बुधवार, 8 मई 2024

गिरमल देवता संग तीर्थ-स्नान यात्रा का रोमाँच, भाग-1


बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ एवं बापसी वाया मलाना


25 अप्रैल से 2 मई 2024

भाग-1

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

भाग-2

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर,

दिन 5 – रसोल टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,

भाग-3

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ वाया पीणी-कसोल


दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ

कुल्लू घाटी में ठारा करड़ु देवी-देवताओं का विशेष महत्व है, जिन्हें कुल्लू घाटी के मूल या आदि देवता माना जाता है। इनकी कहानी जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के साथ प्रारम्भ होती है, जिनका केंद्रीय स्थल मलाना है। इन देवताओं की तीर्थयात्रा एवं स्नान की धार्मिक परम्परा उल्लेखनीय है। कुछ हर वर्ष जलतीर्थों में जाकर स्नान करते हैं, जो कुछ नियत अन्तराल पर। बनोगी गाँव में पर्वत शिखर के आंचल में विराजमान गिरमल देवता की तीर्थयात्रा इस बार 25 वर्षों के उपरान्त हो रही थी, अतः यह स्वयं में एक ऐतिहासिक घटना थी। साथ में शामिल कुछ लोगों की यह पहली यात्रा थी और अधिकाँश लोगों की संभवतः यह इस जीवन की अंतिम यात्रा थी।

इससे पूर्व जब गिरमल देवता का मंदिर जल कर राख हो गया था, तो नए मंदिर की प्रतिष्ठा होने पर वर्ष 1986 में मणिकर्ण स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। फिर वर्ष 1999 में जब देवता का नया गुर बना था, तो अगली स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। इनसे पूर्व हमारे छोटे दादाजी गिरमल देवता के गुर की भूमिका निभा चुके थे। वर्ष 1999 के बाद इस वर्ष नया मंदिर बनने व यहाँ देव स्थापना के बाद 25 वर्ष के अन्तराल में मणिकर्ण तीर्थ की स्नान यात्रा का दिव्य संयोग बन रहा था।


25 अप्रैल 2024 को बनोगी गाँव से गिरमल देवता के साथ देउड़ू (जिनमें लगभग 50-60 लोग देवता की टीम के सदस्य थे, जैसे - काइस भगवती दशमी वारदा, वरिंडु देवता, थान देवता, पनाणु देवता, भगवती भागासिद्ध के गुर-पजियारे (पुजारी), वजंतरि (बाजा बजाने वाले) बारी (काम करने वाले) देवता के मेम्बर (सदस्य), कठियाला (भोजन व्यवस्था संभालने वाले), पाल्सरा (कैशियर) और कारदार (देवता के प्रबन्धक) इत्यादि। इनके साथ देवता के गांववासी परिजन अर्थात् हारियान (जिनमें चार बेड़ु और तराई ग्रांइं (तीन गाँवों के निवासी) शामिल थे। कुलमिलाकर देवता के साथ आगे-पीछे लगभग 250 लोगों का देव काफिला शामिल था। इतने बड़े दलबल के साथ पर्वत शिखरों को पार करते हुए यह आठ दिवसीय यात्रा स्वयं में दुर्लभ सौभाग्य तथा एक विरल अवसर थी प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ आस्थावानों के लिए।


पहला पड़ाव था बनोगी गाँव के पास नीचे घाटी में पनाणी शिला का पावन मैदान, जो पनाणु देवता के साथ जोगनियों का निवास स्थान है। गगनचुंबी मोहरु और वृहदाकार माहुनि के वृक्षों के नीचे मैदान में श्रद्धालुजन सुबह 10 बजे से एकत्र होना शुरु होते हैं। आस-पास व दूर-दराज के क्षेत्रों के हर घर का एक व्यक्ति इसमें शामिल था। अपवाद रुप में ही किसी एमरजेंसी के कारण किसी घर से कोई व्यक्ति इसमें शामिल न पाया हो। आखिर घाटी की देवशक्तियों के संग तीर्थ यात्रा के ऐसे परमसौभाग्य से कौन अभागा वंचित रहना चाहेगा।  

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दोपहर 2.30 बजे सभी एकत्र लोग यहाँ से कूच करते हैं और चढ़ाईदार रास्ते से होते हुए आगे बढ़ते हैं।


रास्ते में खाकरी टोल (चट्टान) (जिसमें भोटी भाषा में अंकित शब्द हैं, क्या लिखा है अभी तक ज्ञात नहीं) के पीछे से होकर खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए हाअंणीथाच पहुँचते हैं। पनाणी नाला के कभी दाएं तो कभी वाएं ऊपर चढते हुए यहाँ रई-तोस के आकाश चूमते वृक्षों के बीच काफिला 5 बजे हाअंणीथाच पहुँचता है, जो ग्रीष्मकाल में भेड़-बकरियों व मवेशियों के पालक फुआलों व गवालों के रुकने का अस्थायी ठिकाना रहता है। 

रास्ते में कुम्हार-री-वाई स्थान पर थोड़ा विश्राम होता है, जहाँ से गाहर गाँव के लिए पानी की स्पलाई की जाती है।

हाइंणीथाच में नग्गर बिजलीमहादेव की कच्ची सड़क के संग व ऊपर-नीचे समतल स्थान पर तम्बूओं की कतार बिछ जाती है। देउलू देवता की सांयकालीन पूजा करते हैं और इसके बाद सभी अपना भोजन तैयार करते हैं।

यहाँ रात्रि को भोजन के बाद सभी अपने-अपने समूह में एकत्र हो, गुफ्तगू का आनन्द लेते हैं।


जंगल की नीरव शांति के बीच एकांतिक प्राकृतिक जीवन के संग ऐसी रात कोई सामान्य अनुभव नहीं था, जो अगले कुछ दिनों तक नित्य का क्रम बनने वाला था। रात्रि निद्रा-विश्राम के बाद देव काफिला प्रातः कूच करता है, जिसका पड़ाव था मणिकर्ण घाटी का सूमा रोपा जो वाया सूरजडूगा, पीणी होकर कवर होता है।

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दूसरे दिन इस तीर्थयात्रा का सबसे लम्बा ट्रैक सावित होने वाला था।

सुबह 6.15 बजे देव काफिला गिरमल देवता संग कूच करता हैं। बिल्कुल खड़ी चढाई के साथ देवदार, रई-तौस के जंगलों के बीच 1.5 घंटे बाद दल सूरजडुगा टॉप पहुँचता है, जहाँ से दूसरी ओर मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य आंशिक रुप में प्रत्यक्ष था, जहां से उस पार ढलानदार घाटी में धारा, शॉट व जलुग्राँ जैसे इलाके दिख रहे थे। आधा घंटा नीचे उतरने के बाद काफिला 8.30 तक सूरजडूगा पहुँचता है।


खुले बुग्याल में बीचों-बीच एक जल स्रोत के पास सभी रुकते हैं और खाना बनाने की तैयारी करते हैं, सुबह की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद सभी अपना लंच कर समान समेटते हुए 11.45 तक आगे कूच करते हैं।

इसके बाद हल्की उतराई के साथ टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नीचे उतरते हुए दल पीणी की तरफ नीचे उतरता है। और 1.30 बजे तक पीणी से होकर गुजरता है। यहाँ गाँव के पीछे हल्का विश्राम होता है। मालूम हो कि पीणी गाँव भगवती भागासिद्ध का ठिकाना है, जिसे ठारा करड़ु देवताओं की बहन माना जाता है। साथ ही किवदंतियों के अनुसार ये काईस भगवती दशमी वारदा की छोटी बहन मानी जाती हैं। यहाँ के सामने से जरी साईड की मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। ढलानदार कच्ची पगडंडियों के संग काफिला नीचे पार्वती नदी तक पहुँचता है।


पार्वती नदी पर बने ब्लादी पुल को पार करना काफिले को भय मिश्रित रोमाँच के साथ तरंगित करता है, क्योंकि लकड़ी से बना यह पुल खूब झूलता है। काफिला लेफ्ट बैंक में जरी के नीचे से होते हुए आगे चोउखी, ढुंखरा को पार करते हुए रात 8.30 तक दूसरे दिन के पड़ाव सूमा रोपा पहुँचता है। आज का ट्रैक बहुत ही थकाऊ रहा। लगा कि ब्लादी पुल के पास रुकते तो बेहतर होता। हालाँकि रुकने का पारम्परिक ठिकाना ढुंखरा है, लेकिन पर्य़टकों की भीड़ और फूलती आवादी के कारण अब यहाँ रुकने का खुला स्थान नहीं बचा है। शमशान के पास तो पर्याप्त जगह थी, लेकिन यहाँ रुकने का कोई औचित्य नहीं लगा। सो काफिला आगे बढ़ता है और सूमा रोपा के खुले मैदान में रात का ठिकाना बनता है, जहाँ कुछ वन विभाग, तो कुछ प्राइवेट जगह थी व यह कैंपिंग साइट के रुप में उपयोग किया जाता है।


अंधेरे में रात का भोजन तैयार होता है। आज थकावट इतनी थी कि लोगों के पास पिछली रात की तरह आपसी गुफ्तगू की हिम्मत नहीं थी। पेटपूजा के बाद सभी निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं। कुछ पिछले दिन भर की थकान, तो कुछ आज की मंजिल के समीप होने की निश्चिंतता – काफिला प्रातः उठकर आराम से सुबह 11.35 तक दिन का स्नान ध्यान और भोजन-प्रसाद ग्रहण करता है, फिर आगे बढ़कर कसोल वन विभाग के गेस्ट हाउस में थोड़ा विश्राम करता है तथा आज की मंजिल मणिकर्ण तीर्थ की ओर बढ़ता है, जो यहाँ से लगभग 6 किमी दूर पड़ता है।


दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

देव काफिला कसोल, गुज जैसे पडावों को पार करते हुए शाम 4 बजे मणीकर्ण पहुँचता है। कसाेल इस घाटी का एक प्रमुख कस्वा है, जिसमें वहुतायत में विदेशी सैलानी (इस्रायल से) आते हैं। आजकल तो भारत के शहरी सैलानी भी गर्मियों में यहाँ काफी मात्रा में आ रहे हैं। 

कसोल से होकर देव काफिला जैसे ही मणिकर्ण के प्रवेश, तंग गलू के पास पहुँचता है, बारिश शुरु होती है। लगा कि जैसे देवशक्तियाँ गिरमल देवता सहित पूरे दल का स्वागत अभिसिंचन कर रही हों। इस अभिसिंचन के बीच पार्वती नदी को पार कर मणिकर्ण में प्रवेश होता है, जो देवता का प्रचलित प्रवेश मार्ग है। मालूम हो कि यहाँ दो बड़ी चट्टानों के बीच पार्वती नदी गर्जन-तर्जन करती हुए बहुत ही संकरे मार्ग (गलु) से नीचे की ओर प्रवाहित होती है।


इस पर बने पक्के पुल को पार कर दल राइट बैंक में पहुँचता है और बरसात में खाई पर गिरे एक वृहद पेड़ के अस्थायी पुल के ऊपर धीरे-धीरे बढ़ते हुए पार होता है, जिसे पार करने में कुछ समय लगता है और इसके बाद गुरुद्वारा को पार करते हुए मणीकर्ण पहुँचता है।

शाम को सभी तीर्थ यात्री यहाँ के गर्मकुण्डों में स्नान करते हैं। पिछले दो-तीन दिनों से लगातार सफर की थकान गर्म कुण्ड में डूबकी लगाते ही जैसे छूमंतर हो जाती है और सभी देउलू तरोताजा हो जाते हैं। इस तीर्थस्थल में लगाई गई भावभरी डुबकी भक्तों को समाधि सुख सा आनन्द देती है, जिसमें जीवन के सकल भय, चिंता, शोक, द्वन्द और विक्षोभ शांत हो जाते हैं। खासकर सर्दी में तो कोई भी आस्थावान यात्री इस अनुभव का साक्षी बन सकता है।

स्नान के बाद सभी अपने-अपने ठिकानों पर कुछ मंदिर परिसर में तो कुछ होटल में और कुछ परिचित लोगों के घर में रुकते हैं। देवता का स्नान निर्धारित स्थान पर नियमानुसार प्रातः होता है, जबकि बाकि लोगों के लिए कई कुंड बने हुए हैं। कुछ रघुनाथ परिसर में, तो कुछ इसके पास बाहर। देवता के साथ पहाड़ लाँघ कर पैदल आए 250 लोगों के अतिरिक्त गाँव-फाटी के लगभग 4-500 श्रद्धालु भी वाया रोड़ बस व अपने वाहनों में यहाँ पहुँचे थे, जिनमें अधिकाँश महिलाएं, बुजुर्ग तथा ō के मारे लोग थे। सभी पूजन में शामिल होते हैं। विधि विधान से देवता के स्नान व पूजा-पाठ के बाद बड़ा भण्डारा दिया जाता है, जिसमें सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण कर अपने-अपने घर लौटते हैं और देव काफिला भी नए रुट पर बापिसी का सफर तय करता है। मालूम हो कि घाटी के स्थानीय लोग मणिकर्ण के पवित्र जल को गंगाजल की तरह पावन मानते हैं, जिसे वर्तनों व लोटों में भरकर घर ले जाया जाता है और विशेष अवसरों पर मंगल कार्यों में इसका उपयोग होता है। मनुष्य तो क्या, घाटी के देवी-देवता तक यहाँ के पुण्य स्नान के अवसर को नहीं चूकते। (जारी...)



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