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गुरुवार, 9 मई 2024

भाव यात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार-रोमाँचक सफर , भाग-2


मणीकर्ण तीर्थ से मलाणा वाया रसोल टॉप

पहाडियों से घिरी कुल्लू-मणिकर्ण घाटी का एक एकांतिक गाँव

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

दिन 5 – रसोल टॉप से मलाणा गाँव वाया छोरोवाइ

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

प्रातः स्नान के बाद क्लार (सुबह का नाश्ता व लंच) करके देव काफिला बापिस कसोल की और कूच करता है। मणिकर्ण तीर्थ के तप्त कुण्ड में स्नान कर सभी नई ऊर्जा के साथ लबरेज थे और बापिसी के नए सफर के लिए जिज्ञासा एवं रोमाँच से भरे हुए थे, क्योंकि यह यात्रा रसोल टॉप से होकर मलाना तथा आगे भुचकरी टॉप से होकर सम्पन्न होनी थी, जो अधिकाँश लोगों के लिए एक नया रास्ता था।

मणिकर्ण से प्रस्थान कर काफिला पार्वत नदी पर बने तंग गलु को पार कर लेफ्ट बैंक के मुख्य मोटर मार्ग के संग आगे बढ़ते हुए कसोल पहुँचता है, जहाँ विदेशी पर्यटकों का जमखट लगा रहता है। इस्रायल से पधारे पर्यटकों की बहुलता के कारण इसे मिनी इजराइल भी कहा जाता है। यह खीरगंगा और मलाना गाँव के लिए एक तरह से बेसकैंप का भी काम करता है। अपनी इस विशेषता के साथ यहाँ की शीतल आवोहवा विदेशियों की तरह भारतीय सैलानियों को भी आकर्षित करती है, जिनके जमावड़े को भी यहाँ देखा जा सकता है। 

कसोल में पार्वती नदी पर बने पुल को पार कर देव-काफिला राइट बैंक की नई घाटी में प्रवेश करता है।

उस पार से कसोल कस्वे का विहंगम दृश्य

लगभग आधा घंटा हल्की चढ़ाई को पार करते हुुए छलाल गांव आता है, काफिला इसके पीछे से होते हुए बढ़ी-बढ़ी चट्टानों और चीढ़ के जंगल को पार करते हुए आगे बढ़ता है। छलाल से रसोल लगभग 6 किमी है, जो यात्रियों के अनुभव के स्टेमिना के अनुरुप डेढ़-दो से चार घंटे में तय होता है।

चीढ़ के जंगल को पार करता हुआ देव काफिला

गाँव के पीछे रास्ते में कुछ विश्राम होता है। एक हारियान द्वारा कोल्ड ड्रिंक सर्व किया जाता है, जो सबको रिफ्रेश व रिचार्ज करता है। यहाँ से तरोजाता होकर काफिला छलाल नाले पर बने पुल को पार करते हुए रसोल गाँव की ओर बढ़ता है।

छलाल नाले के पुल को पार करता हुआ देव काफिला

इसी के साथ खड़ी चढ़ाई का दौर भी शुरु होता है, हालाँकि बीच में कुछ राहत भरे छोटे पड़ाव भी मिलते रहे। इन्हीं राहों पर
 बुराँश के सुर्ख लाल फूल से लदे वृक्ष यात्रियों का स्वागत करते हैं, जो रास्ते भर एक अलग ही लोक में विचरण का अनुभव देते रहे। मालूम हो कि बुराँश पहाड़ों में एक विशिष्ट ऊंचाई का विरल पौधा है, जिसके फूलों औषधीय गुणों से भरपूर पाए गए हैं, इसके फूलों की चटनी से लेकर जूस तैयार किया जाता है, जो पाचन संस्थान से लेकर ह्दय एवं मस्तिष्क के लिए बहुत लाभकारी माना जाता है।

रास्ते में बुराँश के ंजंगल से गुजरते हुए
निसंदेह रुप में वृक्ष-वनस्पतियों का रंग-बिरंगा संसार सफर के बीच आंखों को ठंडक देता है और मन को सुकून। मस्तिष्क भी इसके बीच अपनी स्थिति के अनुरुप ताने-बाने बुनता रहता है और पग मंजिल की ओर आगे बढ़ते रहते हैं। सदैव की तरह गिरमल देव संग देवशक्तियों का सान्निध्य निसंदेह रुप में एक अभेद्य रक्षा कवच तथा अटल सम्बल का काम कर रहा था। 

छलाल से लगभग ड़ेढ घंटे की कठिन यात्रा के बाद रसोल गाँव के दर्शन होते हैं। चारों और खड़ी पहाड़ियों के बीच एकांत घाटी में बस यह गाँव आश्चर्यचकित करता है। एक मायने में यह गाँव मलाना से भी अधिक रहस्यमयी लगता है कि कैसे लोग तंग घाटी में छिपे इस स्थान में बसे होंगे। मलाना तो फिर भी खुले स्थान पर बसा है। मलाना के विपरीत यहाँ भगवती के महामाया स्वरुप की पूजा की जाती है और मलाना की ही तरह यहाँ भी मंदिर परिसर में बाहर से पधारे लोग एक सीमा के अंदर मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते तथा न ही चीजों को छू सकते। 
यात्रियों के जीवट की परीक्षा लेती खड़ी चढ़ाई

गाँव की दुकानों से कुछ यात्री आगे के मार्ग के लिए कुछ राशन (पाथेय) खरीदते हैं। रसोल गाँव कसोल से मलाना गाँव के बीच के ट्रैक का मुख्य पड़ाव है। गाँव को पार करते ही सफर की कठिन चढ़ाई भी शुरु हो जाती है।

गहरी घाटी की ढलान पर बसे रसोल गाँव का विहंगम दृश्य

रसोल गाँव को पार करते-करते मुसलाधार बारिश शुरु हो जाती है, पत्थरीला रास्ता और फिसलन भरा हो जाता है। इसी के साथ रसोल गाँव के पीछे खड़ी चढ़ाई को धीरे-धीरे पार करते हुए काफिला आगे बढ़ता है। 

इसे पार करते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद शाम 6.35 बजे काफिला रसोल टॉप के नीचे खेचुमारु स्थान पर रुकता है। चट्टानी बुग्याल के संग प्रकृति की गोद में आज की रात्रि विश्राम का ठिकाना निसंदेह रुप में रोमाँचप्रेमियों के एडवेंचर की भूख को शांत करने वाला रहा। 

रसोल टॉप के नीचे वीहड़ वन में रात्रि विश्राम की व्यवस्था

यहीं पर रात्रि विश्राम व भोजन की व्यवस्था होती है और प्रातः यहाँ से रवाना होते हैं। रोज की तरह रात को तंबुओं में मोबाइल व टॉर्च की व्यवस्था और बाहर चुल्हे में प्रज्जवलित आग अंधेरे में रोशनी के साधन थे। बाकि दिन भर की थकान के बाद खा-पीकर सभी लोग अपने तंबु्ओं में सो जाते हैं।

प्रातः आगे के सफर की तैयारी के साथ देव-काफिला

प्रातः देव-काफिला तैयार होकर अगले सफर के लिए चल पड़ता है, जिसकी मंजिल थी मलाना गाँव वाया छोरोवाई।

काफिले में 50-60 सदस्य देवता (की टीम) के साथ के थे, जिनमें 10-12 बाजा बजाने बाले बजंतरि, 10 नरकाहल बजाने वाले। फिर सभी देवी-देवताओं के एक-एक गुर व पजियारे। 8 बारी और उनके साथ 1 साथी-सहचर, इस तरह 16 और इनके साथ कारदार सहित देवता के अन्य सेवक। इनके भोजन की व्यवस्था देवता की तरफ से होती थी। इनका भोजन बड़े पतीले (पोतलू) व वर्तनों में तैयार होता है। पहले देवता को भोग लगता है और फिर भोजन-प्रसाद ग्रहण किया जाता है और फिर वर्तन साफ। इसके बाद की आगे की यात्रा शुरु होती थी। बाकि 200 लोग अपना-अपना भोजन अपने समूह में बनाते हैं।

खेचुमारु से रसोल टॉप की ओर अब तक के सफर का सबसे कठिन पड़ाव पूरा होना था। एकदम सीधी खड़ी चढ़ाई के संग तीर्थ यात्रियों के जीवट की अग्नि परीक्षा का दौर जैसे शुरु होता है। 

रसोल टॉप की ओर - अब तक का सबसे कठिन व थकाऊ ट्रैक

दिन 5 – रसोल टॉप से होकर मलाणा गाँव,

प्रातः 6.45 पर काफिला खेचुमारु से रवाना होता है और एकदम खडी चढाई के साथ लगभग एक घंटे की कठिन यात्रा के बाद कसोल टॉप पहुँचता है, जहाँ हल्के स्नोफॉल के साथ स्वागत होता है। 

बर्फ के बीच सफर का रोमाँचक एवं कठिन दौर

लगता है कि जैसे घाटी की देवशक्तियों द्वारा देव काफिले का विशिष्ट स्वागत-अभिसिंचन किया जा रहा हो। 

बर्फ के बीच रसोल टॉप की फिसलन भरी राहों को पार करते हुए

रसोल टॉप से उस पार सीधे दूर नीचे चंद्रखणी धार (रिज) के दर्शन हो रहे थे, जिसे घाटी का पावन क्षेत्र माना जाता है व ठारा करड़ु देवी-देवताओं का उद्गम स्थल। हालाँकि धुंध के कारण नजारा बहुत साफ नहीं था। रसोल टॉप पर पहले से जमी हुई बर्फ भी मौजूद थी, जिस कारण फिसलन भरी राह में सावधानी के साथ रास्ता पार करना पड़ रहा था। अगले लगभग आधे घंटे का सफर इसी तरह तय होता है।

टॉप से उतराई भरे रास्ते में नीचे उतरते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद सुबह 10.30 तक छोरोवाई स्थान पर पहुँचते हैं, जहाँ बारिश शुरु हो जाती है। 

छोरोवाइ में बारिश के बीच देवकाफिला देवदार के वृक्ष की शरण में

यहां मार्ग से मलाणा गाँव के दर्शन घाटी के उस पार प्रत्यक्ष थे। विश्व का प्राचीनतम लोकतंत्र मलाना कभी अपनी पुरातन संस्कृति व पारम्परिक घर-गांव के लिए जाना जाता था। लेकिन आज यह आधुनिकता के दौर में प्रवेश कर शहरनुमा स्वरुप ले चुका है। हरी चादर से ढके चार मंजिला घर यहाँ की बढ़ती समृद्धि औऱ आधुनिकता की कहानी व्यां करते हैं। हालाँकि यहाँ के अधिकांश घर भूकम्परोधी काठकुणी शैली से बने हुए हैं और कुछ ही सीमेंट के लैंटर होंगे।

छोरोवाई से उस पार मलाना गाँव का विहंगम दृश्य

घाटी के बीच में नीचे मलाणा नाला बह रहा था। जैसे ही खाना बनाना शुरु करते हैं बारिश और तेज हो जाती है और झमाझम बारिश के बीच चुल्हे जलते हैं, भोजन तैयार होता है। सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और बारिश के बीच ही आगे चलना शुरु करते हैं, क्योंकि बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस तरह काफिला दोपहर के 2.30 बजे आगे बढ़ता है और सभी यहाँ से सीधा नीचे उतरते हुए मलाणा नाला पहुँचते हैं। रास्ते में जरी-मलाना के लिए निर्माणाधीन सड़क को पार करते हुए नीचे मलाना नाले को पार करते हैं और फिर खड़ी चढ़ाई के संग मलाना गाँव की ओर बढ़ते हैं। बारिश रास्ते भर थमने का नाम नहीं ले रही थी।

शाम 6 बजे देव काफिला बारिश के बीच मलाणा गांव पहुँचता है। रास्ते में काफिला पूरी तरह से भीग चुका था, जिसके कारण पीठ में लदा सामान भी भारी हो गया था। बरसाती भी काम नहीं आ रही थी, उसमें भी पानी व नमी घुस गई थी। लगा कि बढ़िया पॉलीशीट ऐसी स्थिति के लिए आवश्यक है, जिससे यात्रियों से लेकर उनके बेग बारिश से सुरक्षित रह सके। रास्ते भर बारिश के इस मंजर के बीच मोबाइल खोलने की फुरसत नहीं थी, अतः इस रास्ते की कोई फोटो नहीं खींच सके।

रास्ते में ही लैंड-स्लाईड (भूस्खलन) की लोमहर्षक घटना घटती है, जिसमें मल्बे के साथ एक बहुत बड़ी चट्टान कई टुकड़ों में चटककर तीव्र वेग के साथ नीचे गिरती है। काफिले के 8-10 लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं और इनके सर के ऊपर से चट्टान के टुकड़े गिरते हैं और ये किसी तरह बाल-बाल बचते हैं। लगा कि जैसे दैवी संरक्षण ने रक्षा क्वच की भाँति सबको सुरक्षित इस प्राकृतिक आपदा के पार लगा दिया हो।

मलाना गाँव में प्रवेश करते हुए देवकाफिला

मलाना पहुँचने पर मलाणा वासियों द्वारा देव काफिले के देउड़ुओं की भावभरी आव-भगत होती है। हर घर के लिए 2-4 खिंडु (मेहमान) बाँटे जाते हैं। गाँववासी उसी हिसाब से मेहमानों को अपने-अपने घर में ठहराते हैं, भोजन कराते हैं। गिरमल देवता को गाँव में देवप्रांगण के भण्डार (विशिष्ट विश्रामगृह) में ठहराया जाता है।

मलाना गाँव का ह्दय क्षेत्र, देव प्रांगण (देउए-री-सोह)

देवता सहित देवलुओं की यह स्वागत व मेहमानवाजी कुल्लू घाटी की देवसंस्कृति की आतिथ्य-सत्कार को देव-परम्परा का एक अभिन्न हिस्सा है। घरों में आग के चुल्हे व तंदूर जल रहे थे। सभी गीले कपड़े सुखाते हैं। बाहर ठंड का अनुमान लगा सकते हैं, जो यह गाँव समुद्र तल से लगभग दस हजार (9,938) फीट की उंचाई पर बसा है।
मालूम हो कि मलाना विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र व्यवस्था के लिए जाना जाता है, जहाँ इसके अपर और लोअर हाउस हैं। गाँव की पूरी शासन व न्याय व्यवस्था जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के इर्द-गिर्द केंद्रित है। निर्धारित नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है। मंदिर परिसर में बाहर से आए लोगों को पावन क्षेत्र में प्रवेश का निषिध रहता है और वे हर चीज को छू नहीं सकते। संभवतः इस नियम के चलते गाँव की कुछ पावनता बची हुई है। मलानावासियों की देव आस्था इतनी प्रबल है कि देवता जमलू की हर बात को पत्थर की लकीर माना जाता है तथा इसका हर कीमत पर पालन किया जाता है।

रात्रि विश्राम के बाद सुबह 6 बजे देव काफिला देव प्रांगण (देउए-री-सोह) में एकत्र होता है, और 6.40 पर आगे के लिए कूच करता है।

आगे के सफर के लिए कूच की तैयारी में देव-काफिला

मलाणा गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों के बीच देव-काफिला आगे बढ़ता है। और पंद्रह मिनट में गाँव को पार करते हुए अगली धार पर पहुंचता है और गाँव पीछे रह जाता है और धार के उस पार नई घाटी में प्रवेश होता है। (जारी, भाग-3, मलाना से बनोगी एवं घर बापसी वाया दोहरा नाला-भुचकरी टॉप)

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