सोमवार, 29 जून 2020

मेरी पौलेंड यात्रा – 7, अकादमिक संवाद से भरा दिन

विद्यार्थियों से संवाद एवं पारम्परिक कॉफी का स्वाद

मार्ग में काजिमीर विल्किस यूनिवर्सिटी के कुछ भवन पड़े, जिनमें फिजिक्स व मेथेमेटिक्स विभाग प्रमुख थे। विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर भी मार्ग में पड़ता है, जिसका संक्षिप्त इतिहास यहाँ बताना चाहेंगे।

संस्थान 1969 में शिक्षकों के प्रशिक्षण केंद्र के रुप में स्थापित हुआ था, जो विस्तार पाते हुए सन 2005 से विश्वविद्यालय के रुप में प्रारम्भ होता है। इसमें इस समय 7000 विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिन्हें 1500 शिक्षक पढ़ाते हैं। मानविकी, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र, पर्यटन, कम्प्यूटर, गणति, भौतिकी, संगीत, खेल आदि इसके लोकप्रिय पाठ्यक्रम हैं। इसका इंन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतरीन एवं कैंप्स बहुत सुंदर है। कुछ विभागीय कैंपस शहर के अलग-2 स्थानों पर स्थित हैं, विशेषकर मनोविज्ञान विभाग पुल के उस पार पहाड़ी पर है। पुस्तकालय पास ही सड़क के उस पार। इसके ही सामने थोडे आगे सड़क के दूसरी ओर एक बहुमंजिले भवन में ह्यूमेनिटी एवं सोशल साइंस के विभाग मौजूद हैं।

यहाँ के लोग एक दम विंदास एवं खुलापन लिए दिखे, जो हम जैसे पुरातन पृष्ठभूमि के लोगों के लिए थोड़ा चौंकाने वाला नया अनुभव था। वस्त्रों के संदर्भ में महिलाओं में कोई संकोच का भाव नहीं दिखा, जैसे ये इनकी संस्कृति का हिस्सा हों। साथ ही इनकी सरलता-सहजता इस सबको स्वाभाविक बनाती है। भारतीयों के लिए इसमें समायोजित होने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ व्यक्ति परिवेश में ढल जाता है।


आज हमारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ पहला इंटरएक्शन था, जो यहाँ के अत्याधुनिक पुस्तकालय के एक कक्ष में हो रहा था। अध्यात्म को लेकर यहाँ के विद्यार्थियों में गहरी रुचि दिखी, क्योंकि यहाँ प्रचलित धर्म तक ही लोकजीवन सीमित है। अध्यात्म के प्रति अधिक चर्चा नहीं होती व इसे व्यैक्तिगत स्तर का विषय मानते हैं, जिस पर अकादमिक विमर्श खुलकर नहीं होता। यहाँ पत्रकारिता विभाग की इरेस्मस समन्वयक डॉ. अन्ना से रोचक संवाद हुआ। यहाँ की संस्कृति, लोकप्रचलन, रहन-सहन, जीवनशैली आदि की मोटा-मोटी जानकारी मिली।

साथ ही यहाँ की चाय की चर्चा जरुर करना चाहेंगे, जो कुछ सुखी जड़ी-बूटियों में उबलते पानी व कुछ शक्कर मिलाकर तैयार हुई थी। हम इसको यहाँ का विशिष्ट उपहार मानकर कुकीज के साथ गटकते रहे, हालाँकि स्वाद में यह हमारे बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। एसे अनुभव आगे भी होते रहे। ब्रेक के बाद यहाँ छात्र-छात्राओं से पुनः चर्चा होती है एवं ग्रुप फोटो के साथ आज का सत्र समाप्त होता है, इसके बाद हम मुख्य कैंपस में वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलते हैं, जिनसे पिछले कल हम उनकी थ्री-डी प्रिंटिंग लैब में मिल चुके थे।

वाइस रेक्टर, प्रो. मारेक मैको एक सज्जन, योगा अभ्यासी व्यक्ति हैं, जो पिछले दस वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनकी शाँत, धीर-गंभीर मुद्रा एक योगी का अहसास जगाती है और साथ ही इनकी सरलता, गंभीरता एवं प्रमुदता हमें कहीं गहरे प्रभावित करती है। अपने पद का अहंकार इन्हें कहीं छू तक नहीं पाया है, ये स्पष्ट झलकता रहा। यहीं आज का लंच इनके साथ होता है। शुरुआत अण्डे की स्लाइस से भरे सूप से होती है, जिसे देखकर हम चौंक जाते हैं, हमारे लिए यह मांसाहारी डिश बन गयी थी, जबकि ये इसे शाकाहारी मानते हैं। इसके स्थान पर दूसरी शाहाकारी डिश आती है और चाबल के साथ मिक्स वेज का लुत्फ लेते हैं, जो एक नया अनुभव रहा।

आज की शाम प्रो. क्रिस्टोफर के साथ बीती, जो यहाँ विजिटिंग प्रोफेसर हैं। प्रो. क्रिस्टोफर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय आ चुके हैं, और यहाँ के दो माह के प्रवास को अपने जीवन का रुपांतरणकारी अनुभव मानते हैं। ये अब पूरी तरह शाकाहारी हो गए हैं और परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री रामशर्माजी की दो पुस्तकों - हारिए न हिम्मत और मैं कौन हूँ, का पोलिश भाषा में अनुवाद कर चुके हैं।

इनके साथ शहर का भ्रमण करते हुए यहाँ के लोकप्रिय कॉफी हाउस पहुँचते हैं, जहाँ यहाँ की पारम्परिक कॉफी का स्वाद चखते हैं। इसमें विटामिन-सी से भरी खट्टी चैरी के दाने पड़े थे। चाय व कॉफी के साथ दूध डालने की परम्परा यहाँ नहीं है। यहाँ चाय हल्की, लेकिन कॉफी कडक रहती है, जिसमें शहद का उपयोग करते हैं। कॉफी के साथ चीज केक की व्यवस्था हुई, जिसमें शहद से सजावट दिखी। हवा में लटके फुलों से गमलों के बीच हमारा नाश्ता होता है, यहाँ के खान-पान व संस्कृति की चर्चा के साथ देवसंस्कृति की यादें ताजा होती हैं। यहाँ के प्राकृतिक परिवेश में विताए कुछ पल हमेशा याद रहेंगे।

बापसी में शहर के भव्य एवं विशाल चर्च के भी दर्शन किए, जहाँ ईसा मसीह के 14 फोटो दिवार में टंगे थे, जिसमें 14 ढंग से ईसा के आत्म-बलिदान के दृष्टांतों को दर्शाया गया था। रास्ते में पार्क में नॉबेल पुरस्कार विजेता, पोलिश साहित्यकार एवं पत्रकार हेनरिक सेन्कविच के दर्शन हुए व इनका परिचय पाया। इस तरह आज का दिन अकादमिक गतिविधियों से भरा रहा, जिसका शुभारम्भ ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन एवं समाप्न बिडगोश की पारम्परिक कॉफी के स्वाद के साथ हुआ।      बिडगोश में हमारा प्रवास अंतिम चरणों की ओर बढ़ रहा था। अगले ब्लॉग में प्रस्तुत है, पोलैंड यात्रा, भाग-8, अंतिम दिनों की कुछ दिलचस्प यादें।

मंगलवार, 26 मई 2020

यात्रा वृतांत – 6, पोलैंड का छिपा नगीना, तोरुण शहर


तोरुण के मध्यकालीन ऐतिहासिक शहर में...

आज का दिन हमारा बिडगोश शहर के पास के ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन का था। ज्ञात हो कि यह पोलैंड ही नहीं पूरे यूरोप का अपनी ऐतिहासिक विरासत को संजोए सबसे सुन्दर शहर माना जाता है। यह एक ऐसा सौभाग्यशाली शहर है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए ध्वंस एवं हवाई हमलों से बचा रहा। अतः इस की ऐतिहासिक इमारतों एवं समारकों का अपना विशिष्ट महत्व है, जो पौलेंड की मध्यकालीन संस्कृति की झलक देते हैं। अपनी ऐतिहासिक विशेषताओं के कारण तोरुण यूनेस्को द्वारा नामित विश्व की ऐतिहासिक धरोहरों में शुमार है, साथ ही प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक कॉपर्निक्स की जन्म एवं कर्मस्थली होने के कारण इस शहर का अपना महत्व है।
बिडगोश शहर से प्रातः नाश्ता कर हम तोरुण शहर के लिए निकल पड़ते हैं। काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी से काल्का मेडेम के पति प्रो. क्रिस्टोफ स्वयं ड्राईविंग कर रहे थे। वे कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। मितभाषी, स्वयं में मस्त-मग्न सरल स्वभाव के धनी प्रोफेसर साहब 100-120 किमी प्रति घंटे की गति के साथ गाड़ी को यहाँ की स्पाट, सुंदर सड़कों पर दौड़ा रहे थे। ट्रैफिक के नियम स्पष्ट होने के कारण शायद यहाँ ड्राइविंग सरल रहती होगी। गाड़ी की वायीं ओर ड्राईवर सीट हमारे लिए सदा की तरह नया अनुभव थी। रास्ता घने जंगलों, हरे-भरे खेतों एवं सुंदर गाँवों से होकर गुजर रहा था। बिडगोश शहर के बाहर निकलते ही विस्तुला नदी को पार करते हुए लगा जैसे गंगा नदी को पार कर रहे हैं।
यह नदी पोलैंड की सबसे लम्बी नदी है, जो पौलेंड के आर-पार 1047 किमी की यात्रा तय करते हुए बाल्टिक सागर में जा गिरती है। पौलेंड के दक्षिण की पर्वतश्रृंखलाओं से निकलने वाली इस नदी को पोलैंड की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान के रुप में देखा जाता है। तोरुण में पुनः इसके दर्शन होने वाले थे, जो इसके किनारे बसा हुआ ऐतिहासिक शहर है।
रास्ते में ही भव्य गिरिजाघर के दर्शन हुए, जो आधुनिक वास्तुशिल्प के साथ एक अलग ही नजारा पेश कर रहा था। एक घण्टे के सुखद सफर के बाद हम तोरुण के कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय के कैंप्स में पहुँच चुके थे, जहाँ हमें यहां की गाईड केरोलिना शहर का भ्रमण करवाती हैं। यहीं शहर में ही निर्मित ईँट से बने ऐतिहासिक भवन में प्रवेश से शुरुआत होती है, जिसके अन्दर नगरीय व्यवस्था की प्रारम्भिक प्रशासनिक एवं कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से बने भवन की जानकारी मिलती है।
इसी के मार्ग में गगनचूम्बी चार दिवारी में बने मध्यकालीन चर्च के दर्शन होते हैं। यहाँ मदर मेरी की प्रतिमा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे माँ भगवती के ही दर्शन हो रहे हों और प्रेम के प्रतीक भगवान ईसा मसीह की भव्य प्रतिमा बहुत सुंदर लग रही थी।
दिवार में संत भाई लारेंस के चित्र हमें इनके अगाध प्रभु प्रेम की याद दिलाते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा इन पर लिखी पुस्तक – भाई लारेंस के पत्र सहज ही स्मरण आईं, जो हर आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए पठनीय है। लगा सभी धर्म बाहरी रुप में भिन्न होते हुए, मूल भाव तो सबके एक ही हैं, जिन्हें एक आध्यात्मिक पिपासु होकर, खुले मन से विचार कर ह्दयंगम किया जा सकता है।
यहीं चौराहे पर खगोलविद कोपर्निक्स का समारक शहर का विशिष्ट आकर्षण लगा, जिसके सामने पर्यटकों की फोटो खिंचाने की होड़ लगी थी, हम भी एक यादगार फोटो के साथ आगे बढ़ते हैं। शहर के ही दूसरे छोर पर कोपर्निक्स की जन्म स्थली के भी दर्शन होते हैं, जो इनके समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हैं व अब यह भव्य भवन संग्रहालय के रुप में विकसित एवं संरक्षित है। मालूम हो कि कॉपर्निक्स ने सबसे पहले यह बताने की कोशिश की थी कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द घूमिती है, जो प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था। इससे पहले कि इनको कोई सजा होती, कॉपर्निक्स अपना शरीर छोड़ चुके थे।
यहीं चौराहे के उस पार एक स्टील का गधा बना हुआ दिखा, जिसके चारों ओर काफी भीड़ लगी थी। पता चला कि यह यहाँ की मध्यकालीन न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा था, जब अपराधियों को इसके ऊपर कई घण्टों बैठने की सजा दी जाती थी। इसकी पीठ पर कुछ सेमी ऊँची पट्टी लगी हुई है, जिस पर बैठना निसन्देह रुप में अपराधियों के लिए एक कष्टदायक अनुभव रहता रहा होगा।
यहाँ के ऐतिहासिक भवनों को पार करते हुए हम जिंजर-कूकीज की सजी दुकानों को देखते हुए आगे बढ़ते हैं, जिन्हें यहाँ के पारम्परिक आटे, शहद एवं विशिष्ट मसालों के साथ बनाया जाता है।
यह परम्परा चौदहवीं सदी से चल रही है, अतः तोरुण शहर की जिंजर कुकीज पौलेंड में विशेष दर्जा रखती हैं। यूरोप के व्यवसायिक मार्ग पर स्थित होने के कारण तोरुण की ये कूकीज पौलेंड एवं यूरोप के दूसरे हिस्सों में भी निर्यात होती रही हैं व हो रही हैं।
विस्तुला नदी भी शहर का एक प्राकृतिक आकर्षण है, जिसके तट पर यह बसा हुआ है। शहर को बाढ़ एवं बाह्य हमलों से संरक्षण देती ईंट की मोटी चार दिवारी को पार करते ही हम बिस्तुला नदी के सामने खड़़े थे। नदी का तट बहुत सुन्दर एवं भव्य लग रहा था, जिसमें छोटी नाव एवं बड़े स्टीमर चल रहे थे। स्पष्ट था कि नदी भी यहाँ यातायात का एक प्रमुख साधन है, जिसके माध्यम से व्यापार की बात हम कर चुके हैं।
शहर के एक कौने पर हमें झूकी मीनार के दर्शन होते हैं, जिसे पीसा की झुकी मीनार से भी अधिक प्राचीन माना जाता है औऱ लोग यहाँ खड़ा होकर स्वयं के पापी एवं पुण्यात्मा होनी की परीक्षा करते हैं। यदि मीनार के साथ खड़े होकर कुछ सैकण्ड टिककर खड़े हो सके तो पुण्यात्मा अन्यथा पापात्मा। इस परीक्षा में कोई विरला ही पास होता हो।
शहर का चप्पा-चप्पा मध्यकालीन वास्तुशिल्प की सुंदर स्मृतियों को समेटे हुए एक अलग ही अनुभव दे रहा था। यहाँ के गोइथिक शैली में बने भवन एवं एतिहासिक इमारतें अपनी अलग-अलग कहानी व्याँ कर रहे थे।
इसकी पारम्परिक साज-सज्जा में घर-आंगन एवं चौराहे पर रंग-विरंगे फूलों के गमलों की सजावट प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़़ी भव्य सांस्कृतिक परम्परा का अहसास दिला रही थी।
यहीं बीच में देशी जायके वाले रुबरु रेस्टोरेंट में हमारा दिन का भोजन होता है, जहाँ काल्का मेडेम और उनके पतिदेव प्रो. क्रिस्टोफ हमारा इंतजार कर रहे थे। रुचि के अनुकूल उनके लिए नोन-वेज भोजन आता है और हम शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।
यह बिडगोश के रुबरु होटल की ही श्रृंखला का विस्तार था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग चला रहे थे, लेकिन कुक नेपाल के भाई रोमेश थे, जिनसे मिलकर आत्मीयता का अहसास हुआ।
भोजन के बाद हम यहाँ की स्थानीय दुकानों से स्मृति स्वरुप कुछ उपहार खरीदते हैं, जो जलोटी में उचित दाम पर हमें मिले। गाइड केरोलिना के साथ भावभरी विदाई के साथ तोरुण के ऐतिहासिक शहर का यादगार सफर पूरा होता है। हालाँकि इतने कम समय में इस ऐतिहासिक शहर का एक विहंगावलोक ही हो सकता था, इसके विस्तार से दर्शन को भविष्य के लिए छोड़, हम हरे-भरे सुंदर मार्ग से होते हुए बापिस बिडगोश शहर आते हैं, जहाँ आकादमिक एक्सचेंज के कार्यक्रम सम्पन्न होने थे, जिसे आप अगली ब्लॉग पोस्ट, पोलैंड यात्रा, भाग-7 अकादमिक संवाद एवं पारंपरिक कॉफी का स्वाद, में पढ़ सकते हैं।

बुधवार, 20 मई 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बचपन का पर्वत प्रेम और ट्रैकिंग एडवेंचर, भाग-2


पहाड़ों के बीहड़ बन की गहराईयों से पहला गाढ़ा परिचय
प्रातः चाय-नाश्ता कर हम बीहड़ वन की गहराईयों को एक्सप्लोअर करने के लिए आगे बढ़ते हैं। गेस्ट हाउस से पीछे शाड़ी नामक ढलानदार थोड़े खुले क्षेत्र से होकर गुजरते हैं, जहाँ जंगली पालक बहुतायत में लगी थी। जरुरत पड़ने पर इसका चाबल या रोटी के साथ भोजन में बेहतरीय प्रयोग किया जा सकता था। अब देवदार का जंगल घना होता जा रहा था। थोड़ी देर में एक पहाड़ी नाला आता है, इसको पार कर हम दूसरी ओर एक ढलानदार मैदान की ओर चढ़ाई करते हैं। यहाँ भांड पात्थर नामक स्थान पर एक बड़ी सी समतल चट्टान पर चढ़कर यहाँ का सुंदर नजारा लेते हैं। यहाँ देवदार से घिरे बुग्याल में चम्बा के खजियार और काश्मीर की घाटियों की झलक आ रही थी। यह बुग्याल भेड़-बकरियों के चरने के लिए एक आदर्श स्थल था।
यहीं पर सत्तु-गुड़ का हल्का नाश्ता लेते हैं। यहाँ ठण्ड इतनी थी कि हाथ की ऊँगलियाँ जैसे जम रही थी। नाश्ते के बाद हम वुग्याल के पार दाएं ऊपर की ओर जंगल में प्रवेश करते हैं। यह थोड़ा चट्टानी क्षेत्र था, जहाँ आगे देवदार के पेड़ के दो-तिहाई ऊँचाई को छूते दो समानान्तर चट्टानों को लेकर एक चूल्हानुमा आकृति हमें रोमांचित करती है, जो पाँडू चूल्हा नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि पाण्डव अज्ञातवास के दौरान यहाँ से गुजरे थे और यह उनका बनाया हुआ चूल्हा है, जिसको पीछे से जाकर चढ़कर इसकी समतल चट्टानों पर बैठकर इसका अनुभव लेते हैं। अनुमान लगाते रहे कि पाण्डव कितने ताकतवर रहे होंगे, साथ ही कितना ऊँचे भी। 
फिर हम नीचे उतरे और भांड़ पात्थर पहुँचे। यहाँ से तिरछी ऊँचाई पर ऊपर देऊधाणा स्थल पड़ता है, जो भेड-बकरियों के विश्राम के लिए अनुकूल स्थान माना जाता है, जहाँ फुआल (गड़रिए) अपने झुंडों के साथ रहते हैं। आज समय अभाव के कारण वहाँ पहुँचना संभव नहीं था। भाण्ड पात्थर से दक्षिण की ओर सीधा रास्ता माऊट नाग नामक बीहड़ एकाँत में स्थित तीर्थ स्थल एवं वन्य संरक्षित इलाके से होकर
आगे मुख्य मार्ग से मिलता है और सीधे घाटी के छोर पर पहाड़ की चोटी पर स्थित प्रख्यात बिजली महादेव मंदिर तक जाता है। हम इसके ठीक बिपरीत उत्तर दिशा की ओर सीधी पगडंडी के सहारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में यहाँ भालूओं के जमीन को खोदने के निशान दिखे। हालाँकि ये ताजा नहीं थे। मालूम हो कि भालू जड़ी बूटियों का भी शौकीन होता है और इनकी जड़ों को खोदकर खाता है। शहद उसका पसंदीदा भोजन माना जाता है। जंगल में उगने वाले कैंट, एक तरह के जंगली बागूकोशा के पक्के मीठे फलों को भालू पड़े चाव से खाता है। खैर हम बीहड़ बन में आगे बढ़ रहे थे, पूरी साबधानी के साथ, कुछ हल्ला व शौर करते हुए, जिससे कि यदि कोई भालू कहीं हो तो दूर भाग जाए।
रास्ते में उबल्दा स्थान आता है, जहाँ जमीं से फूटता पानी का चश्मा किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था।
यह शीतल एवं निर्मल जल उबाल के साथ बाहर निकल रहा था, जिस कारण इसका नाम ऐसा (उबल्दा) पड़ा। भादों की बीस (प्रायः सितम्बर माह का पहला सप्ताह, जब ये वुग्याल जंगली फूलों के सजे होते हैं) को लोग विशेषरुप में यहाँ पुण्य स्नान के लिए आते हैं। इसके जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है और दिव्य भी। यहाँ पर हल्का नाश्ता कर हम आगे बढ़ते हैं। ऐसे पहाड़ों में ट्रेकिंग करने वालों का यह आम अनुभव रहता है कि यहाँ का जल इतना सुपाच्य एवं औषधीय होता है कि भूख बहुत जल्द लगती है, जठाग्नि जैसे अपने चरम पर प्रदीप्त होती है और कुछ भी खाओ जैसे तुरन्त पच जाता हो।
आगे रास्ते में दूंअधड़ा थाच पड़ा, जहाँ लकड़ी व घास की झौंपड़ी में ग्वाले अपने मवेशियों के साथ रह रहे थे। थोड़ा नीचे आगे तंदला सोर (सरोवर या ताल) पड़ता है, जिसके बारे में मान्यता है कि इसके तल पर कोई पत्ता तक नहीं गिरता। चिडिया गिरते पत्तों के तुरंत उठा लेती है। हम समय अभाव के कारण इसके भी दर्शन नहीं कर पाए।
हम सीधा आगे बढ़ रहे थे। आगे पटोऊल स्थान हमारा आज का गन्तव्य स्थल था, जहाँ नीचे फूटा सोर (सरोवर) पडता है।
मान्यता है कि भगवती दशमी वारदा (इलाके में मान्य दुर्गा माता का कन्या रुप) ने अपनी कनिष्ठिका उँगली से इसको फेर कर कभी भयंकर सूखे का निवारण किया था और यहाँ पर अधिकार जमाए असुर का बध किया था। यहाँ आज भी दलदली सरोवर बीच में टापू का आकार लिए हए है। यहाँ से हम पीछे पहाड़ के सबसे ऊचे बिंदु पर चढ़ जाते हैं, जहाँ से पीछे की मणिकर्ण घाटी के दर्शन प्रत्यक्ष थे। नीचे पार्वती नदी बह रही थी, और ऊपर घाटी में क्षाधा-बराधा और दूसरे गाँव उस पार दिख रहे थे। यह हमारे लिए एक अदभुत नजारा था, क्योंकि पहाड़ के शीर्ष से क्या दिखता होगा, यह आज समझ आ रहा था। आसमान तक जाने का तो कोई रास्ता संभव नहीं दिखा, लेकिन पीछे दूसरी अनेकों घाटियों के दर्शन और सुदूर हिमाच्छादित विराट पर्वतश्रृंखलाओं के मनोरम नजारे हमें रोमाँचित कर रहे थे।
यही हमारा आज का गन्तव्य स्थल था और आज तक बचपन की वाल जिज्ञासाओं का समाधान भी। इसके आगे रास्ता रूमसू टॉप से होकर चंद्रखणी पास पहुँचता है और आगे मलाना गाँव (विश्व का सबसे प्राचीन लोकतंत्र) पड़ता है। अब तक दोपहर हो चुकी थी। हम यहीं से बापिस हो जाते हैं, उबल्दा पहुँचते हैं और शॉर्ट कट से नीचे मुख्य मार्ग में पहुँचते हैं और कच्चे मोटर रुट के साथ नग्गर-बिजली महादेव कीसड़क पर आगे बढ़ते हैं। 
 रास्ते में रेउँश गेस्ट हाउस मिलता है, जहाँ हम रात को रुके थे तथा सुबह बीहड़ वन को एक्सप्लोअर करने का अभियान शुरु किए थे।
    इसके आगे रास्ते में चट्टानी पहाड़ को काटकर बनाए रास्ते को देखते हैं, जहाँ गुफानुमा स्थलों में नाईट हाल्ट की कामचलाऊ व्यवस्था दिखी। इस राह की खासियत देवदार के साथ रई-तोष के घने जंगल लगे एवं साथ में जल की प्रचुरता, जो सीधे नीचे सेऊबाग नाले को समृद्ध करते हैं, जिसका जिक्र हम पिछले कई ब्लॉग्ज में विस्तार से कर चुके हैं।
हाइणी थाच स्थान से हम मुख्य मार्ग से हटकर पगडंडी के सहारे नीचे की और बापसी के रास्ते चल देते हैं। सूर्य भगवान लगभग अस्त हो रहे थे। यहाँ हम सीधी धार (रिज) की उतराई भरी कच्ची पगडंडियों पर तेज कदमों के साथ नीचे उतर रहे थे। लक्ष्य अब एक ही था, अँधेरा होने से पहले घर पहुँचना। रास्ते में काली जोनी व मेंह स्थलों को पार करते हुए दाड़ू री धारा स्थान पर पहुँचते हैं। अभी भी यहाँ से नीचे गाँव-घर के दर्शन नदारद थे। यहाँ से हाका देने री धारा स्थल को पार कर नीचे छाऊँदर नाला के टॉप पर पहुँचते हैं, जहाँ से अब नीचे गाँव-घर के दर्शन हो रहे थे।
लग रहा था कि अब हम लोग घर पहुँच ही गए। कुछ मिनटों में सेऊबाग नाला के समानान्तर चट्टानी उतराई के साथ केक्टस के जंगल को पार करते हुए हनुमान मंदिर पहुँचते हैं। फिर सीधे रास्ते अपने-अपने घर की ओर कूच करते हैं। 
सफर हालाँकि थका देने वाला था, लेकिन आज जितने सवालों के जबाब मिल रहे थे, वे महत्वपूर्ण थे। मन की कई जिज्ञासाएं शांत हो गईं थीं। पहाड़ों के प्रति रूमानी भाव के साथ एक नयी समझ, एक व्यवहारिक अंतर्दृष्टि विकसित हो चुकी थी। 
    ऐसा ही बाद का एक ट्रैकिंग एडवेंचर अपने भाईयों व मित्रों के साथ हमें याद है, अप्रैल या मई माह के दिन थे, जब ऊँचाईयों में हल्की बर्फ जमीं थी। इस टूर में पांडू चूली के पास बर्फ में भालू के ताजा निशां दिखे थे। इस बार हमारा शेरु कुत्ता भी साथ में था। भालूओं के सामना होने पर इनसे भिड़ने की तैयारी हमारी अधूरी थी, अतः हम सब लोग दबे पाँव बापिस हट गए थे, जो हमारा समझदारी भरा कदम था।
आगे दूंअधड़ा के पास बर्फ इतना अधिक थी कि हम आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं थे, बार-बार ढलान में फिसलने का खतरा बढ़ रहा था और इसके साथ यहाँ भी भालूओं के पंजों के ताजा निशां मिल चुके थे और हम बापिस आ गए। लेकिन इस बार हम उबल्दा से मुख्य मार्ग में न उतर कर सीधा भाण्ड पात्थर से होकर माऊट नाग पहुंचते हैं,
इसके संरक्षित क्षेत्र में फूलों से सजे बुग्याल को पार करते हुए नग्गर-बिजली महादेव सड़क पर उतरने के बाद बिजली महादेव तक गए थे। बापसी में हाइणी थाच से होते हुए इस बार अपने पैतृक गाँव गाहर से होकर नीचे उतरे थे। यहाँ से गाँव के दर्शन तो नदारद थे, लेकिन कुल्लू-ढालपुर मैदान के विहंगम दर्शन हो रहे थे और पीछे लग वैली और मंडी साईड की पर्वतश्रृंखाएं दिख रही थीं। गाहर गाँव से हम फिर सेऊवाग गाँव तक पैदल आधा-पौन घंटे में पहुँचे थे। (आज पक्की सड़क बन चुकी है, जिसमें मात्र 10-15 मिनट में सेऊबाग से गाहर गाँव का रास्ता तय हो जाता है)
हर यात्रा हमें पहाड़ों के प्रति और गहराई में उतार रही थी। घरवालों, पड़ोसियों एवं गांव वालों के सवाल के चिरपुरातन प्रश्न का जबाब अब भी हमारे पास नहीं था कि इन पहाड़ों में ऐसा रखा क्या है, जो छुट्टियों में सीधे यहाँ घूमने चल देते हो। लेकिन नियति हमें किसी निर्धारित गन्तव्य की ओर ले जा रही थी। काल के गर्भ में पकती इस खिचड़ी का स्वरुप कुछ वर्षों बाद स्पष्ट होता है, जब अपनी बीटेक की पढ़ाई पूरा करने के बाद हमें मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान में प्रवेश मिलता है और यहाँ से अनुभवी प्रशिक्षकों के कुशल मार्गदर्शन में एडवेंचर और बेसिक कोर्स करने का सुअवसर मिलता है, जिसकी रोचक, रोमाँचक एवं कहीं-कहीं रोंग्टे खड़े करने वाली दास्ताँ हिमवीरु के अगली पोस्टों में शेयर होती रहेगी, जिसका पहला भाग आप नीचे की पोस्ट में पढ़ सकते हैं।
 
 
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चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...