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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-1


मायानगरी से पहला परिचय

बचपन के बम्बई और आज के मुम्बई का नाम सुनते दशकों बीत गए, लेकिन यहाँ की यात्रा का कभी कोई संयोग नहीं बन सका। सुनी-सुनाई बातों और बहुत कुछ मीडिया की जुबानी, इस महानगर की छवि एक घिच-पिच शहर की बन गयी थी, जहाँ शोर-शराबा, भाग-दौड़ भरी हाय-हत्या, प्रदूषण और नरक सा जीवन होगा। फिर मायानगरी नाम से इसके घोर भौतिकवादी स्वरुप का अक्स जेहन में उभरता था। लेकिन अक्टूबर माह में जब अचानक मुम्बई के भ्रमण का संयोग बना, तो 3-4 दिन में ही मुम्बई के प्रति हमारे सारे भ्रम के बादल छंटते गए। महानगर से हल्का सा ही सही, किंतु ऐसा गाढ़ा परिचय हुआ कि मुम्बई हमारे सबसे मनभावन महानगरों की श्रेणी में शुमार हो गया।
इस महानगर में प्रकृति, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, परम्परा, अध्यात्म और एडवेंचर की जो झलक मिली, संभावनाएं दिखीं, वो हमारी कल्पना से परे थी। साथ ही अहसास हुआ कि पुरुषार्थी एवं जुझारू प्रतिभाओं के लिए यह महानगर संभावनाओं का द्वार है, जहाँ प्रतिभा एवं कला के कदरदानों की कमी नहीं। और यदि व्यक्ति विवेक से काम ले तो मुम्बई स्वर्ग से कम नहीं है, जहाँ व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी पुरुषार्थों को साध सकता है और यह मायानगरी माया के बीच रहते हुए व्यक्ति को इससे पार जाने का रास्ता भी दिखा सकती है।

प्रगतिशील बागवान भाई के संग भारत की सबसे बड़ी फल एवं सब्जी मण्डियों में एक - एपीएमसी फल एवं सब्जी मंडी, नवी मुम्बई, वाशी को एक्सप्लोअर करने के उद्देश्य के साथ इस यात्रा का संयोग बन रहा था। सितम्बर 2019 के अंत में बनी इस यात्रा का शुभारम्भ चण्डीगढ़ एयरपोर्ट से होता है। इससे पहले हिमाचल से चले भाई से हमारी मुलाकात प्रातः सेक्टर-43 में स्थित चण्डीगढ़ बस स्टैंड पर होती है।
अभी फ्लाईट को 4-5 घंटे शेष थे, सो इस खाली समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से हम चण्डीगढ़ के कुछ दर्शनीय स्थलों का विहंगावलोकन करने निकल पड़ते हैं। 17 सेक्टर से सटे रोज गार्डन से गुजरते हुए यहाँ रुकने का विचार करते हैं, लेकिन सुबह की ओंस को देखकर फिर आगे चल देते हैं। आगे शहर के उत्तरी छोर पर मानव निर्मित सुखना लेक ही हमें सही ठिकाना मालूम पड़ता है। इसके बाहर बाहन खड़ा कर हम सीढियों को चढ़कर झील का दिग्दर्शन करते हैं।
हम यहाँ संभवतः तीन दशक बाद आ रहे थे। 1980 के प्रारम्भिक दशक में डीएवी कालेज चण्डीगढ में पढ़ते हए हम एक बार यहाँ आए थे। तब और अब में इसमें बहुत अंतर दिख रहा था। इसके किनारे बनी पक्की सड़क व पगडंडियों पर लोग मोर्निंग वाक कर रहे थे। यहाँ के लोगों की फिटनेस के प्रति सजगता उत्साहबर्धक लगी, जिसमें स्त्री-पुरुष, युवा, प्रौढ़, बुजुर्ग सभी शामिल दिखे। कुछ बरगद के वृहद पेड़ के नीचे योगासन कर रहे थे।

हम लगभग एक-डेढ़ किमी पैदल चलते हुए झील की अर्द्दपरिक्रमा करते हैं, झील की शुद्ध आवोहवा और प्राकृतिक दृश्यावली मन को प्रमुदित कर रही थी। इसके किनारे कुछ यादगार फोटो लेते हैं, इसके छोर पर बने रेस्टोरेंट में नाश्ता करते हैं और फिर चण्ड़ीगढ़ एयरपोर्ट की ओर चल देते हैं। चण्डीगढ़ शहर के बीच से होकर सफर हमेशा ही एक बहुत ही सुखद अनुभव रहता है। चौडी सुव्यवस्थित सड़कें, हरी-भरी झाड़ियों, फूल एवं वृक्षों से सजे चौराहे (जिन्हें शहर के फेफडों की संज्ञा दी जाती है), सड़क के दोनों ओर खड़े बड़े-बड़े पेड़ – इस सीटी ब्यूटीफुल को विशेष पहचान देते हैं। 

इस तरह आधा-पौन घण्टे में हम एयरपोर्ट में प्रवेश कर रहे थे, जो शहर के बाहर ऐयरफोर्स के बेसकेंप के साथ स्थित है, जहाँ एयरफोर्स के हवाई जहाज कतारों में खड़े थे व यदा कदा उड़ान भर व उतर रहे थे।

चण्डीगढ़ एयरपोर्ट में प्रवेश की प्रक्रिया सरल है और यह छोटे आकार का है। यहाँ से इंडिगो सर्विस में हम मुम्बई के लिए उड़ान भरते हैं। यहाँ के एयरपोर्ट पर सामान ढोने में ट्रेक्टर के उपयोग का ठेठ पंजाबी अंदाज हमें बहुत भाया। शायद ही किसी एयरपोर्ट पर ट्रैक्टरों का ऐसा सदुपयोग होता हो।


भाई के लिए हवाई यात्रा का यह पहला अनुभव था, जिसके रोमाँच की कल्पना हम अपनी पहली हवाई यात्रा की उत्सुक्तता का पुनरावलोकन करते हुए कर रहे थे। हवाई पट्टी पर काफी देर तक आगे सरकते हुए अंत में यान स्पीड़ पकड़ता है, जेट इंजन एक्टिवेट हो जाते हैं और कुछ ही पल में एक झटके के साथ यान हवा में उडान भरता है। कुछ ही देर में हम शहर, खेत व सड़कों को पीछे छोड़ते हुए आसमान में बादलों से बातें कर रहे थे।

रास्ते में अधिकाँश समय हम बादलों के ऊपर थे, जहाँ से हम बादलों के नाना रुपाकारों का विहंगावलोकन करते रहे, जो हमेशा ही एक रोमाँचक अनुभव रहता है। बीच में मौसम खराब होने के कारण बादलों के बीच हवाई जहाज के झटकों का अनुभव भी मिलता रहा। लगभग दो घंटे बाद मुम्बई के पास नीचे जमीं के दर्शन होना शुरु हो जाते हैं, बीचों बीच सर्प सी बलखाती नदी व सड़कों की रेखा बहुत सुंदर लग रही थी। सागर तट पर बसे शहर की बसावट मुम्बई में प्रवेश की सूचना दे रही थी, ऐयर होस्टेस की अनाउंसमेंट के साथ इसकी पुष्टि हो रही थी। सागर, शहर के भवन व सड़कों को नजदीक से देखते हुए अंत में एक झटके के साथ छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एयरपोर्ट की पट्टी पर उतरते हैं।

मुम्बई एयरपोर्ट से फीड़र बस में चढ़कर हम हवाई अड्डे के भवन में प्रवेश करते हैं और एक्सट्रा लगेज (चेक्ड-इन-बैगेज) न होने के कारण सीधे एग्जिट गेट की ओर बाहर निकलते हैं। बाहर मुम्बई की टीवी इंडस्ट्री में काम कर रही विभाग की पास आउट प्रखर छात्रा प्रियंका इंतजार कर रही थी। एक कतार में खड़ा होकर हम आटो तक पहुँचते हैं। यहाँ की लोक्ल ट्रेन का अनुभव लेते हुए, स्थानीय ऑटो में मलाड़ स्थित अपने रुकने के ठिकाने पर पहुँचते हैं। यहाँ इनके जीवनसाथी संगम राय से मुलाकात होती है, जो एक उदियमान अभिनेता हैं और इससे भी अधिक एक शांत, गंभीर एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी एक शानदार इंसान। 
यहाँ का एकांत-शांत प्राकृतिक परिवेेश हमें भा गया और इनके आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के बीच लगा जैसे हम अपने ही घर आ गए हैं। खिड़की के बाहर कबूतरों की गुटरगूँ और पक्षियों की चहचाहट हमें प्रकृति की गोद में ठहरने का बहुत सुखद अहसास करा रही थी।



यहाँ प्रदूषण की कोई समस्या हमें नहीं दिखी, जिसके लिए महानगर कुख्यात होते हैं। क्रिएटिव काम करने लायक यहाँ का एकांत-शांत माहौल हमें बहुत उपयुक्त लगा। सुरक्षा की दृष्टि से भी चिंता की कोई बात यहाँ नहीं दिखी। रात को 12 बजे तक लोगों को, बच्चों बुढ़ों महिलाओं को बाहर कालोनी के पार्क में घूमते पाया, बाहर दशहरे में रामलीला की तैयारियाँ चल रही थी, हर मुहल्ले में गरबा के साथ महिलाओं व बच्चों को नाचते कूदते, एंज्वाय करते देखा। हर मुहल्ले में उत्सव का माहौल हमें चकित करने वाला लगा। प्रतीत हुआ की सामूहिक स्तर पर जीवन को एन्जवाय करना मुम्बईवासियों से सीख सकते हैं अन्यथा शहरों में सब अपने में खोए रहते हैं, किसी को दूसरे से अधिक लेना-देना कहाँ रहता है।

अगले दिनों नवीं मुम्बई, वाशी सब्जी मंडी तक आने-जाने में यहाँ के यातायात के लगभग हर तरह के तौर-तरीकों को अनुभव किया। आटो रिक्शा से लेकर उबर सर्विस, ऐसी बस से लेकर आर्डनरी बस, पैदल से लेकर लोक्ल ट्रेन व सेंट्रल रेल्वे - सभी तरह के अनुभव लिए। लोक्ल ट्रेन यहाँ की लाईफ लाईन लगी। सस्ती, किफायती, सुरक्षित और समय को बचाने वाली। ट्रेन का ढांचा पुराने स्टाईल का दिखने के बावजूद डिजिटल सुविधाओं से युक्त था, जिसमें हर स्टेशन की जानकारियाँ अनाउंस्मेंट के साथ फ्लेश होती रहती हैं।

मलाड़ से नवी मुम्बई, वाशी का किराया दो व्यक्तियों के लिए ऊबर में 550 रुपए तक रहा, वहीं ऐसी बस में 250 रुपए में निपट गया। लोक्ल बस में तो 40 रुपए में काम चल गया। वहीं ट्रेन इससे भी सस्ता विकल्प लगी। व्यक्ति अपने समय, सुविधा, आवश्यकता एवं पॉकेट के अनुसार अपने यातायात के साधन तय कर सकता है, हर तरह के विकल्प यहाँ उपलब्ध दिखे।

वाशी फल एवं सब्जी मंडी में भारत के कौने-कौने से फल व सब्जियाँ आती हैं। जहाँ तक सेब फल की बात है, तो यहाँ हिमाचल के किन्नौर, शिमला व कुल्लू इलाकों के सेब दिखे। साथ ही काश्मीर का सेब आना शुरु हो चुका था।
इसके साथ नाशपाती, केला, तरबूज, अंगूर, संतरा जैसे फलों से मंडी सजी दिखी। हमारे लिए यहाँ ड्रेगन फल एक नया आकर्षण था, जो कम ऊँचाई वाले इलाकों में उगाया जाता है। पता चला यह मूलतः एक विदेशी फल है, लेकिन अपनी पौष्टिकता के कारण भारत में खासा लोकप्रिय हो रहा है व इसका मंडी भाव भी ठीक ठाक रहता है।

दिल्ली-चण्डीगढ़ सहित उत्तर भारत की मंडियों से यहाँ पर एक अन्तर साफ दिखा, कि यहाँ फलों की क्वालिटी पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पेटियों में लोड़ हुए फलों को पूरी तरह से चैक कर पैक किया जाता है। गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं रहता। प्रायः पैकिंग के दौरान उपर की परतें तो क्वालिटी फलों की रहती हैं, लेकिन नीचे खराब फल भी डाल दिए जाते हैं। यहाँ ऊपर से नीचे तक सारे फल क्वालिटी का रखने का प्रयास दिखा, जिसके अनुरुप यहाँ दाम भी उचित रहते हैं। व्यापक क्षेत्र में फैली यहाँ की मंडी की पृष्ठभूमि में हरे-भरे पहाड़ दर्शनीय लगे और यहाँ आकाश में उडान भरते वायुयान ध्यान आकर्षित करते रहे, क्योंकि मुम्बई एयरपोर्ट की राह का एयर ट्रेफिक वाशी क्षेत्र के ऊपर से होकर गुजरता है। 
शुरु के दो दिन वाशी मंडी के नाम रहे। अगले दिन खाली समय में ठिकाने के पास के दर्शनीय स्थल - अक्सा बीच एवं कान्हेरी गुफाओं को एक्सप्लोअर करने का प्लान था, जिसका वर्णन अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं। (जारी...) यात्रा के अगले भाग को आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - मेरी मुम्बई यात्रा, भाग-2

गुरुवार, 13 जून 2019

यात्रा वृतांत - हमारी पहली विदेश यात्रा, भाग-1


मेरी पौलेंड यात्रा, भाग-1



दिल्ली से बिडगोश वाया फ्रेंकफर्ट,जर्मनी
पृष्ठभूमि एवं कृतज्ञता ज्ञापन – यह हमारी पहली विदेश यात्रा थी। विश्वविद्यालय के अकादमिक एक्सचेंज कार्यक्रम के तहत निर्धारित इरेस्मस प्लस टीचर मोबिलिटी कार्यक्रम में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की ओर से हमारा जाना तय हुआ। इस चयन के लिए हम प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पण्ड्याजी के सदैव आभारी रहेंगे। श्रद्धेय कुलाधिपति डॉ. प्रणव पण्ड्याजी एवं स्नेहस्लीला श्रद्धेया शैल जीजी के भी हम आभारी हैं उनके आशीर्वचनों एवं यात्रा के लिए आवश्यक आर्थिक संरक्षण प्रदान करने के लिए। आभारी रहेंगे ज्वलन्तजी के, यात्रा के लिए आवश्यक पासपोर्ट, वीजा आदि की व्यवस्था करने से लेकर एक सतत् सहयोगी-मार्गदर्शक की भूमिका में उपलब्ध रहने के लिए। विदेश विभाग, शाँतिकुंज के सोमनाथ पात्राजी के सहयोग के भी हम आभारी हैं। पिछली वार पोलेंड से लौटे डॉ.इप्सित प्रताप सिंह से हुई चर्चा भी हमारे इस संदर्भ में बहुत उपयोगी थी।
डोमेस्टिक फ्लाईट में पहली यात्रा का वर्णन पिछली हमारी पहली हवाई यात्रा वृतांत में कर चुका हूँ, इस बार अंतर्राष्ट्रीय फ्लाईट थी, जो दिल्ली से शुरु होकर बिडगोश, पौलेंड तक थी। बीच में फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में इसका पड़ाव था। पूरी यात्रा जर्मनी की लुफ्तांसा हवाईसेवा के माध्यम से तय हुई, जिसे यूरोप की सबसे बड़ी वायुसेवा माना जाता है। लुफ्त का अर्थ हवा है, और हंस का अर्थ लेैटिन में समूह। लेकिन हमारे लिए हिंदी का हंस ही ठीक लगा, जिसे जोड़ने पर लुफ्तांसा वायु में उड़ान भरता हंस हुआ। हमें अपने लिए इसका यही अर्थ उपयुक्त लगा।

शाम को हम गायत्री चेतना केंद्र, नोएडा में रुकते हैं, जहाँ हमने कभी पत्रकारिता की विधिवत शिक्षा ली थी। आज इसी के अगले अध्याय के रुप में हम इस यात्रा को देख व समझ रहे थे। यहीं पर संयोग से रात्रि भोजनोपरान्त भ्रमण के दौरान देवसंस्कृति विश्वविद्यालय से पासआउट हमारे पूर्व छात्र एवं वर्तमान में इनशॉर्ट एवं अमर उजाला में कार्यरत युवा पत्रकार श्री नूतन कुमार एवं दुर्गेश तिवारी तथा अपनी ट्रैवल टैगलाईन एजेेंसी चला रहे विशाल सिंह से संक्षिप्त मुलाकात होती है, जो यात्रा से पूर्व की भावभूमिका के रुप में हमारे लिए महत्वपूर्ण रही। 

इसी क्रम में विश्वविद्यालय से चलते हुए पूर्वसंध्या पर हमारे अग्रजतुल्य स्नेही श्रीराजकुमार भारद्वाज सहित यंग ब्रिगेड़ के दीपक कुमार, राहुल सतुना, सौरभ कुमार एवं स्वप्नेश चौहान हमारी पौलेंड यात्रा की अग्रिम भावभूमिका बना चुके थे। यात्रा को हरिद्वार से नोएडा एवं फिर एयरपोर्ट तक सकुशल अंजाम देने के लिए कुशल सारथी नवीनजी का भी हम हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहेंगे।
दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, टर्मिनल 3 से प्रवेश करते हैं। इसकी जगमगाहट एवं गुणवत्ता विश्वस्तरीय है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसके लिए इसके निर्माण के पीछे लगी व्यवस्था, प्रशासन एवं सरकारी तंत्र साधुवाद के पात्र हैं। लेकिन कुछ अहम् सुझाव भी हैं, जिसे हम बापसी की यात्रा की अंतिम पोस्ट में शेयर करना चाहेंगे। 

पहली यात्रा का सस्पेंस, उत्सुक्तता, संशय, रोमाँच एवं कुछ भय आदि सबकुछ हमारे साथ थे, क्योंकि बहुत कुछ पहली बार घटित हो रहा था। सबकुछ चौकन्ना होकर देख रहे, समझने की कोशिश कर रहे थे व सीख रहे थे। यहाँ सबकुछ नया था, ऐसे लग रहा था जैसे हम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हैं। विदेशी यात्री अधिक थे, देशी कम, सो एकदम नए तरह के परिवेश में एक अलग तरह का रोमाँच व सस्पेंस बर्करार था। हिंदी भाषा के विकल्प समाप्त होते जा रहे थे, अंग्रेजी ही हमारी तारणहार बनने वाली थी।


लुफ्तांसाएयरपोर्ट में प्रवेश से लेकर बोर्डिंग पास की प्राप्ति एवं सेक्यूरिटी चेकअप तथा इमाग्रेशन फोर्मेलिटीज के बाद में कुछ समय प्रतीक्षालय में बिताने के बाद अंततः लुफ्ताँसा विमान में प्रवेश करते हैं। इसके अधिकारियों एवं एयर-होस्टेसिज द्वारा स्वागत होता है। वायुयान काफी बड़ा था, तीन पंक्तियों में सीटें थी, हर पंक्ति में तीन सीटें। हमारी सीट वायीं ओर खिड़की के साथ थी।

रात लगभग 2 बजे यात्रा शुरु होती है, सो अगले 3 घंटे तक बाहर सबकुछ अंधेरे में था। लेकिन सुबह होते ही जैसे ही आँख खुलती है, जिज्ञासु मन खिड़की के शटर खोलकर बाहर झांकता है, तो नीचे बर्फ से ढके पहाड़ नजर आए, जो हमारी यात्रा के अधिकाँश समय रहे। बीच बीच में इनको निहारते रहे व इनके विडियोज लेते रहे। दिन के उजाले में इससे वेहतर हमारी यात्रा का शुभारंभ क्या हो सकता था। ये कौन सी पर्वतश्रृंखलाएं हो सकती हैं, यह प्रश्न कौंधता रहा।

विमान की स्थिरता हमारे लिए नायाव अनुभव था। पिछली डोमेस्टिक इंडिगो यात्रा में जहाज थोड़े से बादलों के बीच डांबाडोल हो उठता था, लेकिन यहाँ यान एकदम स्थिर था। केबल इंजन की आवाज आ रही थी। लग रहा था, जैसे हम एक ही स्थान पर खड़े हैं और इंजन चल रहा है। मात्र नीचे देखने पर बहुत धीमे पीछे छूटती पहाड़ियों को देखकर लगता कि हम आगे बढ़ रहे हैं।
रात का डिन्नर हल्का रहा, लेकिन ब्रेकफास्ट-काफी भारी था, जिसमें कुछ यूरोपियन डिश थे, तो कुछ दक्षिण भारतीय। नाश्ते के साथ फिकी चाय का ट्रेलर मिलना शुरु हो चुका था, जिसका साथ यात्रा के अंत तक बना रहा, जिसका जिक्र हम आगे जल-पान की परम्परा के अंतर्गत विस्तार में करना चाहेंगे।

खिड़की के सामने जहाज के पंखनुमा ब्लैड़ फैले थे, जो आकार में वृहद थे। सो नीचे दृश्यों का आधा ही दर्शन कर पा रहे थे, लेकिन हमारे लिए इतना ही पर्याप्त था। यदाकदा शटर खोलकर नीचे की ताकझांक के बीच सफर यादगार बनता गया। गिनती नहीं कि कितनी पर्वत श्रृंखलाएं पार की होंगी। अधिकाँश बर्फ से ढ़की मिली। शायद हम हिंदुकुश पर्वतश्रृंखलाओं को पार कर रहे थे। हालांकि बाद में पथ का अवलोकन करने पर पता चला कि रास्ता अफगानिस्तान, तुर्कमेनीस्तान, उक्रेन आदि देशों से होकर गुजरा था।
इस तरह हम लगभग लगभग 9 घंटे की फ्लाईट के बाद जर्मनी के शहर फ्रेंकफर्ट की हवाई पट्टी पर उतरते हैं। रास्ते में मौसम की गढ़बडियों के चलते हमारी यात्रा एक घंटे लेट थी।

फ्रेंकफर्ट विश्व के सबसे बडे एयरपोर्ट में शुमार है। यहाँ हम जिस टर्मिनल में उतरे, वहाँ से लेकर उस टर्मिनल की पैदल यात्रा, जहाँ से हमें आगे बिडगोस्ट, पौलेंड की उडान भरनी थी, एक थकाऊ अनुभव रहा। हमें दूरी का अंदाजा नहीं था, पैदल चलते चलते 8-10 किमी तय कर चुके थे।
हालाँकि टैक्सी कार भी व्यवस्था रहती हैं, जिससे हम ज्यादा बाकिफ नहीं थे। पिछली फ्लाईट लेट होने के कारण हमारे पास अधिक समय नहीं था। अतः स्कियूरिटी चैक एवं इमाइग्रेशन लाईन में लोगों से रिक्वेस्ट करते हुए हम आगे बढ़ते गए। अधिकाँश यात्रियों का सहयोग काबिले तारीफ था, वस एक महिला हमारी मजबूरी नहीं समझ पा रही थी। उसको अपना घंटों खड़ा होकर इंतजार करना अखर रहा था। सुरक्षा गार्ड हमारी मजबूरी समझकर हमें आगे पंक्ति में लगा देते हैं। यहाँ कि चैकिंग काफी कड़ी रही। पोकेट का हर समान बाहर निकाला गया। जुराब-जुत्तों की तक तलाशी ली गई। वैश्विक आतंकवाद के दौर में अज्ञात विदेशी पर्यटकों से आशंकित सुरक्षा एजेंसियों की यह जांच-पड़ताल हमें स्वाभाविक लगी।
लम्बी पैदल यात्रा के बाद हम यहाँ वेटिंग कक्ष में पहुंचते हैं, जहाँ से बिडगोस्ट जाने वाली सवारियां इंतजार कर रही थीं। यहाँ पता चला कि पिछली प्लाइट्स लेट होने की बजह से अब बिडगोस्ट की फ्लाईट भी 1 घंटा लेट है। गहरी सांस लेकर हम विश्रामगृह में बैठ जाते हैं व इंतजार करते हैं। चारों ओर लोगों के रंग-रुप, पहरावे, डील-डोल एवं बदले परिवेश तथा प्रदेश को देखकर अब गाढ़ा अहसास हो चुका था कि हम विदेश में हैं। इनमें से एक भी परिचित नहीं था। संवाद का एक मात्र माध्यम अंगेजी था, वह भी इनमें से कितनों को आती होगी, कह नहीं सकते। क्योंकि जर्मनी में जर्मन, तो पोलेंड में पोलिश बोली जाती है। अंग्रेजी वहाँ प्रधान भाषा नहीं है। अतः पुरानी पीढ़ी इससे अधिक परिचित नहीं। नयी पढ़ी-लिखी पीढ़ी ही अंग्रेजी को समझती है व बोलती है। जिसके कई अनुभव आगे इंतजार कर रहे थे।
फ्रेंकफर्ट से बिडगोस्ट का सफर सिटी लुफ्तांसा के छोटे वायुयान में पूरा होता है, जो भारत की डोमेस्टिक सेवा इंडिगो जैसा ही अनुभव रहा। बैसे ही जमीं पर आगे बढ़ते हुए जैट इंजन का शुरु होना, फिर जमीं से ऊपर उठकर आसमान तक की पहुँच, बादलों के बीच-ऊपर व संग उड़ान - लगभग बैसे ही चिरपरिचित दृश्य व अनुभव थे। 


यहाँ यान में सवारियों को विशेष निर्देश नहीं दिए जाते, जैसे हम इंडिगो में देखे थे। शायद सबको वे अभ्यस्त यात्री मानकर चलते होंगे और ऐसी यात्राएं जनजीवन का यहाँ सामान्य हिस्सा रहती होंगी।
यान की खिड़की से नीचे निहारते ही एक अंतर स्पष्ट दिखा, जो था नीचे कस्बे-शहर-खेत-जंगल व गाँवों के दृश्यों का। यहाँ कितनी हरियाली थी, जंगल कितने घने थे। खेत कितने बड़े एवं सुव्यवस्थित। कस्बों की प्लानिंग कितनी मनभावन थी, जिसका हमारे देश में सर्वथा अभाव पाया जाता है। इन्हीं दृश्यों के निहारते हुए सफर बढता रहा। 

नए परिवेश एवं नए प्रदेश में गन्तव्य स्थल की ओर बढ़ती यात्रा का रोमाँच बर्करार था। सफर के बीच में चाय-नाश्ता सर्व होता है, जो ब्राउन ब्रेड के बीच चीज़ एवं पत्तेदार सब्जियों के मिलकर बना सैंडविच जैसा था। चीज़ यहाँ के शाकाहारी भोजन का एक अभिन्न अंग प्रतीत हो रहा था। चाय वही फिकी एवं वेस्वादु जिसकी चर्चा आगे विस्तार से करना चाहेंगे। लगभग ढेड घंटे के सफर के बाद हम अपनी मंजिल बिडगोश एयरपोर्ट की ओर पहुँचने वाले थे, जिसकी अनाउंस्मेंट होती है। नीचे बिडगोश शहर की झलक मिलना शुरु हो चुकी थी व हम कुछ ही पलों में उतरने जा रहे थे।  (जारी...)
यात्रा का अगला भाग आप दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -

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