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रविवार, 30 सितंबर 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - मौसम का बदलता मिजाज और बारिश का कहर

प्रकृति के रौद्र रुप में निहित दैवीय वरदान


वर्ष 2018 की वरसात कई मायनों में यादगार रहेगी, अधिकाँशतः प्रकृति के लोमहर्षक कोप के लिए। अगस्त माह में भगवान के अपने घर – केरल में बारिश का करह, 80 बाँधों से एक साथ छोड़ा जा रहा पानी, जलमग्न होते लोकजीवन की विप्लवी त्रास्दी। सितम्बर माह के तीसरे सप्ताह में देवभूमि कुल्लू में तीन दिन की बारिश में प्रकृति प्रकोप का एक दूसरा विप्लवी मंजर दिखा, जिसने ऐसी तबाही की 25 साल पुरानी यादें ताजा कर दी।

     इन सब घटनाओं के पीछे कारणों की पड़ताल, इनमें मानवीय संवेदना के पहलु, यथासम्भव मदद और आगे के सबक व साबधानियां अपनी जगह हैं, लेकिन चर्चा प्रायः इनके नकारात्मक, ध्वंसात्मक पहलुओं की ही अधिक होती है। मीडिया हाईप को इममें पूरी तरह से सक्रिय देखे जा सकता है, जो इसका स्वभाव सा बन गया है। सोशल मीडिया पर अधिक हिट्स, तो टीवी में टीआरपी की दौड़। हालाँकि अखबारों में ऐसी संभावनाएं कम रहती हैं, लेकिन इनकी हेडिंग्ज में भी तबाही का ही मंजर अधिक दिखता रहा, पीछे निहित दैवीय वरदानों पर ध्यान नाममात्र का ही रहा।


     कुल्लू घाटी में 3 तीन तक बरसे लगातार पानी से क्षेत्र के नालों में पानी भर गया था, ऐसे में नदियों का फूलना स्वाभाविक था। इस पर बादल फटने की घटनाओं ने स्थिति को ओर विकराल स्वरुप दिया। मनाली, सोलांग घाटी के आगे धुंधी में बादल फटने की घटना घटी, तो दूसरी कुल्लू मनाली के बीच कटराईं के पास फोजल-ढोबी इलाके में, जिस कारण सामान्यतः शांत रहने वाली व्यास नदी ने रौद्ररुप धारण किया। रास्ते में जो भी इसकी चपेट में आता गया, सब इसकी गोद में समाता गया।

     मनाली के समीप प्राइवेट बस स्टैंड़ से वोल्बो बस के डूबने का लोमहर्षक दृश्य इस भयावह त्रास्दी का प्रतीक बना। इसके साथ नदी की धारा में बहता ट्रक ऐसी ही दूसरी घटना रही। रास्ते में कई पुल बहे, कई जगहों से सड़कें ध्वस्त हो गयी। कुल्लू से मानाली के बीच शुरुआती दौर में यातायात ठप्प रहा। कुल्लू-मनाली के बीचों-बीच राइट और लेफ्ट बैंक को जोड़ने वाले पतलीकुलह-नगर पुल का एक हिस्सा बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। फिर ढोबी का पुल बड़े बाहनों के लायक नहीं रहा। लुग्ड़ी भट्टी-छरुहड़ू के बीच का लेफ्ट बैंक रुट का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से गायब हो गया। इस कारण लेफ्ट बैंक से किसी तरह की यातायात की संभावनाएं सप्ताह भर बंद रहीं। हालांकि अब यह रुट कामचलाऊ रुप में शुरु हो चुका है।
इस बीच छोटे बाहनों के सहारे सेऊबाग पुल और रायसन पुल यातायात के लिए लाईफलाइन की तरह काम करते रहे। लेकिन अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम और हल्के पुलों पर अत्यधिक भार के चलते इनकी भी सीमाएं स्पष्ट होती गयी। फिर सेऊबाग पुल भी आधा क्षतिग्रस्त अवस्था में रहा। इस बीच रास्ते में कई जगहों से टुटे लिंक रोड़ के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
इसी बीच कुल्लू-मनाली में जब बारिश हो रही थी, यहाँ की ऊँचाईयों में व कुल्लू-मनाली के आगे रोहतांग दर्रे के उस पार लाहौल-स्पीति क्षेत्र में बर्फवारी हो रही थी। इस बेमौसमी बर्फवारी के कारण यहाँ की दुश्वारियाँ अलग रुप लेती हैं। लेट सीजन में यहाँ तैयार होने वाली सेब की फसल को इससे भारी नुकसान पहुँचा। सेब के फलदार वृक्षों पर बर्फ लदने के कारण पेड टूटने लगे। इस बेमौसमी बर्फवारी ने मौसम परिवर्तन की वैश्विक स्थिति व इसके दुष्परिणामों को स्पष्ट किया।
कूपित प्रकृति के इन दुष्प्रभावों व नुकसान के असर, इनके कारण, संभव निराकण आदि पर भी चर्चा होती रही। कई लोग नुकसान को लेकर ही चिल्लाते रहे, मीडिया इसे हाईप देता रहा। कभी न भरने वाले जख्म दे गयी यह बरसात, जैसी हेडिंग्ज के साथ अखबार एक तरफा व्यान देते रहे। टीवी एवं सोशल मीडिया पर इसके एक तरफा हालात व्याँ करते वीडियोज व पोस्ट को देखा जा सकता है।
लेकिन इन सबके बीच प्रकृति के रौद्र रुप के पीछे निहित दैवीय वरदानों का जिक्र न के बरावर दिखा। पीड़ित लोगों के कष्ट एवं व्यथा के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, प्रकृति के इन वरदानों का जिक्र भी जरुरी हो जाता है, जिससे अनावश्यक पैनिक पैदा करने की जगह स्थिति की सम्यक समझ विकसित हो सके।
जो सबसे बड़ा वरदान इस बारिश का रहा, वह था पानी के सूखते प्राकृतिक जल-स्रोतों का रिचार्ज होना। गाँव की ही बात करें, तो पिछले कई वर्षों से गाँव के नाले को देखकर चिंतित था। साल भर जो नाला कभी निर्बाध रुप में नदी तक बहता था, वह पिछले कई सालों से इस दौरान सूखा दिखता। इस बार बारिश के बाद दनदनाते हुए नदी तक बह रहे नाले को देखकर सुखद आश्चर्य़ हुआ। वहीं इस पर बना झरना, जिसको देख पिछले कई सालों से मायूसी छाई थी, अपने पूरे श्बाब पर झरता दिखा।
समझ में आया कि जितने जल की मात्रा को हम लाखों पेड़ लगाकर तैयार कर पाते, उससे कई गुणा अधिक जल यह बरसात वरदान के रुप में कुछ दिनों में दे गई। सूखते जलस्रोतों का रिचार्ज होना एक कितना बड़ा उपहार है, इसको पानी पीने से लेकेर सिंचाई के लिए तरस रहे आम इंसान व किसान भली-भांति समझ सकते हैं। फिर करोड़ों-अरबों की बन संपदा को ऐसी बारिश जो प्राण सींचन करती है, उसका अपना महत्व है।
इस बीच प्रकृति का अदृश्य न्याय देखने लायक रहा। इस दौरान आधा जल बर्फ के रुप में पहाड़ों में जमता गया और आधा बारिश के रुप में। यदि सारा जल बारिश के रुप में बरसता तो शायद तबाही का मंजर और अधिक भयावह होती। दूसरा जमी बर्फ के कारण सिकुड़ते ग्लेशियर पुनः रिचार्ज हुए। इनसे निकलने वाली हिमनदियों का जल अब साल भर निर्बाध रुप में बहता रहेगा, यह एक दूरा वरदान रहा।
इस तरह इस प्राकृति त्रास्दी में हुए नुक्सान के साथ प्रकृति के इन उपहारों को भी समझने की जरुरत है। इन दूरगामी फायदों की समझ तात्कालिक हानि के गम पर मलहम का काम करती है। साथ ही प्राकृतिक त्रास्दियों के मानव निर्मित कारणों को समझने, पकड़ने व इनके निराकरण के प्रयास जरुरी हैं। प्रकृति का रौद्र रुप हमारी जिन इंसानी वेबकूफियों को उजागर करता है, उनसे सबक लेने की जरुरत है। 
प्रकृति मूलतः ईश्वरीय विधान से चलती है, उसके अनुशासन को समझने व पालने की जरुरत है, ताकि हम इससे सामंजस्य बिठाकर रह सकें व इसके कोप-दंड़ की वजाए इसके वरदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

सोमवार, 30 जुलाई 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - यादें बरसात की।


सावन का महीना - शिव के संग प्रकृति की रौद्र स्मृतियां

बरसात का मौसम हर वर्ष एक वरदान की तरह धरती पर आता है, जब मई-जून की अंगार बरसाती गर्मी के बाद आकाश में बादल मंडराते हैं। प्यासी धरती की पुकार जैसे प्रकृति-परमेश्वर सुनते हैं, झमाझम बारिश होती है। तृषित धरती, प्यासे प्राणियों की प्यास शांत होती है। बारिश की बौछारों की आवाज, हल्की बारिश की संगीतमयी थाप के साथ सकल सृष्टि जैसे दिव्य सुरों में सज जाती है।
इन सबके साथ घर से दूर, पहाड़ों में बिताए बचपन की यादें बरबस ताजा होती हैं, बादलों की तरह चिदाकाश पर उमड़ती-घुमड़ती हैं और झमाझम बरस कर अंतःकरण में एक सुकूनभरा, रामाँचक एवं रुहानी सा भाव जगा जाती हैं, जिसको शब्दों में बाँधना कठिन है।
वरसात का यह मौसम हर वर्ष गर्मी और सर्दी के बीच की संधि वेला के रुप में आता है। प्रकृति ताप के हिसाब से न अधिक गर्म होती है न अधिक सर्द। पहाड़ों पर मंडराते आवारा बादल के टुकड़ों को देख मन भी उनके साथ घाटी की उड़ान भरने लगता है। पूरी घाटी कभी-कभी इनके आगोश में ढक-ढंप जाती है, तो कभी इक्का-दुक्के बादल के फाए घाटी में इधर-उधर मंडराते एक अलग ही दुनियाँ का नजारा पेश करते।

विशेषकर दर्शनीय रहता है हवा के साथ तैरता धुंध का नजारा, जो पूरी घाटी में छाकर घर-घाटी, पर्वत, शिखर व समस्त प्राणियों को छूकर गुजर रहा होता है। ऐसे में बादलों के आगोश में जिन पथिकों को पहाड़ियों की गोद में विचरण का दुर्लभ अवसर मिलता है, उनके भावों की अनुभूति वर्णन करना कठिन है, जिसे महज अनुभव ही किया जा सकता है। पहाड़ी घर की छत या बाल्कनी में बैठकर घाटी के आर-पार बादलों के बदलते रुप-रंग, चाल-ढाल को निहारना जैसे प्रकृति के वृहद कैन्वस में कई पात्र, भाव व घटनाओं के साथ पर्दे के पीछे उस महाकलाकार की अवर्णनीय लीला का प्रत्यक्ष दर्शन करने जैसा होता है।

सबसे सुखद रहता मधुर थाप के साथ बारिश का बरसना। इसके साथ छत पर, बाहर वृक्षों की पत्तियों पर, जमीं पर, मैदान पर और सकल पृथ्वी के आवरण पर एक नूतन संगीत गूँजता। बाहर निकलने पर जिसके अभिसिंचन का भाव चित्त को पावन कर देता। लगता जैसे प्रकृति की अजस्र कृपा पानी की असंख्य बूदों के साथ धरती सहित पथिक पर बरस रही हैं और इसके साथ स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर एक नयी चैतन्यता के साथ तरंगित हो रहे हैं। खासकर धरती की गर्भ में बोए बीजों, अंकुरित हो रही फसलों व वृक्षों में पनप रहे फलों के लिए यह बारिश अमृत सा फलदायी होती, किसान को जिसका बेसब्री से इंतजार रहता।


लेकिन प्रकृति के इस सौम्य एवं मोहक रुप के साथ इसे रौद्र रुप के भी दर्शन यदा-कदा होते रहते। कौंधती बिजली के साथ बादलों की गड़गड़ाहट और बारिश की तेज बौछारें प्रकृति के इस रुप की झलक देते। इनका प्रहार कभी बज्र सा कठोर, लोमहर्षक व भयावह लगता। हवा के तीव्र वेग के साथ इसका संयोग एक अलग ही नजारा पेश करता। पूरी घाटी जैसे सांय-सांय की आवाज के साथ सीटी मारते हुए गूँजती। कभी-कभी इसके साथ ओलों की मार फसल व फलों पर कहर बरपा देती। अचानक बारिश के साथ पहाड़ी नदी व नाले फूल जाते, इनकी जलराशी कई गुणा बढ़कर घाटी में स्थिति को विकराल कर देती, जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती।

घर के सामने ही घाटी के उस पार के तीन-चार नालों के दिग्दर्शन पूरी आभा, वेग व उफान के साथ होता, जो प्रायः साल के बाकि समय शांत रहते। अपनी घाटी की ओर के कझोरा नाला, ध्रोगीनाला, सयो नाला, बरींडू नाला, काईस नाला आदि के बरसाती मौसम के भयावह मंजर हम यदा-कदा देखते रहते। इनमें सयो नाला अपनी बनावट के कारण सबसे मजबूत तटबंध लिए होने के कारण सारी जल राशि अपने में समेटे रहता।
इसका प्रख्यात स्यो-झरना बरसात में देखने लायक होता। इसकी गर्जन-तर्जन से पूरा गाँव गूँज उठता। प्रायः स्कूल के दिनों में इसके पार के गाँव के विद्यार्थी पार नहीं कर पाते। अतः नाले के उफान के दिनों में अघोषित छुट्टी रहती। हालाँकि अब तो पुल बन चुके हैं, तब पत्थरों के ऊपर या छोटी पुलिया के सहारे इसको पार किया जाता था।

कझोरा नाले का बरसाती मंजर हम एक बार देख चुके हैं, जब इसके मलबे से गाँंव का खेल मैदान पट गया था। किसी जान-माल का नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन इसका मलबा घरों व खेतों में घुस गया था। इसी तरह ध्रोगी नाला के रात में बरपे कहर के दिगदर्शन हम सुबह वहाँ जाकर किए थे। इसका तटबंध मजबूत न होने के कारण सारा मलबा घरों व खेतों में घुस आया था और तबाही का मंजर कुछ ऐसा था कि कुछ मवेशी बहकर ब्यास नदी तक पहुँच गए थे। हालाँकि इंसान समय से पहले बाहर निकल कर सुरक्षित थे। इसके चलते लेफ्ट बैंक का हाईवे पूरे दिन ठप्प हो गया था।

ऐसे ही नालों की तरह कुल्लू-मानाली घाटी की जल रेखा ब्यास नदी में सावन के चरम पर तबाही की यादें ताजा हैं, जब ब्यास नदी के उद्गम स्थल की ओऱ से कहीँ बादल फटा था  और साथ में लैंड स्लाईड हुआ था, जिसमें बांहंग विहाली का नक्शा बदल गया था। तब बादल फटने की घटनाएं न के बराबर होती थी और यह शब्द भी अनजाना था। शायद यह उस बक्त के मूक मीडिया का भी असर था। दूरदर्शन का युग था। सोशल मीडिया तो दूर प्राइवेट न्यूज चैनल तक सही ढ़ंग से शुरु नहीं हुए थे। अतः ऐसे में इन घटनाओं के कारण व प्रभाव का विस्तार से सटीक जानकारी नहीं मिल पाती थी। अखबार भी घर पर नियमित रुप से नहीं आते थे। मुंहजुबानी सुनने पर पता चलता की बांहंग की पूरी विहाल बह गयी है, जिससे रास्ते भर के पेड़, लकड़ियाँ व कुछ संख्या में जानवर व वाहन भी व्यास नदी के उफान के बीच बहते हुए दिखते। ऐसे में लकड़ियों को इकट्ठा करने वालों का न्जारा विशेष रुप में दर्शनीय रहता। सुबह पुल के पार स्कूल जाते समय इसकी तबाही का मंजर पता चलता। यहाँ भी ब्यास नदी के किनारे बाढ़ के उफान के चलते रास्ते में पानी की छोटी-बड़ी नहरें बन चुकी होती।

लेकिन कुल मिलाकर बरसात में बचपन के पहाड़ों की ये घटनाएं लोक-जीवन का एक अभिन्न अंग प्रतीत होती। हालाँकि कभी भी भारी बारिश में अप्रत्याशित घटना की आशंका बनी रहती, लेकिन इनकी आवृति विरल ही रहती। तब आबादी का दबाव भी इतना अधिक नहीं था कि कहीं भी घर-मकान व दुकान-होटेल खड़े मिलते। प्रकृति के साथ इतनी छेड़खान नहीं हुई थी। वैश्विक स्तर पर भी पर्यावरण संतुलन बेहतरीन था। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में विकास के नाम पर इंसान ने प्रकृति के साथ पर्याप्त छेड़खान की है, इसके साथ अमानवीय व्यवहार हुआ है। पहाड़ों का सीना चीर कर सड़कों का जाल बिछता गया। वृक्षों का अंधाधुंध कटाव हुआ। इसके साथ विश्वस्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम का बदलता मिजाज भी अपना असर दिखा रहा है। जिस कारण हर वर्ष अप्रत्याशित घटनाओं में इजाफा हो रहा है।

इस साल इसका प्रभाव पहाड़ी क्षेत्रों में स्पष्ट रहा। एक ओर जहाँ अत्यधिक बारिश होती रही, वहीं कुछ इलाके बारिश से वंचित ही रहे। यहाँ के हालात बरसात में सूखाग्रस्त क्षेत्र जैसे थे, जिसके चलते फलों के नए पौंधों के सूखने की तक नौबत आ गयी थी। नमी के अभाव में फल पूरा आकार नहीं ले पाए। इसी के साथ कई क्षेत्रों में बारिश की अति ने व्यापक स्तर पर बादल फटने से लेकर भूस्खलन के साथ भारी तबाही मचाई। घर से दूर रहकर मीडिया हाईप के बीच सुनकर ऐसे लगता रहा जैसे पहाड़ी इलाकों में बरसात का मंजर लगातार जारी है। कुछ क्षेत्र विशेष की घटनाएं पूरे प्रांत पर लागू होती रहीं।
प्रभावित क्षेत्रों के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए ध्यान देने योग्य बातें हैं कि विकास के नाम पर प्रकृति के साथ हम कैसा रवैया अपना रहे हैं, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने के लिए कितना तैयार हैं। क्योंकि सावन सनातन धर्म में भगवान शिव का माह है, कूपित प्रकृति के रुप में शिव के रौद्र रुप और प्रकृति के काली तत्व के लोमहर्षक प्रहारों से इंसान नहीं बच सकता। आवश्यकता प्रकृति के माध्यम से झर रहे परमेश्वर तत्व को समझने व उसके अनुशासन का पालन करने की है, जिससे हम प्रकृति के कोप की बजाए इसके दिव्य संरक्षण व अनुदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

मेरा गाँव मेरा देश - घाटी की देवपरम्परा को समझने की कोशिश




बनोगी फागली की चिरप्रतिक्षित यात्रा एवं बर्फ से साक्षात्कार
बिगड़ते मौसम में घरबंदी – गूगल गुरु की भविष्यवाणी के अनुकूल मौसम बिगड़ चुका था। उच्च शिखरों पर स्नोफाल हो रहा था, जिसकी बर्फीली हवा पूरी घाटी को अपने आगोश में ले चुकी थी। ऐसे में तंदूर के ईर्द-गिर्द जीवन का सिमटना स्वाभिक था। घर पहुँचा तो तंदूर सुलग रहा था, कमरे की गर्माहट एक चिरपरिचित सुख और आनन्द का विश्राँतिपूर्ण अहसास दिला रही थी। हालाँकि बाहर चहल-कदमी करने, खेतों में काम करने व पहाड़ी रास्तों पर चढ़ने उतरने में सर्दी का अहसास काउंटर हो जाता है, लेकिन घर के अंदर तंदूर कक्ष ही सबसे अनुकूल शरणस्थल रहता है। बाकि सही ढंग के गर्म कपड़े ही ठंड में सबसे बड़ा सहारा रहते हैं।

नए मेहमान ग्रूजो से दोस्ती – घर में आया नया मेहमान 40 दिन का जर्मन शेफर्ड अपनी कूँ-कूँ से मौजूदगी का अहसास दिला रहा था। सो उससे परिचय, दोस्ती हुई। बचपन से ही पशुओं से विशेष लगाव रहा है। पहले घर में भेड़-बकरियाँ व गाय पलती थी। बचपन इनके मेमनों व बछड़ों से लाड़-प्यार संग खेलते-कूदते हुए बीता। जर्मन शेफर्ड एक उम्दा किस्म के कुत्ते की नस्ल है, जो अपनी वफादारी, बुदिमानी, साहस, आत्मविश्वास व जिज्ञासु वृति का एक विरल संगम है। घर में बच्चों की देखभाल इसके भरोसे छोड़ी जा सकती है। कुल मिलाकर यह एक वफादार दोस्त, घर का रखवाला और परिवार के एक अभिन्न सदस्य की भाँति अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। ग्रुजो से दोस्ती तो हो गई, लेकिन हर चीज को मूंह से पकड़ने व चबाने की हरकत का ध्यान रखना पड़ा, शायद दूधमुंहे दांतों में खुजली के कारण यह सीधे मूँह से हर चीज को पकड़ने की कोशिश करता हो।

पहला दिन, बनोगी फागली – बनोगी फागली का प्रतिक्षित दिन आ चुका था। भौर में उठते ही पूर्व दिशा में पहाड़ी के ऊपर बनोगी गाँव की टिमटिमाती रोशनी देवपर्व की चल रही तैयारियों का अहसास दिला रही थी। घर से यहाँ सूर्योदय शिखर की ओर दृष्टि डालते ही बनोगी देवता के दर्शन सदैव से ही आश्वसत करते रहे हैं। प्रातः ही नहाधोकर वहाँ के लिए सेऊबाग से कूच कर जाते हैं। रास्ते में अपने जन्मस्थल गाहर गाँव के पुश्तैनी घर में स्थान देव, कुलदेव, वास्तुदेव आदि का पूजन क्रम चला। बड़े-बुजुर्गों से मिलन, उनकी कुशलक्षेम के बाद परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आगे बढ़ते हैं।


अब यहाँ की यात्रा की विशेषता सेऊबाग मुख्यमार्ग से फाडमेंह गाँव तक की पक्की सड़क है, जो स्थानीय गाँव-प्रतिनिधियों के अथक श्रम व प्रयास से रिकॉर्ड समय में मूर्त हुई। पहले गाँव से आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जहाँ दुर्गम रास्तों से कितने किमी पैदल चलकर आना पड़ता था, आज इस सड़क के चलते कुछ मिनट में दूरी तय हो जाती है।

बारिश एवं बिगड़े मौसम के कारण हमें पहुँचने में थोडा देर हो जाती है। लेकिन फागली के कर्मकाण्ड के समाप्न से पूर्व हम पहुँच चुके थे। मंजिल से पहुँचने से पहले 2 किमी पैदल सीधी चढ़ाई पर चलना पड़ा। मंजिल के करीब पहुँचने से कुछ पहले खड़ी चढाई का दबाव कुछ इस कदर अनुभव हो रहा था कि लगा फेफड़े फट जाएं। ऊँचाई की विरल हवा में लगा कि यहीँ रुक जाएं, लेट जाएं। प्रतीत हुआ कुछ बढ़ती ऊमर का असर है, तो कुछ बढ़ते बजन का प्रभाव। लेकिन अपने ट्रेकिंग स्टेमिना को दुरुस्त करना है, यह गहराई से समझ आ चुका था।
आगे के कुछ सीधे रास्ते में गहरे सांस लेते हुए, कुछ गत्यात्मक विश्राम के साथ थोड़ी राहत मिली, बेट्री रिचार्ज हुई व कुछ ही मिनट की चढ़ाई के साथ हम गन्तब्य स्थान पर पहुँच चुके थे। देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों की छाया में कर्मकाण्ड अंतिम चरणों में था।


सामने घाटी एवं पहाड़ी ने बर्फ की सफेद चादर ओढ़ रखी थी। इतना पास से बर्फ के दर्शन इन तरसते नयनों के लिए गहरे सुकून व आनन्द का अहसास दिला रहे थे। देवस्थल पर अपना भाव निवेदन कर हम जेहन को कुरेदते प्रश्नों के समाधान खोजते रहे, कुछ चर्चा भी की, लेकिन लगा अभी कसर बाकि है। देवता की अनुमति के साथ गाँववासियों का काफिला बापिस अपने मूल स्थल की ओर कूच कर जाता है।

ज्ञातव्य हो कि घाटी भर में फागली का उत्सब मनाया जाता है। देवताओं का एक माह का प्रवास पूरा होने के अवसर पर यह स्वागत उत्सव रहता है। इस एक मास को यहाँ अंधेरा महीना कहा जाता है, जिसमें घर के मुखिया माह भर घर-गाँव से बाहर नहीं निकलते, विशेष नियम-ब्रत के साथ रहते हैं। मान्यता के अनुरुप देवता स्वर्ग लोक के प्रवास के बाद इंद्रकील पर्वत में देवसमागम का संदेश लेकर आते हैं और फागली के दौरान जनता को अपने गुर(स्पोक्समैन) के माध्यम से सुनाते हैं। इस बार का संदेश निष्कर्ष देवशक्तियों की विजय व उज्जवल भविष्य का भविष्यकथन था।

देवता अपने मंदिर एवं भंडार में आ चुके थे। बाहर वारिश के कारण ठंड काफी थी। हम राहत के लिए पारिवारिक रिश्तेदार के घर में शरण लेते हैं और अंदर तंदूर के सहारे वार्मअप होते हैं। हम इस घर में पहली बार आए थे, सो अंदर तमाम तरह के रिश्ते-नाते व जान पहचान निकल पड़ीं, जिनमें से अधिकाँश लोगों से हम पहली बार मिल रहे थे। अपने बड़े कुटुम्ब-परिवार का भाव भरा अहसास हमें हो रहा था। बीच में जब बाहर निकलते हैं तो बर्फवारी शुरु हो चुकी थी। बर्फ के हल्के फाहे गिर रहे थे। इनको यथासम्भव फोटो व विडियो में कैद करते रहे। लगा कि प्रकृति कभी अपने चाहने वालों को निराश नहीं करती। बर्फ हालांकि अभी जमीन पर नहीं जम पायी थी, लेकिन आसमान से बर्फ के गिरते फाहे, बचपन की अनगिन यादों को गहन अचेतन की गहरोईयों से कुरेद कर ताजा कर रहे थे।

लोग देवता का प्रसाद लेकर नीचे घाटी में अपने घरों की ओर कूच कर रहे थे। यह घाटी का अंतिम गाँव है। यहाँ से नीचे पूरी घाटी  बादलों से ढकी थी। घाटी के आर पार व ऊपर नीचे अबारा बादलों की उड़ान के बीच लग रहा था, जैसे हम किसी दूसरे लोक में विचरण कर रहे हैं। यहाँ से घाटी का अवलोकन, सेऊबाग स्थित घर की बादलों के बीच धुंधली सी झलक एक वर्णनातीत रोमाँच का अहसास करा रही थी। अपने मुख्य देवता की स्थली में जो शांति-सुकून और आनन्द मिल रहा था, लगा कुछ दिन यहाँ रहकर ध्यान-साधना एवं सृजन के गंभीर एकांतिक पल विताएं, लेकिन समय की सीमा में आज यह सम्भव नहीं था।

बनोगी गाँव से फाड़मेह तक की लगभग 2 किमी की सड़क निर्माणाधीन है। सो सीधी उतराई में बारिश के बीच वाहन स्टेंड तक पैदल चलना पड़ा। जिस खड़ी चढ़ाई में आते समय दम फूल गया था, उतराई में फिसलन का खतरा था। फिसलन भरी राह में जजमेंट दोष के कारण दो जगह सीधे फिसल कर जमीन पर धड़ाम गिरे। शुक्र है कोई गंभीर चोट नहीं आई, लेकिन कपड़े आधे कीचड़ से लथपथ थे। कुछ असावधानीवश तो कुछ यात्रा में रह गई त्रुटी का देवदंड मानकर मन को समझा रहे थे।
यहाँ सड़क लगभग अंतिम गाँव तक पहुँच चुकी है। थोड़ा सा 2 किमी की सड़क बाकि है। शेष बनी हुई 15 किमी पक्की सड़क के किनारे विकास की व्यार स्पष्ट देखी जा सकती है। खेतों में उत्पन्न हो रहे फल व सब्जियों को अब आसानी से मार्केट तक पहुँचाया जा सकता है, जिसमें पहले घंटों व कई दिन लगते थे। देखकर स्पष्ट हो रहा था कि किसी भी क्षेत्र में सड़क विकास की लाइफलाईन है। इस लाइफलाईन के सहारे छोटे भाई के संग गाँव-घाटी का अवलोकन करते हुए फागली की सुखद एवं रोमाँचक स्मृतियों के साथ घर की ओर चल पड़े। फागली देवपर्व के संदर्भ में जिज्ञासा के समाधान की एक कड़ी हाथ लग चुकी थी, लेकिन निष्कर्ष अभी शेष था, जिस पर अनुसंधान जारी है।

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...