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मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कुल्लु से मानाली वाया राइट बैंक

ब्यास नदी के किनारे सफर का रोमाँच 

ब्यास नदी एवं कुल्लु-मानाली घाटी

कुल्लू-मानाली का नाम प्रायः एक साथ लिया जाता है। यहाँ के लिए नए आगंतुकों के लिए स्पष्ट कर दें कि कुल्लू हिमाचल प्रदेश का एक जिला है और कुल्लु इसके एक शहर के रुप में इसका मुख्यालय भी। तथा मानाली कुल्लु शहर से उत्तर की ओर स्थित 45 किमी दूरी पर बसा दूसरा शहर है, जो अधिक ऊँचाई के कारण हिल स्टेशन का दर्जा प्राप्त है। कुल्लु की औसतन ऊँचाई 4000 फीट के आसपास है, जबकि मानाली की ऊँचाई 6730 फीट के लगभग है। बर्फ से ढकी धौलाधार पहाड़ियाँ तथा पीर-पंजाल रेंज पास होने के कारण यहाँ हाईट के हिसाब से ठण्ड अधिक रहती है। शिमला की औसतन ऊँचाई (7238 फीट) मानाली से अधिक है, लेकिन बर्फ की पहाड़ियों से दूरी के कारण वहाँ ठण्ड मानाली से थोड़ा कम रहती है।

मानाली शहर का प्रवेश द्वार

    कुल्लू से मानाली का 45 किमी का सफर दोनों और पहाड़ियों के बीच 2 से 4 किमी चौड़ी घाटी से होकर गुजरता है, जिसके केंद्र में रहती है कलकल बहती हुई ब्यास नदी की निर्मल धार। जब कोई हवाई मार्ग से आता है तो वह भुन्तर हवाई अड्डे पर उतरता है और उसका सफर कुल्लू से 10 किमी पहले से शुरु हो जाता है और जो कोई बस से आता है तो वह कुल्लू से आगे मानाली की ओर बढ़ता है। 
 
भुन्तर हवाई अड्डा, बिजली महादेव से

भुन्तर व कुल्लु से मानाली के लिए लेफ्ट और राइट बैंक दोनों ओर से पक्की सड़के हैं। लेफ्ट बैंक के सफर का जिक्र हम पिछले यात्रा वृतांत में कर चुके हैं, यहाँ राइट बैंक से रास्ते में आने बाले मुख्य पड़ाव तथा रास्ते की विशेषता का विहंगावलोकन कर रहे हैं, जिससे यात्री कभी यहाँ से गुजरे तो उसको बाहर के नजारों को समझना आसान हो जाए।
 
कुल्लू-मानाली राइट बैंक एवं व्यास नदीं

भून्तर से निकलते ही वाहन भुन्तर कस्बे से होकर गुजरता है, जो बीच में माहौल कस्बे से आगे बढ़ता है। बीच में दायीं ओर एसएसबी का प्रशिक्षण केंद्र पढ़ता है और वायीं ओर आईटीआई संस्थान। इसके थोडी आगे कुल्लु शाल व टोपी-मफलर के लिए प्रख्यात भूटिको बुनकरों का मुख्यालय पड़ता है। इसी के साथ उस पार जिया गाँव पड़ता है, जिसके लिए झुला पुल से पार किया जा सकता है। इसी के आगे दायीं और सड़क के साथ शनि मंदिर स्थित है, जिसमें ओघड़ बाबाजी धुनी रमाय मिलेंगे, यदि समय हो तो इनका बेहतरीन सत्संग किया जा सकता है।

कुल्लू घाटी का नया प्रवेश रुट वाया जिया

इसके आगे दायीं ओर ब्यास नदी प्रत्यक्ष दिखती है, जिसके किनारे अंगोरा खरगोश का फार्म है, जहाँ शाल तैयार की जाती है। इसके साथ ही पिरड़ी वाटर राफ्टिंग केंद्र है, जो ब्यास नदी में राफ्टिंग की सुबिधाएं देता हैं, जो नीचे झिड़ी तक जाता है। इसके आगे गाँधीनगर शहर पड़ता है, जहाँ कुछ योगा सेंटर भी हैं, जो विदेशियों के बीच खासे लोकप्रिय रहते हैं। इसके समाप्त होते ही ढालपुर मैदान शुरु होता है। 

ढालपुर मैदान, कुल्लू शहर का प्रवेश द्वार

देवदार  के कतारबद्ध वृक्ष यहाँ प्रवेश करते ही स्वागत करते हैं। आगे चौड़ा मैदान दिखेगा, जहाँ कुल्लू का प्रख्यात दशहरा मेला हर माह अक्टूबर में आयोजित किया जाता है। यहीं पर वायीं ओर कला केंद्र है, जहाँ रात्रिकालीन सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते हैं। इसके निचली ओर डिग्री कालेज औऱ आगे जिला अस्पताल के कई मंजिले भवन हैं। मैदान के चारों और बुढ़े देवदार के पेड़ यहाँ की विशेष पहचान है, अब इनके साथ नए पेड़ विकसित हो रहे हैं।

ढालपुर से होकर बस दायीं ओर सीनियर सेंकेडरी स्कूल के नीच से गुजरती है, जहाँ से लिंक रोड़ डुग्गीलग घाटी की ओर जाती है। 

कुल्लू-मानाली हाईवे एवं डुग्गी लग लिंक रोड़

लेकिन दायीं ओर का रास्ता सरवरी पुल को पार करते ही यू टर्न के साथ सरवरी नदीं के वाएं तट पर बस स्टैंड की ओर जाता है। रास्ते में पुल के पास शीतला माता का भव्य मंदिर पड़ता है। बहुमंजिला सरवरी बस स्टैंड निर्माणाधीन है, इसे शिमला टुटी कण्डी बस स्टैंड की तर्ज में आधुनिकतम रुप दिया जा रहा है। यहाँ कुछ देर बस रुकने के बाद आगे बढ़ती है तो रास्ते में कुल्लू का मुख्य बाजार अखाड़ा बाजार पड़ता है। घनी आबादी के बीच बसों के लिए रास्ता तंग पड़ता है, इसलिए भूतनाथ से लिंक रोड़ उस पार जाता है, जो आगे 1-2 किमी लैफ्ट बैंक के साथ आगे बढ़ते हुए रामशिला पुल से राइट बैंक की ओऱ मुड़ता है।

कुल्लू से मानाली की ओर...

 सस्पेंशन ब्रिज पिछले की बर्षों तैयार हुआ है, उसे पार करते हुए बस राइट बैंक से आगे बढ़ती है, जो थोड़ी देर में बैष्णों माता के मंदिर से होकर गुजरती है। समय हो तो ऊपर गुफा में बने इस मंदिर के दर्शन किए जा सकते हैं। इसके आगे हिमाचल परिवहन की वर्कशॉप और पुलिस लाईन को पार कर बस बाशिंग नामक छोटे कस्बे से होकर गुजरती है, जो शाल उद्योग के लिए जाना जाता है। हाल ही में विकसित यह उद्यौगिक कस्बा तमाम कारोबार से जुड़ा है। यहाँ से उतराई के बाद सेऊबाग का पुल आता है, जिसके पार सेऊबाग गाँव पड़ता है, जिसके विहंगम दर्शन बाशिंग से ही होना शुरु हो जाते हैं।

व्यास नदी के संग घाटी का विहंगम दृश्य

आगे दायीं ओर आईटीबीपी का कैंप है, जहाँ रंगरुटों का विशेष प्रशिक्षण चलता रहता है। इसके बाद बबेली कस्वा आता है, जिसमें शाल के साथ वाटर राफ्टिंग की सुबिधा रहती है। इसके आगे बन्द्रोल गाँव पड़ता है, जहाँ इलाके की बड़ी सब्जी मंडी है, लोक्ल किसानों के फल व सब्जियाँ यहीँ खप जाती हैं। ज्ञात हो कि सबसे पहले कैप्टन ली ने बंद्रोल गाँव में ही शौकिया तौर पर सेब के बाग लगाए थे। अभी यहाँ आर्मी के आफिसर रहते हैं।

लेफ्ट बैंक से रायसन साइड का नजारा

इसके आगे रायसन इलाका आता है, जो प्लम फल के लिए प्रख्यात है। यहीं पर यूथ कलब के कैंप्स ब्यास नदीं के किनारे लगे हैं, जहाँ से ट्रैकिंग की गतिविधियाँ चलती हैं। कई फिल्मों की शूटिंग भी यहाँ होती रही हैं। इसके आगे बढ़ते ही रास्ते से उस पार नग्गर घाटी तथा पृष्ठभूमि में हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं दर्शन देना शुरु करती हैं, जो आगे काफी देर तक सफर को रोमाँचक बनाए रहती हैं। 

राइट बैंक से नग्गर, अप्पर वैली का दृश्य

इसके बाद डोबी पुल पड़ता है, जहाँ से लिंक रोड़ फोजल घाटी तक जाता है। फोजल नाला पार करते ही आगे कटराईं कस्बा पड़ता है, जिसके कुछ आगे पतलीकुहल कस्बा पड़ता है, जो यहाँ का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र है। यहाँ से दायीं और का लिंक रोड़ लेफ्ट बैंक नग्गर तक जाता है औऱ वायीं और का लिंक रोड़ बडा ग्राँ व अन्य गाँवों को जोड़ता है। तथा मुख्य मार्ग मानाली की ओर बढ़ता है। यह कुल्लू-मानाली के बीचों बीच स्थित है। कटराई में पुरानी सड़क के दायीं ओर कृषि अनुसंधान केंद्र और गायत्री प्रज्ञापीठ के दर्शन किए जा सकते हैं।

कुल्लू-मानाली के बीचों-बीच कटराईं से गुजरते हुए

इसके बाद वरान आता है, जहाँ स्पैन रिजोर्ट है। जहाँ कई फिल्मों की शूटिंग हुई हैं। रजनीश औशो मानाली प्रवास के दौरान यहीं रुके थे। इसके बाद 17 मील, फिर 18 मील आता है। ब्यास नदी का उछलता कूदता निर्मल जल यहाँ सड़क के साथ बहता मिलता है और पुल से उस पार लेफ्ट बैंक के गाँव जुड़ते हैं। फिर क्लाथ आता है, जहाँ गर्म पानी के कुण्ड सड़क के दोनों ओर हैं। 

मानाली की ओर...

 

यहीं पर आलु ग्राउँड प्रख्यात है, जहाँ लाहौल से आने वाला बेहतरीन आलु स्टोर होता है। इसके बाद राँगड़ी, जहाँ से उस पार पर्वतारोहण संस्थान के जंगल व भवनों का विहंगावलोकन किया जा सकता है। रास्ते में उस पार के कई नालों के  ब्यास नदीं के साथ संगम के अद्भुत दृश्य देखे जा सकते हैं। पहले सीधा मानाली शहर में प्रवेश के साथ बस स्टैंड पहुँचते थे। अब पिछले ही वर्ष नयी सड़क बनने के साथ ब्यास नदी के किनारे देवदार के जंगल के साथ सड़क आगे बढ़ती है औऱ पुल से मुड़कर मानाली बस स्टैंड तक पहुँचती है। 

मानाली में प्रवेश, नया रुट

इस तरह एक ढेड़ घण्टे में बस कुल्लू से मानाली पहुँच जाती है। रास्ते भर ब्यास नदी का किनारा और सामने के पर्वत शिखर, सुंदर हरी-भरी वादियों इस यात्रा को बहुत ही सुखद, रोमाँचक एवं यादगार बनाती हैं। यदि अपना वाहन हो तो बीच-बीच में रुककर इन नजारों का मनमाफिक लुत्फ लिया जा सकता है। 

मानाली पहुँच कर, यहाँ क्या देखा जा सकता है, यदि यह जानना हो तो पढ़ सकते हैं अगली ब्लॉग पोस्ट - मानाली से सोलांग वैली एवं दर्शनीय स्थल।

यदि कोई कुल्लू से मानाली वाया लैफ्ट बैंक की रोमाँचक यात्रा का विहंगावलोकन करना चाहता हो, तो पढ़ सकता है,यात्रा वृताँतकुल्लू से नेहरुकुंड-वशिष्ठ वाया मानाली लेफ्ट बैंक

राईट बैंंकग से पर्वतारोहण संस्थान मानाली के दर्शन

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-3

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण और शिखर का आरोहण

यहाँ आकर तम्बू गाढ़ते हैं, थोड़ी ही देर में इस विरान घाटी में तम्बुओं की एक बस्ती बस जाती है। नदी का पानी मिट्टी लगे ग्लेशियर के पिघलने के कारण साफ नहीं था, सो थोड़ी दूरी पर नीचे चश्में से पीने के लिए शुद्ध जल लाते थे। जिगजिंगवार घाटी चट्टानी पहाड़ों के बीच अधिकाँशतः पत्थरीला धरातल लिए एक विरान स्थल है। सड़क के थोडा ही नीचे मैदान में हमारी बस्ती सज चुकी थी। पास में बर्फिली नदी बह रही थी, जिसके उस पार नीचे आढ़ी-तिरछी सड़क और नीचे पहाड़ खड़े थे। हमारे पीछे दायीं ओर चट्टानी पहाड़ खड़े थे, जिनकी गोद से होकर जिग-जैग सड़क आगे लेह की ओर बढ़ रही थी। कभी कभार कोई इक्का-दुक्का बाहन वहाँ से गुजरता तो दूर से हाय-बाय हो जाती, अन्यथा इस निर्जन स्थल पर तो जैसे परिन्दा भी पर नहीं मारने बाली कहावत लागू हो रही थी। वायीं ओर नदी के उस पार बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे, जहाँ अगले दिनों हमारा स्नो-क्राफ्ट और आईस-क्लाइंविंग का अभ्यास होना था।

बर्तन धोने के लिए पास में बह रही नदी का पानी प्रयोग करते थे, पानी इतना ठँडा रहता कि, खाने का तेल-घी सब हाथ में जम जाता, जिसे हाथ में मिट्टी लगाकर साफ करना पड़ता।


साबुन से हाथ धोते तो वह भी जम जाता। ऐसे में यहाँ नहाना तो दूर हाथ मुँह धोने की भी नहीं सोच सकते थे। यदि किसी तरह किचन से गर्म पानी की व्यवस्था हो जाती तो कहीं हाथ-मुँह धोने की  सोच सकते थे। आश्चर्य नहीं कि ऐसे दो सप्ताह के प्रवास के बाद हम सबके चेहरों पर एक काली पपड़ी जम चुकी थी, जो कुछ सप्ताह बाद उतरी और यहाँ के बर्फिले रोमाँच की याद दिलाती रही।

यहाँ एक तम्बू में दो-दो लोगों के रुकने की व्यवस्था थी। स्नो फील्ड पास ही थी, नदी के दूसरी ओऱ कुछ पैदल चलने के बाद बहाँ पहुँच जाते। यहाँ स्नो क्राफ्ट, स्कीइंग का अभ्यास चलता रहा। एडवेंचर कोर्स में सीखे गुर व सबक यहाँ काम आ रहे थे। इसके आगे एडवांस प्रेक्टिस भी हुई व कुछ नयी तकनीकों को सीखा। यहाँ की बर्फ की ढलान काफी बड़ी व ढलानदार थी, जिसमें बर्फ पर चलने, फिसने व गिरने का पूरा आनन्द लेते रहे। संयोग से अब तक किसी तरह की दुर्घटना किसी के साथ नहीं हुई।

अंतिम दो दिन पास की जमीं बर्फ की दिवारों पर आइस क्लाइंविंग की प्रेक्टिस होती रही, जो काफी रोमाँचक व थकाऊ अनुभव रहता था, साथ ही खरतनाक भी। क्योंकि आइस एक्स से बर्फ को काटकर सीढ़ी बनायी जाती। एक एक स्टेप कर ऊपर चढते। बर्फ की दीवार के पीछे बहते व झरते पानी की आबाज साफ सुनाई देती। ऐसे आरोहण में थोडी सी भी लापरवाही या घबराहट सीधे नीचे फिसलन को आमन्त्रण था, जो काफी खतरनाक हो सकता था। कुशल ट्रेनर के मार्गदर्शन में यह अभ्यास चलता रहा।

पीक क्लाइंव के एक दिन पहले, जब हमारा बेस कैंप का अभ्यास पूरा हो चुका था, तो पास के ग्लेशियर के बीच कुछ ड्रिल होते हैं, जिसमें दिल्ली के एक सरदार जी दुर्घटना ग्रस्त हो जाते हैं, जिन्हें संस्थान के बाहन में बापिस घर भेजने की व्यवस्था होती है।

हमारा अनुभव रहा कि ऐसे क्षेत्र विरान के साथ बहुत पावन भी होते हैं, जिसकी पावनता का अहसास व तदनुरुप अपना आचरण-व्यवहार ऐसे इलाकों में बहुत मायने रखता है। यहाँ किसी भी तरह की उद्दण्डता और बदतमीजी भारी पड़ सकती है, प्रकृति तुरन्त प्रतिक्रिया करती है। आप ऐसे पावन क्षेत्रों में जितना शुद्ध अन्तःकरण व पावन भाव के साथ रहेंगे, उतना ही यहाँ मौजूद दिव्य शक्तियों का सहयोग संरक्षण अनुभव करेंगे।

इस तरह हम सप्ताह-दस दिन में पूरा ग्रुप पीक क्लाइंव के लिए तैयार था। एक दिन पहले पूरे ग्रुप को बारालाचा के पास सूरजताल तक की ट्रेकिंग कराई जाती है, जिसमें हमारे स्टेमिना की भी परीक्षा हो रही थी और ऊँचाईयों के अनुरुप एक्लेमेटाइजेशन ड्रिल भी।


बारालाचा के पास सूरजताल के ऊपर, 18000 फीट की ऊँचाई पर मंजिल निर्धारित थी, जिसका सिर्फ हमारे इंस्ट्रक्टरों को ही पता था। इसी बीच हमारा पेट खराब चल रहा था, लेकिन परीक्षा की घडियों में अब तन-मन के किसी अबरोध के लिए कोई स्थान नहीं था। फौलादी ईरादों के साथ हम इंस्ट्रक्टरों के निर्देशों को सुन समझकर पालन कर रहे थे। आज हम ग्रुप लीड़र के दायित्व से हल्का अनुभव कर रहे थे। अब तक हम प्रशिक्षण के दौरान ग्रुप लीड़र के रुप में सबके पीछ रहते, सबको साथ लेकर चलते। विशेष रुप से कमजोर व अशक्त सदस्यों को सहारा देते हुए बढ़ते। आज पीक क्लाइंविग का दिन था, सबकी एक ही मंजिल था, एक ही मार्ग था, लेकिन स्पीड अपनी-अपनी, अपने स्टेमिना एवं ईरादों के अनुरुप।
 

आज हम पेट खराब होने के कारण थोड़ा पिछड गए थे और इंस्ट्रक्टर से थोड़ा पीछे चल रहे थे। लेकिन क्रमशः ऊँचाई के साथ हम यह गैप कवर करते गए। अंतिम 100 मीटर का सफर हमें आज भी बखूबी याद है। तीखी हबा चल रही थी। पेट की समस्या अब तक गायब हो चुकी थी। कदम ऑटोमेटिक्ली आगे बढ़ रहे थे, शरीर जैसा निढाल हो चुका था, बस कदम किसी तरह से आगे बढ़ रहे थे। पीक पर इंस्ट्रक्टर के ठीक पीछे हम शिखर तक पहुँच चुके थे। पर्वतारोहण का एक माह का अभियान अनुभूतियों के अपने चरम पर था। यहाँ लुढ़क कर हम कुछ पल आँखें बंद कर अपने ईष्ट-अराध्य को सुमरन करते हैं, धन्यवाद देते हैं। फिर थोड़ा सचेत होकर आँखें खोलते हैं, ग्रुप के सदस्य एक-एक कर पहुँच रहे थे। 


थक कर चूर होने के बावजूद सबके चेहरों पर उपलब्धि की चमक साफ दिख रही थी। पास बर्फ के बीच बिखरे पड़े पत्थरों को इकट्ठा कर हम एक मौरेन खडा करते हैं, यादगार में कि एक दल कभी यहाँ पहुँचा था। यहाँ से चारों ओर के विहंगम दृख्य का अवलोकन एक अद्भुत अनुभव था। सुदूर घाटियाँ, बर्फ से ढकी अनगिन पर्वतश्रृंखलाएं सब हमारी नजर में थी।


कुछ मिनट यहाँ विश्राम के बाद काफिला बापिस चल देता है। रास्ते में मैदानी ढलान पर हम फिसलते हुए नीचे सफर तय करते हैं, स्किंईंग के सीखे गुर काम आ रहे थे। आधे घण्टे में हम घाटी को पार करते हुए बारालाचा मुख्य सड़क तक पहुँचते हैं और पक्के मार्ग के संग सुरजताल की अर्धपरिक्रमा करते हुए बापिस बेसकैंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं। यहाँ भोजन विश्राम के बाद रात को कैंप फायर होता है और अगली सुबह तम्बू पैक कर संस्थान के बाहन में बापिस मानाली आ जाते हैं। ग्रुप लीड़र के रुप में रिपोर्ट तैयार करते हैं और वेस्ट स्टुडेंट का तग्मा पुनः हमारे हिस्से में आता है। इसे हम उन पर्वतों के प्रति भावनाओं के शिखर का विशिष्ट तौफा मानकर स्वीकार करते हैं, जिनके लिए सदा ही हमारा दिल धड़कता रहा है व अंतिम साँस तक धड़कता रहेगा।

इसके बाद अगले वर्ष एडवाँस कोर्स के एक मासीय प्रशिक्षण की योजना थी, क्योंकि इस कोर्स को माउंट एवरेस्ट के आरोहण का क्वालिफाइंग मानक माना जाता है, जोकि हमारा सपना रहा है। लेकिन तब तक हम गंगा के पावन तट पर धर्मनगरी हरिद्वार पहुँच जाते हैं। और फिर एक माह का एक मुश्त समय निकाल पाना हमारे लिए संभव नहीं था और साथ ही यह भी बोध हो चुका था कि बाहर के हिमालय से भी अधिक महत्वपूर्ण है अंदर के हिमालय का आरोहण, जो कि अपनी आदर्शों के शिखर, चेतना के शिखर की यात्रा है। जिसका आरोहण एक पथिक के रुप में करते-करते तीन दशक बीत चुके। खैर यह सफर अपनी जगह और हिमालय के प्रति अनुराग अपनी जगह, जिसकी खाना पूर्ति यदा-कदा इसकी गोद में सम्पन्न ट्रेकिंग व घुमक्कड़ी के साथ होती रहती है। और करोना काल में ऐसे संचित अनुभव कलमबद्ध हो रहे हैं।

इस श्रृंखला के पूर्व भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं -

मानाली की वादियों में, बेसिक कोर्स, भाग-1

मनाली से लाहौल घाटी की ओर, बेसिक कोर्स, भाग-2


चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...