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रविवार, 24 जनवरी 2021

शिमला के ट्रेकिंग ट्रेल्ज एवं दर्शनीय स्थल

 

शिमला के बीहड़ वन (तारा देवी रेंज)

हिमाचल प्रदेश की राजधानी के साथ शिमला का हिल स्टेशन के रुप में सदा से एक विशेष स्थान रहा है। हालाँकि बढ़ती आबादी, मौसम की पलटवार और गर्मियों में पानी की कमी के चलते यहाँ नई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है, लेकिन प्रकृति एवं रोमाँच प्रेमियों के लिए इस हिल स्टेशन में बहुत कुछ है, जो इसके भीड़ भरे बाजारों से दूर एक अलग दुनियाँ की सैर साबित होता है। यहाँ पर ऐसे ही कम प्रचलित ऑफ-बीट किंतु दर्शनीय स्थलों की चर्चा की जा रही है।

        जब अंग्रेज घोड़ों पर सवार होकर इस इलाके से 1815 के आसपास गुजरे थे, तो देवदार से घिरे इस स्थल को देखकर उन्हें इँग्लैंड-स्कॉटलैंड के अपनी ठण्डी आवोहवा वाले क्षेत्रीय पहाड़ों की याद आई थी। और इसे अपने आवास स्थल के रुप में विकसित करने की योजना बनी। तब यहाँ चोटी पर मात्र जाखू मंदिर था और आस पास कुछ बस्तियाँ।सन 1830 तक यहाँ 50 घर आबाद हो चुके थे और आबादी मुश्किल से 600 से 800 की थी।धीरे-धीरे यह एक हिल स्टेशन और गर्मियों में समर केपिटल के नाम से प्रख्यात हुई। उस समय श्यामला माता (काली माता) के मंदिर के रुप में इस इलाके का नाम शिमला पड़ा। आज काली बाड़ी के रुप में इसके दर्शन रिज से थोड़ा नीचे किए जा सकते हैं, जहाँ से शिमला की घाटियों व सुदूर पर्वतश्रृंखलाओं का विहंगावलोकन किया जा सकता है। यहाँ से सूर्यास्त का नजारा भी दर्शनीय रहता है।

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS), शिमला

ब्रिटिश काल में वायसराय के रहने के लिए शिमला की एक पहाड़ी पर वायसराय लॉज का निर्माण हआ, जिसमें सबसे पहले पानी व बिजली की व्यवस्था 1888 तक हो जाती है। इसे बाद में राष्ट्रपति भवन और आज भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS-इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी) के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त उस समय के स्थापित प्रख्यात समारक भवन हैंकैनेडी हाउस,(ओवरोयसेसिल होटल,विधान सभा भवन, शिमला रेल्वे बोर्ड बिल्डिंगआदि। रिज के पास चर्च, गेयटी थिएटर, स्केंडल प्वाइंट, टाउन हॉल,जनरल पोस्ट ऑफिस आदि भवन एवं स्थल अंग्रेजों की विरासत की याद दिलाते हैं। राह में नीचे घाटी की तली में अन्नाडेल ग्राउण्ड भी इसका एक समारक है, जिसकी देखभाल अभी सेना कर रही है। इसी दौर मेंसन 1898 में 102 सुरंगों तथा 18 स्टेशनों के साथ भारत का ऐतिहासिक पहाडी नेरो गेज रेल्वे ट्रेक बनता है, जो आज सांस्कृतिक धरोहर के रुप में यूनेस्को हेरिटेज साइट में शामिल है।काल्का से शिमला तक पहाडियों के बीच लुका छिपी करता इसका सफर बेहद रोमाँचक और यादगार रहता है।


शिमला के दर्शनीय स्थलों में सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी पर जाखू मंदिर स्थित है, जिसके दर्शन शिमला के लगभग हर कौने से किए जा सकते हैं। रिज व माल रोड़ से तो इसके दर्शन एक दम प्रत्यक्ष ही रहते हैं। देवदार के गंगनचूम्बी वृक्षों से भी उँचे108 फीट ऊँचे हनुमानजी जैसे अपनी विराट उपस्थिति के साथ सबको अनुग्रहित करते प्रतीत होते हैं।


जाखू में बजरंगवली की 108 फीट ऊंची प्रतिमा

रिज से यहाँ तक पैदल भी जाया जा सकता है और टेक्सी से भी। शिमला के प्रवेश द्वार पर दायीं ओर संकटमोचन मंदिर है, जिसे उत्तर भारत के प्रख्यात हनुमान भक्त एवं महान संत नीम करौरी बाबा के आशीर्वाद स्वरुप बनाया गया था। शिमला के उस पार तारा देवी हिल्ज पर माता तारा देवी मंदिर भी अपनी उपस्थिति से श्रद्धालुओं को श्रद्धानत करता है, जिसका नजारा रात को टिमटिमाती रोशनी में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज कराता है।

बस से सीधा इसके प्राँगण तक शोघी से होकर जाया जा सकता है, लेकिन तारा देवी तक सीधे संकटमोचन मंदिर के पास से पैदल ट्रेकिंग मार्ग भी है। तारा देवी मंदिर से सामने अलग अलग दिशाओं में कसौली, चैयल तथा शिमला की पहाडियों का विहंगावलोकन किया जा सकता है। हर रविवार को यहाँ वृहद भण्डारा लगता है, जिसमें स्वादिष्ट भोजन-प्रसाद का आनन्द लिया जा सकता है। प्रायः लोग तारा देवी से बापसी में नीचे उतर कर प्राचीन शिव मंदिर आते हैं, जो तारा देवी से महज 1-2 किमी नीचे बाँज के घने जंगल में एकाँत-शांत जगह पर स्थित है। यहाँशीतल जल का चश्मा इसके परिसर में है तथा साथ ही पास अखण्ड धुनी जलती रहती है, जहाँ कुछ पल गहन चिंतन-मनन एवं आंतरिक शांति-सुकून के बिताए जा सकते हैं। यहां से सीधे जंगल से होकर 4-5 किमी लम्बा ट्रेकिंग मार्ग सीधा संकट मोचन के पास मुख्य मार्ग तक आता है। रास्ता घने बांज, देवदार, चीड़ के वनों से होकर गुजरता है। बीहड़ रास्ते में जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है, अतः ग्रुप में ही इस मार्ग की ट्रेकिंग उचित रहती है।

बांज के वनों के बीच शिमला के पैदल मार्ग

शिमला विश्वविद्यालय का परिसर भी एक पहाड़ी के ऊपर बसा है, जहाँ बस अड्डे से बसें चलती रहती हैं। एडवांस्ड स्टडी से होकर भी यहाँ तक पैदल आया जा सकता है। इसका पक्का रास्ता देवदार, बाँज और बुराँश के घने जंगल से होकर गुजरता है, जिसमें पैदल या वाहन में सफर काफी रोमाँचक रहता है। सड़क के नीचे समानान्तर रेल्वे ट्रैक है, जिसमें छुकछुक करपहाड़ी की ओट में लुकाछिपी करती रेल का नजारा दर्शनीय रहता है, जो कभी जंगल के बीच सुरंग में गायब हो जाती है, तो कभी अगली सुरंग में प्रकट हो जाती है। विश्वविद्याल के आगे एक छोर पर पीटर हिल्ज पड़ती है। इस एकांत स्थल पर एक रेस्टोरेंट भी है, यहाँ ट्रेकिंग व नाइट हाल्ट आदि की व्यवस्था है। इस छोर से नीचे घाटी के दर्शन भी अवलोकनीय रहते हैं।

यूनिवर्सिटी के नीचे सम्मर हिल रेल्वे स्टेशन है। जहाँ से पैदल ट्रेकिंग करते हुए बालुगंज पहुँचा जा सकता है। देवदार की छाया में बने पैदल रास्तों में शीतल जल की बाबडियाँ पड़ती हैं। गर्मियों के जल संकट में शिमला के वन्यप्रदेश में फैली ऐसी बाबड़ियाँ निवासियों के लिए पर्याप्त राहत देती हैं। मुख्य मार्ग पर बालुगंज में जलेबी व पकौड़े का लुत्फ उठाया जा सकता है। यहीं से सीधे ऊपर कामना देवी मंदिर का रास्ता जाता है। लगभग 2 किमी पैदल ट्रेकिंग करते हुए यहाँ पहुंचा जा सकता है। रास्ते में कुछ सरकारी मकान हैं, तो कुछएडवांस्ड स्टडी के क्वार्टर भी। लेकिन पहाड़ी के ऊपर सिर्फ मंदिर पड़ता है, जहाँ से एक ओर शिमला का नजारा तो दूसरी ओर सोलन साइड की घाटियाँ व पहाड़ियों का अवलोकन किया जा सकता है।

बालुगंज से पुराना बस अड्डा होते हुए शिमला के दूसरे छोर पर पडती है पंथा घाटी, जो शिमला का ही विस्तार है। यहाँ से नीचे 4-5 किमी की दूरी पर एपीजी शिमला युनिवर्सिटी का कैंप्स है, जिसके बारे में यहाँ से कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। यहीं से सड़क तारा देवी हिल की परिक्रमा करते हुए शोघी पहुँचती है, जिसे वाइपास रोड के रुप  में विकसित किया गया है। फलों के सीजन में अप्पर शिमला के फलों से लदे ट्रक प्रायः इसी रुट से चण्डीगढ़ व दिल्ली की सब्जी मंडियों तक जाते हैं।

पंथा घाटी से ही पहाड़ी के दक्षिण ओर साइँ मंदिर (पुजारली) का रास्ता जाता है, जिसे शिमला का छिपा हुआ नगीना कहा जा सकता है। एकाँत स्थल पर बसे इस पाँच मंजिले मंदिर के सामने बहुत बड़ा मैदान है, जहाँ से उस पार कुफरी, जुन्गा व चैयल की पहाडियों के दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ पर भी सनसेट का नजारा अलौकिक सौंदर्य़ लिए रहता है, जिसके प्रकाश में तारा देवी की पहाड़ियां विशेष रुप से आलोकित दिखती हैं।

पंथा घाटी का विहंगम दृश्य

फिर शिमला में खरीददारी के शौकीनों के लिए मालरोड़ और लक्कड़ बाजार में बेहतरीन व्यवस्था है। यहाँ हर तरह के सामान, पहाड़ी गिफ्ट मिलते हैं। साथ ही शिमला के आसपास उगने वाले मौसमी फल भी एक छोर पर सजे मिलेंगे। यहाँ का कॉफी हाउस मशहूर है। रिज पर आशियाना रेस्टोरेंट कैंडल लाइट डिन्नर के लिए सर्वथा उपयुक्त रहता है। बाकि रिज व लक्कड़ बाजार के आसपास स्ट्रीट फुड़ का स्वाद भी लिया जा सकता है। ड्राई फ्रूट्स व स्थानीय हैंडिक्राफ्ट की बेहतरीन दुकानें यहाँ मिल जाएंगी, जहाँ से कुछ यादगार गिफ्ट खरीदे जा सकते हैं। भुट्टिको बुनकरों के केंद्र सेअपने मनमाफिक पहाड़ी शाल, टोपी, मफ्फलर आदि उत्पाद देखे जा सकते हैं। लक्कड़ बाजार के नीचे देश का एकमात्र ऑपन-एअरस्केटिंग रिंग स्थित है, जहाँ सर्दियों में जमीं बर्फ पर कुछ शुल्क के साथआइस-स्केटिंग का आनन्द लिया जा सकता है।

ऐतिहासिक रिज़ मैदान, शिमला


रिज के मैदान को शिमला में शाम की चहल-पहल का केंद्र माना जा सकता है, जो पर्यटकों के बीच भी खासा लोकप्रिय रहता है। यहाँ बच्चों-बुढ़ों की घुड़सवारी, ऐतिहासिक समारकों की पृष्ठभूमि में यादगार फोटोग्राफी के नजारे सर्वसुलभ रहते हैं। रिज के पूर्व में ऊँचाई पर स्टेज है, जो ऐतिहासिक संबोधनों का साक्षी रहा है और प्राँत के बड़े आयोजन इसी रिज पर होते हैं। रिज के एक और इंदिरा गाँधी की प्रतिमा है तो दूसरी ओर डॉ. यशवन्त सिंह परमार की। मालूम हो कि डॉ. यशवन्त परमार हिंप्र के पहले मुख्यमंत्री रहे, जिनके कुशल एवं दूरदर्शी नेतृत्व के कारण उन्हें हिमाचल का निर्माता माना जाता है। हिमाचल को एक विकसित पहाड़ी राज्य के रुप में खड़ा करने में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा।

रिज के नीचे ही पानी के वृहद टैंक मौजूद हैं, जिनसे शिमला शहर के लिए पानी सप्लाई होता है। रिज के नीचे गेयटी थिएटर के सामने ही यहाँ का लेटेस्ट  पुस्तकों से समृद्ध मिनेरवा बुक हाऊस है, जहाँ पर पुस्तक प्रेमी अपने पसंद की पुस्तकों का अवलोकन कर सकते हैं। इसी तरह लोअर बाजार में बंसल बुक डिपो, ज्ञान भण्डार तथा लक्कड़ बाजार में स्टुडेंट स्टोर आदि पुस्तक केंद्र हैं। पुस्तक प्रेमियों के लिए रिज पर चर्च के सामने स्टेट लाइब्रेरी की भी व्यवस्था है।

माल रोड़ से नीचे लोअर बाजार से होते हुए एक दम नीचे पुराना बस अड्डा पड़ता है, जहाँ से नए बस अड्डा आईएसबीटी टुटी कण्डी लिए कुछ मिनट परबसें चलती रहती हैं।

आईएसबीटी टुटीकण्डी बस स्टैंड, शिमला

यहाँ से अपने गन्तव्य के लिए ऑर्डिनरी से लेकर डिलक्स, ऐसी, एवं वोल्बो बसें ली जा सकती हैं। हिमाचल परिवहन की ऑनलाइन बुकिंग  की सुबिधा का भी घर बैठे लाभ लिया जा सकता है। रेल्वे सफर के लिए सम्मर हिल या पुराने बस अड्डे के पास के मुख्य रेल्वे स्टेशन से चढ़कर काल्का तक रेल यात्रा का आनन्द लिया जा सकता है। निकटतम हवाई अड्डा जुब्बड़हट्टी में है, जो शिमला से 22 किमी की दूरी पर है।

इस तरह दो-तीन दिनों में शिमला के मुख्य स्थलों की सैर की जा सकती है। सामान्य यात्रियों के लिए मार्च से जून तथा सितम्बर से नवम्बर माह उपयुक्त माने जाते हैं। गर्मियों में हालाँकि भीड़ अधिक रहती है, लेकिन शिमला का असली आनन्द तो बरसात में रहता है। अगस्त के माह में जब आसमान बादलों से घिरे रहते हैं, तो एक पहाड़ी से दूसरी पहाडी की ओर इसके फाहों के बीच सफर मनमोहक रहता है। कभी ये बादल पूरी तरह से यात्रियों को अपने आगोश में ले लेते हैं तो कभी पूरी घाटी इनसे पट जाती है। पहाडों की चोटी से इनका नजारा पैसा बसूल ट्रिप साबित होता है। (इस बर्ष 2023 की बरसात में हुई त्रास्दी के चलते, उपरोक्त धारणा में कुछ बदलाव आ गया है। जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के साथ मानवीय छेड़खान के चलते, प्रकृति की गोद में आनन्द के मायने बदल रहे हैं, यह विचारणीय व चिंता का विषय है।) 

बर्फ के शौकीनों के लिए सर्दी भी कम रोमाँचक नहीं रहती।लेखकों, विचारकों एवं कवियों के लिए शिमला सृजन की ऊर्बर भूमि साबित होती है और कई लेखक तो यहाँ इसी उद्देश्य से डेरा जमाए रहते हैं।

यदि समय हो तो शिमला के आसपास घूमने के कई दर्शनीय स्थल हैं, जहाँ ग्रामीण परिवेश के साथ यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और ऐतिहासिक तथा आध्यात्मिक विशेषताओं से भी रुबरु हुआ जा सकता है। इसके लिए आप पढ़ सकते हैं, शिमला के आस-पास के दर्शनीय स्थल।

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-2

 लाहौल घाटी के विहंगम दर्शन

लाहौल घाटी, अक्टूवर 2020 का नजारा

अगले दिन केलाँग से लोकल बस में त्रिलोकनाथ धाम की यात्रा करते हैं, जो यहाँ से 45 किमी की दूरी पर दक्षिण की ओर स्थित है। रास्ते में तांदी के संगम को दायीं ओर से पार करते हैं, जहाँ चंद्रा और भागा नदियाँ मिलकर चंद्रभागा नदी के रुप में आगे बढ़ती हैं, जो आगे चलकर चनाव नदी कहलाती है। यहाँ  रास्ते में ठोलंग, शांशां आदि स्टेशन पड़ते हैं। मालूम हो कि ठोलंग ऐसा गाँव है जहाँ हर घर से अफसर, डॉक्टर और आईएएस अधिकारी मिलेंगे और यहाँ पर सबसे अधिक आईएएस अफसर होने का रिकॉर्ड है। 

लाहौल घाटी का एक गाँव

इनके आगे एक स्थान पर बस से उतर कर पुल से चंद्रभागा नदी (चनाव) को पार करते हैं। साथ में उस पार गाँव के लोकल लोग भी हमारे साथ थे। चंद्रभागा का पुल पार कर गाँव से होकर गुजरते हैं, इनके खेतों में एक विशेष प्रकार की फूल वाली लताओं से खेतों को भरा पाते हैं। पता करने पर इनका नाम हॉफ्स निकला, जो खेतों व गाँव के सौंदर्य़ में चार चाँद लगा रही थी। इनसे बेहतरीन किस्म की वीयर तैयार की जाती है और किसानों को इस फसल के अच्छे दाम भी मिलते हैं।

लगभग आधा घण्टा बाद हम त्रिलोकीनाथ मंदिर पहुँचते हैं। अपना बाहन होता तो सीधा मंदिर परिसर तक आ सकते थे, लेकिन रास्ते के खेत-खलिहान व गाँव के नजारों से वंचित रह जाते। मंदिर बौद्ध-हिंदु परम्परा का मिश्रण लगा, जो है तो शिव को समर्पित लेकिन इसके बाहर कालचक्र लगे हैं, जिनकी ओम मणि पद्मेहुम का मंत्र बोलते हुए और कालचक्र को हाथ से घुमाते हुए परिक्रमा लगाई जाती है। 

त्रिलोकनाथ परिसर में दर्शनार्थियों की कतार

संभवतः यह विश्व का एकमात्र मंदिर है, जहाँ दो धर्मों के लोग एक ही ईष्ट की पूजा अपनी श्रद्धानुसार करते हैं। हिंदु धर्म वाले यहाँ शिव की उपासना करते हैं, तो बौद्ध आर्य अवलोकितेश्वर के रुप में पूजा करते हैं। लोकमान्यता में इस मंदिर को कैलास और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। हिंदु धर्म के लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों ने किया था, वहीं बौद्ध धर्माबलम्बियों का मानना है कि पद्मसम्भव यहाँ 8वीं शताब्दी में आए थे और यहाँ पूजा किए थे।

यहाँ से हम आगे बढ़ते हुए दूसरी ओर से नीचे उतरते हैं, और उस पार उदयपुर शहर की ओर बढ़ते हैं, जो त्रिलोकनाथ से 9 किमी की दूरी पर स्थित है। 

लाहौल घाटी का विहंगम दृश्य

ढलानदार खेतों से होकर हम ऩीचे उतर रहे थे। हॉप्स की लताओं से भरे खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। खेतों के बीच मेंढ़ से बनी राह से पानी की धाराएं मधुर स्वर में कलकल निनाद करते हुए बह रही थी। इसकी मेढ़ पर खड़े विलो के हरे-भरे पेड़ दिन की गर्मीं के बीच शीतल अहसास दिला रहे थे। इनको पार करते हुए हम नीचे भागा नदी तक पहुँचते हैं और पुल को पार कर मुख्य मार्ग से उदयपुर की ओर बढ़ते हैं। रास्तेभर हमें कोई बस नहीं मिल पायी और हम लगभग 4-5 किमी उदयपुर तक नदी के किनारे पैदल ही चलते रहे। रास्ते भर देवदार के पेड़ और चारों ओर की हरियाली कुछ राहत देती रही।

उदयपुर पहुँचकर भगवती मृकुला देवी के दर्शन करते हैं, जिसके मंदिर का अपना इतिहास है। इन्हें दुर्गा माता का अवतार माना जाता है और इसे चम्बा के राजा उदयसिंह द्वारा निर्मित किया गया था। मान्यता है कि मंदिर 6000 साल पुराना है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था, लेकिन बाद में समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा। 

मृकुला माता, उदयपुर

इसके अंदर लकड़ी की सुन्दर नक्काशी की गई है, जिसमें महाभारत, रामायण और सनातन धर्म की पौराणिक कथाओं को उकेरा गया है। मान्यता है कि दुर्गा माता ने यहीं पर महिषासुर का बध किया था।

उदयपुर कैंपिंग साईट के रुप में भी लोकप्रिय है। लाहौल के रेगिस्तानी पहाड़ों के उल्ट इस ओर की हरियाली व प्राकृतिक सौंदर्य यात्रियों को इसके लिए प्रेरित करता है। उदयपुर से हम बस में चढ़कर केलाँग तक आते हैं, जो यहाँ से 53 किमी की दूरी पर स्थित है। रास्ते में कई गाँव पार किए और कुछ नदी के उस पार दिखे। सेब की खेती का चलन भी इस क्षेत्र में दिखा। मालूम हो कि पहले जहाँ लाहौल में मात्र आलू उगाया जाता था, जो अपनी बेहतरीन गुणवत्ता के कारण निर्यात होता रहा है। 

कैलांग-उदयपुर के बीच राह में

फिर यहाँ आलू के साथ मटर व अन्य इग्जोटिक सब्जियाँ उगाई जाती हैं। इसके बाद हॉफ्स की बेलों का चलन शुरु होता है। अब यहाँ सेब की उमदा फसल भी तैयार हो रही है, जो देर अक्टूबर या नवम्बर के शुरुआत में तैयार होती है और जब शिमला-कुल्लू का सेब मार्केट में खत्म हो जाता है, तब यह तैयार होता है। साइज छोटा किंतु स्वाद में मीठा और रसीला होता है। इसकी सेल्फ लाइफ भी अच्छी होती है, जिस कारण यह देर तक टिकता है।

कैलाँग में घर आकर हम भोजन ग्रहण करते हैं और पिताजी से लाहौल घाटी की कुछ विशेषताओं से परिचित होते हैं। यहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में लामा का उँचा स्थान रहता है और हर घर से एक संतान का लामा बनना अच्छा माना जाता है। सर्दियों में यहाँ जनजीवन घरों की चार दिवारी में सिमट जाता है, खाने पीने की व्यवस्था पहले से की जाती है। आलू से लेकर अनाज सब्जी व सुखा माँस सुरक्षित और संरक्षित रखे जाते हैं। यहाँ पर दोंग्मों में दूध, घी और नमक को मंथकर विशिष्ट नमकीन चाय तैयार की जाती है। इसके साथ सत्तु को खाने का चलन है, जो एक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट स्वल्पाहार रहता है।

विलो के पतझड़ी वृक्षों के संग

अब यहाँ के अधिकाँश लोग कुल्लू मानाली के इलाकों में बस चुके हैं। यहाँ के लोगों को बहुत मेहनती माना जाता है। इनके श्रम के साथ ट्राइबल एरिया का दर्जा मिला होने के कारण यहाँ के लोग सामाजिक-आर्थिक रुप से विकास की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं तथा सुदृढ़ स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।

हमारा कैलांग प्रवास का समय पूरा हो रहा था, अंतिम दिन हमारा सफर कैलाँग से जिस्पा, दारचा व इसके आगे के एक गाँव तक का रहा, जिस मार्ग का वर्णन पर्वतारोहण के लिए यहाँ से गुजरे लेख (मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर) में कर चुके हैं। मालूम हो कि दारचा (11020 फीट) लाहौल घाटी में मानाली-लेह सड़क पर अंतिम मानवीय बस्ती है। इस यात्रा का उद्देश्य पर्वतारोहण के दिनों की यादों को ताजा करना था। अपनी सहधर्मिणी को हम अपनी रोमाँचक यात्रा के रुट को बताते रहे और पुरानी यादों को ताजा कर बापसी की बस से केलाँग आए। और अगले दिन यहाँ की रोमाँचक यादों को समेटते हुए कैलाँग बस से 116 किमी का सफर तय करते हुए बापिस मानाली पहुँचे। फ्लाईट से यह दूरी महज 40 किमी पड़ती है, क्योंकि इसमें सीधे पहाड़ को पार कर रास्ता आता है। बस से लगभग 6-7 घण्टे लगते हैं। 

चंद्रभागा नदी (चनाव) केसंग

अटल टनल बनने से अब यह यात्रा महज 4 घण्टे में पूरा हो रही है, साथ ही अब सालभर इस घाटी का सम्पर्क बाहर की दुनियाँ के साथ संभव हो चुका है, जो पहले साल के छः माह बाहरी दुनियाँ से कटी रहती थी। इसके साथ बर्फ के बीच यहाँ पर्यटन एवं रोमाँच की असीम संभावनाएं इंतजार कर रही हैं, वहीं घाटी की आर्थिक स्थिति एवं विकास में भी नए अध्याय जुड़ने तय है। पर्य़टकों की भीड़ के बीच यहाँ के नाजुक परिस्थितिकी तंत्र एवं प्रकृति-पर्यावरण तथा लोकजीवन पर क्या प्रभाव पडेंगे, यह विचारणीय है, साथ ही कुछ चिंता का भी विषय है।

लाहौल का एक गाँव

यात्रा का पहला भाग यदि न पढ़ा हो तो नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा, भाग-1

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के अनुभवों को नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-2

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-3

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-1

 लाहौल के ह्दय क्षेत्र कैलांग की ओर

मनाली के आगे रोहतांग पास की ओर

रोहताँग के पार – बहुत सुना था, लाहुल-स्पीति के बारे में बड़े-बुजुर्गों से किवदंतियों के रुप में बचपन से। तीन-चार वर्ष पहले बेसिक कोर्स के दौरान यहाँ से होकर गुजरे भी थे, लेकिन वह परिचय यहाँ के मात्र पहाड़ों, नदियों, हिमानियों, सरोवरों तथा शिखरों से था। यहाँ के लोकजीवन, संस्कृति-समाज तथा अध्यात्म से परिचय न के बराबर था, जिसे इस बार थोड़ा नजदीक से समझने-जानने का अबसर था। इस बार केलाँग में रुकने व आस-पास के क्षेत्रों को एक्सप्लोअर करने का संयोग बन रहा था। पिताजी कैलांग में बागवानी विभाग के अधिकारी पद पर कार्यरत थे। साथ ही हमारी नयी-नयी शादी हुई थी, जीवन संगिनी संग इस क्षेत्र में यात्रा का प्लान बन चुका था, जिसका विशेष आकर्षण था त्रिलोकीनाथ धाम की तीर्थयात्रा, जिसके रोचक संस्मरण बचपन से घर के बुजुर्गों से सुनते आए थे। यात्रा कई मायनों में याद्गार रही, जिसके कुछ दृष्टाँत आज भी रोंगटे खड़ा कर देते हैं और रोमाँच पैदा करते हैं।

मालूम हो कि लाहौल एक ऐसा क्षेत्र है, जो प्रायः नवम्बर से अप्रैल तक लगभग छः माह पूरी दुनियाँ से कट जाता है। सर्दियों में यहाँ का तापमान 15 से 20 डिग्री सेल्सियस माइन्स तक गिर जाता है। मई से अक्टूबर तक ही यहाँ फसलें होती हैं, जो साल में एक बार होती हैं। बाकि समय बर्फ के कारण यहाँ कुछ उगा पाना संभव नहीं होता। देखने वालों का तो यहाँ तक कहना है कि उन्होंने यहाँ साल के हर महीने बर्फ को गिरते हुए देखा है। पिछले ही वर्ष भारी बर्फवारी के कारण सेब से लदे वृक्षों को खासा नुकसान उठाना पड़ा था।

बेमौसमी बर्फवारी से क्षतिग्रस्त सेब की फसल

हिमालय के इस अद्भुत क्षेत्र की वादियों और इलाकों को देखने का संयोग बन रहा था। अपने घर से पहले हम मानाली बस स्टैंड पहुँचते हैं और फिर केलाँग डिपो की बस में चढ़ते हैं। बस का आकार सामान्य बस से थोड़ा छोटा था, जो शायद संकरी व विकट सड़क के हिसाब से निर्धारित था। मढ़ी, रोहताँग से होकर हमारा सफर उस पार दूसरी घाटी में प्रवेश करता है। रास्ते भर के दृश्य बैसे ही थे, जैसे पिछली पर्वतारोहण की ब्लॉग पोस्ट में वर्णित हो चुके हैं।

रोहतांग पास की राह में निर्मल झरने का रुप लिए हिमनद

रोहताँग को पार कर हम खोखसर पहुँचते हैं। रास्ता सदा की तरह जहाँ-तहाँ तेज बहाव बाले नालों से होकर गुजर रहा था और रास्ते की टेढ़ी-मेड़ी, टूटी-फूटी सडकों में हिचकौले खाते हुए बढ़ना एक अलग ही अनुभव था। सामने दूर लाहौल-स्पिति की बर्फ से ढकी चोटियाँ और पास में रेगिस्तानी पहाड़ दूसरे लोक में पहुँचने का अहसास दिला रहे थे तथा नीचे तंग घाटी के बीच चंद्रा नदी एक पतली रेखा के रुप में दिख रही थी। खोखसर से थोड़ा आगे ग्लेशियर गिरने के कारण पूरा रास्ता ब्लॉक था। बर्फ काटकर सड़क बनायी जा रही थी। लगभग दो घण्टे के इंतजार के बाद बस आगे बढ़ी। बस से सारी सबारियाँ उतार दी गयीं थी। हमारे सहित कुछ ही सबारियाँ बैठी थीं। बस जिस स्पीड़ के साथ बर्फ की दिबारों के बीच, पानी व कीचड़ से भरी कच्ची सड़क पर हवाई गति से दौड़ रही थी, उसके कारण बस बुरी तरह से हिचकोले खाते हुए, दायें-बाँये झूलते हुए आगे बढ़ रही थी। कहीं-कहीं सवारियों के सिर ऊपर छत तक लगने की स्थिति आ रही थी और मुँह से चीखें निकल रही थी। लग रहा था कि बस अब पलट गयी या तब। लेकिन ड्राइवर साहब अपने पूरे कौशल के साथ गाड़ी को पार निकाल लेते हैं, तब जाकर सब राहत भरी सांस लेते हैं। आगे रास्ते में सीसू, गोंधला, ताँदी आदि स्थल पड़े। रास्ता खराब होने के कारण केलाँग पहुँचते पहुँचते हमें रात हो चुकी थी।

लाहौल घाटी का एक गाँव

पिताजी का क्वार्टर बस स्टैंड के एकदम ऊपर लगभग आधा किमी की दूरी पर था। पहले कभी न आने के कारण रास्ते से भिज्ञ भी नहीं थे। फोन नेटवर्क उन दिनों यहाँ काम नहीं कर रहे थे, इस कारण पिताजी को भी मालूम नहीं था कि हम केलाँग पहुँच चुके हैं। बस स्टैंड की दुकान पर बैठी आची (महिला का सम्मानपूर्ण बहन सरीखा लोक्ल संबोधन) से पूछा तो वह पिताजी का पता जानती थी। उसके मार्गदर्शन में हम सीधा उपर नाक की सीध में दौड़ लगाते हैं। घुप्प अंधेरे में रोशनी के लिए लकड़ी के डण्डे के आगे बोरी व इसमें मिट्टी का तेल लगाकर मशाल बनाई जाती है और हम दोनों एक साँस में ऊपर तक दौड़े, इस सोच के साथ कि कहीं मशाल बीच रास्ते में बुझ जाए। सीधी खड़ी चढाई में हमारी साँस बुरी तरह से फूल गयी थी, लग रहा था कहीं छाती फट न जाए। जब हमारी यह हालत थी तो सहधर्मिणी का तो इससे भी बुरा हाल था। रात के अंधेरे में भय के चलते हमारी मैराथन स्प्रिंट हमें ऊपर घर तक पहुँचा चुकी थी।

बहाँ बाहर निकले किसी पड़ोसी से पिताजी के कमरे का पता चलता है और हम नॉक कर कमरे में प्रवेश करते हैं और अपनी कथा व्यथा सुनाते हैं। यहाँ पर भोजन तैयार होता है। पिताजी का फेवरेट जाटू का चाबल, राजमाँ और देशी घी। रास्ते की थकान के चलते नींद जल्द ही आ गई थी। सुबह उठते हैं, तो सामने के दिलकश नजारे हमारा स्वागत कर रहे थे।

कैलांग से कार्दांग गोम्पा के विहंगम दर्शन

एक दम सामने भागा नदी के उस पार हरियाली के बीच पहाड़ की गोद में कार्दांग गोंपा अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्शा रही था और पधारने का आमन्त्रण दे रहा था।

उसके पीछे दूर वायीं ओर लेडी ऑफ कैलाँग अपना पावन दर्शन दे रही थीं, समुद्रतल से 19800 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह चोटी वर्षभर बर्फ से ढकी रहती है। पीठ पर बोझा लादे हुए महिला की आकृति लिए इस चोटी को अंग्रेजों ने यह नाम दिया था। घर के पीछे ही लगभग 2 किमी उपर शाशूर गोम्पा स्थित था।

शाशूर गोम्पा, लाहौल

जिसे हम पिताजी के साथ देखते हैं। यह बुद्ध धर्म के द्रुग्पा संप्रदाय का 16वीं शताब्दी में बनाया गया गोंपा है। सुंदर हरे और नीले चीड़ के वृक्षों से घिरे इस गोम्पा को इसके उत्कृष्ट बास्तुशिल्प और शिक्षा केंद्र के रुप में जाना जाता है।

इसके बाद हम कार्दांग गोम्पा की सैर करते हैं। पहले नीचे केलाँग शहर में उतरते हैं, भागा नदी के ऊपर पुल को पार करते हैं और कार्दांग गाँव से होते हुए लगभग 11000 फीट की ऊँचाई पर स्थित कार्दांग गोम्पा पहुँचते हैं, जिसे 12वीं शताब्दी में बनाया गया माना जाता है, जो बौद्ध संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यह अपने मनमोहक वास्तुशिल्प, धार्मिक महत्व, भिति चित्र, थांग्का, चित्रकला और यंत्रों के लिए विख्यात है। यहाँ के हेड़ लामा से भेंट करते हैं, जिनका पिताजी से परिचय था। यहाँ वो घी वाली चाय के साथ नाश्ता कराते हैं। इसी बीच गाँव की महिलाएं अपने साथ भेंट चढ़ाती हैं। ऐसा लगा स्थानीय लोग खाने पीने का सामान गोंपा में चढ़ाते हैं, जिसको लामा बड़ी उदारतापूर्वक आगंतुकों के बीच बाँटते हैं।

कार्दांग गोम्पा, लाहौल

यहाँ बाहर आँगन में हरियाली के बीच मठ का शाँत एकाँत वातावरण ध्यान साधना के लिए आदर्श प्रतीत हो रहा था और यहाँ से सामने केलाँग और घाटी पर्वतों का विहगंम दृश्य देखते ही बन रहा था।

यहाँ से बापसी में पिताजी के उद्यान विभाग को देखते हैं, पास की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में पुस्तकों का अध्ययन-अवलोकन करते हैं। और फिर शाम होते होते अपने पिताजी के क्वार्टर तक पैदल यात्रा करते हैं। रास्ते से यहाँ के खेतों की फार्म फ्रेश पत्तागोभी खरीदते हैं, जो स्वाद में कच्ची ही पर्याप्त स्वादिष्ट लग रही थी। आज काफी थक चुके थे, भोजनोपरान्त सो जाते हैं, अगले दिन की यात्रा तैयारियों के साथ, जिसमें हम लाहौल घाटी के ऐतिहासिक शिव व शक्ति मंदिर बाबा त्रिलोकनाथ और मृकुला माता के दर्शन करने वाले थे। (शेष, जारी...)

यात्रा का अगला भाग, नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा,भाग-2

 

चंद्रभागा (चनाव) नदी एवं लाहौल घाटी

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