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गुरुवार, 9 मई 2024

गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार रोमाँचक सफर, भाग-3


मलाणा से बनोगी वाया दोहरा नाला

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला 

तीर्थ यात्रियों की अग्नि परीक्षा लेता यात्रा का सबसे रफ-टफ एवं खतरनाक रुट

सबसे खतरनाक रुट पर सफर के रोमाँच का शिखर आज जैसे इंतजार कर रहा था। अगले 2 दिन सबसे रोमाँचक औऱ यादगार यात्रा का हिस्सा बनने वाले थे। एक तरफ आधे सफर को तय करने का रोमाँच अंदर हिलोरें मार रहा था, तो दूसरी ओर आगे का विकट मार्ग जैसे इस उत्साह को ठंडा करने के सारे सरंजाम जुटाकर बैठा था।

मलाणा से प्रातः 6.40 पर चले देव काफिले के रास्ते में पड़ता है भेलंग गाँव, जहाँ मलाना वासियों के शॉर्न अर्थात शीतकालीन आवास व खेत हैं। यहाँ काफी सारे घर हैं। गाँव के दो हिस्से हैं - अपर भेलंग और लोअर भेलंग। यहां लकड़ी से बने पुराने पारंपरिक घर हैं। गांव से सीधा नीचे उतरते हुए पहले नाला क्रोस करते हैं और फिर सीधी चढ़ाई आती है, इसको पार करते हुए सुबह 10 बजे आगम डूगा पहुँचते हैं, जहाँ भोजन तैयार होता है। खाना खाकर दोपहर डेढ़ बजे यहाँ से आगे बढ़ते हैं।

इसी रुट पर डेंजर जोन की खड़ी चढ़ाई आती है, जो काफिले की अग्नि परीक्षा लेती है, जहाँ एक किमी को पार करने में लगभग डेढ़ घंटे लग जाते हैं। आग लगने के कारण मार्ग में पकड़ने के लिए झाड़ियां तक गायब थी। किसी तरह कुल्हाड़ी तथा किल्हणी (छोटी कुदाली) से जमीं खोदकर खड़ी चढाई में स्टेप्स बनाए जाते हैं।

पीठ पर 10, 15 से 25 किलो का बोझा लादे हर व्यक्ति दैवी संरक्षण के भरोसे अपना पूरा साहस को बटोरते हुए आगे बढ़ रहा था। खतरे का आलम यह था कि एक भी कदम किसी का स्लिप हो गया, तो समझो गया सीधा नीचे खाई में। दिल को धामे, फूलती सांस, धड़कते दिल के साथ चढ़ाई पार होती है।

इस स्थिति में व्यक्ति की सारी हंसी-मजाक गायव हो चुके थे, सारा ध्यान अगले स्टेप पर था। जीवन-मृत्यु के बीच झूलते इन पलों में घर परिवार संसार के सकल विचार गायब हो चुके थे। सिर्फ मंजिल सामने थी और दृष्टि अपने अगले कदम पर केंदित। काफिला सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। देखा जाए तो जीवन में भी येही पल सबसे वहुमूल्य होते हैं, जब व्यक्ति का पूरा ध्यान लक्ष्य केंद्रित हो जाता है, जब सारे डिस्ट्रेक्शन्ज विलुप्त हो जाते हैं। येही एकांतिक पल जीवन में लक्ष्य सिद्धि को संभव बनाते हैं।

इस टफ रुट की खड़ी चढ़ाई का आरोहण करते हुए काफिला 5 बजे दोहरानाला टॉप पहुँचता है। यहाँ चारों ओर बर्फ और सिर्फ बर्फ थी। इसी बर्फ पर चलते हुए काफिला आगे बढ़ रहा था।


एक तरफ शरगढ़ की झाडियाँ और दूसरी ओर गगनचूंबी खोरशु के पेड़ों के बीच बर्फ के ऊपर सब नीचे उतर रहरे थे। आधे घंटे वाद शाम 5.30 बजे दोहरा नाला पर आकर काफिला रुकता है, यहाँ बर्फ के ग्लेशियर के बीच बहता नाले का निर्मल जल एक ताजगी भरा अहसास दिला रहा था। लगा जैसे आज की पिछली तपस्या का फल यहाँ मिल रहा हो।

यहाँ खाना बनाना सबसे कठिन था, बर्फिली हवा और गीली लकड़ियाँ। काफी मशक्कत करनी पड़ी आग जलाने व खाना बनाने में यहाँ। औऱ यहाँ सबसे अधिक ठँड भी थी। तापमान माइनस में था। सुबह जब उठे तो जुत्ते तक जम चुके थे। बाहर पूरा पाला पड़ा हुआ था। आज की रात अब तक की सबसे ठंडी रात रही।


यहाँ आस-पास चट्टानी पहाड़ों में प्राकृतिक रुप से बने कई रुआड़ (गुफाएं) हैं, जिनमें बारिश-बर्फवारी के बीच गड़रिये व प्रकृतिप्रेमी ट्रैक्कर रुकते हैं। सुबह 6.30 बजे देव काफिला यहाँ से आगे के लिए कूच करता है।

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दोहरा नाला से आगे कहीं चढ़ाई, तो कहीं उतराई भरी राह को पार करते हुए डेढ़ घंटें में काफिला भूचकरी टॉप पहुंचता है। पूरा सफर बर्फ के ऊपर पूरा होता है। रास्ते भर औसतन दो अढाई फीट बर्फ थी। रास्ते में कुछ रुआड़ (प्राकृतिक गुफा) से भी दर्शन होते हैं। रिज पर कभी ऊपर, तो कभी नीचे आगे बढ़ते हुए एक घंटे के सफर के बाद फुटासोर पहुँचते हैं। जहाँ बर्फ की सफेद चादर ओढ़े बुग्याल की स्लोप्स देव काफिले का जैसे विशिष्ट स्वागत कर रही थीं।

फूटासोर का काईस की भगवती दशमी वारदा के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है। खोरसू के जंगल यहाँ वहुतायत में हैं, रखाल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। गाँव वासियों के लिए यह एक पावन स्थल है। वास्तव में बिजली महादेव से लेकर चंद्रखणी पर्यन्त सारा मार्ग देवताओं का पावन स्थल माना जाता है और क्षेत्रीय परिजन तथा फुआल (चरावाहे) श्रद्धा भाव के साथ इस रुट पर विचरण करते हैं।

इस रुट पर खोरशु के जंगल को पार करते हुए दुआरू नामक संकरे मार्ग को पार करते हुए एक घंटे बाद उब्लदा में जल स्रोत के पास देव काफिला रुकता है। दुआरु में दोनों ओर की चट्टानों पर भेड़ु के सींग के निशान हैं। उब्लदा में सुबह का भोजन तैयार होता है। जब पहुँचे तो मौसम साफ था। भोजन करते-करते बर्फवारी शुरु होती है, इसी के बीच काफिला एक डेढ़ घंटे तक बर्फवारी के बीच आगे बढ़ता है।

फिर रेउंश से होते हुए नरेइंडी पहुंचता है। रेऊंश की झाडियाँ बहुतायत में होने के कारण स्थान का नाम रेउंश रखा गया है, जहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है। यहाँ से कुल्लू घाटी व शहर की साइड का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। कुल्लु के ढालपुर मैदान से भी इसके दर्शन किए जा सकते हैं।

नीचे मार्ग में मातन छेत अर्थात खेत आते हैं। सेब का अंतिम बगीचा यहाँ पर मौजूद है, जो समय फ्लावरिंग स्टेज में था। यहाँ से पार होते हुए नीचे देवदार के वृक्षों के नीचे नरेइंडी के पीछे निर्जन बन में रात्रि का ठिकाना बनता है।

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर की ओर

प्रातः हवन यज्ञ व कन्या पूजन के साथ भोजन तैयार होता है। फिर दिन भर काम करते हुए शाम को भंडारा होता है। यहाँ से नीचे बनोगी देवता के मंदिर में पहुँचते हैं, देवता को भंडार में स्थापित करते हैं। गाँव के बच्चे, महिलाएं, आस-पड़ोस के लोग यहाँ देवता व देव काफिले के स्वागत के लिए पधारे थे। और रात को 9.15 बजे तक घर पहुँचते हैं।rtr

गिरमल देवता संग 8 दिन के सफर के बाद सभी बिल्कुल फ्रेश अनुभव कर रहे थे। पैर में किसी तरह की जकड़न (ऊरा) के निशान नहीं थे, न ही किसी तरह की कोई थकान। बस रास्ते की खट्टी-मीठी यादों का रोमाँच उमड़ते घुमड़ते हुए चिदाकाश को पुलकित कर रहा था, रोमाँचित कर रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था कि हम इतना लम्बा सफर पैदल सकुशल पार कर आ गए हैं, जिसके बारे में हम कभी अपने बुजुर्गों से सुनकर मात्र कल्पना भर कर पाते थे।

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रास्ते के पेड़-पौधे व वनस्पति -

रास्ते में खोरश (खरशू) के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं और रई तोश के भी, जो देवदार से भी ऊंचाई पर उगते हैं। और भुचकरी के पास भोजपत्र के वृक्ष। खोरशु के वृक्षों से मेंहदी झरती है, जिसे लोग इकट्ठा कर व्यापार भी करते हैं। यह लगभग 200 रुपए किलो तक बिकती है। यहाँ की चट्टानों में भी यह मेंहदी उगती है। बुराँश के फुल भी कई रंगत में रास्ते भर मिलते गए, लाल से लेकर गुलावी तक। रसोल साइड ये बहुतायत में मिले। रखाल जैसा दुर्लभ एवं वेशकीमती पेड़ भी रास्ते में मिला, जिसका वोटेनिक्ल नाम केक्टस वटाटा है, इससे केंसर की औषधी तैयार की जाती है। रास्ते में गुच्छी (मौरेन मशरुम) से लेकर लिंगड़ी के दर्शन हुए और जंगली फूल भी वुग्यालों में खिलना शुरु हो चुके थे।

बारिश और जुत्ते

ऐसे सफर में छाते की आवश्यकता नहीं रहती। प्लास्टिक की चादरें व शीटों से काम चलाया गया। अनुभव रहा कि अधिक बारिश में रेन कोट भी अच्छी क्वालिटी का न हो तो काम नहीं आता, अतः ऐसे में अच्छी प्लास्टिक शीट या पालिथीन पेपर से बना रेन कोट ही उचित रहता है। आग जलाने व भोजन पकाने के लिए 80 से 90 फीसदी चूल्हे लकड़ी के थे, जिसमें बिरोजा लगी प्राकृतिक शौली की विशेष भूमिका रहती है। 2-4 स्टोव तथा कुछ पेट्रोमेक्स के चुल्हे ही साथ में थे।

इतने लम्बे सफर को पूरा करने के लिए ट्रेकिंग शूज कुछ ही लोगों के पास थे, अधिकाँश 250 से 400 रुपए की रेंज के रबड के जुत्तों को पहन कर पूरा सफर तय किए। कुछ तो इन जुत्तों में भी गर्मी अनुभव कर रहे थे व चप्पल से भी काम चलाते रहे। आयु की बात करें, तो देव काफिले में 16-17 वर्ष के किशोर से लेकर 72 वर्ष के बुजुर्ग (पीणी के पुजारी) तक साथ में थे, जो पूरी यात्रा को सकुशल सम्पन्न किए।

इस यात्रा में कुछ एक तरफा मणिकर्ण तक पैदल यात्रा किए, फिर बस से बापिस आए। कुछ मणिकर्ण तक बस में गए और फिर वहाँ से यहाँ तक आए पैदल आए। कुल मिलाकर कुछ अपवादों को छोड़कर हर परिवार से एक सदस्य इस देव स्नान यत्रा में शामिल रहा।

कुल मिलाकर यह एक ऐतिहिसिक यात्रा रही। पग-पग पर देवसंरक्षण व ईश्वरकृपा का अनुभव होता रहा। बारिश से लेकर बर्फ का अभिसिंचन , जहाँ देव काफिले की आस्था की परीक्षा ली जा रही थी। भय मिश्रित श्रद्धा एवं रोमाँच के बीच न जाने कितने जन्मों केजैसे देवशक्तियों का स्वागत अभिसिंचन जैसा लगता रहा। तेज बारिश व खड़ी चढ़ाई संग खतरनाक यात्रा अग्नि परीक्षा के पल लगे कर्म-प्रारब्ध मार्ग में झरते गए। हर सफल परीक्षा के बाद सुंदर दृश्य से लेकर उचित विश्राम एवं सुखद अहसास के पुरस्कार भी तीर्थयात्रियों की झोलियों में रह-रहकर झरते रहे।

इस तरह यात्रा में भागीदार हर व्यक्ति सौभाग्यशाली थे, जो इस रोमाँचक यात्रा से जुड़े दिव्य अनुभवों को बटोरते गए और आगे अपने घर-परिवार में महिलाओं, बच्चों व न जा पाए अन्य परिजनों को कथा किवदंतियों की भाँति सुनाते रहेंगे। हम भी कभी इस यात्रा को सम्पन्न किए नानू-मामू साहब से सुनकर रोमाँचित होते थे और आज स्वयं इसका हिस्सा बनकर, अपने अनुभवों को लोकहित में शेयर कर रहे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे आधुनिक माध्यमोंaàà1 ने इसे सबके लिए सुलभ कर लिया है, जो विज्ञान का एक अनुपम वरदान है, जिसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। 

गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार-रोमाँचक सफर , भाग-2

 

मणीकर्ण तीर्थ से मलाणा वाया रसोल टॉप

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

दिन 5 – रसोल टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

प्रातः स्नान के बाद क्लार (सुबह का नाश्ता व लंच) करके देव काफिला बापिस कसोल की और कूच करता है। पार्वती नदी पर बने कसोल पुल को पार कर काफिला नई घाटी में प्रवेश करता है।

उस पार छलाल गाँव के पीछे से होते हुए काफिला बढ़ी-बढ़ी चट्टानों और चीढ़ के जंगल को पार करते हुए रसोल गाँव की ओर बढ़ता है। पूरी यात्रा की सबसे खड़ी चढ़ाई इस हिस्से में थी।


मार्ग में बुराँश के सुर्ख लाल फूल से लदे वृक्ष यात्रियों का स्वागत करते हैं, जो रास्ते भर बहुतायत में दिखते रहे। रसोल गाँव को बीच से पार करते हुए कुछ यात्री आगे के मार्ग के लिए यहाँ की दुकानों से कुछ राशन भी खरीदते हैं।

रसोल गाँव को पार करते-करते जोर की बारिश शुरु हो जाती है, पथरीला रास्ता और फिसलन भरा हो जाता है। इसी के साथ रसोल गाँव के पीछे खड़ी चढ़ाई को धीरे-धीरे पार करते हुए काफिला आगे बढ़ता है। इसे पार करते हुए 6.35 बजे काफिला रसोल टॉप के नीचे खेचुमारु स्थान पर रुकता है। यहीं पर रात्रि विश्राम व भोजन की व्यवस्था होती है और प्रातः यहाँ से रवाना होते हैं।

देव काफिले में 50-60 सदस्य देवता (की टीम) के साथ के थे, जिनमें 10-12 बाजा बजाने बाले बजंतरि, 10 नरकाहल बजाने वाले। फिर सभी देवी-देवताओं के एक-एक गुर व पजियारे। 8 बारी और उनके साथ 1 संगी, इस तरह 16 और इनके साथ कारदार सहित देवता के अन्य सेवक। इनके भोजन की व्यवस्था देवता की तरफ से होती थी। इनका भोजन बड़े पतीले (पोतलू) व वर्तनों में तैयार होता है। पहले देवता को भोग लगता है और फिर भोजन-प्रसाद ग्रहण किया जाता है और फिर वर्तन साफ। इसके बाद की आगे की यात्रा शुरु होती थी। बाकि 200 लोग अपना-अपना भोजन अपने समूह में बनाते हैं।

दिन 5 – रसोल टॉप से होकर मलाणा गाँव,


प्रातः 6.45 पर काफिला खेचुमारु से रवाना होता है और एकदम खडी चढाई के साथ रसोल टॉप पहुँचता है, जहाँ हल्के स्नोफाल के साथ स्वागत होता है। लगता है कि जैसे घाटी की देवशक्तियों द्वारा देव काफिले का विशिष्ट स्वागत-अभिसिंचन किया जा रहा हो। 

रसोल टॉप से उस पार सीधे दूर चंद्रखणी धार (रिज) प्रत्यक्ष दिख रही थी, जिसे घाटी का पावन क्षेत्र माना जाता है। रसोल टॉप पर पहले से जमी हुई बर्फ भी मौजूद थी, जिस के संग अगले आधे घंटे का सफर तय होता है।

टॉप से नीचे उतरते हुए सुबह 10.30 तक छोरोवाई स्थान पर पहुँचते हैं, जहाँ बारिश शुरु हो जाती है। 

यहां से मलाणा गाँव के दर्शन घाटी के उस पार प्रत्यक्ष थे। विश्व का प्राचीनतम लोकतंत्र मलाना कभी अपनी पुरातन संस्कृति व घर-गांव के लिए जाना जाता था। लेकिन आज यह आधुनिकता के दौर में प्रवेश कर शहरनुमा लुक ले चुका है। हरी चादर से ढके चार मंजिला घर यहाँ की बढ़ती समृद्धि औऱ आधुनिकता की कहानी व्यां करते हैं। पुराने घर कुछ ही शेष बचे हैं।

घाटी के बीच में नीचे मलाणा नाला बह रहा था। जैसे ही खाना बनाना शुरु करते हैं बारिश और तेज हो जाती है और झमाझम बारिश के बीच चुल्हे जलते हैं, भोजन तैयार होता है। सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और दोपहर के 2.30 बजे तक बारिश में चलते रहते हैं। यहाँ से सीधा नीचे मलाणा नाला पहुँचते हैं। और फिर नाले को पार करते हुए देव काफिला चढाईदार मार्ग पर सीधे मलाना गाँव की ओर बढ़ता है।

शाम 6 बजे देव काफिला मलाणा गांव पहुँचता है। रास्ते में काफिला पूरी तरह से भीग गया था। बरसाती भी काम नहीं आ रही थी, उसमें भी पानी व नमी घुस गई थी। लगा कि बढ़िया पॉलीशीट ऐसी स्थिति के लिए आवश्यक है, जिससे यात्रियों से लेकर उनके बेग बारिश से सुरक्षित रह सके।

रास्ते में ही लैंड स्लाईड की लोमहर्षक घटना घटती है, जिसमें मल्बे के साथ एक बहुत बड़ी चट्टान ऊपर से नीचे गिरती है, जिसकी चपेट में 8-10 लोग बाल-बाल बचते हैं। लगा जैसे दैवी संरक्षण ने रक्षा क्वच की भाँति सबको सुरक्षित इस प्राकृतिक आपदा के पार लगा दिया हो।

मलाना पहुँचने पर मलाणा वासियों द्वारा देव काफिले के देउड़ुओं की भावभरी आव-भगत होती है। हर घर के लिए 2-4 खिंडु (मेहमान) बाँटे जाते हैं। गाँववासी उसी हिसाब से मेहमानों को अपने-अपने घर में ठहराते हैं, भोजन कराते हैं। यह स्वागत व मेहमानवाजी कुल्लू घाटी की देवसंस्कृति की आतिथ्य-सत्कार परम्परा का एक अहं हिस्सा है। घरों में आग के चुल्हे व तंदूर जल रहे थे। सभी गीले कपड़े सुखाते हैं। बाहर ठंड का अनुमान लगा सकते हैं, जो यह गाँव 9,938 फीट उंचाई पर बसा है। रात्रि विश्राम के बाद सुबह 6 बजे देव काफिला देव प्रांगण (देउए-री-सोह) में एकत्र होते हैं, और 6.40 पर आगे के लिए कूच करते हैं।

मलाणा गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों के बीच काफिला आगे बढ़ता है। धीरे-धीरे गाँव को पार करते हुए ऊपर पहुंचता है और गाँव नीचे रह जाता है। (जारी...)

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