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शनिवार, 28 नवंबर 2015

यात्रा वृतांत - हमारी कोलकाता यात्रा - भाग1

भावों के सागर में एक डुबकी


संचार की अवधारणा को लेकर आयोजित एक बौद्धिक संगोष्ठी (कॉन्फ्रेंस) में जाने का संयोग बना, सो अपने दो युवा सहयोगी, सहशिक्षकों के साथ इसमें भागीदारी के लिए कोलकाता चल पड़े। अंतिम समय तक सीट रिजर्व नहीं थी, लेकिन अंतिम कुछ घंटों में रिजर्वेशन कन्फर्म होने के साथ लगा, जैसे दैवी कृपा साथ में है। रात ठीक 1030 बजे दून एक्सप्रेस हरिद्वार से कोलकाता की ओर चल पडी। 

यात्रा की भाव भूमिका -
भावों की अतल गहराई लिए हम इस यात्रा पर जा रहे थे। यही वह वंग भूमि है जिसने हर तरह की विभूतियों से इस भारतभूमि को धन्य किया है और विश्व को अजस्र अनुदान देकर मानवता को कृतार्थ किया है। साहित्य हो या कला, फिल्म हो या स्वतंत्रता संग्राम - हर क्षेत्र में इसके विशिष्ट योगदान रहे हैं, और सर्वोपरि धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में तो इसका कोई सानी नहीं। श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, स्वामी प्रण्वानन्द, कुलदानंद व्रह्मचारी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी विशुद्धानंद, महायोगी श्री अरविंद, सुभाषचंद्र बोस, रविंद्रनाथ टैगोर, विपिन चंद्र पाल,....इस वीर प्रसुता दिव्य भूमि, इस तीर्थ क्षेत्र को देखने के गहरे भाव के साथ यात्रा शुरु हो चुकी थी। कॉन्फ्रेंस एक वहाना थी, लेकिन इसमें भी हम एक विद्यार्थी के ज्ञान पिपासु भाव के साथ अपने विषय क्षेत्र के नए आयामों को जानने व एक्सप्लोअर करने के भाव के साथ जा रहे थे।

दून एक्सप्रेस मेें बीते तप-योगमय लम्हे
सीट अपर बर्थ में होने के कारण हिलने-ढुलने की, डिग्री ऑफ फ्रीडम, सीमित रही, ऊपर से दून एक्सप्रेस का आदिम ढांचा इसे ओर सीमित किए रहा। काफी कुछ एक कालकोठरी में वंद होने का अहसास होता रहा। अपर बर्थ अपनी ऊँचाई के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। लेट कर सफर के अलावा कोई विकल्प नहीं था। रात लेटे लेटे ही बीती। अगला दिन भी लगभग ऐसे ही बीता। मोवाइल में नेटवर्क की प्रोबलम और कुछ टाटा डोकोमो की कृपा से बाहरी संसार से संपर्क कट चुका था, अपने साथियों के साथ खाते पीते, चर्चा करते हुए सफर में आगे बढ़ते रहे। शाम के 7 बजे हम बनारस पहुंच चुके थे। वहां ट्रेन काफी देर रूकी। यहां की वाइ-फाई सुविधा का लाभ लेते हुए थोडी देर के लिए अपने खोए संसार से कुछ पल के लिए जुड़ गए।
  
अगले दिन कोलकाता से पहले बर्धमान तक कुछ सवारियां उतर चुकी थी, सो साइड लोअर बर्थ पर सीट मिलने से खिड़की से वंगाल के ग्रामीण आंचल को देखने का मौका मिला। इस रास्ते से दिन के उजाले में यह पहला सफर था, सो बाहर के दिलकश नजारों को निहारते रहे और यथा संभव कैमरे में केप्चर करते रहे। हर गांव, हर कस्वे, हर घर के बाहर तलाब-तलैया और नारियल-ताड़ी के पेड़ हमारे लिए एक रोचक दृश्य़ थे। खेतो में धान कट चुकी थी। कटी धान की ढेरियां कहीं कहीं दिख रही थी। आगे कोलकाता की ओर बढ़ते गए तो धान के हरे भरे खेत लहलहाते मिले। पता चला की यहां बारहों महीने खेत में चाबल की खेती होती है।  

ट्रेन में मच्छी-भात क्लचर से परिचय -
अब तक हमारा परिचय कोलकाता में किसी कंपनी में पिछले तीन दशक से काम कर रहे सज्जन जनार्दन साहब से हो चुका था। इनसे अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए, अपनी जानकारी में बृद्धि करते रहे। पता चला मच्छी-भात यहां लोगों का प्रिय डिश है। मच्छली को शाकाहार माना जाता है, यहां तक कि किन्हीं पूजा में तक इनका प्रयोग होता है। हमारी जिज्ञासा गहरी हो चुकी थी कि मच्छली शाकाहार कैसे हो सकती है। समीपतम जबाब था कि एक मच्छली घास पत्ते भर खाती है, सो उसे शाकाहारी मच्छली माना जाता है, और उसे खाने में कोई परहेज नहीं रहता। खैर हमें इतना समझ आ रहा था कि देश काल परिस्थिति के अनुरुप, स्थानीय मजबूरियों के अनरुप भोजन की आदतें तय होती हैं। जैसे बर्फीले दूरस्थ ठंडे इलाकों में जहां शाक-अन्न दुर्लभ होते हैं, वहां मांस व देसी दारु का सेवन प्रायः लोक प्रचलन रहता है।

हावड़ा स्टेशन पर यागार पल -
 
ट्रेन अढाई घंटे लेट थी, सो सुबह 7 की बजाए हम दिन के 0930 बजे कोलकाता के हाबडा स्टेशन में पहुंचे। यहीं रेल्वे ट्रेक का अंतिम छोर है। सो आश्चर्य नहीं कि सीध स्टेशन के अंदर से ही वाहनों को बाहर निकलते देखा। लेकिन हमारे ठहरने की व्यवस्था स्थानीय परिजन के घर पर हो चुकी थी, सो उनके आते ही साथ चल दिए।

स्टेशन में अंदर चहल-पहल और भीड़ थी। बंगला और अंग्रेजी में लिखे बोर्ड, होर्डिंग और विज्ञापन देखकर लग रहा था कि हम वंग भूमि में पदार्पण कर चुके हैं। स्टेशन से वाहर आते ही इसके भवन के अंग्रेजकालीन भव्य आर्किटेक्ट को निहारते रहे। सच में अंग्रेजों के हम कुछ मामलों में कितने ऋणी हैं। भवन के रंग से मैच करती पीले रंग की टेक्सियां यहां की पुरातन विरासत की जीवंतता का पहला अहासस दे रही थी। हालांकि पता चला कि अब इनके समानान्तर ओला और उबर जैसी टेक्सियों का चलन भी बढ़ रहा है, जो पर्यटकों की बढ़ती संख्या व सुविधा के अनुरुप उचित भी है। 

पुरातन विरासत को समेटे कोलकाता के दर्शन -
स्टेशन से वाहर निकलते ही हावड़ा पुल के दर्शन हुए। विशालकाय पुल, अपने विचित्र एवं अद्वितीय रचना के कारण यात्रियों के मन में एक अलग ही छाप छोड़ जाता है। पुल के नीचे से गुजरती, अपनी मंजिल (सागर) की ओर बढ़ती अलमस्त हुगली नदी (गंगा जी मुख्य धारा) अपने विराट वैभव के साथ श्रद्धानत कर देती है। पुल को पार करते ही सीधा बड़ा बाजार आता है, जिसे, कोलकाता का दिल कहा जाता है, रविवार होने के नाते आज भीड़ न के बरावर थी। अन्यथा यहाँ सड़क पर तिल धरने की जगह नहीं रहती और यहां का जाम तो खासा चर्चा का विषय है। यहां की खुली सड़कों को देखकर नहीं लग रहा था कि हम किसी मैट्रो शहर में हैं और पर से प्राचीन कई मंजिले देसी भवन, जिनका इतिहास सौ से दो सौ वर्ष पुराना तो रहा ही होगा। 

इतिहास से रुबरु होने के बहाने हम शहर की एक लोकप्रिय चाय की दुकान पर रुके। यहां अभी भी चाय बनाने औऱ पिलाने की सौ साल पुरानी परम्परा निभायी जा रही है अंगारों की अंगीठी-चूल्हे पर पानी गर्म हो रहा था, दूसरे वर्तन में चाय मसाला तैयार हो रहा था। तीसरे वर्तन में ग्राहकों के हिसाब से ताजा चाय तैयार की जा रही थी। और फंटाई के साथ इसे कुल्हड़ में परोसा जाता है। पता चला कि दुकान सिर्फ रात को बारह से अढाई बजे तक ही बंद होती है, बाकि के 20-22 घंटे यहां चाय बनती रहती है। परम्पराओं से जुड़े शहर के तार दिल को छूने बाले लगे, जिनके बाकि दिगदर्शन अभी होने शेष थे।

पुरातन विरासत पर आधुनिकता की चादर ओढ़त शहर -
बड़ा बाजार से बाहर निकलते ही रास्ते में सडक पर दौड़ती ट्राम दिखी, जिसकी शायद बदलते जमाने के साथ मैट्रो युग में कोई प्रासांगिकता नहीं है, लेकिन शहर का परम्परा के निर्वाह से प्रेम यथावत जारी दिखा। कोलकाता की गली मुहल्लों के बारे में जो बातें उपन्यासों में पड़े थे, वे हुबहू बैसे ही यहां जीवंत दिख रह। आधुनिकता की दौड़ में अभी भी शहर बहुत कुछ अपनी विरासत को संजोए हुए है। अंग्रेजों के समय में सड़कों में बिछी जल पाइपें व इनसे फूटते पानी के फब्बारे सड़कों का साफ कर रहे थे। अब तक हम बाहर आ चुके थे, आधुनिकता को गले लगाते कोलकाता के दर्शन हो रहे थे। हम वीआईपी सड़क से गुजर रहे थे। फलाई ओबर पता तला शहर की लाइफ लाईन है, जहां जाम से मुक्त रास्ते पर गाड़ी को सरपट दौड़ा सकते हैं, नहीं तो कोलकाता का जाम जिंदगी की गति को ठहराए रहता है। रास्ते में टाबर से होते हुए आगे बढ़े। राह में परिजन के मिशन से जुड़ने की बातें, आचार्यश्री से जुड़े भाव विभोर करते संस्मरण सुनते रहे और यात्रा से जुड़े दैवीय प्रवाह को अनुभव करते रहे। रास्ते में प्रदूषण का बढ़ता स्तर थोड़ा परेशान जरुरत करता रहा। डस्ट व धुंएं की हल्की चादर ओढे शहर पर आधुनिकता का दंश, बढ़ते बाहनों की मार साफ झलक रही थी।
रास्ते में पानी की नहर मिली, पानी काफी गंदा दिख रहा था, लेकिन नोएडा-दिल्ली की सडांध-बदबू से मुक्त दिखा। पता चला यह अंग्रेजों द्वारा निर्मित गंग नहर का जल है, जो पूरे कोलकाता को पार करते हुए आगे बांगला देश तक वहता है। पता चला कि ऐसे जल में मछलियाँ खूव पलती हैं औऱ मछली यहाँ का प्रमुख आहार हैं। रास्ते में ठेले पर हर वेरायटी की मछलियों को देखने का मौका मिला। कुछ इंच से लेकर कई हाथ लम्बी। कुछ तो वर्तन के पानी में तैर रही थी। कुछ मूँछ वाली तो कुछ कांटे व टांगों बाली। यहाँ का मछली प्रेम जिसका जिक्र हम ट्रेन में सुन चुके थे, यहां की मच्छली मार्केट को देखकर प्रत्यक्ष दिख रहा था।

दक्षिणेश्वर की एक शाम -
क्षेत्रीय परिजन के घर में पारिवारिक माहौल, आत्मीय व्यवहार के बीच हम रिलेक्स हुए। चाय के साथ चार बातें कर नहा धोकर तैयार हो गए। भोजन के बाद कुछ विश्राम किए और आज पूरी शाम हमारे पास थी, सो इसका सदुपयोग करते हुए दक्षिणेश्वर का प्रोग्राम बनाए। चलते-चलते शाम हो चुकी थी, सो दक्षिणेश्वर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा छा चुका था। गाड़ी के पार्किंग स्थल से ही ताड़ के झुरमुटों के पार रोशनी में जममगा रह मंदिर का आलौकिक दृश्य मंत्रमुग्ध कर रहा था। आज उस तीर्थ स्थल के दर्शन का दुर्लभ संयोग बन रहा था, जो रामकृष्ण परमहंस की लीला भूमि – तपःस्थली रही है। हाँ मां काली से ठाकुर का सीधा संवाद होता था। यहीं नरेंद्र की माँ से भक्ति-शक्ति और विवेक-वैराग्य का संवाद हुआ था। इसी तीर्थ की पंचवटी में ठाकुर साधना करते थे और युवा शिष्यों को रात के एकांत में साधना करने के लिए प्रेरित करते थे। इसी तपःस्थली में ठाकुर ने विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को जांच-परख कर सभी धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को सिद्ध किया था।
जैसे ही हम आगे बढ़ते हैं, भक्तों की अनुशासित भीड़, मंदिर के भव्य शिल्प, द्वादश ज्योतिर्लिंगों के मंदिर और सामने रोशनीं में जगमगाता दक्षिणेश्वर काली मंदिर – स मिलाकर एक जीवंत-जाग्रथ तीर्थ की अनुभूति करा रहे थे। दर्शन के लिए लाइन काफी लंबी थी, लेकिन मंडप से मां के दर्शन के साथ हम कृतार्थ हुए और ठाकुर (रामकृष्ण) के कक्ष में माथा टेककर बापिस चल दिए। समय अभाव के कारण गंगा स्नान व बाकि कार्य़क्रम अगली यात्रा के लिए छोड़कर, अगले पड़ाव की ओऱ बढ़ चले।
गायत्री साधकों के बीच -
यह क्षेत्रीय गायत्री परिजनों की रविवारीय गोष्ठी में भागीदारी थी। यहां हर रविवार को सामूहिक सतसंग व पंचकोशीय साधना का सत्र चलता है। स्थानीय परिजनों द्वारा अपने नैष्ठिक प्रयास से चलाए जा रहे सत्साहित्य प्रसार के सुंदर प्रयास को नजदीक से देखा। आचार्य़श्री द्वारा प्रवर्तित बानप्रस्थ परम्परा यहां जीवंत दिखी। आचार्यश्री का मत था कि गृहस्थ को नौकरी-पेशा व अपने पारिवारिक दायित्व से मुक्त होने के बाद अपना समय आत्म-साधना व लोक सेवा में नियोजित करना चाहिए। अपने ज्ञान व अनुभव से समाज में सत्प्रवृति संबर्धन व दुष्प्रवृति उन्मूलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। यही आत्मसंतुष्टि, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह का राजमार्ग है। अपने परिवार, स्वार्थ और अहंकार तक सीमित मोह-लोभ ग्रस्त रिटायर्ड जीवन, मानवीय गरिमा को व्यक्त नहीं कर सकता।  

केंद्र के परिव्राजक के साधना-स्वाध्याय व सेवा मय जीवन और सत्साहित्य को घर-घर तक पहुंचाने के लिए चल रहे प्रसाय सर्वथा प्रेरक व अनुकरणीय लगे। आधे दाम में अब तक हजारों प्रेरक पुस्तकों को बांट चुके हैं। हर रविवार को यहाँ सामूहिक सतसंग व पंचकोषीय साधना का सत्र चलता है। युवा परिव्राजक इसमें सराहनीय योगदान दे रहे हैं। यदि ऐसे प्रयोग हर प्रज्ञापीठ-शक्तिपीठों व देवालयों में चल पड़ें तो हर देवस्थल जीवंत जाग्रत तीर्थ के रुप में अपने क्षेत्र को संस्कारित करने में समर्थ भूमिका निभा सके। क्षेत्रीय परिजनों के संस्मरणों को देखकर साफ झलकहा था कि गुरुस्ता का आश्वासन, कि तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे, आज भी कसौटी पर खरा उतर रहा है और परिजन पूरी निष्ठा के साथ अपना अकिंचन सा ही सही, कितु भाव भरा नैष्ठिक योगदान दे रहे हैं।....जारी, 
यात्रा का अगला व अंतिम भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - कोलकाता यात्रा, भाग-2, भावों के सागर में डुबकी

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

यात्रा वृतांत - मेरी पहली झारखण्ड यात्रा


धनबाद से राँची का ट्रेन सफर



यह मेरी पहली यात्रा थी, झारखण्ड की। हरिद्वार से दून एक्सप्रेस से अपने भाई के संग चल पड़ा, एक रक्सेक पीठ पर लादे, जिसमें पहनने-ओढने, खाने-पीने, पढ़ने-लिखने व पूजा-पाठ की आवश्यक सामग्री साथ में थी। ट्रेन की स्टेशनवार समय सारिणी साथ होने के चलते, ट्रेन की लेट-लतीफी की हर जानकारी मिलती रही। आधा रास्ता पार करते-करते ट्रेन 4 घंटे लेट थी। उम्मीद थी कि, ट्रेन आगे सुबह तक इस गैप को पूरा कर लेगी, लेकिन आशा के विपरीत ट्रेन क्रमशः लेट होती गयी। और धनबाद पहुंचते-पहुंचते ट्रेन पूरा छः घंटे लेट थी।

रास्ते में भोर पारसनाथ स्टेशन पर हो चुकी थी। सामने खडी पहाड़ियों को देख सुखद आश्चर्य़ हुआ। क्योंकि अब तक पिछले दिन भर मैदान, खेत और धरती-आकाश को मिलाते अनन्त क्षितिज को देखते-देखते मन भर गया था। ऐसे में, सुबह-सुबह पहाड़ियों का दर्शन एक ताजगी देने वाला अनुभव रहा। एक के बाद दूसरा और फिर तीसरा पहाड़ देखकर रुखा मन आह्लादित हो उठा। हालांकि यह बाद में पता चला की यहाँ पहाड़ी के शिखर पर जैन धर्म का पावन तीर्थ है।


धनबाद पहुंचते ही ट्रेन रांची के लिए तुरंत मिल गयी थी। 11 बजे धनबाद से राँची के लिए चल पड़े। धनबाद से राँची तक का वन प्रांतर, खेत, झरनों, नदियों, कोयला खदानों व पर्वत शिखरों के संग ट्रेन सफर एक चिरस्मरणीय अनुभव के रुप में स्मृति पटल पर अंकित हुआ।

रास्ते में स्टेशनों के नाम तो याद नहीं, हाँ साथ में सफर करते क्षेत्रीय ज्वैलर बब्लू और पॉलिटेक्निक छात्र अमर सिंह का संग-साथ व संवाद याद रहेगा। इनके साथ आटा, गुड़, घी से बना यहाँ का लोकप्रिय ठेकुआ, आदिवासी अम्मा द्वारा खिलाए ताजे अमरुद और कच्चे मीठे आलू का स्वाद आज भी ताजा हैं। स्टेशन पर इडली और झाल मुईं यहाँ का प्रचलित नाश्ता दिखा। साथ ही यहाँ राह में ठेलों पर कमर्शियल सेब खूब बिक रहा था, जिसे हमारे प्रांत में पेड़ से तोड़कर शायद ही कोई खाता हो। (क्योंकि यह बहुत कड़ा होता है, पकाने पर कई दिनों बाद ही यह खाने योग्य होता है)


रास्ते में तीन स्टेशन बंगाल प्रांत से जुड़े मिले। यहाँ जेट्रोफा के खेत दिखे, जिनसे  पेट्रोलियम तैयार किया जाता है। पता चला कि झारखँड में देश की 45 फीसदी कोयला खदाने हैं और यह यूरेनियम का एकमात्र स्रोत वाला प्रांत है। इसके बावजूद राजनैतिक अस्थिरता का दंश झेलती जनता का दर्द साफ दिखा। 2000 में अस्तित्व में आए इस प्रांत में अब तक 15 वर्षों में 9 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं। हाल ही में पिछले सप्ताह हुए चुनाव में भागीदार जनता का कहना था कि इस बार मिली जुली सरकार के आसार ज्यादा हैं। अखबारों से पता चला कि आज रांची में प्रधानमंत्री मोदी जी की रैली है। (हालाँकि मोदी लहर के चलते परिणाम दूसरे रहे और आज वहाँ एक स्थिर सरकार है।)
रास्ते में हर आधे किमी पर एक नाला, छोटी नदी व रास्ते भर जल स्रोत के दर्शन अपने लिए एक बहुत ही सुखद और रोमाँचक अनुभव रहा। इनमें उछलकूद करते बच्चे, कपड़े धोती महिलाएं औऱ स्नान करते लोगों को देख प्रवाहमान लोकजीवन की एक जीवंत अनुभूति हुई। खेतों में पक्षी राज मोर व तालावों में माइग्रेटरी पक्षियों के दर्शन राह में होते रहे। साथ ही तालाब में लाल रंग के खिलते लिली फूल इसमें चार चाँद लगा रहे थे।

इस क्षेत्र की बड़ी विशेषता इसकी अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी जड़ें लगी। धान की कटाई का सीजन चल रहा था। कहीं खेत कटे दिखे, तो कहीं फसल कट रही थी।  कहीं-कहीं ट्रेक्टरों में फसल लद रही थी। धान के खेतों में ठहरा पानी जल की प्रचुरता को दर्शा रहा था। अभी सब्जी और फल उत्पादन व अन्य आधुनिक तौर-तरीकों से दूर पारम्परिक खेती को देख अपने बचपन की यादें ताजा हो गयी, जब अपने पहाड़ी गाँवों में खालिस खेती होती थी।(आज वहाँ कृषि की जगह सब्जी, फल और नकदी फसलों (कैश क्रोप) ने ले ली है। जबकि यहाँ की प्रख्यात पारम्परिक जाटू चाबल, राजमा दाल जैसी फसलें दुर्लभ हो गई हैं।) लेकिन यहाँ के ग्रामीण आंचल में अभी भी वह पारंपरिक भाव जीवंत दिखा। फिर हरे-भरे पेड़ों से अटे ऊँचे पर्वतों व शिखरों को देखकर मन अपने घर पहुँच गया। अंतर इतना था कि वहाँ देवदार और बाँज के पेड़ होते हैं तो यहाँ साल और पलाश के पेड़ थे। ट्रेन सघन बनों के बीच गुजर रही थी, हवा में ठंड़क का स्पर्श सुखद अहसास दे रहा था। स्थानीय लोगों से पता चला कि रात को यहाँ कड़ाके की ठंड पड़ती है। रास्ते में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन भी हुए। पता चला कि बोकारो का जल बहुत मीठा होता है।

रास्ते में साल के पनपते वन को देख बहुत अच्छा लगा। यहाँ के वन विभाग का यह प्रयास साधुवाद का पात्र लगा। ट्रेन में गेट पर खड़ा होकर वनों, पर्वत शिखरों का अवलोकन का आनन्द लेता रहा। साथ ही मोड़ पर ट्रेन के सर और पूँछ दोनों को एक साथ देखने का नजारा, हमें शिमला की ट्वाय ट्रेन की याद दिलाता रहा। हालाँकि यहाँ के वनों में बंदर-लंगूर का अभाव अवश्य चौंकाने वाला लगा।

राँची से कुछ कि.मी. पहले बड़े-बड़े टॉवर दिखने शुरु हो गए। बढ़ती आबादी को समेटे फूलते शहर का नजारा राह की सुखद-सुकूनदायी अनुभूतियों पर तुषारापात करता प्रतीत हुआ। बढ़ती आबादी के साथ पनपती गंदगी, अव्यवस्था और स्थानीय आबादी में बिलुप्त होती सरलता-तरलता मन को कचोट रही थी।

यहाँ का लोकप्रिय अखबार प्रभात खबर हाथ में लगा, जिसके ऑप-एड पेज में आधुनिक टेक्नोलॉजी के संग पनपते एकांकी जीवन के दंश को झेलते पश्चिमी जगत पर विचारोत्तेजक लेख पढ़ा। पढ़कर लगा कि यह तो पांव पसारता यहां का भी सच है। सच ही किसी ने कहा है – जितना हम प्रकृति के करीब रहते हैं, उतना ही संस्कृति से, अपनी जड़ों से जुड़े होते हैं औऱ जितना हम प्रकृति से कटते हैं, उतना ही हम खुद से और अपनी संस्कृति से भी दूर होते जाते हैं। रास्ते का यह विचार भाव रांची पहुंचते-पहुंचते सघन हो चुका था और स्टेशन से उतर कर महानागर की भीड़ के बीच मार्ग की सुखद अनुभूतियाँ धुंधली हो चुकीं थीं।

रास्ते भर मोबाइल की बैटरी डिस्चार्ज होने के कारण रास्ते के वर्णित सौंदर्य को कैमरे में कैद न कर पाने का मलाल अवश्य रहा। भारतीय रेल्वे की इस बेरुखी पर कष्ट अवश्य हुआ। लेकिन आभारी भी महसूस करता हूँ कि इसके चलते मैं रास्ते भर के दिलकश नजारों को अपनी आंखों से निहारता हुआ, स्मृति पटल पर गहराई से अंकित करता रहा, जो आज भी स्मरण करने पर एक ताजगी भरा अहसास देते हैं।
(28-29 नवम्बर, 2014)

पाँच साल बाद सम्पन्न यहां की यात्रा को आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा, हर दिन होत न एक समान।

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