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बुधवार, 31 जुलाई 2019

यात्रा वृतांत, मेरी पौलेंड यात्रा, भाग-3


बिडगोश शहर के ह्दयक्षेत्र में पहली शाम

संयोग से आज शनिवार था, बुद्धपूर्णिमा का पावन दिन था। अगले दिनों प्रस्तुत होने वाली पीपीटी की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी थीं। फिनिशिंग टच व अभ्यास शेष था। पहली शाम विश्राम के बाद आज दूसरी शाम बिडगोस्ट शहर के भ्रमण के नाम थी। विश्वविद्यालय की ओर से नामित मनोविज्ञान की छात्रा डोमिनिका के साथ यह सम्पन्न होता है। विवि परिसर के साथ सटे प्रकृति की गोद में बसे पार्क से गुजरना एक भव्य अनुभव रहा। क्रिसमस ट्री पार्क की शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। पता चला कि यहाँ इसकी कई तरह की किस्में पायी जाती हैं। यहाँ रास्ते भर सड़क के दोनों ओर तथा पार्क में झाड़ियां एवं वृक्ष फूलों से लदी हुईं थी। हमें जानकर अचरज हुआ कि यहाँ इस समय बसन्त का सीजन चल रहा है और गर्मी यहाँ जुलाई में शुरु होती है, जिसमें तापमान मुश्किल से 30 डिग्री पार होता है। (हालाँकि इस बार यूरोप में तापमान के पिछले रिकॉर्ड टूटने की खबरें पढ़ने को मिली हैं) यहाँ शहर के भवन, गलियाँ व सड़कें पूर्वचर्चित अंदाज में साफ, सुव्यवस्थित एवं भव्य उपस्थिति दर्ज करा रही थी।
शनिवार यहाँ, विकेंड का पहला दिन था। लोग परिवार के साथ बाजार एवं पार्क में आनन्द ले रहे थे। रास्ते में पहला फब्बारा मिला, जो शेर, इंसान, सर्प आदि के चित्र के बीच एक अद्भुत सृष्टि का सृजन कर रहा था, ऐसा दृश्य हमारे लिए एकदम नया और कौतुक का विषय था। पता करने पर स्पष्ट हुआ कि यह शिल्प बाईबिल की कथा पर आधारित है, जिसमें सृष्टि के प्रलय एवं नई सृष्टि की रचना के समय की कथा अंकित थी, जिसमें जल प्रलय व नाव की बात की गई है। लगा कि थोड़े-बहुत पात्रों की भिन्नता के साथ कथा का मूल एक जैसा है, जैसा हम सृष्टि प्रलय के समय मनु, सप्तऋषि एवं नाव की बात अपने धर्मग्रँथों में पाते हैं। लगा कि यह भी एक शोध का विषय हो सकता है, कि विभिन्न धर्मों के तार किस तरह से एकसमान सार्वभौम सत्य एवं तथ्यों से जुड़े हुए हैं।
चेस्टनेट के फूलों से लदे वृहद वृक्षों की छाया के तले बढ़ते हुए हम शहर के बीच सड़क पर पहुँचते हैं, जहाँ बस सर्विस के साथ ट्राम भी चल रही थी। बसें यहाँ की भारत की तुलना में काफी लम्बी होती हैं। पूर्व चर्चित ट्रैफिक अनुशासन के साथ यहाँ स्पीड़िग की समस्या कहीं-कहीं दिख रही थी। कुछ जोशीले युवा बाईक व कारों में स्पीड़ के थ्रिल को आजमाते दिख रहे थे, जो भारतीय शहरों में भी एक आम दृश्य रहता है।
रास्ते भर हम हरे-भरे ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के बीच सुंदर भव्य शहर को निहारते हुए आगे बढ़ते रहे। ट्राम के ट्रेक को पार कर हम बर्दा नदी के ऊपर बने पुल पर थे। पुल के नीचे बहती नदी, इस पर चल रहे मोटरवोट नुमा जहाज, हल्की धूप के बीच शीतल हवा के झौंके व उत्साह से भरे लोगों की चहल-पहल सब मिलाकर अद्भुत एवं दिलकश नजारा पेश कर रहे थे। सामने दूर पहाड़ियों पर भव्य संरचनाएं बहुत सुंदर लग रही थी, जो यूनिवर्सिटी के विस्तारित परिसर के भवन थे।
सामने नीचे की ओर नदी पर एक तार पर संतुलन साधे एक नग्न पुरुष, एक हाथ में तीर तो दूसरे में लाठी लिए नदी पार कर रहे थे। यह बिडगोस्ट का एक महत्वपूर्ण लैंडमार्क है। लगा जैसे यह पथिक को जीवन का संदेश दे रहा हो। लक्ष्य भेदन के लिए निकले पथिक को, पतली रस्सी पर नदी की मझधार जैसी विकट स्थिति में फंसे होने के बावजूद लक्ष्यभेदन की तत्परता एवं एकाग्रता का संदेश दे रहा था। पता चला कि यह बूत 2004 में बना है। पतली तार पर इसका संतुलन कैसे बना है, यह अभी तक हमारे लिए एक राज था।
इस क्षेत्र को शहर का ह्दय क्षेत्र माना जाता है, क्योंकि आदिकाल से नदी के किनारे का यह क्षेत्र व्यापार का मुख्य केंद्र रहा है। साथ ही इसके चारों ओर कई पुरातन भव्य चर्च, कई म्यूजियम और कलाकेंद स्थित हैं, जो शहर के इतिहास को समेटे पेंटिंग, मूर्तियों व दस्तावेजों के साथ समृद्ध हैं। इनकी परिक्रमा आपको यहाँ के सांस्कृतिक पक्ष को समझने में मदद करती है और विकेंड में यहाँ लोगों की विशेष भीड़ रहती है। यह सब देखते हुए यहाँ के लोगों में अपनी कला एवं संस्कृति के प्रति पर्याप्त जागरुकता प्रतीत हुई। शहर की स्थापना एवं विकास का श्रेय सम्राट काजिमिर महान को जाता है, जिन्होंने सन 1343 में इसकी नींव  रखी थी, यहाँ के सामाजिक कानून दिए थे और पत्थरों की जगह ईँटों के प्रयोग की विधि खोजी थी। स्टेच्यू के बग्ल के संग्राहलय में यहाँ के लोकजीवन, युद्ध, स्वतंत्रता संघर्ष, दासता एवं पुनः आजादी का रोचक एवं रोमाँचक इतिहास दर्ज है।
शहर 245 किमी लम्बी बर्दा नदी के किनारे पर बसा है, जो आगे विस्तुला नदी में मिलती है, जो पौलैंड की सबसे बड़ी नदी(लगभग 1500 किमी) है, जो आगे चलकर बाल्टिक सागर में समा जाती है।
यहाँ के पुल को पारकर हम यहाँ की साफ-सुथरी पारम्परिक गलियों से होते हुए पुराने टापू शहर की परिक्रमा करते हुए ओपेरा हाउस से होते हुए पुनः पुल तक बापिस पहुंचते हैं। हर गली, मोहल्ले, दुकान, पार्क एवं रेस्टोरेंट में लोगों को परिवार के संग जीवन को उत्सव की तरह मनाते देखा। विकेंड का यह उत्सवनुमा माहौल हमें दिलचस्प लगा। पता चला कि यहाँ लोग सप्ताह के पांच दिन जमकर काम करते हैं, मेहनत करते हैं, कमाते हैं और विकेंड में अपने परिवार के साथ, बच्चों के साथ पूरा आनन्द मनाते हैं। अपने देश में सप्ताह भर काम के बोझ में दबे अधिकाँश भारतीयों के लिए यह एक अनुकरणीय पहलु लगा। रास्ते में ही हमें शहर के एकमात्र भारतीय रेस्टोरेंट रुबरु के दर्शन हुए, जहाँ हम अगले दिन पधारने वाले थे।

इसी टापू पर दो अन्य म्यूजियम में भ्रमण का मौका मिला। विकेंड में यहाँ निशुल्क प्रवेश रहता है। एक एव्सट्रैक्ट कला पर आधारित था, जिसे समझना व ह्दयंगम करना हमारे लिए सदा ही कठिन रहता है। माड्रन आर्ट के नाम पर ऐसी विचित्र कलाकृतियां व चित्र हमारे लिए सदा ही पहेली रहते हैं, लेकिन दर्शकों का खासी संख्या देख लगा कि इसको समझने वाले लोगों की भी कमी नहीं, हालांकि वे क्या समझ पा रहे थे, मिलकर रोचक चर्चा हो सकती थी, लेकिन यह आज संभव नहीं था। दूसरा म्यूजियम हमें अपने अनुकूल लगा, जिसमें यहाँ की प्रकृति, ग्राम्य-शहरी जीवन, यहाँ के कलाकार, महापुरुषों एवं विभूतियों का संग्रह था। म्यूजियम के बाहर लोग हरे-भरे वृहद वृक्षों की छाया तले चर्चा करते हुए मिले।
फिर हम बर्दा नदी से निकली नहरनुमा धारा के संग टापू पर पहुँचे। पार्क में बच्चे, बुढ़े, जवान सब मखमली लॉन पर पूरा एन्जॉय कर रहे थे। बड़े-बुजूर्ग बैठे गुप्तगुह कर रहे थे, तो बच्चे-किशोर खेल रहे थे। यहाँ की मौज-मस्ती एवं उत्सवनुमा माहौल का आलम ह्दयस्पर्शी था। फूलों से लदे वृक्ष, हरे भरे पेड़, यहाँ के सुंदर भवन सब मनोरम नजारा पेश कर रहे थे। डोमिनिका से पता चला कि टापू पौलेंड के सबसे बड़े पार्क का खिताब लिए हुए है।
फिर हम बर्दा नदी पर बने लबर्ज पुल को पार करते हैं, जिसमें ताले बाँधे दिखे, जिन्हें प्यार की मन्नत का प्रतीक माना जाता है। इस पुल से जुड़ी किवदंतियां भी सुनने को मिली कि एक बार तो यहाँ इतने लोग इकट्ठा हो गए थे कि पूरा पुल ही ध्वस्त हो गया था। सामने ऑपेरा हॉउस था, जिसमें यहाँ के लोकप्रिय सांस्कृतिक कार्यक्रम का अवलोकन हम अगले दिन करने जा रहे थे।
इस तरह पूरी परिक्रमा के बाद हम पुनः बर्दा नदी पर बने स्टेच्यू पुल पर थे। शाम का धुंधलना छा रहा था, यहाँ से बापस ट्राम रेल्वे को पार करते हुए हम पुनः पैदल वॉक करते हैं। आवश्यक समान खरीदने के लिए रास्ते में हम एक बड़े स्टोर में प्रवेश करते हैं, यहाँ के दूध, चीनी, फल आदि से परिचित होते हैं। स्टोर से ज्बेल्को(सेब), और मलेको(दूध) व शक्कर आदि लेते हैं। ग्राऊजी(हमारा पैसा) व ज्लोटी(वहाँ का रुपया) में अंतर आज समझ आ रहा था, जब हम नामसमझी में ग्राऊजी को ज्लोटी मान दुकानदार से सामान खरीद रहे थे।
रास्ते में शहर के रेडियो स्टेशन के दर्शन हुए। सड़क के दोनों ओर सफेद फूल से लदे पेड़ बहुत सुंदर लग रहे थे। इन्हीं के बीच चलते हुए बापस पार्क से होकर विश्राम स्थल तक आते हैं। पूरे रास्ते भर हमारे साथ मौसम की विशेष कृपा रही। सुबह से बादल छाए थे, दिन में बरसे, लेकिन शाम को मौसम साफ रहा। यह आज का ही नहीं अगले पूरे सप्ताह भर की कहानी रही। सभी कहते रहे कि आप मौसम के बारे में सौभाग्यशाली हो, क्योंकि पिछले सप्ताह यहाँ खतरनाक ढंग से आँधी-तुफान के साथ बारिश हुई थी। मौसम विभाग की भविष्यवाणी के हिसाब से, यहाँ दिन में 60 से 90 फीसदी बारिश की भविष्यवाणी घोषित थी, लेकिन पहले दिन विश्वविद्यालय से लिया छाता अंतिम दिन तक कभी काम नहीं आया।
इस तरह दूसरे दिन शनिवार की बुद्ध पूर्णिमा का समाप्न होता है। यहाँ के शहर, इसकी मार्केट, विश्वविद्यालय परिसर व ह्दयक्षेत्र मिल्स टापू आदि से मोटा-मोटा परिचय होता है। यहाँ के समाज, संस्कृति, जीवन शैली, इतिहास भूगोल से हल्का सा परिचय होता है। एक अजनवी देश में अपने अनुकूल वातावरण का निर्माण होता देख उस सूक्ष्म गुरुसत्ता की उपस्थिति का तीव्र भान हो रहा था, जिसके हाथों जीवन की वागड़ोर एक कठपुतली की तरह सौंप हम आगे बढ़ रहे थे। (जारी...)
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सोमवार, 17 जून 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2




बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय

                  
बिडगॉश – छोटा सा एयरपोर्ट, लेकिन कितना सुंदर। चारों और ऊँचे-ऊँचे पाईन ट्री से घिरा। यहाँ के पाईन ट्री इस तरह से नीचे से तराशे होते हैं कि इनका ऊपरी हिस्सा ही घनी हरि पत्तयों से भरी टहनियों से लदा होता है। निसंदेह रुप में ये हमारे चीड़ के पेड़ों से अधिक समार्ट लगते हैं व सुंदर भी। इनमें कुछ-कुछ देवदार की झलक मिलती है।
 यहाँ लुफ्तांसा के रिजनल यान से उतरकर विडगोश हवाई अड्डे के अंदर आते हैं, दिल्ली एयरपोर्ट से चढ़ा अपना लगेज एकत्र करते हैं।


बाहर काजिमीर विल्की यूनिवर्स्टी के इंटरनेशनल रिलेशन विभाग की मेडेम अग्नयशिका चालक के साथ हमारे स्वागत के लिए खड़ी थी। इनका नाम हिंदी के अग्नि और यशिका शब्दों से जोड़कर हमारे लिए याद रखना आसान रहा। हमारा पहला संवाद इन्हीं से होता है। इनका आत्मीय संवाद एकदम नए एवं अपरिचित परिवेश की हमारी स्वाभाविक दुबिधा को हल्का कर देता है। बातचीज से पता चला कि ये भारत आ चुकी हैं, हमारे ही विश्वविद्यालय में कुछ दिन रुक चुकी हैं, जिसे ये भावपूर्ण याद कर रही थींं। 
एयरपोर्ट के करेंसी एक्सचेंज सेंटर पर यूरो को ज्लोटी में कन्वर्ट करते हैं। ज्ञातव्य हो कि पोलेंड की मुद्रा ज्लोटी है, जो भारतीय 18 रुपयों के बराबर होती है। वहीं 4.5 ज्लोटी मिलकर 1 यूरो के बराबर होते हैं। और 1 यूरो 78 रुपयों के लगभग होता है। ज्लोटी का छोटा अंश ग्रौजी है। आगामी आदान-प्रदान हमारा ज्लोटी एवं ग्रोजी में होना था, जिससे परिचित होने में कुछ समय लगने वाला था।


एयरपोर्ट से हमारे गन्तव्य स्थल के बीच शहर के जो दिग्दर्शन हुए वह हमारे दिलो-दिमाग पर गहरे अंकित हुए। आगामी दिनों में भी शहर एवं कस्वों के जो भ्रमण किए, एक बात स्पष्ट थी कि यहाँ पर सब चीजें सुव्यवस्थित दिखती हैं, शहर में भवन निर्माण योजना के तहत होते हैं। बीच में पर्याप्त स्पेस दिया जाता है, जिसमें वृक्ष एवं हरियाली के लिए भी उपयुक्त स्थान रहता है। 



इनके सामने अपने देश में अधिकाँश शहरों का बिना प्लानिंग के कुकरमुत्तों की तरह भवनों का खड़ा होना, हरियाली का अभाव और घिच-पिच आबादी। हम धर्म-अध्यात्म एवं आदर्शों की कितनी ही ऊँची बातें क्यों न कर लें, हम अभी बाहरी व्यवस्था के मामले में बहुत पिछड़े हुए हैं। लगता है हम अभी अध्यात्म का पहला पाठ स्वच्छता-सुव्यवस्था सही ढंग से नहीं सीख पाए हैं, जिसे हम यहाँ के जनजीवन से कदम-कदम पर अनुभव करते गए। इसके साथ ही श्रम की गरिमा यहाँ एक बड़ी चीज दिखी, जिसकी चर्चा हम आगे उपयुक्त संदर्भ के साथ करना चाहेंगे।
सो कुल मुलाकर पहली झलक में शहर हमारे दिल को भा गया। यहाँ की सफाई, प्लांनिंग, सबसे ऊपर प्रकृति के साथ भवनों का संयोजन। लगा तवीयत से शहर बनाया गया है। 
यहाँ का ट्रैफिक अनुशासन भी काबिले तारीफ लगा, जिसके अपने देश में दर्शन दुर्लभ हैं। यदि आप सड़क में जेबरा क्रासिंग पर पैर रख दिए तो वाहन खुद व खुद यथास्थान रुक जाते हैं, और आपके पार होने के बाद ही आगे बढ़ते हैं। 

लेकिन यह सब एक अघोषित अनुशासन के अंतर्गत होता है। इसके लिए आप सड़क कहीं से भी पार नहीं कर सकते। पैदल यात्रियों को जेबरा क्रॉसिंग से होकर सड़क पार करनी होती है। इसके सामने अपने देश की ट्रेफिक अनुशासन की स्थिति भयावह है, दिल दहला देने वाली है। कब कौन सी गाड़ी क्रोसिंग पर आपको ठोक दे, रौंद दे, ठिकाना नहीं। देखकर लगा हमें पब्लिक अनुशासन के क्षेत्र में बहुत कुछ सीखने की जरुरत है।
काजीमिर विल्कि यूनिवर्सिटी का मुख्य कैंपस रास्ते में दायीं ओर पड़ा, जो प्राकृतिक छटा के बीच बसा बहुत सुंदर परिसर है।


यहाँ दो तरह के परिचित वृक्ष पर्याप्त मात्रा में दिखे। एक मैपल ट्री, जिसका पत्ता कनाडा का राष्ट्रीय प्रतीक है और दूसरा फूलों से लदा जंगली चेस्टनेट (खनोर), जिनके फल हमारे हिमालयन जंगलों में लंगूल व बंदर खाते हैं, जबकि यहाँ बंदर व लंगूरों का सर्वथा अभाव दिखा। यहाँ का सबसे कॉमन पक्षी कबूतर दिखा, जिसे आप किसी भी पार्क में, सार्वजनिक स्थल पर झुंड़ों में चुगते व गुटरगूँ करते देख सकते हैं। यह इंसान से बिल्कुल भय नहीं खाता। ऐसा क्यों है, अभी यह जानना शेष है।
हमारे रुकने कि व्यवस्था यूनिवर्सिटी से वॉकिंग डिस्टेंस पर एक होटेल में थी, जहाँ हमारा परिचय एक बुजुर्ग व्यक्ति से होता है, तो पोलिश में अग्नियशिका से बात करता है, ठहरने की व्यवस्था होती है।
बरामदे में आते ही लाईट खुद-व-खुद जल जाती। यहाँ यात्रियों के अलग-अलग रुम की उम्दा व्यवस्था थी, लेकिन किचन कॉमन था, जहाँ के फ्रिज में आप अपना-अपना सामान रखकर उपयोग कर सकते थे। गर्म पानी व चाय-कॉफी के लिए इलैक्ट्रिक कैटल व पकाने के लिए इंडक्शन चूल्हा। आवश्यक ग्लास, क्रोक्रीज एवं वर्तन अलमारी में कई आकार एवं रंग में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे।



रुम डेकोरेशन देखने लायक थी। कमरे के कौन में एक सीसे के वर्तन में सूखी टहनियाँ बहुत खूब लगीं। लगा जैसे सेब की सूखी टहनियों को पेड़ों की प्रूनिंग के बाद रखा गया हो। टेवल पर सूखे फल, जिसका नाम-पता हम नहीं लगा पाए। किचन में खिड़कियों पर चिडियों के जोड़े, बाथरुम में सीप, दिवालों पर सुंदर फूलों के पत्ते व पंखुड़ियाँ, कमरे में झालर में टंगे बल्व – सब मिलाकर ट्रेडिशन एवं आधुनिकता का अद्भुत संयोजन कर रहे थे।

और खिड़की के बाहर सुंदर हरे-भरे लॉन एवं क्रिसमिस ट्री। सब मिलाकर इंटीरियर एवं एक्सटीरियर डिजायनिंग का एक खुबसूरत संयोजन यहाँ देखने को मिला। लगा कि आधुनिकता के साथ ट्रेडिशन का संयोजन कितना आकर्षक एवं मनभावन हो सकता है। 
अपनी परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों के प्रति गौरव का भाव अपने पूर्वजों के अनुभव व ज्ञान का सम्मान है, इन्हें हीन मानकर दूसरों के तौर-तरीकों की अंधी नक्ल किसी भी रुप में समझदारी वाला कदम नहीं माना जा सकती।


यहाँ टायलेट में पानी की जगह कागज का चलन अधिक दिखा। खाने के बाद भी वाशबेसिन की जगह, पेपर का उपयोग अधिक होता है। शायद एक तो यहाँ चम्मच व काँटे से भोजन का चलन है, हाथ अधिक गंदे नहीं होते। दूसरा शायद ये पानी की बचत अधिक करने में विश्वास करते हैं। हालाँकि हम अंत तक प्यास बुझाने वाले प्राकृतिक जल के लिए तरसते रहे। यहाँ सोड़ा युक्त मिनरल वाटर का चलन अधिक दिखा, जिसका स्वाद खारेपन लिए होता है। यदि खारेपन लिए नहीं भी है, तो भी वेस्वादु सा लगता है।
शाम को जब पास की दुकान में सामान खरीदने गए, तो यह हमारा यहाँ का पहला पर्चेजिंग अनुभव था। दुकान खाने-पीने की हर तरह की चीजों से भरी थी। चीजों का नाम पोलिश में था, लेकिन दाम के अंक पढ़ सकते थे। दुकानदार अंग्रेजी नहीं जानती थी। सामान पर रेट लिखा था।


अपनी पसंद की चीज सेलेक्ट कर टोकरी में भरकर काउंटर पर ले आए। लेजर स्कैनर से बिल कम्प्यूटर पर चढ़ जाता, जोड़ बिल में प्रिंट होता। इस संख्या देखकर काम चल जाता। शुरु में जलोटी व ग्राउजी का अंतर समझने में एक-दो दिन लग गए। दुकान पर अम्माजी से परिचय हो गया था, जो स्वभाव से बहुत अच्छी थी। भाषा का बैरियर अवश्य रहा, लेकिन भावनात्मक संवाद एवं समझ के आधार पर काम चलता रहा।
यहाँ के लोग पहली नजर में देखने पर गंभीर लगते हैं, शायद भाषा का वैरियर एक कारण रहता हो। लेकिन एक बार परिचय होने पर, घुलमिल जाते हैं। हमारा अनुभव पोलिश लोगों से बहुत अच्छा रहा, सब ईमानदार एवं अच्छे इंसान लगे। जहाँ भी जरुरत पड़ी, सहज रुप में सहयोग मिलता रहा, जिसका उदाहरण आगे उचित संदर्भ के साथ करेंगे।
यहाँ सेब फल को देखकर मेरा रोमांचित होना स्वाभाविक था। इस संदर्भ में कुछ जानकारी बटोरना चाहता था। पौलेंड विश्व में सेब-उत्पादन में चौथा स्थान रखता है। जो सेब इस समय मार्केट में था वह दो जलोटी यानि 36 रुपए में 1 किलो मिला। जब रुम में आकर धोकर इसे चखा, तो तत्काल इसका फैन हो गया। सेब इतना रसीला, मीठा व क्रंची था कि यह अपना नित्यप्रति का साथी बन गया। घर पर बागवान भाईयों से चर्चा कि तो पता चला कि यह गाला सेब की किस्म थी। 

बाद में मार्केट में सेब की विभिन्न किस्में दिखी। पता चला कि विंटर सेब, जो स्वाद में खट्टे होते हैं व रंग में हरे, यहाँ अधिक मंहगे बिकते हैं। ये लाल व मीठे सेबों से तीन गुणा अधिक दाम में बिक रहे थे। भारत की स्थिति इसके उलट है। अपने यहाँ पैमाना सेब का लाल रंग रहता है, इसकी पौष्टिकता नहीं।
यहाँ अपने काम का भोजन ब्रेड और मिठी दही लगी, जिसे यहाँ योगहर्ट कहते हैं। चीज भी यहाँ बहुतायत में मिलता है, लेकिन यह अपनी पहली पसंद न रही। दुकान पर भी सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं। सामान के साथ थैले रखे होते हैं, साथ ही ब्रेड के किनारे गलब्ज, जिन्हें पहनकर इन्हें थेले में रखना होता है, जिससे कि हाथ में किसी तरह की गंदगी व इंफेक्शन इन खाद्य पदार्थों में संक्रमित न हो।
पहली रात नींद अच्छी नहीं आई। शायद नए परिवेश में नया विस्तर व कमरा मुख्य कारण था। फिर तकिया व गद्दा कुछ ज्यादा ही आरामदायक लगा।
फिर रात को 9, 9.30 तक अंधेरा और प्रातः 3,15 बजे से यहाँ चिड़ियों का चहचाना। चार बजे तक उजाला हो जाता है। 5 बजे तक सूरज निकल जाता है। इस तरह रातें बहुत छोटी, मुश्किल से 6-7 घंटे की रहीं। हम धीरे-धीरे यहाँ के दिन-रात के ऋतु चक्र से परिचित होते हैं व इसके अनुरुप ढलने की कोशिश करते हैं।

यहाँ मोबाईल या लैपटॉप चार्ज करने के लिए भारतीय दो या तीन पिन वाला प्लग नहीं चलता, क्योंकि यहाँ का सोकेट अलग तरह से होता है, जिसमें यूनिवर्सल चार्जर को लगाकर ही काम हो सकता है। इसको सोकेट में फिट कर फिर इसके छिद्रों में भारतीय प्लग लग जाते हैं व मोबाईल या लैप्टॉप चार्जिंग का काम बखूबी होता है। साथ ही पावर बैंक ऐसे सफर का एक अभिन्न हमसफर होता है, जिसको साथ ले जाना हमे पग-पग पर साथ देता रहा।
अगले दिन की शाम, हमारी बिडगोस्ट शहर की गलियों से पैदल भ्रमण करते हुए यहाँ के ह्दयक्षेत्र वर्दा नदी पर बसे मिल्ज आइसलैंड के नाम थी, जिसका जिक्र अगली पोस्ट में करेंगे।(जारी...)
   यात्रा का अगला हिस्सा आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3,बिडगोश शहर के ह्दयक्षेत्र में पहली शाम..

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