शुक्रवार, 20 मार्च 2020

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम वसन्त का, भाग-1


सर्दी के बाद वसंत की वहार

मैदानों में वसन्त का मौसम समाप्त हो चला, आम के बौर अपने चरम पर हैं, लेकिन चारों और पेडों में फूलों का अभाव थोड़ा खटकता है। गंगा तट पर खाली सेमल के विशाल वृक्षों में लाल फूलों को देखकर तसल्ली कर लेते हैं। वसन्त का वह फील नहीं आता, जिनसे बचपन की यादें डूबी हुई हैं, जब घाटी-गाँव में ठण्डी हवा के बीच तमाम पेड़ों की कौंपलें एक-एक कर फूट रही होती और रंग-बिरंगी सतरंगी छटा घाटी के माहौल में एक अद्भुत सौंदर्य एवं मोहकता की सृष्टि कर रही होती। आज इन्हीं यादों के सागर में डुबकी लगाकर बचपन से दूर गंगा तट से उन यादों को ताजा कर रहे हैं, जो वालपन के अनुभव का हिस्सा रही हैं।

मालूम हो कि ठण्ड में प्रकृति सुप्तावस्था में रहती है। हाड़कंपाती ठण्ड के बाद जब ऋतु करवट लेती है, तो वसन्त का मौसम दस्तक देता है। इसी के साथ जैसे ठंड़ में अकड़ी-जकड़ी प्रकृति अंगड़ाई लेती है। प्रकृति के हर घटक में एक नई चैतन्यता का संचार होता है। हमारे पहाड़ी गाँव-घाटी में वृक्षों में कौंपलें फूटना शुरु हो जाती, जिनसे एक-एक कर नाना प्रकार के पेड़ों से रंग-बिरंगे फूल खिलने शुरु हो जाते।
इसी के साथ हर गाँव के अपने देवता के लिए प्रख्यात इस देवभूमि में देवउत्सवों की श्रृंखला शुरु हो जाती, जिसमें बनोगी फागली, फाडमेह एवं गाहर फागली गाँव के प्रचलित देव उत्सव कुछ अन्तराल में मनाए जाते।

इनके साथ मेले-जात्रों की श्रृंखला वसन्त ऋतु के ही दौर में उल्लासपूर्वक मनाए जाते। गाँव का जबाड़ी मेला या स्यो-जाच, गाहर का बिरसु, काईस बिरसु एवं शाड़ी जाच आदि इसी दौर के सामूहिक लोक उत्सव रहते। इसी बीच में रंगों का उत्सव होली पड़ता।



यह समय बागवानी के हिसाब से भी विशिष्ट रहता। इसी बीच सेब व अन्य फलों के पौंधों के चारों ओर तौलिए बनाए जाते, उनमें खाद-पानी की व्यवस्था की जाती। इसके साथ यह ग्राफ्टिंग का सीजन रहता, जिसमें नयी कलमें लगाई जाती, क्योंकि इस वक्त पेड़ों की कोशिकाओं में सैप या जीवन रस अपने तीव्रतम गति में दौड़ रहा होता है।
मार्च-अप्रैल का माह गाँव की भेड़-बकरियों की देखभाल करने वाले पूर्णकालिक फुआलों के लिए विशेष रहता। आज इनकी संख्या बहुत घट चुकी है तथा हिमाचल के चम्बा क्षेत्र में इनका समुदाय गद्दी नाम से लोकप्रिय है।

वे पूरी तैयारी के साथ भेड़ बकरियाँ के झुण्डों के साथ पड़ोसी जिला लाहौल-स्पीति की ओर कूच करते, जहाँ उनके चरने के लिए निर्धारित हरी घास से भरे बुग्याल इंतजार कर रहे होते तथा यहाँ कई दिनों की यात्रा के बाद नदी, पहाड़, दर्रों को पार करते हुए ये वहाँ पहुँचते और फिर अगले कुछ माह वहीं वास करते। प्रवास के इस काल के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री, राशन व अन्य सामान ये घोड़ों पर लादकर चलते। भेड़-बकरियों की रक्षा के लिए गद्दी, भोटिया या पहाड़ी कुत्तों का झुण्ड साथ में रहता।

मार्च माह की एक विशेषता बादलों की गड़गड़ाहट रहती, जिनके बीच गुच्छियाँ का सीजन भी शुरु हो जाता। यह मान्यता है कि बादलों के विस्फोट के बीच इनके बीज फूटते हैं व गुच्छी (मोरेल मशरुम) पनपना शुरु हो जाती हैं। खेत में निर्धारित स्थानों पर हम सुबह-सुबह इनको खोजने निकल पड़ते। कई बार इनके दर्शन गुच्छों में होते, तो कभी इक्का-दुक्का। 

इनके मिलने पर होने वाले विस्मय एवं खुशी के भाव देखते ही बनते। फिर घर में लाकर एक धागे में पिरोकर इनकी माला को सुखाने के लिए दिवारों पर रखते। बाजार में इनका अच्छा खासा दाम रहता। लेकिन बहुधा अधिक मात्रा में मिलने पर ताजा गुच्छी की सब्जी बनाकर खाते।

खेतों में गैंहूं, जौ की फसल पनप रही होती। साथ ही मटर, चना आदि दालों की फसलें लहलहाने लगती। सरसों के खेत तो अपनी वासन्ती आभा के साथ जैसे ऋतु दूत बनकर वसन्त के आगमन की दिगन्तव्यापी उद्घोषणा कर रहे होते। 

इसके साथ गैंहू के खेत के कौने में सजे जंगली फूल तथा पॉपी के काले धब्बे लिए सुर्ख लाल फूल हरे भरे खेतों के सौंदर्य में चार चाँद लगाते। ऐसे खेतों की गोद में बीते बालपन की अनगिन यादें सहज ही मन को प्रमुदित करती हैं, जैसे चित्त भाव समाधी की अवस्था में विचरण कर रहा हो।

यही दौर यहाँ सब्जी उत्पादन का भी होता। सब्जी की पनीरी बाजार से खरीद कर खेतों में रोपी जाती, जो अगले दो-तीन माह में कैश क्रोप के रुप में मेहनतकश किसानों का आर्थिक सम्बल बनती।(जारी)

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग 5


काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी कैंपस में पहला दिन


आज हमारा विश्वविद्यालय का पहला दिन था। अपने आवास से मुश्किल से आधा किमी पैदल चलकर हम विश्वविद्यालय गेट पर पहुँचते हैं। इसके साथ ही बोटेनिक्ल गार्डन सटा है, जो बाहर से देखने पर गगनचूम्बी वृक्षों एवं हरियाली से लैंस है। बीच-बीच में फूलों की क्यारियाँ अपनी सतरंगी छटा बिखेर रही थी। इसको फुर्सत में देखने व अवलोकन का मन बन चुका था। 
खेर अभी हम गेट से परिसर में प्रवेश करते हैं। विश्वविद्यालय का यह मुख्य परिसर है, जहाँ यूनिवर्सिटी का इंटरनेशनल रिलेशन विभाग स्थित है। विभाग की प्रमुख मेडेम अनिला से हमारी ऑफिशियल मुलाकात यहीं होनी थी। हालाँकि फोर्मल मुलाकाल पिछले कल उनके परिवार संग रुबरू रेस्टोरेंट में हो चुकी थी। उनकी सहयोगी मेडेम काल्का हमें यहाँ तक आने का रास्ता कल बता चुकी थी। इनसे भी मुलाकात होनी थी।
प्रकृति की गोद में बसा हुआ कैंपस बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। चेस्टनेट के पेड भी कतार में सजे मिले, रंग-बिरंगे फूलों के साथ क्यारियाँ सजीं थी। क्रिसमस ट्री एवं देवदार के पेड़ों के बीच यहाँ के पारम्परिक शैली में बने भव्य भवन नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का अनुभव दे रहे थे। अपने होस्ट से पहली ऑफिश्यल इंटरएक्शन की उत्सुक्तता स्वाभाविक थी।


बोटेनिक्ल गार्डन की साइड से युनिवर्सिटी कैंपस में प्रवेश होता है, हरे-भरे कैंपस के बीच पारम्परिक भवनों का संयोजन बहुत सुन्दर लग रहा था। यहाँ के शहरों की तरह कैंपस की स्वच्छता और सुव्यवस्था हर ओर नजर आ रही थी। भवन के चारों और तथा मार्ग में क्रिस्मस ट्री के छोटे-बड़े पौधे यहाँ की सुंदरता में चार-चाँद लगा रहे थे। प्रकृति की गोद में कैंपस की स्थिति हमें अपने घर का शीतल अहसास दिला रही थी। निश्चित रुप में इस ठण्डे इलाके में ऐसे वृक्ष किसी हिल-स्टेशन का अहसास दिला रहे थे।

अंतर्राष्ट्रीय संपर्क विभाग के भवन के गेट पर हमें चैरी का पेड़ मिला, जिसमें अभी चैरी के फूल झड़ चुके थे, नन्हीं-नन्हीं चैरियाँ हरे पत्तों के बीच से झाँकती दिख रहीं थी। रास्ते के दोनों ओर रंग-बिरंगे सुंदर फूल खिले थे। भवन में प्रवेश के बाद दूसरी मंजिल पर हम कमरे में प्रवेश करते हैं। मेडेम काल्का से मुलाकात होती है, वे अपनी बॉस अनिला मेडेम से उनके चैंबर में मिलवाती हैं। गर्मजोशी के साथ स्वागत होता है। मैडेम एनिला एक डायनमिक लेडी हैं, साथ ही मस्तमौला एवं व्यवहारकुशल। ये देवसंस्कृति पधार चुकी हैं व मुलाकात से यहां से जुड़ी पुरानी यादों को आज ताजा अनुभव कर रही थी। 
फिर काल्का मेडेम हमें अपनी गाड़ी में बिठाकर स्थानीय बैंक तक ले जाती हैं, जहाँ इरेस्मस स्कोलर्शिप की राशि को इनकैश किया जाना था।

शहर की सुंदर सडकों के बीच हम कुछ ही मिनट में कई चौराहों को पार करते हुए शहर के एक एकांतिक छोर तक पहुँच चुके थे, जिसके दायीं ओर ट्रेन रुट था व बीच में चीड़ के घने जंगल, जिनका जिक्र हम बिडगोश हवाई पट्टी पर कर चुके हैं। हमें इसकी सघन हरियाली खासी मनभावन एवं प्रशांतक लगी। थोड़ी ही देर में एक नवनिर्मित भवन के सामने पार्किंग में गाड़ी रुकती है। भवन यहाँ का बैंक था। भवन के अंदर खिड़कियों में लगे बड़े-बड़े सीसों से बाहर का प्राकृतिक नजारा स्पष्ट दिख रहा था। भवन का प्रकृति के साथ इतना सुंदर संयोजन हमें अंदर से आल्हादित कर रहा था।
देख हम सोचते रहे कि भारतीय शहरों में हम इस मामले में कितने लापरवाह रहते हैं। हमारे शहरों व कस्वों के भवन निर्माण में प्रकृति, हरियाली, पेड़ों के लिए कोई स्थान नहीं रहता। यहाँ भवन के अंदर जो स्पेस दिया गया था व जो स्वच्छता दिखी, लगा अध्यात्म का पहला पाठ – स्वच्छता एवं सुव्यवस्था यहाँ के लोग सीख चुके हैं। बस इनको आगे की गहराई में उतरना बाकि है।
बैंक से पैसा निकालने के बाद हम वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलने बाले थे। इनके दर्शन हम देवसंस्कृति विवि में कर चुके थे, जब से पूरे डेलीगेशन के साथ दो-तीन साल पहले आए थे। धीर-गंभीर, ऊँचा कद, सुगठित शरीर एवं एक जेंटलमेन लुक – अक्स अभी ही हमारे जेहन में था। आज किस रुप में इनसे मुलाकात होने वाली है, उत्सुक्तता थी। क्योंकि वाईस रेक्टर हमारे यहाँ के वाईस चांस्लर जैसा सीनियर अकादमिक पद होता है।
इनसे हमारी मुलाकात विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग एवं कम्प्यूटिंग कैंपस में होती है। जब हम भवन में पहुँचे तो प्रो. मैको प्रयोगशाल में यहाँ के वैज्ञानिकों के साथ काम कर रहे थे।
अपनी बर्दी में सफेद गाउन ओढ़े एक वैज्ञानिक, एक जैंटलमेन अपनी मासूम मुस्कान के साथ सामने खड़ा था व गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत कर रहा था। ये वैज्ञानिक के साथ एक योगी भी हैं, जो कई वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनसे मिलने के बाद समझ में आया कि यहाँ शोध को कितना महत्व दिया जाता है। प्रयोगशाला में ये अकादमिक अधिकारी नहीं होते, एक वैज्ञानिक की भाँति दतचित्त होकर अपने अनुसंधान में अपने छात्रों एवं सह वैज्ञानिको के साथ कुछ नए अन्वेषण में मग्न होते हैं।

इस बक्त इनका थ्री–डी प्रिंटिंग को लेकर महत्वपूर्ण प्रयोग चल रहे था, जिसे ये स्थानीय अस्पताल में दिव्यांग बच्चों की आवश्यकता को देखते हुए तैयार कर रहे थे। ऐसे ही इन्होंने तमाम सफल प्रयोग दिखाए जिन्हें चिकित्सा  से लेकर शिक्षा एवं इंडस्ट्री की माँग के हिसाब से तैयार किया गया था। बाद में पता चला कि प्रो. मैको अपनी फील्ड के जाने-माने वैज्ञानिक हैं व पौलेंड में अपने विषय़ के शीर्ष वैज्ञानिक एवं शोधकर्ता के रुप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी कार्य एवं व्यक्तित्व में हमें वैज्ञानिक अध्यात्म की झलक मिल रही थी, जहाँ एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि एवं मूल्यों के साथ शोध में संलग्न होता है तथा एक योगी एक वैज्ञानिक सी प्रयोगधर्मिता के साथ सत्य का शोध-अनुसंधान कर रहा होता है।
प्रयोगशाला में इनके कार्य को देखने के बाद हम इनके विभागीय ऑफिस में गए। जबकि इनका वाईस-रेक्टर के ऑफिस में इनसे मुलाकात कल होने वाली थी, जहाँ इनके साथ लंच का भी प्रावधान रखा गया था।

प्रो. मैको से मुलाकात के बाद हम यहाँ के सबसे बड़े माल में जाते हैं, जो कई मंजिला था। इसमें शायद ही कुछ ऐसा हो जो यहाँ न मिलता हो। यहाँ एक काउँटर पर करेंसी एक्सचेंज करते हैं, क्योंकि जो पैसे बैंक से निकाले थे, वे यूरो में थे, जबकि यहाँ खर्च के लिए हम पोलैंड की करेंसी ज्लोटी में आवश्यकता थी। कार पार्किंग तक आते-आते हम मॉल का विहंगावलोकन करते रहे, जहाँ अगले दिनों फुर्सत में एक दिन यहाँ आकर यहाँ से कुछ परचेजिंग करनी थी।
मैडेम काल्का का पग-पग पर अपनी गाड़ी में कैंपस का भ्रमण एवं आवश्यकताओं का ध्यान हमें गहरे छू रहा था। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं निष्ठ काल्का मैडेम हमें एक सुगड़ महिला प्रतीत हुई, अपने केयरिंग एवं जेंटल अंदाज के साथ बड़ी बहन जैसा फील दे रही थी, हालांकि उम्र में शायद वो हमसे छोटी ही रही होंगी।
बापसी में काल्का मैडेम हमें बोटेनिक्ल गार्डन पर उतारती हैं, जिसे देखने की इच्छा हम प्रातः जाहिर कर चुके थे। गेट में प्रवेश करते ही पहले कृत्रिम झील के दर्शन होते हैं, जिसके किनारे पेड़ के कटे ठूंठों की सुंदर बैठकें बनी थी। झील के किनारे व झील में पक्षी चहचहा रहे थे।
गगनचूम्बी देवदार के वृक्षों के बीच यहाँ का एकांत-शांत परिवेश हमें स्वर्ग का अहसास दे रहा था। पार्क के हर कौने में फूलों से लदी झाड़ियाँ हमारा स्वागत कर रही थीं। एक क्यारी में नीले फूलों के गुच्छ हमारे हिमाचल में उगने वाले फूलों की याद दिला रहे थे, जिसके नीले खुशबूदार गुच्छे हमें बचपन में प्रमुदित करते थे।
कुछ फूल तालाब में सजे थे, तो छोटे आर्किड के फूल अपनी ही रौनक बिखेर रहे थे। बुजुर्ग, युवा एवं बच्चे सभी पार्क में घूम रहे थे व यहाँ के एकांत-शांत एवं शीतल परिवेश का आनन्द ले रहे थे।
इस तरह आज का हमारा सफर पूरा होता है। बापसी में रास्ते के स्टोर से आवश्यक फल सब्जी, दूध एवं ब्रेड आदि लेते हैं व अपने विश्रामस्थल पहुँचते हैं। कल विभाग में परिचय एवं प्रेजन्टेशन का क्रम शुरु होना था और फुर्सत के पलों में पड़ोस के ऐतिहासिक शहर तोरुन के दर्शन भी करने थे, जो महान वैज्ञानिक कोपर्निक्स की जन्म स्थली एवं कार्यभूमि रहा है।
    अगली ब्लॉग पोस्ट यहाँ के यात्रा वृतांत, पोलैंड का छिपा नगीना - तोरुण शहर को पढ़ सकते हैं।

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