतल जल के सामने मिनरल वाटर फीका है। सूखते जल स्रोतों के दौर में यह प्रयोग एक प्रेरक मिसाल है कि अधिक से अधिक संख्या में उपयुक्त पौधों व झाड़ियों का रोपण कर व मिश्रित वन को प्रश्रय देकर हम जल संकट की विभीषिका से लड़ सकते हैं।

जंगली जी के शब्दों में जितना हम मिश्रित वन लगाएंगे, उतनी ही हमारी जेैव-विविधता बचेगी व उतना ही हमारा प्रकृति-पर्यावरण संतुलन सधेगा। बिना इसके गंगा व हिमालय के संरक्षण की बातें बेमानी ही बनी रहेंगी।
इसके साथ यहां पिट्स टेक्नोलॉजी का प्रयोग दिखा, जिसके तहत बन के पत्तों व कचरे को गढ़ों में दबाकर आर्गेनिक खाद तैयार की जा रही है।
पशु-पक्षियों का आश्रय स्थल – वन में इतनी तरह के वृक्षों के साथ एक ऐसा वातावरण तैयार है, जहाँ पशु-पक्षी तक आश्रय पाने के लिए आतुर हैं। लगता है वो भी इसके सूक्ष्म वातावरण की शांति व सुकून को महसूस करना चाहते हैं। लगभग 150 से अधिक पक्षियों का यह जंगल बसेरा है, जिनमें कई माइग्रेटरी पक्षी भी हैं, जो एक खास सीजन में यहाँ आते हैं।
यहाँ वन की छाया में चाय-पकौड़ी के नाश्ते के साथ किया स्वागत हमें याद रहेगा। इसी बीच लम्बी पूँछ बाले पक्षी का विशेष ध्वनि के साथ आगमन एक अद्भुत दृश्य था। जो देव राघवेंद्रजी के अनुसार, दूसरे पक्षियों को निमंत्रण था कि यहाँ दावत चल रही है, आप भी आ जाइए।
पक्षियों की भाषा व व्यवहार पर भी यहाँ अनुसंधान चल रहा है। जंगली जी के सुयोग्य पुत्र देव राघवेंद्र स्वयं गढ़वाल विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान से स्नातकोत्तर हैं व वैज्ञानिक ढंग से पिता के भगीरथी प्रयास को आगे बढ़ा रहे हैं। देव के अनुसार फरवरी – मार्च के माह में इन पक्षियों का आगमन चरम पर रहता है। पक्षी प्रेमियों के लिए इस दौरान विशेष सत्र भी चलते हैं। स्वयं देव इनकी प्रकृति, स्वभाव व भाषा-व्यवहार पर अध्ययन कर रहे हैं व कैमरा लेकर घंटों इंतजार के साथ इनको शूट करते रहते हैं।

वृक्षारोपण – समूह की यात्रा की स्मृति के रुप में इस पावन वन में पइंया (पांजा) वृक्ष का रोपण किया गया। इसे कल्पवृक्ष भी कहा जाता है। इसकी विशेषता है, जब सर्दी में सभी वृक्ष पतझड़ की मार झेल रहे होते हैं, उस समय यह खिलता है। और मधुमक्खियों से लेकर तितलियों व अन्य जीवों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है और परागण से लेकर शहद निर्माण में मदद करता है।

इसे यहाँ पावन पौधा माना जाता है व पूजा स्थलों में इसके पुष्पों का विशेष रुप में प्रयोग किया जाता है। इसके रोपण के साथ एक रीठा का पेड़ जंगलीजी की ओर से हमें उपहार स्वरुप मिला, जिसका रोपण देसंविवि, हरिद्वार के परिसर में हनुमान मंदिर के पास किया गया है। यह इस मुलाकात में लिए गए संकल्प की याद दिलाता रहेगा व प्रकृति-पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व को निभाने की प्रेरणा भी देता रहेगा।

ग्राम्य सहयोग – यह मिश्रित वन जंगलीजी के ऐक्ला संकल्प के साथ शुरु हुआ और आगे बढ़ा। 1974 में जब बीएसएक का जवान जगत सिंह चौधरी गाँव की एक महिला को चारा व पानी की तलाश में जंगल में भटकते व चोटिल होते देखता है तो उसके मन में प्रश्न उठा की हम देश की रक्षा के लिए इसलिए तैनात हैं कि घर में महिलाएं ईंधन व चारे के लिए जंगल में भटकती रहें। यहीं से समाधान की दिशा में बंजर भूमि में वन को खड़ा करने का प्रयोग शुरु होता है। 1980 में सेना से वोलंटीयर रिटार्यमेंट के बाद जगत सिंह पूरी तरह से इस प्रयोग में जुट जाते हैं। शुरु में गाँववासियों को फौजी जवान का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन जब दशकों के श्रम के बाद पेड़ बड़े होने लगे व हरियाली लहलहाने लगी तो उनकी सोच बदलने लगी। फिर 1993 में लगभग 20 वर्ष बाद किसी पत्रकार की नजर इस जंगल पर पड़ती है, तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।
गाँववासियों को भी जंगली होने का महत्व समझा आता है औऱ गाँवसमिति ने जंगली उपाधि से इन्हें विभूषित किया। तब से जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान बनती है, जिसपर उन्हें गर्व है। फिर कई स्तर पर पुरस्कारों का सिलसिला शुरु होता है, जो जारी है। आज जगत सिंह जंगली उत्तराखण्ड के ग्रीन एम्बेस्डर हैं औऱ तमाम पुरस्कार इनकी झोली में हैं। 

हाल ही में जगत सिंह जंगलीजी को उत्तराखण्ड प्रदेश के वन विभाग का ब्रांड अम्बेस्डर नियुक्त किया गया है। उनके मार्दगर्शन में प्रदेश के हर जिला में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाना है, जो स्वयं में एक महत्वपूर्ण एवं अनुकरणीय पहल है। बिनम्र और प्रकृति से एकात्म जंगलीजी पुरस्कारों से मिली राशि को इसी जंगल के विकास में लगाते रहते हैं और स्थानीय युवाओं को इसमें रोजगार के साधन मुहैय्या करवाते हैं।

प्रकृति का उपहार – पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए इतना धन व साधन कैसे जुटते हैं। जंगलीजी बिनम्रतापूर्वक तमाम सहयोग के लिए आभार व कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सारा खेल प्रकृति से जुड़कर अंतःप्रेरणा से काम करने का है। जरुरत प्रकृति को अनुभव कर निस्वार्थ भाव के साथ काम करने की है, बाकि प्रकृति खुद देख लेती है। इसमें प्रकृति पुत्र का मंत्रवत संदेश निहित है, जिसे लेकर हम जंगलीजी से भावभरी विदाई लेते हैं।

रास्ते में हरियाली माता – के सिद्ध पीठ के दर्शन करते हैं। सड़क से महज कुछ मीटर की दूरी पर यह भव्य मंदिर स्थित है। क्षेत्र में हरियाली देवी की विशेष मान्यता है। हरियाली माता के मंदिर में प्रवेश से लेकर इनके कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए सात्विक भाव व दिनचर्या पर विशेष बल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत प्याज-लहसून व माँस-मदिरा जैसे तामसिक भोजन का त्याग करना पड़ता है।
ज्ञात हो की हरियाली माता वन क्षेत्र विश्व के शीर्ष वन क्षेत्रों में शुमार है। हरियाली माता का मूल स्थल पर्वत के शिखर पर है, जहाँ साल में विशिष्ट अवसरों पर विशेष पूजन किया जाता है। प्रकृति-पर्यावरण के तमाम नियम इस दौरान लागू होते हैं। नंगे पाँव चलने से लेकर किसी प्रकार के वृक्ष, वनस्पति व वन्य जीव को किसी तरह की क्षति न पहुँचाना, यह सब विशेष ध्यान रखा जाता है।
हरियाली माता के परिसर में सामने हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं एक मनोरम दृश्य पेश करती हैं। और चारों ओर हरा-भरा वनक्षेेत्र व परिवेश हरियाला माता के प्रत्यक्ष प्रताप की झलक दिखाता है।
हरियाली माता के चरणों में अपना भाव निवेदन के साथ हम बापसी की यात्रा में अपने गन्तव्य स्थल की ओर कूच करते हैं।  
हिमालय की वादियों में व प्रकृति की गोद में यात्रा के दौरान भाव बनता रहा कि प्रकृति के माध्यम से परमेश्वर स्वयं झर रहे हैं। प्रकृति की आराधना स्वयं परमेश्वर की आराधना है और प्रकृति के विभिन्न घटकों के प्रति आत्मीयता पूर्ण भाव परमात्मा की प्रत्यक्ष सेवा एवं सान्निध्य जैसा पावन कार्य है।
 
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