सोमवार, 17 अप्रैल 2017

सवाल आस्था के



तीर्थ स्थलों पर सडाँध मारती गंदगी कब तक होगी बर्दाश्त 

तीर्थ हमारी आस्था के केंद्र पावन स्थल हैं। जीवन से थके-हारे, संतप्त, बिक्षुब्ध जीवन के लिए शांति, सुकून, सुरक्षा, सद्गति के आश्रय स्थल। जहाँ हम माथा टेककर, अपना भाव निवेदन कर, चित्त का भार हल्का करते हैं, कुछ शांति-सुकून के पल बिताते हैं और समाधान की आशा के साथ घर बापिस लौटते हैं।

लेकिन जब इन तीर्थ स्थलों पर गंदगी का अम्बार दिखता है, इसके जल स्रोतों में कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक व सबसे ऊपर सड़ांध मारती बदबू पाते हैं तो सर चकरा जाता है कि हम यह कहाँ पहुँच गए। सारी आस्था छूमंतर हो जाती है। जिस स्वच्छता को परमात्मा तक पहुँचने की पहली सीढ़ी कही गई है उसी का क्रियाकर्म होते देख आस्थावानों की समझदारी पर प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं। लगता है हम किसी तरह इस सड़ांध से बाहर निकलकर खुली हवा में सांस लेने के लिए निकल आएं।

अगर हमारे तीर्थ स्थल ऐसी दमघोंटूं सड़ाँध मारती बदबू से ग्रसित हैं तो कहीं न कहीं मानना पड़ेगा कि हमारा समूह मन गहराई में विषाक्त है। क्योंकि जो बाहर प्रकट होता है कहीं न कहीं वह हमारे अंतर्मन का ही प्रतिबिम्ब होता है। समूह मन की ही स्थूल अभिव्यक्ति बाहर घटनाएं होती हैं। गहरी समीक्षा की जरुरत है कि हमारी आस्था पर, इसकी गहराई पर अगर हम ऐसे स्थलों को नजरंदाज कर निकल जाते हैं, या इनको देख कोई चिंता, दुख, विक्षोभ, आक्रोश  और समाधान के भाव हमारे मन में नहीं जागते।

इसके लिए किसी एक को दोष देना उचित नहीं होगा। हम सब तथाकथित आस्थावान, श्रद्धालु इसके लिए जिम्मेदार हैं, जो इसके मूकदर्शक बन सड़ांध को पनपते देख रहे हैं। लेकिन सहज ही प्रश्न उठता है अमूक तीर्थ प्रशासन पर भी, कि जब श्रद्धालुओं की हजारों लाखों की नित्य दान-दक्षिणा उसकी झोली में गिर रही है, तो वह जा कहाँ रही है। तीर्थ स्थल के पारमार्थिक भाव में दो-चार सफाई कर्मी तैनात करने की भी जगह नहीं है जो नित्य तीर्थ स्थल को साफ-सुथरा और चाक-चौबन्ध रख सकें। ऐसे में तीर्थ स्थल के नेतृत्व पर सीधे उंगली उठती है, जो बाजिव भी है।

फिर उस क्षेत्र विशेष की पंचायत पर दूसरी उँगली उठती है। इसके प्रधान से कुछ सवाल करने का मन करता है कि आप कहाँ सोए हैं। अपने गाँव क्षेत्र के आस्था केंद्र के प्रति आपकी कोई जिम्मेदारी का भाव नहीं है। गाँव प्रधान के साथ वहाँ के मंत्रीजी से भी प्रश्न लाज्मी बनता है, कि बोट लेते बक्त जो माथा टेककर यहाँ से चुनाव अभियान शुरु किए थे और क्षेत्र के विकास के बड़े-बड़े वायदे किए थे, उसको कब निभाकर भगवान के दरबाजे में अपने ईमान की हाजिरी देंगे।

स्थूल गंदगी के साथ इन तीर्थ स्थलों पर तीर्थयात्रियों की आस्था पर डाका डालते भिखारी भी सरदर्द से कम नहीं होते। मोरपंख लेकर झाड़फूंक कर ज्बरन आशीर्वाद देते भिखारियों को देखकर लगता है कि क्यों नहीं ये पहले अपनी मनोकामना पूरी कर लेते। श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी करने का ठेका लेकर क्यों उनके चैन में खलल डालते रहते हैं। एक चाय के लिए 10 रुपए माँगते बाबा को देखकर आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति दिन भर में कितनी चाय पी सकता है। भूत की तरह पीछे पड़कर भक्तों से दक्षिणा बटोरती, मातारानी की पालकी सजाई आस्था की डाकिनियोँ का एक अलग सरदर्द है, जिसे भुक्तभोगी ही जानता है।

तीर्थ प्रशासन, गाँव प्रधान, स्थानीय विधायक के साथ हम सभी श्रद्धालुओं-आस्थावानों का भी कर्तव्य बनता है कि मिलजुलकर तीर्थ स्थलों को इस सड़ाँध से बाहर निकालने का रास्ता ढूंढें। तीर्थ स्थलों में कूड़ा-कचरा, गंदगी पनपने न पाए, यह सुनिश्चित करें। तीर्थ की स्वच्छता मन की शांति-स्थिरता की पहली शर्त है। मंदिर परिसर एवं इसकी राह में कोई भिखारी, झाड-फूंक करता औझा एवं आस्था में खलल डालते बिजातीय तत्वों को न पनपने दिया जाए। तभी तीर्थ स्थलों की पावनता बनी रहेगी, वे शांति-सुकून देने वाले आस्था के समर्थ केंद्र बने रहेंगे और मानव मात्र का त्राण-कल्याण करने वाली धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना के संवाहक बने रहेंगे।

अन्यथा आस्था संकट से जूझ रहा जमाना और अंधकार में डूबने के लिए अभिशप्त रहेगा। धर्म-अध्यात्म की प्रासांगिकता, वैज्ञानिकता, व्यवहारिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी। हम पुण्य-सद्गति की जगह पाप-दुर्गति के भागीदार बन रहे होंगे। सबसे ऊपर वहाँ जाकर शांति-सुकून की तलाश में जा रहा हर व्यक्ति ठगा सा महसूस करेगा। और यदि हम मिलजुलकर इसके उपचार में असमर्थ हैं या हमें इसके लिए फुर्सत नहीं हैं तो फिर तैयार रहें प्रकृति के, दैव के आत्यांतिक न्याय विधान को, महाकाल के अवश्यंभावी परिवर्तनचक्रधारी प्रकोप के लिए जो हर तरह की जड़ता, हठधर्मिता, लोभ-मोह-अहं-दंभ ग्रसित मानवीय मूढता-मूर्खता एवं बेहोशी-दुर्बलता का जडमूल परिष्कार-उपचार करना भली भांति जानता है।   
 

मंगलवार, 28 मार्च 2017

चरित्र निर्माण – कुछ बातें बुनियादी

चरित्र निर्माण के मूलभूत आधार
चरित्र निर्माण के बिना अधूरी शिक्षा – चरित्र निर्माण की बातें, आज परिवारों में उपेक्षित हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नादारद हैं, समाज में लुप्तप्रायः है। शायद ही इसको लेकर कहीं गंभीर चर्चा होती हो। जबकि घर-परिवार एवं शिक्षा के साथ व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का जो रिश्ता जोड़ा जाता है, वह चरित्र निर्माण की धूरी पर ही टिका हुआ है। आश्चर्य नहीं कि हर युग के विचारक, समाज सुधारक चरित्र निर्माण पर बल देते रहे हैं। चरित्र निर्माण के बिना अविभावकों की चिंता, शिक्षा के प्रयोग, समाज का निर्माण अधूरा है। 

प्रस्तुत है इस संदर्भ में कुछ बुनियादी बातें, जो इस दिशा में प्रयासरत लोगों के लिए कुछ सोचने व करने की दिशा में उपयोगी हो सकती हैं।



चरित्र, व्यक्तित्व का सार – चरित्र, व्यक्तित्व का सार है, रुह की खुशबू है, जीवन की महक है, जिसे हर कोई महसूस करता है। चरित्र बल के आधार पर ही व्यक्ति सम्मान-श्रद्धा का पात्र बनता है। विरोधी भी चरित्रवान की प्रशंसा करने के लिए बाध्य होते हैं। चरित्रवान के लिए कुछ भी असम्भव नहीं होता। तमाम प्रतिकूलताओं के बीच चरित्रवान व्यक्ति के लिए जमाना राह छोड़ देता है। ऐसा व्यक्ति अंततः काल के भाल पर अपने कालजयी व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ जाता है। युगों तक पीढियाँ चरिवान व्यक्ति के स्मरण मात्र से धन्य अनुभव करती हैं और प्रतिकूल परिस्थितियों में जूझने और आगे बढ़ने की प्रेरणा शक्ति पाती है।



चरित्र निर्माण की फलश्रृतियाँ - चरित्र ही व्यक्ति की संपूर्ण सफलता को सुनिश्चित करता है। हालांकि इसमें समय लग सकता है, क्योंकि चरित्र निर्माण एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो जीवन पर्यन्त चलती रहती है। हो सकता है, संसार-समाज की अपेक्षा के अनुकूल इसके तुरंत फल न दिख रहे हों लेकिन अंततः इसकी शक्ति अचूक और प्रभाव अमोघ है, जो सफलता के साथ गहन आत्मसंतोष लिए होती है। 

 चरित्र के अभाव में व्यक्ति की सफलता लम्बे समय तक बनी रहे, टिकी रहे, संदिग्ध है। श्रम एवं भाग्य सफलता के द्वार तो खोल सकते हैं, लेकिन इसे हर हमेशा के लिए खुले रखना चरित्रबल के आधार पर ही सम्भव होता है। चरित्र के अभाव में शिखर से नीचे रसातल में लुढ़कते देर नहीं लगती। कहने की जरुरत नहीं कि चरित्र व्यक्ति को सहज ही सामाजिक सम्मान व सहयोग दिलाता है, जनता के आशीर्वाद और दैवी अनुग्रह का अधिकारी पात्र बनाता है।


विश्वसनीयता और प्रामाणिकता चरित्र निर्माण की दो फलश्रृतियाँ हैं, जो निम्न आधार पर फलित होती हैं।

चरित्र निर्माण के मूल घटक
1.संयम सदाचार – संयम व सदाचार, चरित्र निर्माण का पहला आधार है। जबकि असंयम औऱ दुराचार, चरित्र की जड़ों पर कुठाराघात करते आत्मघाती विषैले प्रहार हैं, जो आत्म सम्मान के भाव को क्षीण करते हैं और व्यक्ति को दुर्बल बनाते हैं। चरित्र का क्षय करते हैं और आपसी रिश्तों में विश्वास को कमजोर करते हैं। जबकि संयम-सदाचार आपसी रिश्तों में वफादारी का चौखा रंग घोलते हैं, इन्हें मजबूत बनाते हैं। कहना न होगा कि संयम-सदाचार चरित्र निर्माण का पहला ठोस आधार है।
2.सादा जीवन उच्च विचार – जब आमदनी सीमित हो, लेकिन खर्चे बेशुमार। तो अपव्ययी, विलासी और फिजूलख्रर्ची का भ्रष्टाचारी होना तय है। ऐसे में चरित्र संदिग्ध बनता है, व्यक्ति की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इसी लिए सादा जीवन उच्च विचार को बुजुर्गों ने सदैव से ही सचरित्र एवं सुखी जीवन का एक स्वर्ण सुत्र घोषित किया है। जो अपनी आमदनी के अंदर जीवन निर्वाह की कला जानता है, उन्हीं का चरित्र आर्थिक आधार पर सुरक्षित व अक्षुण्ण बना रह सकता है। 

3.श्रमशील एवं कर्तव्यनिष्ठ जीवन – चरित्र का महत्वपूर्ण घटक है। और यह उदात एवं व्यवहारिक जीवन लक्ष्य की स्पष्टता के बिना संभव नहीं होता, जिसके अभाव में जीवन पेंडुलम की भाँति इधर-उधर हिलता-डुलता भर रहता है, पहुँचता कहीं नहीं। अव्यवस्थित जीवन व्यक्ति को लक्ष्य सिद्धि से वंचित रखता है। काम में रूचि न होने पर व्यक्ति टालमटोल करता है, कामचोर बनाता है। ऐसे में असफलता जीवन की नियति बन जाती है और नकारात्मक तथा कुंठित भावदशा चरित्र को दुर्बल बनाती है। श्रमशील और कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति को इस कुचक्र से बाहर उबारती है।


4.सकारात्मक चिंतन एवं उदार भाव – कर्मठता जहाँ आत्म गौरव के भाव को जगाती है तथा व्यैक्तिक सफलता को सुनिश्चित करती है, वहीं संकीर्ण स्वार्थ और क्षुद्र अहंकार इन उपलब्धियों को बौना और चरित्र को संिग्ध बना देते हैं। अपने साथ दूसरे जरुरतमंदों के उत्कर्ष का पारमार्थिक भाव चरित्र का अभिन्न घटक है। सिर्फ अपने ही स्वार्थ का चिंतन करने र मैं-मैं की रट लगाए रखने वाले व्यक्ति के पास कोई भी अधिक देर तक बैठना-सुनना पसंद नहीं करता। हर व्यक्ति सृजन-समाधान, आशा-उत्साह से भरा संग-साथ चाहता है, जो एक संवेदनशील एवं उदार व्यक्ति के लिए ही संभव होता है। कहना न होगा कि बिना किसी अधिक आशा-अपेक्षा के दूसरों की सेवा का भाव-चिंतन चरित्र निर्माण का एक महत्वपूर्ण घटक हैं।
सार रुप में चरित्र निर्माण के दो आधार भूत घटक हैं - अपने प्रति ईमानदारी और अपने कर्तव्य के प्रति नैष्ठिक जिम्मेदारी का भाव। इसी के आधार पर चरित्र निखरता है और सेवा का महत्तर कार्य संभव हो पाता है। अपने प्रति वेईमानी चरित्र विघटन का मुख्य कारण बनती है, जो कि व्यक्ति को अपनी ही नजरों में गिराता है। अपनी कर्तव्यों के प्रति वेईमानी इंसान की अंतर्निहित क्षमताओं को प्रकट होने से रोकती है, जो एक असफल एवं कुंठित जीवन का कारण बनती है। जबकि चरित्र निर्माण की प्रक्रिया इस त्रास्दी से पार ले जाती है और व्यक्ति को जीवन की समग्र सफलता की ओर आगे बढ़ाती है।
 
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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

In Search of Peace, Freedom and Bliss


In the company of the One I ever miss
Long have I wondered,
 In search of the Peace, Freedom and Bliss,
Far away from the native home,
Near and dear ones do I miss.

Mother with unconditional love and eternal care,
Father at the altar of duty, outwardly stern inside ever fare,
Source of Strength in this life, a legacy so rare.

Brothers also so loving far away I could hardly care,
Sisters playing hide and seek,
Which life’s curse, don’t know this meek.

Friends I’ve got a few,
Full of gratitude to all, shall leave nothing undue,
Heart filled with devotion to all Mentors-Masters & Mams,
Who forged me in one way or the other, what I am today by name,
All the blessings & support from my near and dear ones,
 Full of gratitude, I’ll pay in my own way.

In search of the Imperishable, I’ve traveled so far,
In search of Freedom, in the lap of Mother Nature & meditating trees
In search of Peace, at the altar of the One ever free,
On the banks of Ganges, in the lap of Himalayas,
At the feet of the Master,
In the company of the One I ever miss.
Journey still on the midway,
In Search of Peace, Freedom and Bliss.
 

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