सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में


 

यायावरी का तिलिस्म

प्रो. शंकर शरण, राष्ट्रीय अध्येता,

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS), शिमला, हिं.प्र.



 मात्र पचास-साठ वर्ष पहले तक यात्रा और भ्रमण साहित्य अच्छे प्रकाशन संस्थानों का एक विशिष्ट भाग होता था। केवल बनारसी दास चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन, और कवि अज्ञेय जैसे ख्यातनाम, अपितु सामान्य व्यक्तियों द्वारा लिखे यात्रा-वृत्तांत भी प्रकाशक सहर्ष छापते थे यहाँ तक कि बड़े लोग उस की भूमिकाएँ तक लिखते थे। कदाचित कारण यही रहा हो कि तब यात्राएँ उतनी सुलभ और प्रचलित नहीं थीं। इसलिए जो लोग यात्राएँ और भ्रमण करते थे, उनके विवरणों से सहृदय पाठक उसका घर बैठे आनंद, कल्पना और जानकारी प्राप्त कर लियाकरते थे। अब यातायात, संचार और पर्यटन उद्योग का ही भारी विस्तार हो चुका है। संभवतः इसीलिए अब इस विधा का महत्त्व कम हो गया 

इसीलिए प्रो. सुखनन्दन सिंह जैसे जन्मजात घुमक्कड के प्रथम यात्रा वृत्तांत को जितना महत्त्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला है। वह देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार में पत्रकारिता के प्राध्यापक तथा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के यू.जी.सी.-एसोसियट भी हैं। यद्यपि उनकी यह पुस्तक 'हिमालय की वादियों में' (बिलासपुरः एविन्सपब, 2021) काफी समृद्ध है, और बड़े मनोयोग से लिखी गयी है। यह किसी बाहरी पर्यटक द्वारा या ऊपरी दृष्टि से हिमालय के रमणीक और महत्त्वपूर्ण स्थलों को देखने का वर्णन बिलकुल नहीं है। बल्कि स्वयं एक हिमालय पुत्र द्वारा गहरी संवेदनशील दृष्टि से अनेकानेक स्थानों के विस्तृत यात्रा-वृत्तांत हैं।

जिनमें कुछ स्थलों पर वह अनेक बार गया है। इस तरह, एक तुलनात्मक दृष्टि के साथ-साथ, केवल भौगोलिक, जिनमें कहीं-कहीं नदियों, झीलों, वनस्पतियों और वन्य जीव-जंतुओं तक के बारे में सूक्ष्म अवलोकन है, बल्कि संबंधित क्षेत्रों के सामाजिक, सांस्कृतिक तत्त्वों का भी मुजायका मिलता है। विवरणों के अतिरिक्त इस में 57 तस्वीरें भी हैं। इस रूप में यह पुस्तक एक रोचक यात्रा-विवरण के साथ-साथ, एक अच्छा पथवृत्त-मार्गदर्शक तथा पर्यावरणीय एवं सामाजिक शिक्षा की सामग्री भी प्रदान करती है।



पुस्तक के समर्पण से भी लेखक की भावना की झलक मिलती है। स्वयं हिमालय को इसे अर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है, “उस देवात्मा हिमालय को जिसकी गोदी में बचपन बीता, जिसकी वादियों में युवावस्था के स्वर्णिम पल देखे, जो जीवन की ढलती शाम में, मौन तपस्वी-सा आत्मस्थ, अंतस्थ एवं अडिग खड़ा, आंतरिक हिमालय के आरोहण की सतत् प्रेरणा देता रहता है।" लेखक का दिल बचपन से ही पहाड़ों के लिए धड़कता रहा है, जिनमें हिमालय  को बाद में उन्होंने गुरुजनों से 'देवात्मा' के रूप में जाना जो मिट्टी और पत्थर के विग्रह मात्र नहीं, अपितु आध्यात्मिक चेतना के मूर्तिमान संवाहक हैं। इस कारण ही संपूर्ण हिमालयी परिवेश को देवभूमि भी कहा जाता है।

यद्यपि यह लेखक का पहला यात्रा-संकलन है, जिसमें हिमाचल और उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों के वर्णन हैं। किंतु उन्होंने इसे अत्यंत समृद्ध आकलनों और अवलोकनों से भर दिया है। नोट करने की बात है कि लेखक विगत तीन दशकों से हिमालयी प्रदेशों की यात्राएँ करते रहे हैं। इससे भी कुछ अनुमान किया जा सकता है कि हिमालय के संपूर्ण परिदृश्य को आँकने की उनकी दृष्टि कितनी पैनी और अनुभव-समृद्ध हो चुकी होगी। वे पेड़-पौधों ही नहीं, विविध वन्य जीव-जंतुओं, घास-लताओं और चट्टानों में लगी काई तक की विशेषताएँ पहचानते हैं। यह भी कि बंदर किन पत्तें, या फलों को खाते हैं, किस घास से किस जीव-जंतु का क्या संबंध है, अथवा किस वृक्ष की क्या विशेषता है। ऋषिकेश में रामझूला से नीलकंठ जाने के मार्ग में लंगूरों का उल्लेख मिलता है, “ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चना खाने के अभ्यस्त हैं। ये झुंडों में रहते हैं। इनसे यदि भय खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनंद उठाया जा सकता है।” (पृ.33)


यद्यपि सिद्ध पाठकों को इस पुस्तक के विवरण-शैली में एक अनगढ़ता लग सकती है, किंतु वह कोई कमी होने के बदले गुण ही है क्योंकि उसमें लेखक के हृदय की अनुभूति है, जो संपादन की कमी को खलने नहीं देती। यायावर को इसकी चेतना भी बनी रही है कि उन हिमालयी मार्गों, क्षेत्रों में पहले गुरु गोविन्द सिंह, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी सत्यानन्द, आदि जैसे महान गुरु और मनीषी भ्रमण करते रहे हैं। जो अपनी बारी में स्वयं हजारों वर्ष पहले की हिमालय साधना परंपरा का ही अनुकरण कर रहे थे। अतः कोई सचेत, निष्ठावान यायावर आज भी वह अनुभूति कर ही सकता है, जो उन मनीषियों को हुई होगी।

कुल मिलाकर इस संकलन में छत्तीस विभिन्न यात्राओं के विवरण हैं। इनमें कुमाऊँ, गढ़वाल, शिमला, मंडी, कुल्लू घाटी, मनाली हिमालय और लाहौल घाटियों में अलग-अलग स्थानों की यात्राओं के वर्णन मिलते हैं। इसे पढ़ते हुए संपूर्ण हिमालय क्षेत्र के असंख्य मंदिरों, गाँवों, कस्बों, घाटियों, नदियों, ताल-तलैयों, आदि की स्थिति, विशेषताएँ, तथा चित्र एवं शब्दचित्रों के भी दर्शन होते हैं। जैसे, मालिनी नदी का परिदृश्य बताते हुए, “कहीं किसान इसके किनारे खेती कर रहे हैं, तो कहीं मछुआरे मछली पकड़ रहे, कहीं कपड़े धुल रहे हैं तो कहीं इसके किनारे भेड़-बकरियाँ-गाय-घोड़े आदि चर रहे हैं, तो कहीं इसके किनारे तंबू लगे हैं, रिजॉर्ट बने हैं, टूरिस्ट कैंप चल रहे हैं। कहीं इसके किनारे पूरे गाँव आबाद हैं।” (पृ.18) इसी नदी के बाएँ तट पर हनुमान का सिद्धबली मंदिर है, जहाँ भंडारा कराया जाता है। इस मंदिर की महत्ता इसी से समझ सकते हैं कि लेखक को अपनी यात्रा के समय पता चला कि वहाँ भंडारा करवाने के लिए अगले दस वर्ष तक की बुकिंग हो चुकी है!



कई वर्णनों में अनायास अनेक तकनीकी जानकारियाँ भी मिल जाती हैं, जो नये यायावरों के लिए बड़े काम की साबित होंगी। जैसे कि कहाँ पर कौनसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, और कहाँ पर कैसी विशेष कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं। इस रूप में, यह पुस्तक युवा यायावरों के लिए एक मूल्यवान गाइड, मार्गदर्शिका का काम भी करेगी, जो उन स्थलों की यात्राएँ करने की योजना या हौसला रखते हैं। यथा, लैंसडाउन का वर्णन पढ़ते हुए यह मिलता है, "टिप-एन-टॉप यहाँ से ऊपर चोटी पर दर्शनीय बिंदु है, जहाँ से दूर घाटी का अदभुत नजारा देखा जा सकता है इसके नीचे किनारे बाँज, बुराँश देवदार के घने जंगल बसे हैं, जिनके बीच का सफर पैसा-वसूल ट्रिप साबित होता है। रास्ते में चर्च के पास ही गाड़ी खड़ी कर पैदल यात्रा का आनंद लिया जा सकता है देवदार-बुराँश के जंगल के बीच स्थित चर्च में शांतचित्त होकर दो पल प्रार्थना के बिताये जा सकते हैं।” (पृ. 19) या फिर, हरिद्वार में चलते-चलाते मोहन पूरीवाले, प्रकाशलोक नामक लाजबाव लस्सी की दुकान, त्रिमूर्ति के पास बेहतरीन गुजराती ढाबे की सूचना भी दी गयी है। इसी तरह शिमला की आकर्षक पैदल चढ़ाइयों (ट्रैकिंग ट्रेल्स) की विस्तृत जानकारियाँ इस में विस्तार से दी गयी हैं (पृ. 144-48)

आध्यात्मिक और पर्यटकीय विवरणों के साथ-साथ हर स्थान की सामाजिक, आर्थिक, कृषि संबंधी, आदि स्थितियों की ऊँच-नीच पर भी लेखक की अनायास नजर रही है कि कहाँ कौन-से सामाजिक रोग, या व्यसन समाज को कमजोर कर रहे हैं। विभिन्न पर्वतीय स्थानों की तुलनात्मक विशेषताएँ भी दिखायी गयी हैं। फिर एक ही स्थान की तुलनात्मक स्थिति को भी नोट किया गया है, कि पहले वह कैसी थी तथा अब उसमें क्या परिवर्तन आये हैं। उदाहरण के लिए, अल्मोड़ा से आगे के इलाकों पर, “सड़क के साथ जल-स्रोत के होते हुए भी लोग सामान्य खेती तक ही सीमित दिखे। उर्वर जमीन के साथ पहाड़ी क्षेत्र होते हुए यहाँ फल और सब्जी की अपार संभावनाएँ हमारे बागवानी भाई को दिख रही थी। इस ऊँचाई पर नाशपाती, पलन, आडू, अनार, जापानी फल की शानदार खेती हो सकती है। सेब की भी विशिष्ट किस्में यहाँ आजमाई जा सकती हैं। सब्जियों में मटर, टमाटर, शिमलामिर्च से लेकर औषधीय पौधे, फूल, लहसुन, प्याज, गोभी जैसी नकदी फसलें उग सकती हैं। यदि क्षेत्रीय युवा इस पर ध्यान केंद्रित कर दें, तो उनके गाँव-घर छोड़ कर दूर रहने, पलायन की नौबत ही आये।” (पृ. 3) यद्यपि लेखक अपनी बुद्धि कोछटाँक भर की' मानते हैं, फिर भी उनके कई अवलोकन बड़े वजनी और दूरगामी महत्त्व के प्रतीत होते हैं। यथा, “गाँव वालों का कहना था कि कितनी भी गमी हो यहाँ का पानी कभी सूखता नहीं। वास्तव में बाँज के पेड़ की जड़ें नमी को छोड़ती हैं इसे संरक्षित रखती हैं। हमारे मन में आया कि यदि गाँव वाले इस जंगल में बाँज के पेड़ों के साथ मिश्रित वनों को बहुतायत से लगा लें तो शायद यहाँ के सूखे पड़ते जल-स्रोत फिर रिचार्ज हो जाएँ।” (पृ. 4)

शिमला और आस-पास के स्थलों का विस्तार से वर्णन (पृृृृ. 136-61) लगभग सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों से भरा हुआ है जिसमें सुंदर स्थानों, मंदिरों, प्रसिद्ध शैक्षिक संस्थानों, एवं विशेष पैदल-पथों, ट्रैकिंग-ट्रेल्स के विवरण और तस्वीरें हैं। ऐसे विवरणों से किसी इच्छुक को अपनी भावी यात्रा की सही योजना बनाने में सहायता सकती है। इस पुस्तक में वर्णित यात्राओं में कुछ टीम-यात्राएँ भी हैं, जिनमें लेखक अपने शिक्षण संस्थान के छात्रों के दल लेकर भ्रमण और पर्वतारोहण प्रशिक्षण पर गये थे।

पुस्तक में कहीं से भी दस-बीस पन्ने पढ़कर भी लेखक की संवेदनशील दृष्टि, सजग अवलोकन, या हिमालयी प्रदेश की संपूर्ण थाती और संबंधित धर्म-समाज के प्रति हार्दिक चिंता की झलक मिल जाती है। कहीं-कहीं अनुभवजन्य दार्शनिक टिप्पणियाँ भी हैं। जैसेयदि ध्यान सारा रास्ते लक्ष्य पर केंद्रित हो तो फिर भय को घुसने का प्रवेश द्वार ही मिले।" यह बात किसी खतरनाक रास्ते को पार करते समय की स्थिति पर कही गयी है, किंतु यह मनुष्य के जीवन के कठिन, चुनौतीपूर्ण कार्यों को साधने के लिए भी यथावत सच है।

अतः कई रूपों में यह पुस्तक पारंपरिक यात्रा-वृत्तांतों से अधिक मूल्यवान प्रतीत होती है। इसे किसी सुयोग्य संपादक द्वारा यथोचित संपादित कर, संभव हो तो सभी यात्राओं का काल आदि जोड़कर, कहीं-कहीं दुहरावों तथा सामान्य वैयक्तिक तस्वीरों को हटा कर, इसका एक लघुतर संस्करण विद्यार्थियों एवं सामान्य पाठकों के लिए भी  बहुत उपयोगी, पठनीय हो सकता है। उन्हें इससे अपने देश के हिमालयी क्षेत्र के प्रति सार्थक जानकारी पाने के साथ-साथ अपनी संवेदना और कल्पनाशीलता भी विकसित करने में सहायता मिलेगी। 


(महात्मा गाँघी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विशिवद्यालय, बर्धा की त्रैमासिक पत्रिक - पुस्तक वार्ता, जुलाई-सितंबर 2020 अंक के पृष्ठ 106-108)

पुस्तक - हिमालय की वादियों में, लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह

प्रकाशक - एविंन्सपव बिलासपुर, छत्तीसगढ़, वर्ष - 2021, पृष्ठ - 243, मूल्य -399 रु.




गुरुवार, 29 सितंबर 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2

बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर

रास्ते में शिमला लॉयन क्लब द्वारा वृक्षारोपण का विज्ञापन पढ़कर अच्छा लगा। बाँज के वृक्षों के बीच देवदार के पौधों को बढ़े होते देखकर मन प्रमुदित हुआ। मन में भाव फूट रहे थे कि भगवान शिव इन समझदार व जिम्मेदार लोगों पर अपने अजस्र आशीर्वाद बरसाए। (गॉड शिवा ब्लैस दीज केयरिंग सॉउल)। सीधी उतराई में काफी नीचे उतरते गए। वन की सघनता, नीरवता और गहराती जा रही थी। लो आखिर मंदिर की झलक झाँकी मिल ही गई। थोड़ी की देर में हम इसके पास में थे। वाईं और पहाड़ी शैली में एक छोटा सा मकान, संभवतः जंगलात का है या पूजारीजी के रहने का ठिकाना। दाईं और मंदिर है, छोटा लेकिन कुछ फैला सा, एक मंजिला। लाल रंग से पुता, सीमेंटड़ पिरामिडाकार छत्त लिए हुए। चप्पल, गेट के जुत्ता स्टैंड पर उतारकर आगे बढ़े।

निर्देश पढ़कर बाउड़ी तक उतरे। निर्मल जल ताले में सुरक्षित दिखा। सिक्के पानी की तह में पड़े थे। इसके ऊपर लाल गुलाब स्थिर अवस्था में तैर रहे थे। बाउड़ी का यही जल नीचे पाइप से झर रहा था एक दूसरी बाउड़ी में। यहाँ बाउड़ी से जल कहाँ जाता है, नहीं दिखा, न ही समझ आया, न ही खोज की। संभवतः नीचे कहीं झरता होगा, जायरु (पहाड़ी स्प्रिंग वॉटर) बनकर। पास में रखे जग में झरते निर्मल-शीतल जल को भरकर अपनी तेज प्यास बुझाई। पैरों पर जल डालकर इनपर लगी धूल साफ की और थकान भी। और कुछ छींटे पवित्रिकरण के भाव के साथ छिड़ककर मंदिर में प्रवेश की तैयारी की। बग्ल में ब्रह्मलीन बाबा की अखण्ड धुनी भी थी। पहले मंदिर में पहुँचे। देवदर्शन किए, पूजारीजी से चरणामृत प्रसाद लिए। अनुमति लेकर नीचे धुनी में आ गए।

कमरे में प्रवेश किए। धुना सुलग रहा था। कमरे के कौने में लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे पड़े थे। एक बड़ा सा लठ धुनी में सुलग रहा था। सामने चौकी पर बाबा का एक फोटो, दूसरा स्कैच चित्र रखा था। सामने चरणपादुकाएं। अखण्ड धुनी की राख को अनिष्ट निवारक, अलौकिक बताया गया था। इस तीर्थ स्थल की कुछ विभूति कागज की पुड़िया में रखकर हम बाहर निहारने लगे। हालाँकि हमारी सीधी सी स्पष्ट सोच है कि इस सृष्टि में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता, सब अपनी पात्रता के अनुरुप रहता है। हमें यहाँ के एकांत-शांत परिसर, आध्यात्मिक ऊर्जा से आवेशित वातावरण, बाहर दो छोटी-छोटी खिड़कियों से घाटी, जंगल और शिमला के विहंगम दृश्य, अनुपम व अद्वितीय लग रहे थे। हम इन सबके बीच एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति कर रहे थे।

कुछ देर भोले बाबा का ध्यान किए, जीवन की नीरवता, आध्यात्मिक सत्य और जीवन लक्ष्य पर विचार केंद्रित किए। मन में भाव उठा कि किन्हीं फुर्सत के दिनों में, समय लेकर यहाँ बैठेंगे, साधना-अनुष्ठान करेंगे। जो भी हो, समय सीमा को ध्यान में रखते हुए बाबाजी से मिलने चले। प्रसाद में मिले मीठे दाने गिने, पूरे 22 थे। 2 को शिव शक्ति का रुप मान ग्रहण किए। भाव रहा कि दोनों जगतपिता, जगनमाता का कृपा प्रशाद धारण कर रहे हैं।

पूजारी भीमदास से अपना परिचय कराया। पूजारीजी कुछ रिजर्व प्रकृति के थे, मौन प्रधान लगे। उन्हें सहज करने, खोलने के लिए अपनी पूरी कथा-गाथा बताई। कहाँ से आए हैं, कैसे आए हैं, अकेले क्यों, आगे साधना-अनुष्ठान की मंशा भी जाहिए किए। घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। ऊपर माँ तारा का मंदिर दूर लग रहा था, मन में संशय था कि इस समय वहाँ से शिमला के लिए बस मिलेगी भी या नहीं।

हमारी दुविधा को देखते हुए पूजारीजी ने मार्गदर्शन करते हुए कहा - सीधा रास्ते पर आगे बढ़िए, एक घंटे में तारा देवी स्टेशन पहुँच जाओगे। ऊपर तारा देवी मंदिर से बस अब मिलने से रही। भीमदासजी को प्रणाम कर हम चल दिए। शिवालय मंदिर परिसर से चार सफेद पुष्प (शिव परिवार के प्रतिनिधि) पॉकेट में डालकर, बाँज के बीहड़ वन में प्रवेश कर गए।

वन की सघनता बढ़ती गई, बैसी ही नीरवता और गंभीरता भी। रास्ता पर्याप्त चौढ़ा था, सो गिरने फिसलने का कहीं कोई भय नहीं था। सीधा मार्ग धीरे-धीरे चढ़ाई में बदल गया। इस निर्जन प्रदेश में जंगली जानवरों का अज्ञात सा भय अचेतन मन पर छाना स्वाभाविक था। पूरे मार्ग भर शिव मंत्र का जप एवं सुमरण चलता रहा। अप्रत्याशित खतरे-हमले के लिए हाथ में पत्थर और ड़ंडा ले रखा था। इसी क्रम में जंगल पार हो चला था।

जंगल के लगभग अंतिम छोर पर विश्राम के लिए पत्थर का एक चबूतरा बना था। यहाँ पर कुछ देर विश्राम कर, पीछे मुड़कर तय किए गए मार्ग को निहारा। जंगल की विहंगम दृश्यावली मनोरम, आलौकिक, अद्वितीय और अनुपम थी। आश्चर्य हो रहा था कि इतने सुन्दर व घने जंगल से होकर यह पथिक अकेला सफर तय किया है। 


वन के ऊपर माता का मंदिर और ह्दय क्षेत्र में शिव का प्राचीन मंदिर। काश कैमरा होता। बैसे आँख के कैमरे से चित्त के पटल पर यह विहंगम दृश्य हर हमेशा के लिए अंकित हो गया था। (हालाँकि बाद की समूह यात्रा में अगले वर्ष यहाँ की फोटोग्राफी का संयोग बनता है।)

विश्राम के साथ कुछ दम भरने के बाद फिर मंजिल की ओर आगे बढ़ चले। आगे फिर जंगल आ गया, देवदार से भरा। इसको पार करते ही कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। इसकी मालकिन दो पहाड़ी महिलाएं ढलवां पहाडियों में नीचे घास काट रहीं थी। उनके बुलाने पर शेरु कुछ शांत हो गया, हमारे प्यार भरे उद्बोधन और हाथ में डंडे को देखकर भी वह मार्ग से हट चुका था।

आगे रास्ता धार या रिज से होकर आगे बढ़ रहा था। दाएं भी रास्ता और वाएं भी। दाएं का चुनाव किया, यह सोचकर कि शिमला दाएं ओर जो ठहरा। आगे जंगल औऱ घना होता जा रहा था। फिर दो राहें। यहाँ भी दाईं राह परर चल पड़ा। लेकिन थोड़ी दूर पर पत्थर-सीमेंट का गेट मिला। आगे बढ़ने पर समझ आया कि किसी की स्थापना है यह। सो वाएं रास्ते से चल पड़ा। ढलवाँ, संकरा और घने वृक्षों से आच्छादित पगडंडी से होकर अब गुजर रहा था। शीघ्र ही नीचे वाहनों की आवाजें आना शुरु हो गई थी, साथ ही स़ड़क भी दिख रही थी। लगा मंजिल के बहुत करीब हैं अब हम।

लो, सामने भवन दिख रहे हैं। मानवीय बस्ती आ गई है। कुछ देर में हम सड़क पर उतर आए। यह क्या, हम तारा देवी स्टेशन पहुँच चुके थे। यहीं पास के एक पहाडी ढावे में बैठते हैं, इतने लम्बे सफर के बाद शीतल जल। चाय भी बन रही है। एक कप और बना देना। इस तरह चाय की चुस्कियों के साथ पिछले घंटों की यादगार यात्रा की जुगाली के साथ आज के ट्रेकिंग एडवेंचर, शिवालय दर्शन की रोमाँचक यात्रा की पूर्णाहुति होती है।

तारादेवी स्टेशन से सीधे टुटीकंडी आइएसबीटी बस मिलती है। टुटीकंड़ी बस-स्टैंड से पुराने बस-स्टैंड पहुँचते हैं। बहाँ से बालुगंज, जहाँ प्रख्यात कृष्णा स्वीट्स में दूध-जलेबी की मन भावन डिश का आनन्द लेते हैं। यहाँ से एडवांस स्टडीज के शांत कैंपस में प्रवेश कर अपने कमरे में पहुँचते हैं। बिस्तर पर कमर सीधी करते हुए, कुछ पल विश्राम करते हैं। इस बीच दिन की यात्रा के रोँमाँचक अनुभवों को निहारते हुए गाढ़ा अहसास हो रहा था कि कैसे मन की गहरी चाहत या कहें बाबा के बुलावे पर आज की यादगार यात्रा का संयोग बना था और पग-पग पर उसका दिव्य संरक्षण व मार्गदर्शन मिला था।

इसके भाग-1 के लिए पढ़ें - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

बुधवार, 31 अगस्त 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

 बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर


 दोपहर के भोजन के बाद मन कुछ बोअर सा व अलसाया सा लग रहा था। बोअर कुछ इस तरह से कि एडवांस स्टडीज का कोई सेमिनार या प्रेजेंटेशन आदि का बंधन आज के दिन नहीं था, क्योंकि यहाँ के प्रवास का काल लगभग पूरा हो चुका था, सामूहिक भ्रमण का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था। (संस्मरण वर्ष
2013 मई माह का है)

एक माह के दौरान शिमला के कई स्थलों को मिलकर एक्सप्लोअर किया था, लेकिन शिमला में शिव के धाम की खोज शेष थी। कल सुबह ही विक्रम ने सफाई के दौरान सुबह बीज डाल दिया था कि तारा देवी शिखर के नीचे शिव का बहुत सुंदर व शांत मंदिर है। आज दोपहर के खाली मन में एडवेंचर का कीड़ा जाग चुका था कि आज वहीं हो लिया जाए। कोई साथ चलने को तैयार न था, सो यायावरी एवं तीर्थाटन की मनमाफिक परिस्थितियों सामने थीं। कमरे में आकर विश्राम का विकल्प भी साथ में था, लेकिन परिस्थिति एवं मनःस्थिति का मेल कुछ ऐसे हो रहा था कि लगा जैसे बाबा का बुलावा आ रहा है और मन की पाल को हवा मिल गई, कि चलो शिवालय हो आएं।

एडवांस्ड स्टडी शिमला का ऐतिहासिक भवन एवं भव्य परिसर
 

एडवांस स्टडीज के गेट के बाहर बालूगंज से बस भी मिल गई थी। सीधा शिमला के पुराना बस अड्डा उत्तरे। यह क्या, यहाँ तो एक ही बस खड़ी नहीं थी तारा देवी मंदिर के लिए। रास्ते में शोधी या तारा देवी स्टेशन पर उतरने का कोई ईरादा न था। कौन चलेगा दूसरी बस में। जाएंगे तो सीधा माता के द्वार पर उतरेंगे, फिर देखेंगे आगे की शिव मंदिर यात्रा।

लगभग एक घंटा बीत गया बस के आगे पीछे भागते, ड्राइवर व सवारियों से बस का पता-ठिकाना पूछते..। इसी बीच अपने बी.टेक. लुधियाना के सहपाठी अवस्थीजी की कोचिंग अकादमी - विद्यापीठ के दर्शन भी हो गए। फुर्सत में मिल लेंगे इनसे बाद में। लो बस आ गई, शोघी तक। चलो वहां तक ही सही, वापस आ जाएंगे, यदि वहाँ से सीधे तारा देवी मंदिर के लिए बस न मिली तो। कुछ ऐसा ही हुआ भी। शोघी से स्कूल बच्चों से भरी एक लोक्ल बस में बैठ गए, कुछ मिनट खड़े खड़े यात्रा करते हुए स्कूली बच्चों के साथ बस ने हमें राह में उत्तार दिया। लेकिन तारा देवी का प्रवेश गेट और रास्ता तो पीछे है 300 मीटर लगभग। सवा 2 किलोमीटर ऊपर है मंदिर अभी।

कुछ देर बस-टैक्सी आदि की उम्मीद में खड़े रहे, लेकिन जल्द ही ना उम्मीद होकर अपनी सबसे विश्वस्त 11 नंबर की गाड़ी से चल दिए। सड़क को छोड़कर शॉर्टकट पगडंडी का सहारा लिए। पत्थरों पर बज्री नुमा पत्थरों पर ऊपर चढ़ने से आज की यात्रा की कठिन शुरुआत हो चुकी थी। ऊपर मुख्य मार्ग पर कुछ टैक्सी अभी चल रही थी। लेकिन इन्हें एक अजनबी पथिक से क्या लेना देना। 

शिमला का वैली व्यू (प्रतिनिधि फोटो)
 

ऊपर देखता, मंदिर का भवन काफी ऊपर था। राह में धूप सीधे बरस रही थी, साथ ही ठंडी हवा भी, नीचे गांव सड़क घाटी का हरा-भरा विहंगम दृश्य सुहावना लग रहा था। प्यास भी लग रही थी। पानी की कोई व्यवस्था साथ नहीं थी, क्योंकि सोचा नहीं था कि ऐसी ट्रैकिंग की भी नौबत आएगी। यह आज मेरी कौन सी परीक्षा ली जा रही थी,  व यह कौन सी शक्ति मुझे इन सुनसान राहों पर ऊपर बड़ा रही थी। यह तो भगवान शिव ही जाने, जिनके द्वार तक हम संकल्पित हो कर चल पड़े थे। अभी तो सीधे ऊपर तारा देवी का मंदिर था।  

शॉर्टकट पगडंडी से ऊपर चढ़ा ही था कि बड़ी सी पानी की सीमेंट टंकी दिखी। आवाज आ रही थी अंदर से पाइप में पानी के निकासी की, लेकिन नल कहीं ना दिखा। खाली हाथ ऊपर बढ़ चला। रास्ते में यह क्या, नीचे आवाज आ रही थी जानी पहचानी हॉर्न की और छुक-छुक की भी। तो यहीं नीचे सुरंग से होकर रेल्वे ट्रैक आगे बढ़ता है। कुल मिलाकर सामने एक रोमांचक दृश्य था। शिमला-कालका ट्रैन पहाडियों के बीच लुका-छिपा करती हुई सुरंगों के आर पार हो रही थी।

हम भी अपनी मंजिल तारा देवी शिखर की ओर बढ़ रहे थे, जहाँ से हमें शिव मंदिर के लिए दूसरी ओर नीचे उतरना था। सड़क पार कर चोड़ी पगडंडी मिली, लगा पक्की सड़क बनने से पहले तीर्थ यात्री इसी राह से सामान के साथ घोड़ा आदि के साथ जाते रहे होंगे। आज भी हो सकता है श्रद्धालु पर्व त्योहारों में इसी राह से चढ़ते उतरते होंगे। 

रास्ता चीड़ की सूखी पत्तियों से ढका था, कुछ-कुछ फिसलन भरा। लेकिन इनके साथ अपनी बचपन की विरल यादें अचेतन की अतल गहराईयों से उभर कर आज ताजा हो रहीं थी। भूंतर के आगे मणिकर्ण घाटी में शड़शाड़ी से पुलपार कर ओल्ड़ जाते समय ऐसे ही चीड़ पत्तियों से भरे रास्ते बचपन में देखे थे, बुआजी की बड़ी बेटी की शादी में शरीक होने गए थे। आज वो पुरानी यादें ताजा हो रहीं थीं।

एक ओर याद ताजा हो उठी। यह जंगली झाड़ियों में खट्टी-मिठी आँछ (बुश बैरी) को बीन कर खाने का अनुभव था। कुछ-कुछ पानी की कमी इनसे पूरी होती अनुभव कर रहा था। बीयर ग्रिल के मैन वर्सेज वाइल्ड का एक पात्र खुद को अनुभव कर रहा था। सच में निपट अकेला, बिना किसी तैयारी के भोलेनाथ शिव के दर्शनार्थ उनके धाम की खोज में। बीहड़ वन के सन्नाटे को चीरते हुए हम अकेले बड़ रहे थे।

अब रास्ता मुख्य मार्ग से अलग हो गया था। ऊपर दूर मोड़ दिख रहा था। बीच का सफर अपने गाँव के पीछे (बनोगी गांव के ऊपर और रेऊंश के नीचे का वन क्षेत्र) बीहड़ बनों में बचपन के बिताए रोमाँचक पलों को तरोताजा कर रहे थे। रास्ते भर खट्टी मिठी बुश बैरी की हरी भरी झाडियां जहाँ भी मिलती गईं, उनसे दो-चार दाने तोड़कर सेवन करता रहा।

मार्ग में लेबर काम करते मिले। अपना रोल्लर आगे-पीछे कर रहे थे। एक थके हैरान-परेशान लेकिन लक्ष्य केंद्रित तीर्थ यात्री को वे कौतुक भरी निगाहों से देख रहे थे। बात-चीत करने का न समय था और न ही मनःस्थिति। राह में उतरता हुआ एक यात्री दुआ-सलाम कर कुछ मन हल्का व आश्वस्त करता प्रतीत हुआ। इस निर्जन राह में एक आस्थावान श्रद्धालु के दर्शन व उसका आत्मीय स्पर्श  निःसंदेह रुप में सकूनदायी लगे।

शिमला के ट्रेकिंग ट्रैल्ज - (प्रतिनिधि फोटो)

इनको पार कर आधे से अधिक मार्ग, लगभग डेढ़ किमी तय हो चुका था। आगे मुख्य मार्ग से पत्थर की सीढ़ियाँ और कछ घने वन से होकर रास्ता पार किया। मुख्य मार्ग पर आते ही – लो यह क्या। ऊपर माँ का मंदिर दिख रहा था, सहज विश्वास न हुआ कि पहुँच गए। अब एक मोड़ और बस...। कुछ पल बैठ दम भरा। प्यास लगी थी, लेकिन पानी न था। फिर आगे बढ़ चले। यह क्या मोड़ पर शिव मंदिर का बोर्ड लगा था। क्यों न सीधे इस मार्ग से बढ़ चलें, पहले शिव बाबा के दर्शन कर लें, वहीं तो आज की मूल मंजिल थी, फिर देखेंगे ऊपर माता का द्वार, जहाँ पिछले दो रविवार आ चुके थे वहाँ। तब शिवमंदिर का बोर्ड पढकर उतरने की इच्छा जगी थी, लेकिन साथी लोग तैयार नहीं थे। लगा, जो होता है, अच्छा ही होता है।

अब हम पगडंडी पर बढ़ चल रहे थे, जो बहुत ही संकरी थी। बाँज के पत्तों से भरी, फिसलन भरी थी। एक कदम दाएं कि सीधे नीचे गए गहरी घाटी में। हालाँकि बांज के घने पतले वृक्ष बीच में रोक सकते हैं, लेकिन चोट तो काफी गंभीर लग सकती है ऐसे में...। हम एकाकी आगे बढ़ रहे थे, पीछे ऊपर माता का मंदिर दिख रहा था। शनै-शनै हम जितना नीचे उतरते गए, मंदिर पीछे छूटता गया और अब दृष्टि से औझल हो चुका था व आगे जंगल और घना होता जा रहा था। बढ़ते बढ़ते दूर कुछ हलचल दिखी, बंदर कूद रहे होंगे, नहीं ये तो गाय जैसा पशु लगा। पास में वन विभाग का बोर्ड भी दिखा। यहाँ जंगल में लोगों के छोड़े हुए मवेशी चर रहे थे।

बीच राह में किसी तरह के अप्रत्याशित खतरे या हमले से निपटने के लिए एक हाथ में नुकीला पत्थर और दूसरे हाथ में एक ठूंठ का डंड़ा हम थाम चुके थे। (जारी....शेष भाग-2 व अंतिम किस्त अगली पोस्ट में - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2)  

तारा देवी हिल्ज के बीहड़ बन और बांजवनों के मध्य शिवमंदिर

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