गुरुवार, 31 मई 2018

यात्रा वृतांत – जब आया बुलावा बाबा तुंगनाथ का, भाग-1


हरिद्वार से अगस्त्यमुनि, वाया रुद्रप्रयाग
यात्रा की तैयारियाँ – पिछले दो सेमेस्टर से टल रहा शैक्षणिक भ्रमण आखिर लगभग तय हो चुका था, लेकिन यह भ्रमण चार धाम यात्रा के बीच सम्पन्न होने जा रहा है, इसका हमें शुरु में भान नहीं था। तिथि व समय में अधिक हेर-फेर सम्भव नहीं था, सो ईश्वर की इच्छा मानकर मई माह की 9-10 तारीख को निश्चित कर वाहन व रास्ते में रुकने की व्यवस्था में जुट जाते हैं। शैक्षणिक भ्रमण का पड़ाव कोटमल्ला,रुद्रप्रयाग स्थित जगतसिंह जंगलीजी का मिश्रित वन था, साथ ही एक तीर्थ स्थल की ट्रैकिंग भी इसमें शुमार थी। अंतिम समय तक तीर्थ स्थल के चयन को लेकर उहापोह चलती रही, लेकिन अंततः तृतीय केदार तुंगनाथ की व्यवस्था हो गई। लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। इसे ईश्वर की इच्छा मानकर काफिला यात्रा की तैयारियों में लग जाता है।
     विषम परिस्थितियों के बीच यात्रा का संयोग - यात्रा का यह संयोग विषम परिस्थितियों के बीच बन रहा था। चार धाम यात्रा की मारामारी के साथ मौसम का मिजाज भी इस समय काफी विकराल रुप धारण किए था। पूरे भारत में आँधी-तुफान, औलावृष्टि व अंतरिक्षीय विक्षोभ के समाचारों के साथ मीडिया ने एक भयावह माहौल बना रखा था। मीडिया के इस हाईप के बीच अविभावकों की घबराहट स्वाभाविक थी, सो कुछ विद्यार्थी इस शैक्षणिक भ्रमण का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। चूंकि यात्रा की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, पीछे मुड़ने के सारे बिकल्प पीछे छूट चुके थे। बाबा बर्फानी का बुलावा मानकर 25 यात्रियों का काफिला मंजिल की ओर प्रातः भौर में ही मंत्रोचारण के साथ कूच कर जाता है।
राह के पड़ाव – एक-ढेड़ घंटे में काफिला ऋषिकेश-लक्ष्मण झूला को पार कर चुका था। इसके बाद गंगाजी के किनारे सफर आगे बढ़ता है। पहाड़ों की उछल-कूद के बाद मैदान की ओर शांत-गंभीर गति के साथ प्रवाहमान गंगाजी के दर्शन हमेशा ही आँखों को ठंड़क व मन को शांति देते हैं। रास्ते में गंगाजी के किनारे राफ्टिंग कैंप, इनके कतार में सजे तम्बू व आप-पास के एकांत-शांत गाँवों को निहारते हुए यात्रा का आनन्द लेते हुए सफर आगे बढ़ता रहा।
लगभग दो घंटे बाद ब्यासी व शिवपुरी को पार करते हुए बस कौड़ियाला स्टेशन पर जल-पान के लिए रुकती है। यहाँ गंगाजी के किनारे ढावे में सभी फ्रेश होते हैं व चाय-नाश्ता करते हैं। यहाँ की लोकेशन बहुत ही मनभावन और अद्भुत है। ढावे के नीचे ढलानदार राह पर पत्थरों से टकराकर कलकल निनाद करती गंगाजी की वेगवती धार दर्शनीय रहती है।
इसकी पृष्ठभूमि में खड़ा त्रिशंकू आकार का पर्वत ध्यानस्थ किन्हीं मौन तपस्वी सा प्रतीत होता है। यहीं अपने पुराने विद्यार्थियों व शिक्षकों के साथ कुछ यादगार क्लिप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।
पहाड़ की गोद में रोमाँचक सफर – यहीं से आगे पहाड़ों की चढाई शुरु होती है और सफर का रोमाँच भी। गंगाजी बीच-बीच में पहाड़ों के नीचे गहरी खाईयों में कहीं बिलुप्त हो जाती हैं, तो कहीं प्रकट। इसी लुकाछुपी के बीच पहाड़ की ऊँचाईयों में घुमावदार बलखाती सड़क के बीच सफर जारी रहता है। रास्ते में खिड़की से बाहर निहारने पर ऊपर और नीचे क्षितिज की ओर अंतहीन पर्वत श्रृंखलाओं का नजारा एक अलग ही अनुभव रहता है। पहाड़ की गोद में व चोटियों पर बसे सुदूर गाँव व घर सदा ही मन में जिज्ञासा व रोमाँच के भाव जगाते हैं। बिना किसी मोटर सड़क के किस तरह से लोग अपना सामान ले जाते होंगे। यहाँ निवास करना कितना रोचक, रोमाँचक व दुश्वारियों से भरा रहता होगा आदि।

एक ढेड़ घंटे में हम देवप्रयाग संगम से होकर गुजर रहे थे। ज्ञातव्य हो कि यहाँ पर भगीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम है, जहाँ से गंगाजी का प्रादुर्भाव माना जाता है। ऋषिकेश से 70 किमी दूर व 1500 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह संगम पंचप्रयागों में एक है। यहाँ द्रविड़ शैली में बना रघुनाथजी का  पुरातन मंदिर है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम लंका युद्ध में रावण बध के बाद ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए लक्ष्मण एवं सीता सहित यहाँ पधारे थे व इस संगम स्थल पर प्रायश्चित तप किए थे। संगम स्थल का सौंदर्य स्वयं में अद्भुत एवं बेजोड़ है। समय निकालकर यहाँ आचमन, स्नान व ध्यान का आनन्द लिया जा सकता है।
देवप्रयाग को पार करते हुए सफर कई छोटे स्टेशनों को पार करता हुआ कीर्तिनगर से होकर गुजरता है, जहाँ के सीढ़ीनुमा खेत, इनमें लहलहाती हरी-भरी फसल, सब्जियाँ व नर्सरी की क्यारियाँ सदा ही सफर का खुशनुमा अहसास रहती हैं। 
इसके आगे कुछ ही देर में श्रीनगर शहर आता है, जो अलकनंदा नदी के किनारे लगभग 1800 फीट की ऊँचाई पर बसा है। ऋषिकेश से लगभग 100 किमी दूरी पर स्थित श्रीनगर शहर को आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रीयंत्र पर बसा शहर माना जाता है।
यहीं पर उच्च शिक्षा का जाना-माना केंद्र गढ़वाल विश्वविद्यालय है। आगे बढ़ते हुए पुल के उस पार विश्वविद्यालय के चौरास कैंपस के दूरदर्शन किए जा सकते हैं। श्रीनगर को पार करते हुए लगभग दो घंटे के अंतराल में हम रुद्रप्रयाग पहुंचते हैं। रास्ते में श्रीनगर में बन रही जल-प्रयोजना के कारण बनी झील एक अलग ही नजारा पेश करती है। इसी के बीच में धारी देवी का सिद्ध मंदिर मार्ग में आता है। इसी राह को पार करते हुए अगला प्रमुख पड़ाव रुद्रप्रयाग आता है।
रुद्रप्रयाग, बद्रीनाथ और केदारनाथ से आ रही क्रमशः अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों का पावन संगम स्थल है। लगभग 3000 फीट की ऊँचाई पर स्थित रुद्रप्रयाग के वारे में मान्यता है कि यहाँ पर नारद मुनि को भगवान शिव ने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर रुद्र रुप में दर्शन दिए थे। रुद्रप्रयाग श्रीनगर से 34 किमी और केदारनाथ धाम से 86 किमी की दूरी पर स्थित है। 
रुद्रप्रयाग से अलकनंदा को पार कर मंदाकिनी नदी के किनारे सफर केदारनाथ मार्ग पर आगे बढ़ता है। लगभग एक घंटे बाद अगस्त्यमुनि कस्वा आता है, जो रुद्रप्रयाग से 18 किमी की दूरी पर है। मान्यता है कि 3300 मीटर ऊँचाई पर स्थित इस स्थल पर अगस्त्यमुनि ने घोर तप किया था और शहर में नागकोट नामक स्थान के पास महर्षि ने सूर्य भगवान तथा श्रीविद्या की उपासना की थी।

यहां एक स्थानीय ढावे पर दोपहर के लंच के लिए उतरते हैं। बस में बैठे-बैठे शरीर की जकड़न बाहर उतरने पर महसूस हुई। थोड़ा चहलकदमी व भोजन के बाद काफिला रिचार्ज होकर अगले पड़ाव की ओर कूच करता है, जो था तुंगनाथ का बेस कैंप चोपता, जिसे उत्तराखण्ड के मिनी स्विटजरलैंड की संज्ञा दी गयी है। रास्ते में मंदाकिनी नदी के निम्न जल स्तर को देख थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ। शायद इस बार पहाड़ों में बर्फवारी कम हुई है, इसका परिणाम रहा हो। अगस्तमुनि में ही ठीक सड़क के किनारे प्राकृतिक जल का स्रोत मिला। बढ़ती गर्मी के कारण सूखते जल स्रातों के बीच इसके निर्बाध प्रवाह को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। (जारी...)
यात्रा का अगला भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - तुंगनाथ यात्रा, भाग-2

काल की बक्र चाल और ये कशमकश


डटा रह पथिक आशा का दामन थामे

ये कशमकश भी गजब है, समझने की कोशिश कर रहे,

मंजिल है उत्तर की ओर, पग दक्षिण की ओर बढ़ रहे,

करना है बुलंदियों का सफर, ढग रसातल की ओर सरक रहे।


गड़बड़ अंदर भीतर कहीं गहरी, उपचार सब बाहर के हो रहे,
अपनी खबर लेने की फुर्सत नहीं, दूसरों की खबर खूब ले रहे।

क्या यही है जिंदगी, इबादत खुदा की, बेहोशी में जिसे हम जी रहे,
जाने अनजानें में खुद से दूर, जड़ों पर ही कुठाराघात कर रहे।

फिर जड़ों को सींचने की तो बात दूर, पत्तियोँ-टहनियों के सिंचन में ही इतिश्री मान बैठे,
हो फिर कैसे आदर्शों के उत्तुंग शिखरों का आरोहण, गहरी खाई में ही जो घरोंदा बसा बैठे।

हो निजता में गुरुता का समावेश कैसे, गुरुत्व के साथ बहने में ही नियति मान बैठे,
इंसान में भगवान के दर्शन हों कैसे, जब अंदर के ईमान को ही भूला बैठे।

इस सबके बावजूद, न हार हिम्मत, उम्मीद की किरण है बाकि,
मत हो निराश पथिक, काल की बक्र चाल यह,
छंट जाएेंगे भ्रम-भटकाव के ये पल, ठहराव का यह सघन कुहासा।
 
बस डटा रह, धर धीरज अपने सत्य, स्वर्धम, ईमान पर, आशा का दामन थामे,
  सच्चाई, अच्छाई व भलाई की शक्ति को पहचाने,
पार निकलने की राह फूटेगी भीतर से, आएगा वह पल जल्द ही, यह सुनिश्चित मानें।
 

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

लक्ष्य निर्धारण – रखें अपनी मौलिकता का ध्यान

अपनी अंतःप्रेरणा को न करें नजरंदाज

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है। बिना लक्ष्य के व्यक्ति उस पेंडुलम की भांति होता है, जो इधर-ऊधर हिलता ढुलता तो रहता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर व्यक्ति की ऊर्जा यूँ ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है और हाथ कुछ लगता नहीं। फिर कहावत भी है कि खाली मन शैतान का घर। लक्ष्य विहीन जीवन खुराफातों में ही बीत जाता है, निष्कर्ष ऐसे में कुछ निकलता नहीं। पश्चाताप के साथ इसका अंत होता है और बिना किसी सार्थक परिणाम के एक त्रास्द दुर्घटना के रुप में वहुमूल्य जीवन का अवसान हो जाता है। अतः जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है।

लेकिन जीवन लक्ष्य निर्धारण में प्रायः चूक हो जाती है। अधिकाँशतः बाह्य परिस्थितियाँ से प्रभावित होकर हमारे जीवन का लक्ष्य निर्धारण होता है। समाज का चलन या फिर घर में बड़े-बुजुर्गों का दबाव या बाजार का चलन या फिर किसी आदर्श का अंधानुकरण जीवन का लक्ष्य तय करते देखे जाते हैं। इसमें भी कुछ गलत नहीं है यदि इस तरह निर्धारित लक्ष्य हमारी प्रतिभा, आंतरिक चाह, क्षमता और स्वभाव से मेल खाती हो। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो फिर जीवन एक नीरस एवं बोझिल सफर बन जाता है। हम जीवन में आगे तो बढ़ते हैं, सफल भी होते हैं, उपलब्धियाँ भी हाथ लगती हैं, लेकिन जीवन की शांति, सुकून और आनन्द से वंचित ही रह जाते हैं। हमारी अंतर्निहित क्षमता प्रकट नहीं हो पाती, जीवन का उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो पाता। पेशे के साथ व्यक्तित्व में जो निखार आना चाहिए वह नहीं आ पाता।

फिर, जीवन के लक्ष्य निर्धारण में अंतःप्रेरणा का कोई विकल्प नहीं। अंतःप्रेरणा सीधे ईश्वरीय वाणी होती है, जिससे हमारे जीवन की चरम संभावनाओं का द्वार खुलता है। हर इंसान ईश्वर की एक अनुपम एवं बेजोड़ कृति है, जिसे एक विशिष्ट लक्ष्य के साथ धरती पर भेजा गया है, जिसका दूसरा कोई विकल्प नहीं। अतः जीवन लक्ष्य के संदर्भ में किसी की नकल नहीं हो सकती। ऐसा करना अपनी संभावनाओं के साथ धोखा है, जिसका खामियाजा इंसान को जीवन भर भुगतना पड़ता है। यह एक विडम्बना ही है कि मन को ढर्रे पर चलना भाता है। अपनी मौलिकता के अनुरुप लीक से हटकर चलने का साहस यह सामान्यतः नहीं जुटा पाता और भेड़ चाल में उधारी सपनों का बोझ ढोना उसकी नियति बन जाती है। ऐसे में अपनी अंतःप्रेरणा किन्हीं अंधेरे कौनों में पड़ी सिसकती रहती है और मौलिक क्षमताओं का बीज बिना प्रकट हुए ही दम तोड़ देता है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि व्यक्ति अपने सच का सामना करने का साहस कर पाता। अंतर्मन से जुड़कर अपने जीवन की मूल प्रेरणा को समझ पाता। उसके अनुरुप अपनी शक्ति-सीमाओं और अपनी खूबी-न्यूनताओं को पहचानते हुए जीवन की कार्यपद्धति का निर्धारण कर पाता तथा कुलबुला रहे प्रतिभा के बीज को प्रकट होने का अवसर देता। ऐसे में जीवन की समग्र सफलता का सुयोग घटित होता और सार्थकता के बोध के साथ नजरें संभावनाओं के शिखर को निहारते हुए, कदम शनै-शनै मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे होते।

ऐसा न कर पाने का एक प्रमुख कारण रहता है, दूसरों से तुलना व कटाक्ष में समय व ऊर्जा की बर्वादी। अपनी मौलिकता की पहचान न होने की वजह से हम अनावश्यक रुप में दूसरों से तुलना में उलझ जाते हैं। भूल जाते हैं कि सब की अपनी-अपनी मंजिल है और अपनी अपनी राह। इस भूल में छोटी-छोटी बातों में ही हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन बैठते हैं और अपने लक्ष्य पर केंद्रित होने की बजाए कहीं और भटक जाते हैं। ऐसे में जीवन का ध्येय दृष्टि से औझल हो जाता है और मन की अस्थिरता व चंचलता गहरे उतरने से रोकती है। एक पल किसी से आगे निकलने की खुशी में मदहोश हो जाते हैं, तो अगले ही पल दूसरे से पिछड़ने पर मायूस हो जाते हैं। ऐसे में बाहर की आपा-धापी और अंधी दौड़ में अपने मूल लक्ष्य से चूक जाते हैं।

ऐसे में जरुरत होती है, कुछ पल नित्य अपने लिए निकालने की, शांत स्थिर होकर गहन आत्म समीक्षा करने की, जिससे कि अपनी मूल प्रेरणा से जुड़कर इसके इर्द-गिर्द केंद्रित हो सकें। प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय इसमें बहुत सहायक होता है, जिसके प्रकाश में आत्म समीक्षा व्यक्तित्व की गहरी परतों से गाढ़ा परिचय कराने में मदद करती है। अपने स्वभाव, आदतों एवं व्यक्तित्व का पैटर्न समझ आने लगता है। इसी के साथ अपने मौलिक स्व से परिचय होता है और जीवन का स्वधर्म कहें या वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट होता चलता है।

खुद को जानने की इस प्रक्रिया में ज्ञानीजनों का संग-साथ बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। उनके साथ विताए कुछ पल जीवन को गहन अंतर्दृष्टि देने में सक्षम होते हैं। जीवन की उच्चतर प्रेरणा से संपर्क सधता है, जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है। भीड़ की अंधी दौड़ से हटकर चलने का साहस जुट पाता है और जीवन को नयी समझ व दिशा मिल पाती है। जीवन सृजन की नई डगर पर आगे बढ़ चलता है और अपनी मूल प्रेरणा से जुड़ना जीवन की सबसे रोमाँचक घटनाओं में एक साबित होती है। इसी के साथ जीवन के मायने बदल जाते हैं और यह अंतर्निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति का एक रोचक अभियान बन जाता है।

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