यात्रा वृतांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
यात्रा वृतांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 31 दिसंबर 2023

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-1


स्वर्णमंदिर से होकर भगवती माँ के द्वार तक

लम्बे समय के बाद चिरप्रतिशित शैक्षणिक भ्रमण का संयोग बन रहा था। ऐसे लग रहा था कि जैसे माता का बुलावा आखिर आ ही गया। क्योंकि दो-तीन वार पहले पूरी योजना के वावजूद यहाँ नहीं जा पाए थे। इस बार भी एक तिथि निर्धारित होने के बावजूद एक बार फिर स्थगित करना पड़ा, क्योंकि किसान आंदोलन के कारण इन तिथियों में पंजाब बंद का ऐलान हुआ और बस तथा रेल यातायात बाधित हो गए थे।

आखिर जैसे हमारे पुण्य उदय हो गए थे और रास्ता खुल गया। रात को शिक्षक और विद्यार्थियों का पूरा दल हरिद्वार से वैष्णुदेवी एक्सप्रैस में चढता है, पहला पड़ाव स्वर्णमंदिर अमृतसर था। यहां पर माथा टेकने और तन-मन से शुद्ध होकर माता के दरवार की यात्रा से बेहतर क्या हो सकता था। हरिद्वार से अमृतसर का रात का सफर सोते-सोते बीत गया। प्रातः अमृतसर पहुँचते हैं।


अमृतसर के ऐतिहासिक रेल्वे स्टेशन के बाहर से स्वर्णमंदिर के लिए बस में बैठते हैं, जो गुरुद्वारे के बाहर कुछ दूरी पर छोड़ती है। परिसर की ओर पैदल मार्ग की भव्यता देखते ही बन रही थी। पहले तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता था, लगा हाल ही में इस मार्ग का पुनर्निमाण हुआ है। गुरुद्वारे के बाहर स्नानगृह में यात्रियों के फ्रेश होने की उम्दा व्यवस्था है, जहाँ सभी तरोताजा होकर क्लॉक रुप में सामान जमा करते हैं और फिर मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।  

स्वर्ण मंदिर के दिव्य दर्शन

मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पावन सरोवर और स्वर्ण मंदिर की पहली झलक के साथ दिव्य भावों की झंकार होती है। पावन सरोवर में आचमन के साथ तन-मन व अन्तःकरण की शुद्धि करते हुए, तीर्थ चेतना का भाव सुमरण करते हुए आगे बढ़ते है। हाथ जोड़े श्रद्धालुओं की अनुशासित भीड़, वातावरण में शब्द-कीर्तन की मधुर संगीतमय ध्वनि दर्शनार्थियों को रुहानी भाव के सागर में गोते लगाने के लिए प्रेरित करती है। भाव समाधि की इस अवस्था की अनुभूति वर्णनातीत है। इसे तो वस अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।

परिक्रमा एवं भाव सुमरण के बाद यहाँ के यादगार पलों को केप्चर करने के लिए सेल्फी एवं फोटो का क्रम चलता है। हम इससे निवृत होकर परिक्रमा पथ के एक कौने में बैठ ध्यान सुमरण में मग्न होते हैं। किसी दर्शनार्थी का सर कहकर संबोधन हमें चौंकाता है, कोई हमारी कुशल-क्षेम पूछता प्रतीत होता है। ये सज्जन शिमला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र सिमरनजीत सिंह निकले, जिनसे मिलकर अतीव प्रसन्नता हुई। वो सपरिवार यहाँ दर्शन के लिए आए थे। किन्हीं पलों में हुई प्रगाढ मुलाकातें कैसे समय के धुंधलके में ढकी होने के वावजूद आज तरोताजा हो रहीं थी। इसके बाद पूरा दल एकत्र होकर लंगर छकता है, जहां का अनुशासन, भक्ति और सेवा का भाव सदा ही आह्लादित करता है।

जलियाँवाला बाग दर्शन

इसके बाद गुरुद्वारा के बाहर जलियाँबाला बाग का दर्शन करते हैं, जो यहाँ से मुश्किल से 200 मीटर दूर होगा। अंग्रेजी जनरल डायर की क्रूरता की कहानियाँ यहाँ दिवारों में गोली को निशांनों से लेकर कुँए में देखी जा सकती है, जिसमें भीड़ जान बचाने के लिए कूद पड़ी थी। इतिहास के इस काले अध्याय को स्मरण कर ह्दय व्यथित रहोता है, आक्रोश जगाता है। और स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वजों के त्याग-बलिदान और खूनी संघर्ष की याद दिलाता है। जिस स्वतंत्रता की हवा में आज हम सांस ले रहे हैं, यह किस कीमत पर हमें मिली है। काश, हम इसकी कीमत को याद रखते।

अमृतसर से बाघा बोर्डर की ओर -

अमृतसर की ही छात्रा से पूछने पर कि अमृतसर की खास डिश क्या है, तो जबाव लस्सी मिला। यहीं की गलियों में एक लस्सी की दुकान पर, इसका आनन्द लिया और फिर अगले पड़ाव बाघा बोर्डर की ओऱ ऑटो टैक्सी में चल दिए। ऑटो टैक्सी स्टैंड पर छोड़ दिया और हम पैदल 2 किमी चलते हैं। रास्ते में मूँछों वाले फौजी भाई के साथ एक यादगार फोटो लेते हैं। और अंत में बोर्डर पर बने स्टेडियम नुमा भवन में अंदर प्रवेश करते हैं, जहाँ आमने-सामने भारी भीड़ थी और बोर्डर के दूसरी ओर पाकिस्तान की जनता व सैनिक मौजूद थे।

इस ओर तथा उस ओर भीड़ ही भीड़ थी, लेकिन फौजियों के ड्रिल व देशभक्ति के गीतों के साथ झूमती भीड़ का दृश्य एक अलग ही दृश्य था, जिसे हम जीवन में पहली बार अनुभव कर रहे थे। जोशिले नारों के बीच जनता का जोश देखते ही बन रहा था। बीच गलियारे में देश भक्ति के गीतों पर कन्याओं व महिलाओं को झिरकने व झूमने का विशेष आमंत्रण मिल रहा था। देश भक्ति के गीतों के संग इनकी सामूहिक थिरकन समां बांध रही थी। फिर बीएसएफ की स्पेशल पलटन के स्त्री व पुरुष फौजियों का एक-एक कर ड्रिल होता है। इनके शौर्य, पराक्रम, अनुशासन व जीवट की झलक इनकी पैरेड व ड्रिल में स्पष्ट थी, जिसका संचार सीधे दर्शकों के अंतःकरण में हो रहा था। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर झंडों का अवरोहण होता है। पाकिस्तान की ओर सैनिकों व जनता की भीड़ कम ही थी। पलड़ा इधर भारी दिख रहा था।

बापिसी में ग्रुप फोटो के साथ सेल्फी लेते हैं। आकर्षण रहता है गगनचुंबी तिरंगे और अशोक स्तम्भ का। ऑटो से पुनः स्वर्णमंदिर के बाहर उतरते हैं, लंगर छकते हैं और स्वर्ण मंदिर को प्रणाम कर बुक की गई बस से कटरा के लिए प्रस्थान करते हैं।

अमृतसर से कटरा की बस यात्रा

अमृतसर से हम रात को 10 बजे बस में चल पड़े। यह एक ऐसी बस में यात्रा का पहला अनुभव था, जिसमें कोई सीट नहीं थी। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे केविन बने थे, जिसमें नीचे गद्दे बिछे थे अर्थात पालथी मारकर या लेटकर सफर की व्यवस्था थी। कुल मिलाकर रात के हिसाब से सोने के लिए माकूल व्यवस्था थी। हर केबिन में दो लोग रुक सकते थे। हम भी सोते हुए सफर पूरा किए। नई रुट पर सफर के रोमाँच के चलते नींद नहीं आ रही थी, बाहर पर्दे से झांककर देखते रहते कि कहाँ से गुजर रहे हैं। रास्ते में पठानकोट, जम्मु जैसे स्टेशन आने हैं, इसका अनुमान था, पहली बार यहाँ से गुजरते हुए, इनको एक नजर देखने की उत्सुक्तता थी।

इसी बीच बस रास्ते में 15-20 मिनट रुकी। अधिकाँश सवारियाँ घोड़े बेचकर सो रही थी। हमारे सहित कुछ एक लोग ही बाहर निकले, फ्रेश हुए व चाय की चुस्की के साथ तरोताजा हुए। आगे रास्ते में कुछ-कुछ पहाड़ दिखने शुरु हो गए थे। बीच में नींद का गहरा झौंका आ गया और जब नींद खुली तो स्वयं को जम्मु से गुजरते पाया। बाहर सुंदर नक्काशी, हरी-भरी लताओं से सज्जा बस स्टेशन तथा रोशनी की जगमगाहट के बीच बस को गुजरते पाया। फिर नींद का झौंका आया और जब आँख खुली तो बाहर ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में बस को झूमते पाया। पहाड़ों के शिखर व गोदी में टिमटिमाटी रोशनियाँ, बलखाते मोड़, दूर रोशनियों से जगमाते गाँव व कस्वे मंजिल के करीब पहुंचने का गाढ़ा अहासस दिला रहे थे।

रास्ते में ही भौर हो चुकी है, हमारी बस का गन्तव्य कटरा आने वाला था। लो ठीक छः बजे हमारी बस स्टेशन पर खड़ी हो गई। 

बाहर निकलते ही चारों ओर गगनचुम्बी पहाड़, इनमें माता वैष्णुदेवी की ओर बढते राह का दृश्य हमें रोमाँचित कर रहा था, जिसे आज कुछ घंटों बाद हमें तय करना था। पहाड़ों को काटकर बनाए गई सड़कें, टीनशैड़ से ढ़के मार्ग, बीच में मुख्य पड़ावों के दिग्दर्शन। इस रुट पर पहली तीर्थ यात्रा कर चुके विभाग के युवा शोधार्थी एवं शिक्षक रजत हमें दूर से ही मार्ग के पड़ावों का विहंगावलोकन करबा रहे थे।

बस स्टैंड से समान उतरता है, मौसम में ठंड का अहसास हो रहा था, जो हरिद्वार से अधिक कड़क था। सभी लोगों के गर्म कपड़ों की उचित व्यवस्था थी, सो कोई परेशानी की बात नहीं थी। सभी एक भिन्न परिवेश में, एक नए देश में स्वयं को पाकर रोमाँचित थे। आगे की यात्रा के लिए तैयार थे। किसी होटल या धर्मशाला में फ्रेश होने से लेकर सामान रखना था, ताकि फ्रेश होकर आवश्यक सामान के साथ आगे की यात्रा पर कूच किया जा सके। बस स्टैंड के पास ही एक होटल की व्यवस्था हो जाती है, सभी फ्रेश होते हैं, कुछ विश्राम करते हैं और फिर बाहर एक ढावे में नाश्ता कर माता बैष्णुदेवी के धाम की ओर चल पड़ते हैं।

होटल से ही एक बैन में बारी-बारी 8-10 लोगों की टुकड़ियों में हम कटरा के बाजार को पार करते हुए बैरी के पेड़ के पास उतरते हैं। ग्रुप फोटो खेंच, माता के जयकारे के साथ आगे बढ़ते हैं। यहाँ से मुख्य द्वार 3 किमी के लगभग था। रास्ते में ही एक बुढ़ी अम्मा से 20 रुपए में एक लाठी खरीदते हैं, जिसका पहाड़ी सफर में विशेष सहारा व योगदान रहता है। सभी लोग मुख्य द्वार में इकटठे हो जाते हैं। ऑनलाइन बुकिंग के कारण सभी निश्चिंत थे कि यहाँ से अब सीधे आगे की यात्रा करेंगे। लेकिन पता चला कि ऑनलाइन बुकिंग स्वीकार्य नहीं है, पिछले महीनों विवाद व तोड़फोड़ के कारण इस व्यवस्था को निरस्त किया गया था। कटरा में बस स्टैंड के आसपास दो स्थानों पर ऑफलाइन बुकिंग की व्यवस्था है। लगा अभी माता रानी परीक्षा ले रही हैं, पूरा दल बापिस 3 किमी आटो में बैठकर बुकिंग स्थल पर पहुँचता है, लाइन में लगकर टिकट लेता है औऱ फिर मुख्य द्वार पर पहुँचता है। और माता के जयकारे के साथ उत्साह से लबरेज मंजिल की ओर आगे बढ़ता है। 

आगे की यात्रा के लिए पढ़ें - बाणगंगा से माता वैष्णों देवी तक का सफर, भाग-2

............................................................................................

शनिवार, 30 सितंबर 2023

वरसात का विप्लवी मंजर और यात्रा का रोमाँच

चैलचोक से पंडोह व कुल्लू की पहली यात्रा

वर्ष 2023 का जुलाई-अगस्त माह भारत के हिमालयी क्षेत्र व साथ में लगे तराई व मैदान के लोगों को लम्बे समय तक याद रहेगा, जब लगातार भारी से भारी मूसलाधार बारिश के बीच कूपित प्रकृति के कोप ने जनमानस को दहशत के साय में जीने के लिए विवश किया था। 9-10 जुलाई, 14-15 अगस्त और फिर 23-24 अगस्त - ये तीन तिथियाँ इस संदर्भ में सदा याद रहेंगी।

इस दौर में बारिश का कहर कुछ इस तरह से बरसा था कि हिमालयी क्षेत्र के हिमाचल प्राँत में कुल्लू-मानाली-मंडी-शिमला-सोलन क्षेत्र विप्लवी मंजर के बीच गुजरते दिखे, जिसका विस्तार नीचे चंडीगढ़ पंजाब से लेकर दिल्ली-आगरा तक रहा। 12 अगस्त को हमारा हरिद्वार से कुल्लू जाने का संयोग बन गया था। मकसद अपने जन्मदिन को मनाने के साथ पिछले माह गृहक्षेत्र में बरसात में हुई भयंकर तबाही को नजदीक से देखने व अनुभव करने का भी था।

इससे पहले 9-10 जुलाई की भयंकर बारिश के दौरान हमारा गृहक्षेत्र कुल्लू-मानाली बूरी तरह से प्रभावित हुआ था। कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक का राष्ट्रीय मार्ग जगह-जगह से धड़ाशयी हो गया था, सड़क के नामो-निशान बीच-बीच में मिट गए थे। बस-कारें-ट्रक और नदी किनारे आबाद घर जल में धड़ाशयी होकर बहते नजर आ रहे थे। बादल फटने की तमाम घटनाएं इस दौरान होती रही, जिसमें गाँव के गाँव तथा जंगल-वस्तियाँ उजड़ती दिखीं। चारों ओर हाहाकार औऱ चीत्कार के स्वर उठ रहे थे। खंड जल प्रलय की स्थिति के दर्शन हो रहे थे।

कुल्लू से मंडी के बीच पिछले 50 से 100 वर्षों तक शान से खड़े पुल ब्यास नदी के उफान में ताश के पत्ते की भांति धड़ाशयी होते दिखे थे। जगह-जगह भूस्खलन की घटनाओं के बीच गाँव वासी दहशत में जीने के लिए विवश हो गए थे। इस बीच हमारे ही दोनों पुश्तैनी गाँवों में पीछे से पहाड़ दरकना शुरु हो गए थे, दोनों ओर से भूस्खलन और बादल फटने के बीच आए दिन कभी दिन को तो कभी रात को नालों में ऐसे दृश्य खड़े हो जाते कि समाचार पढ़कर तथा सोशल मीडिया में आ रहे विजुअल देखकर रुह कांप जाती। इस दौरान वहाँ रह रहे लोगों पर क्या बीती होगी, यह भुगतभोगी ही बता सकते हैं।

बरसात की पहली मार में अनुमान था कि कुल्लू-मानाली क्षेत्र 25 साल पीछे चला गया था, क्योंकि अगले 2 माह तक क्षतिग्रस्त सड़कें आंशिक रुप से ही ठीक होती रहीं, जिसमें फल-सब्जी का सीजन बुरी तरह से प्रभावित हुआ, क्योंकि येही सड़के मैदानी इलाकों की बड़ी मंडियों तक इनको ले जाने की लाइफ-लाइन रहती हैं। (पिछले दिन 29 सितम्बर को ही पहली बोल्वो बस के मानाली तक पहुँचने के समाचार मिले हैं। हालांकि मंडी-कुल्लू नेशनल हाइवे आंशिक रुप से बसों के लिए पिछले 2-3 सप्ताह से खुल चुका था।)

9-10 जुलाई के बाद दूसरा मंजर अभी इंतजार में था। इससे बेखबर हम अपने गृहक्षेत्र की यात्रा पर थे, इसके पीछे भी दैवी संयोग ही था, जिसका राज आगे स्पष्ट होगा। बस हरिद्वार से चल पड़ी ही थी कि खबर मिली कि सुंदरनगर क्षेत्र में बारिश बहुत तेज हो रही है और खड्ड़ में अत्यधिक जल भरने से कई किलोमीटर सड़कें जलमग्न हो गई हैं। हल्की बारिश रास्ते भर हो रही थी। हमारी बस रात को अंबाला-चंडीगढ़-रोपड़ को पार करती हुई कीरतपुर से आगे टनल में प्रवेश करते हुए बिलासपुर पहुँचती है। नए रुट पर रोशनी व अंधेरे की आंख-मिचौली के बीच हल्की से तेज बारिश के साथ सफर आनन्ददायक लग रहा था।

ड्राइवर तथा कंडकटर के संवाद से समझ आ रहा था कि रूट डायवर्ट किया जा रहा है। घाघस से धुमारवीं होकर हम आगे बढ़ रहे थे। सुंदरनगर की बजाए हम सीधा नैरचौक पहुंचते हैं और बारिश के बीच रात अढाई बजे मंडी पहुँच चुके थे। पता चला कि आगे 6 मील पर पूरा पहाड़ नीचे आ गया है, रास्ता बंद है और अगले दो दिन तक रस्ता खुलने के आसार नहीं हैं। इसी के साथ बस, बस-स्टैंड पर एक कौने पर खड़ी हो जाती है। प्रातः दस बजे तक बस में ही इंतजार करते बीते, आगे के लिए कोई बैकल्पिक मार्ग की छोटी या बड़ी गाडियां नहीं मिल सकी। भाईयों से टेलिफोनिक संवाद से पता चला कि फल के बाहन भी रास्ते में फंसे हुए हैं, सुंदरनगर साइड में खड़ड में पानी खत्तरे के स्तर को पार कर आसपास के इलाकों को जलमग्न किए हुए है।

मंडी से दो ही वैकल्पिक मार्ग कुल्लु के लिए थे - एक कंडी-कटौला होकर, जहाँ से छोटी गाँडियाँ चलती हैं, लेकिन आज यह भी भूस्खलन के चलते बंद था। दूसरा चैलचोक से होकर, जो पंडोह तक पहुंचाता है। मंडी से पंडोह सीधे मुश्किल से पोन घंटे का रास्ता है, जो कैरचोक के धुमावदार रास्ते से होकर 3-4 घंटे का हो जाता है। खैर आपातकाल में जहां 24 घंटे तक रास्ता खुलने के असार नहीं हों, तो ये 3-4 घंटे भी अधिक नहीं लगते, जब किसी तरह घर पहुंचना प्राथमिकता में रहता है।

किसी भी वैकल्पिक रुट के लिए कोई बस या टैक्सी नहीं मिल रही थी। इसी बीच फ्रेश होकर पास के ढावे में आलू-पराँठा, दही व चाय के नाश्ते के साथ तृप्त होकर अपना सामान पीठ पर लादे पास के पुल तक चहलकदमी करते हैं। कुछ पिछले सात-आठ घंटे तक बस में बैठकर शरीर में हॉवी हो चुकी जकड़न से निजात पाने के लिए, तो कुछ पुल से सुकेत खड्ड़ का मुआइना करने के भाव के साथ, जिसमें भयंकर जलभराव के समाचार आ रहे थे।

पुल पर पहुंचते ही नजारा साफ था, लोग पुल पर खड़े होकर भय मिश्रित आश्चर्य के साथ इसके उग्र स्वरुप के दीदार कर रहे थे। सुकेत नदी विकराल रुप लिए हुए थी। इसका प्रवाह पुल के नीचे से पार होकर आगे ब्यास नदी में मिल रहा था। दोनों के संगम पर दायीं और पंचवक्र शिव मंदिर है, जिसके दीदार 9-10 जुलाई के विप्लवी बाढ़ के मंजर के बीच पूरे विश्व ने किए थे, जिसमें केदारनाथ त्रास्दी की भीमशिला से संरक्षित केदारनाथ मंदिर के समकक्ष भोलेनाथ के दैवीय स्वरुप के भाव शिवभक्तों के ह्दय में झंकृत हुए थे, जब ऐसा लगा था कि स्वयं सावन भोलेनाथ के अभिषेक के लिए उमड़ पड़ा हो। आज पुल से इसके दिव्य तीर्थ का दूरदर्शन कर रहा था। लगा बाबा ने हमारी व्यथा-वेदना सुन-समझ ली थी।

वहाँ से बापिस होते ही बस स्टैंड पर हमें पठानकोट-कुल्लू बस के दर्शन हुए। पूछने पर पता चला कि ये चैलचोक से होकर पंडोह व आगे कुल्लू तक जा रही है। बस में आगे ही ड्राइवर के पीछे दूसरी पंक्ति में सीट मिल जाती है। घर पहुँचने का पहला मोर्चा फतह होते दिख रहा था, आठ घंटे का इंतजार खत्म हो रहा था। अगले आधे घंटे में बस के पूरा भरने के बाद हम चल पड़े नए-अनजान मार्ग पर, जिसके बारे में भाई से बहुत-कुछ सुना था। नए क्षेत्र से होकर यात्रा की उत्सुकतता व रोमाँच का भाव चिदाकाश में उमड-घुमड़ रहा था और हमारी बस मंडी से नैरचोक की ओर बढ़ रही थी।.......(शेष अगली पोस्ट में)     

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2

बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर

रास्ते में शिमला लॉयन क्लब द्वारा वृक्षारोपण का विज्ञापन पढ़कर अच्छा लगा। बाँज के वृक्षों के बीच देवदार के पौधों को बढ़े होते देखकर मन प्रमुदित हुआ। मन में भाव फूट रहे थे कि भगवान शिव इन समझदार व जिम्मेदार लोगों पर अपने अजस्र आशीर्वाद बरसाए। (गॉड शिवा ब्लैस दीज केयरिंग सॉउल)। सीधी उतराई में काफी नीचे उतरते गए। वन की सघनता, नीरवता और गहराती जा रही थी। लो आखिर मंदिर की झलक झाँकी मिल ही गई। थोड़ी की देर में हम इसके पास में थे। वाईं और पहाड़ी शैली में एक छोटा सा मकान, संभवतः जंगलात का है या पूजारीजी के रहने का ठिकाना। दाईं और मंदिर है, छोटा लेकिन कुछ फैला सा, एक मंजिला। लाल रंग से पुता, सीमेंटड़ पिरामिडाकार छत्त लिए हुए। चप्पल, गेट के जुत्ता स्टैंड पर उतारकर आगे बढ़े।

निर्देश पढ़कर बाउड़ी तक उतरे। निर्मल जल ताले में सुरक्षित दिखा। सिक्के पानी की तह में पड़े थे। इसके ऊपर लाल गुलाब स्थिर अवस्था में तैर रहे थे। बाउड़ी का यही जल नीचे पाइप से झर रहा था एक दूसरी बाउड़ी में। यहाँ बाउड़ी से जल कहाँ जाता है, नहीं दिखा, न ही समझ आया, न ही खोज की। संभवतः नीचे कहीं झरता होगा, जायरु (पहाड़ी स्प्रिंग वॉटर) बनकर। पास में रखे जग में झरते निर्मल-शीतल जल को भरकर अपनी तेज प्यास बुझाई। पैरों पर जल डालकर इनपर लगी धूल साफ की और थकान भी। और कुछ छींटे पवित्रिकरण के भाव के साथ छिड़ककर मंदिर में प्रवेश की तैयारी की। बग्ल में ब्रह्मलीन बाबा की अखण्ड धुनी भी थी। पहले मंदिर में पहुँचे। देवदर्शन किए, पूजारीजी से चरणामृत प्रसाद लिए। अनुमति लेकर नीचे धुनी में आ गए।

कमरे में प्रवेश किए। धुना सुलग रहा था। कमरे के कौने में लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे पड़े थे। एक बड़ा सा लठ धुनी में सुलग रहा था। सामने चौकी पर बाबा का एक फोटो, दूसरा स्कैच चित्र रखा था। सामने चरणपादुकाएं। अखण्ड धुनी की राख को अनिष्ट निवारक, अलौकिक बताया गया था। इस तीर्थ स्थल की कुछ विभूति कागज की पुड़िया में रखकर हम बाहर निहारने लगे। हालाँकि हमारी सीधी सी स्पष्ट सोच है कि इस सृष्टि में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता, सब अपनी पात्रता के अनुरुप रहता है। हमें यहाँ के एकांत-शांत परिसर, आध्यात्मिक ऊर्जा से आवेशित वातावरण, बाहर दो छोटी-छोटी खिड़कियों से घाटी, जंगल और शिमला के विहंगम दृश्य, अनुपम व अद्वितीय लग रहे थे। हम इन सबके बीच एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति कर रहे थे।

कुछ देर भोले बाबा का ध्यान किए, जीवन की नीरवता, आध्यात्मिक सत्य और जीवन लक्ष्य पर विचार केंद्रित किए। मन में भाव उठा कि किन्हीं फुर्सत के दिनों में, समय लेकर यहाँ बैठेंगे, साधना-अनुष्ठान करेंगे। जो भी हो, समय सीमा को ध्यान में रखते हुए बाबाजी से मिलने चले। प्रसाद में मिले मीठे दाने गिने, पूरे 22 थे। 2 को शिव शक्ति का रुप मान ग्रहण किए। भाव रहा कि दोनों जगतपिता, जगनमाता का कृपा प्रशाद धारण कर रहे हैं।

पूजारी भीमदास से अपना परिचय कराया। पूजारीजी कुछ रिजर्व प्रकृति के थे, मौन प्रधान लगे। उन्हें सहज करने, खोलने के लिए अपनी पूरी कथा-गाथा बताई। कहाँ से आए हैं, कैसे आए हैं, अकेले क्यों, आगे साधना-अनुष्ठान की मंशा भी जाहिए किए। घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। ऊपर माँ तारा का मंदिर दूर लग रहा था, मन में संशय था कि इस समय वहाँ से शिमला के लिए बस मिलेगी भी या नहीं।

हमारी दुविधा को देखते हुए पूजारीजी ने मार्गदर्शन करते हुए कहा - सीधा रास्ते पर आगे बढ़िए, एक घंटे में तारा देवी स्टेशन पहुँच जाओगे। ऊपर तारा देवी मंदिर से बस अब मिलने से रही। भीमदासजी को प्रणाम कर हम चल दिए। शिवालय मंदिर परिसर से चार सफेद पुष्प (शिव परिवार के प्रतिनिधि) पॉकेट में डालकर, बाँज के बीहड़ वन में प्रवेश कर गए।

वन की सघनता बढ़ती गई, बैसी ही नीरवता और गंभीरता भी। रास्ता पर्याप्त चौढ़ा था, सो गिरने फिसलने का कहीं कोई भय नहीं था। सीधा मार्ग धीरे-धीरे चढ़ाई में बदल गया। इस निर्जन प्रदेश में जंगली जानवरों का अज्ञात सा भय अचेतन मन पर छाना स्वाभाविक था। पूरे मार्ग भर शिव मंत्र का जप एवं सुमरण चलता रहा। अप्रत्याशित खतरे-हमले के लिए हाथ में पत्थर और ड़ंडा ले रखा था। इसी क्रम में जंगल पार हो चला था।

जंगल के लगभग अंतिम छोर पर विश्राम के लिए पत्थर का एक चबूतरा बना था। यहाँ पर कुछ देर विश्राम कर, पीछे मुड़कर तय किए गए मार्ग को निहारा। जंगल की विहंगम दृश्यावली मनोरम, आलौकिक, अद्वितीय और अनुपम थी। आश्चर्य हो रहा था कि इतने सुन्दर व घने जंगल से होकर यह पथिक अकेला सफर तय किया है। 


वन के ऊपर माता का मंदिर और ह्दय क्षेत्र में शिव का प्राचीन मंदिर। काश कैमरा होता। बैसे आँख के कैमरे से चित्त के पटल पर यह विहंगम दृश्य हर हमेशा के लिए अंकित हो गया था। (हालाँकि बाद की समूह यात्रा में अगले वर्ष यहाँ की फोटोग्राफी का संयोग बनता है।)

विश्राम के साथ कुछ दम भरने के बाद फिर मंजिल की ओर आगे बढ़ चले। आगे फिर जंगल आ गया, देवदार से भरा। इसको पार करते ही कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। इसकी मालकिन दो पहाड़ी महिलाएं ढलवां पहाडियों में नीचे घास काट रहीं थी। उनके बुलाने पर शेरु कुछ शांत हो गया, हमारे प्यार भरे उद्बोधन और हाथ में डंडे को देखकर भी वह मार्ग से हट चुका था।

आगे रास्ता धार या रिज से होकर आगे बढ़ रहा था। दाएं भी रास्ता और वाएं भी। दाएं का चुनाव किया, यह सोचकर कि शिमला दाएं ओर जो ठहरा। आगे जंगल औऱ घना होता जा रहा था। फिर दो राहें। यहाँ भी दाईं राह परर चल पड़ा। लेकिन थोड़ी दूर पर पत्थर-सीमेंट का गेट मिला। आगे बढ़ने पर समझ आया कि किसी की स्थापना है यह। सो वाएं रास्ते से चल पड़ा। ढलवाँ, संकरा और घने वृक्षों से आच्छादित पगडंडी से होकर अब गुजर रहा था। शीघ्र ही नीचे वाहनों की आवाजें आना शुरु हो गई थी, साथ ही स़ड़क भी दिख रही थी। लगा मंजिल के बहुत करीब हैं अब हम।

लो, सामने भवन दिख रहे हैं। मानवीय बस्ती आ गई है। कुछ देर में हम सड़क पर उतर आए। यह क्या, हम तारा देवी स्टेशन पहुँच चुके थे। यहीं पास के एक पहाडी ढावे में बैठते हैं, इतने लम्बे सफर के बाद शीतल जल। चाय भी बन रही है। एक कप और बना देना। इस तरह चाय की चुस्कियों के साथ पिछले घंटों की यादगार यात्रा की जुगाली के साथ आज के ट्रेकिंग एडवेंचर, शिवालय दर्शन की रोमाँचक यात्रा की पूर्णाहुति होती है।

तारादेवी स्टेशन से सीधे टुटीकंडी आइएसबीटी बस मिलती है। टुटीकंड़ी बस-स्टैंड से पुराने बस-स्टैंड पहुँचते हैं। बहाँ से बालुगंज, जहाँ प्रख्यात कृष्णा स्वीट्स में दूध-जलेबी की मन भावन डिश का आनन्द लेते हैं। यहाँ से एडवांस स्टडीज के शांत कैंपस में प्रवेश कर अपने कमरे में पहुँचते हैं। बिस्तर पर कमर सीधी करते हुए, कुछ पल विश्राम करते हैं। इस बीच दिन की यात्रा के रोँमाँचक अनुभवों को निहारते हुए गाढ़ा अहसास हो रहा था कि कैसे मन की गहरी चाहत या कहें बाबा के बुलावे पर आज की यादगार यात्रा का संयोग बना था और पग-पग पर उसका दिव्य संरक्षण व मार्गदर्शन मिला था।

इसके भाग-1 के लिए पढ़ें - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

बुधवार, 31 अगस्त 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

 बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर


 दोपहर के भोजन के बाद मन कुछ बोअर सा व अलसाया सा लग रहा था। बोअर कुछ इस तरह से कि एडवांस स्टडीज का कोई सेमिनार या प्रेजेंटेशन आदि का बंधन आज के दिन नहीं था, क्योंकि यहाँ के प्रवास का काल लगभग पूरा हो चुका था, सामूहिक भ्रमण का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था। (संस्मरण वर्ष
2013 मई माह का है)

एक माह के दौरान शिमला के कई स्थलों को मिलकर एक्सप्लोअर किया था, लेकिन शिमला में शिव के धाम की खोज शेष थी। कल सुबह ही विक्रम ने सफाई के दौरान सुबह बीज डाल दिया था कि तारा देवी शिखर के नीचे शिव का बहुत सुंदर व शांत मंदिर है। आज दोपहर के खाली मन में एडवेंचर का कीड़ा जाग चुका था कि आज वहीं हो लिया जाए। कोई साथ चलने को तैयार न था, सो यायावरी एवं तीर्थाटन की मनमाफिक परिस्थितियों सामने थीं। कमरे में आकर विश्राम का विकल्प भी साथ में था, लेकिन परिस्थिति एवं मनःस्थिति का मेल कुछ ऐसे हो रहा था कि लगा जैसे बाबा का बुलावा आ रहा है और मन की पाल को हवा मिल गई, कि चलो शिवालय हो आएं।

एडवांस्ड स्टडी शिमला का ऐतिहासिक भवन एवं भव्य परिसर
 

एडवांस स्टडीज के गेट के बाहर बालूगंज से बस भी मिल गई थी। सीधा शिमला के पुराना बस अड्डा उत्तरे। यह क्या, यहाँ तो एक ही बस खड़ी नहीं थी तारा देवी मंदिर के लिए। रास्ते में शोधी या तारा देवी स्टेशन पर उतरने का कोई ईरादा न था। कौन चलेगा दूसरी बस में। जाएंगे तो सीधा माता के द्वार पर उतरेंगे, फिर देखेंगे आगे की शिव मंदिर यात्रा।

लगभग एक घंटा बीत गया बस के आगे पीछे भागते, ड्राइवर व सवारियों से बस का पता-ठिकाना पूछते..। इसी बीच अपने बी.टेक. लुधियाना के सहपाठी अवस्थीजी की कोचिंग अकादमी - विद्यापीठ के दर्शन भी हो गए। फुर्सत में मिल लेंगे इनसे बाद में। लो बस आ गई, शोघी तक। चलो वहां तक ही सही, वापस आ जाएंगे, यदि वहाँ से सीधे तारा देवी मंदिर के लिए बस न मिली तो। कुछ ऐसा ही हुआ भी। शोघी से स्कूल बच्चों से भरी एक लोक्ल बस में बैठ गए, कुछ मिनट खड़े खड़े यात्रा करते हुए स्कूली बच्चों के साथ बस ने हमें राह में उत्तार दिया। लेकिन तारा देवी का प्रवेश गेट और रास्ता तो पीछे है 300 मीटर लगभग। सवा 2 किलोमीटर ऊपर है मंदिर अभी।

कुछ देर बस-टैक्सी आदि की उम्मीद में खड़े रहे, लेकिन जल्द ही ना उम्मीद होकर अपनी सबसे विश्वस्त 11 नंबर की गाड़ी से चल दिए। सड़क को छोड़कर शॉर्टकट पगडंडी का सहारा लिए। पत्थरों पर बज्री नुमा पत्थरों पर ऊपर चढ़ने से आज की यात्रा की कठिन शुरुआत हो चुकी थी। ऊपर मुख्य मार्ग पर कुछ टैक्सी अभी चल रही थी। लेकिन इन्हें एक अजनबी पथिक से क्या लेना देना। 

शिमला का वैली व्यू (प्रतिनिधि फोटो)
 

ऊपर देखता, मंदिर का भवन काफी ऊपर था। राह में धूप सीधे बरस रही थी, साथ ही ठंडी हवा भी, नीचे गांव सड़क घाटी का हरा-भरा विहंगम दृश्य सुहावना लग रहा था। प्यास भी लग रही थी। पानी की कोई व्यवस्था साथ नहीं थी, क्योंकि सोचा नहीं था कि ऐसी ट्रैकिंग की भी नौबत आएगी। यह आज मेरी कौन सी परीक्षा ली जा रही थी,  व यह कौन सी शक्ति मुझे इन सुनसान राहों पर ऊपर बड़ा रही थी। यह तो भगवान शिव ही जाने, जिनके द्वार तक हम संकल्पित हो कर चल पड़े थे। अभी तो सीधे ऊपर तारा देवी का मंदिर था।  

शॉर्टकट पगडंडी से ऊपर चढ़ा ही था कि बड़ी सी पानी की सीमेंट टंकी दिखी। आवाज आ रही थी अंदर से पाइप में पानी के निकासी की, लेकिन नल कहीं ना दिखा। खाली हाथ ऊपर बढ़ चला। रास्ते में यह क्या, नीचे आवाज आ रही थी जानी पहचानी हॉर्न की और छुक-छुक की भी। तो यहीं नीचे सुरंग से होकर रेल्वे ट्रैक आगे बढ़ता है। कुल मिलाकर सामने एक रोमांचक दृश्य था। शिमला-कालका ट्रैन पहाडियों के बीच लुका-छिपा करती हुई सुरंगों के आर पार हो रही थी।

हम भी अपनी मंजिल तारा देवी शिखर की ओर बढ़ रहे थे, जहाँ से हमें शिव मंदिर के लिए दूसरी ओर नीचे उतरना था। सड़क पार कर चोड़ी पगडंडी मिली, लगा पक्की सड़क बनने से पहले तीर्थ यात्री इसी राह से सामान के साथ घोड़ा आदि के साथ जाते रहे होंगे। आज भी हो सकता है श्रद्धालु पर्व त्योहारों में इसी राह से चढ़ते उतरते होंगे। 

रास्ता चीड़ की सूखी पत्तियों से ढका था, कुछ-कुछ फिसलन भरा। लेकिन इनके साथ अपनी बचपन की विरल यादें अचेतन की अतल गहराईयों से उभर कर आज ताजा हो रहीं थी। भूंतर के आगे मणिकर्ण घाटी में शड़शाड़ी से पुलपार कर ओल्ड़ जाते समय ऐसे ही चीड़ पत्तियों से भरे रास्ते बचपन में देखे थे, बुआजी की बड़ी बेटी की शादी में शरीक होने गए थे। आज वो पुरानी यादें ताजा हो रहीं थीं।

एक ओर याद ताजा हो उठी। यह जंगली झाड़ियों में खट्टी-मिठी आँछ (बुश बैरी) को बीन कर खाने का अनुभव था। कुछ-कुछ पानी की कमी इनसे पूरी होती अनुभव कर रहा था। बीयर ग्रिल के मैन वर्सेज वाइल्ड का एक पात्र खुद को अनुभव कर रहा था। सच में निपट अकेला, बिना किसी तैयारी के भोलेनाथ शिव के दर्शनार्थ उनके धाम की खोज में। बीहड़ वन के सन्नाटे को चीरते हुए हम अकेले बड़ रहे थे।

अब रास्ता मुख्य मार्ग से अलग हो गया था। ऊपर दूर मोड़ दिख रहा था। बीच का सफर अपने गाँव के पीछे (बनोगी गांव के ऊपर और रेऊंश के नीचे का वन क्षेत्र) बीहड़ बनों में बचपन के बिताए रोमाँचक पलों को तरोताजा कर रहे थे। रास्ते भर खट्टी मिठी बुश बैरी की हरी भरी झाडियां जहाँ भी मिलती गईं, उनसे दो-चार दाने तोड़कर सेवन करता रहा।

मार्ग में लेबर काम करते मिले। अपना रोल्लर आगे-पीछे कर रहे थे। एक थके हैरान-परेशान लेकिन लक्ष्य केंद्रित तीर्थ यात्री को वे कौतुक भरी निगाहों से देख रहे थे। बात-चीत करने का न समय था और न ही मनःस्थिति। राह में उतरता हुआ एक यात्री दुआ-सलाम कर कुछ मन हल्का व आश्वस्त करता प्रतीत हुआ। इस निर्जन राह में एक आस्थावान श्रद्धालु के दर्शन व उसका आत्मीय स्पर्श  निःसंदेह रुप में सकूनदायी लगे।

शिमला के ट्रेकिंग ट्रैल्ज - (प्रतिनिधि फोटो)

इनको पार कर आधे से अधिक मार्ग, लगभग डेढ़ किमी तय हो चुका था। आगे मुख्य मार्ग से पत्थर की सीढ़ियाँ और कछ घने वन से होकर रास्ता पार किया। मुख्य मार्ग पर आते ही – लो यह क्या। ऊपर माँ का मंदिर दिख रहा था, सहज विश्वास न हुआ कि पहुँच गए। अब एक मोड़ और बस...। कुछ पल बैठ दम भरा। प्यास लगी थी, लेकिन पानी न था। फिर आगे बढ़ चले। यह क्या मोड़ पर शिव मंदिर का बोर्ड लगा था। क्यों न सीधे इस मार्ग से बढ़ चलें, पहले शिव बाबा के दर्शन कर लें, वहीं तो आज की मूल मंजिल थी, फिर देखेंगे ऊपर माता का द्वार, जहाँ पिछले दो रविवार आ चुके थे वहाँ। तब शिवमंदिर का बोर्ड पढकर उतरने की इच्छा जगी थी, लेकिन साथी लोग तैयार नहीं थे। लगा, जो होता है, अच्छा ही होता है।

अब हम पगडंडी पर बढ़ चल रहे थे, जो बहुत ही संकरी थी। बाँज के पत्तों से भरी, फिसलन भरी थी। एक कदम दाएं कि सीधे नीचे गए गहरी घाटी में। हालाँकि बांज के घने पतले वृक्ष बीच में रोक सकते हैं, लेकिन चोट तो काफी गंभीर लग सकती है ऐसे में...। हम एकाकी आगे बढ़ रहे थे, पीछे ऊपर माता का मंदिर दिख रहा था। शनै-शनै हम जितना नीचे उतरते गए, मंदिर पीछे छूटता गया और अब दृष्टि से औझल हो चुका था व आगे जंगल और घना होता जा रहा था। बढ़ते बढ़ते दूर कुछ हलचल दिखी, बंदर कूद रहे होंगे, नहीं ये तो गाय जैसा पशु लगा। पास में वन विभाग का बोर्ड भी दिखा। यहाँ जंगल में लोगों के छोड़े हुए मवेशी चर रहे थे।

बीच राह में किसी तरह के अप्रत्याशित खतरे या हमले से निपटने के लिए एक हाथ में नुकीला पत्थर और दूसरे हाथ में एक ठूंठ का डंड़ा हम थाम चुके थे। (जारी....शेष भाग-2 व अंतिम किस्त अगली पोस्ट में - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2)  

तारा देवी हिल्ज के बीहड़ बन और बांजवनों के मध्य शिवमंदिर

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...