बुधवार, 20 जून 2018

यात्रा वृतांत – हरियाली माता के देश में, भाग-1



गौचर से हरियाली माता, जसौली तक का सफर
गोचर की सुबह – गोचर के बारे में जितना पढ़ा व सुना, उसके अनुसार इसके दर्शन की जिज्ञासा रात को अंधेरे के कारण अधूरी ही रही। गढ़वाल मंडल के पीछे इसका मुख्य आकर्षण, वृहद मैदान फैला है। अंधेरी रात की कृत्रिम रोशनी में पिछले कल मैदान की परिक्रमा कर चुके थे, लेकिन चारों ओर खड़ी ध्यानस्थ पहाडियां व इनमें टिमटिमाते घरों के दर्शन दिन के उजाले में बाकि थे।
इसलिए प्रातः स्नान-ध्यान कर इसके दर्शन के लिए निकल पड़े। इसकी परिक्रमा करते हुए बीच रास्ते के पुल पार करते हुए मैदान में आ पहुँचे। सुबह की रोशनी में हल्की ठंड़ के साथ मौसम बहुत खुशनुमा लग रहा था। मैदान में चरती हुई गाय व बछड़ों के झुंड को देखकर स्थान के नाम - गौचर का आधार समझ आया। नन्हें बछड़ों को पकड़ने व लाड़-प्यार की नाकाम कोशिश करते रहे। ये काफी शर्मिले व फुर्तीले निकले। इनके कुछ यादगार फोटो के साथ बापिस गेस्ट हाउस आ गए।
     फिर सुबह का नाशता कर अगले पड़ाव की ओर चल दिए।
नागरसु से ऊपर दायीं ओर – गोचर से रुद्रप्रयाग के रास्ते पर कुछ ही दूरी पर नागरसु आता है, यहाँ से मुख्य मार्ग से लिंक रोड़ बायीं ओर मुड़ता है। यहाँ से हमारी मंजिल लगभग 35 किमी पर थी, जगत सिंह जंगलीजी का मिश्रित वन, जिसके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और यहाँ आने की प्रबल इच्छा विगत दो-तीन साल से थी, किंतु संयोग आज बन रहा था।
इस घाटी के बारे में हमारे पत्रकार मित्र बृजेश सत्तीजी से चर्चा के आधार पर स्पष्ट था कि यह विशेष घाटी है, जिसमें प्रकृति-पर्यावरण को समर्पित विश्व का एक मात्र मंदिर, हरियाली देवी पड़ता है। रास्ते में पग-पग पर हरे-भरे वृक्षों से सम्पन्न वन क्षेत्र व रास्ते की हरियाली के दिग्दर्शन कर, घाटी की विल्क्षण्ता की झलक रास्ते भर पाते रहे।
     नागरसु से ऊपर मुड़ते ही सीढ़िनुमा खेतों से होकर सफर बहुत सुखद लगा। ऊपर चढ़ते हुए एक बिंदु पर गोचर के दर्शन होते हैं, तो राह में अलकनंदा नदी व पृष्ठभूमि में बर्फ से ढ़के हिमालय के दर्शन। कुछ आश्चर्य तो बहुत कुछ जिज्ञासा भरे मन से सारा नजारा निहारते रहे।
आगे राह में उछल-कूद कर सड़क को पार करते लंगूरों के दल को देखकर अच्छा लगा। शांत, सज्जन व शर्मिली प्रकृति के लंगूर प्रायः एकांत-शांत जगहों में ही विचरण करते हैं। इनके दर्शन मात्र से प्रायः ऐसे दिव्य भावों का संचार होता है।
     रास्ते में प्रकृति की गोद में इतने सुंदर व नीरव परिवेश में भी कुछ यात्रियों को मोबाईल के ईयर फोन को कान में लगाकर संगीत में खोए देख ताज्जुक हुआ। प्रकृति के दिव्य संगीत के बीच भी लौकिक संगीत के प्रति अनुराग, हमारी समझ से परे था।
खैर आगे का सफर तंग सड़क से होकर गुजर रहा था और नीचे सीधी गहरी खाई और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चट्टानों को काटकर बनाए गई मोड़दार सड़क। ऐसे में पहाड़ी चालकों के ड्राइविंग कौशल की दाद देनी पड़ेगी, जो इतने संकरे व खतरनाक रास्ते में भी सरपट सफाई के साथ सफर को सहज व खुशनुमा बनाए रहते हैं।

     रास्ते में कई गाँव आए जिनकी छोटी-छोटी दुकानें, ढावे, खेत व इनके संग प्रवाहमान लोकजीवन को नजदीक से निहारते रहे। फल-सब्जी का चलन यहाँ कम दिखा। केले, नाशपाती, आड़ू आदि के फलदार पेड़ दिखे। सब्जी को कैश क्रॉप के रुप में उत्पादन का चलन भी यहाँ कम दिखा, जबकि जल की प्रचुरता के चलते इसकी बहुत संभावना यहाँ लगी। 
रास्ते में बीच-बीच में बाँज के जंगलों को देखकर बहुत अच्छा लगा। ये बाँज के पेड़ ही तो पहाड़ी जीवन व इकॉलोजी का आधार हैं। इस सदावहार वृक्ष से ठोस लकडी, ईंधन, चारा और आवश्यक नमी मिलती है।

इसके जंगल के आसपास जल स्रोत का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। रास्ते में पग-पग पर झरते झरनों, नौले, व नल के रुप इस क्षेत्र में जल की प्रचुरता एक सुखद अहसास दिलाती रही। इस घाटी की हरियाली के बीच का सफर गढ़वाल के नेशनल हाईवे के साथ सफर से एकदम अलग अनुभूति दे रहा था।
     रास्ते में सामने हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं लुकाछिपी करती रही। इनके दूरदर्शन रास्ते भार मन को रामाँचित करते रहे। इन पर्वतों के नाम पता करने पर चला कि कुछ बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम के इलाके की चोटियाँ हैं और एक चौखम्बा पर्वत निकला।
हरियाली माता – इन्हीं भावों के साथ हम लगभग दो घंटे के सफर के बाद आखिर हम
अपने पड़ाव पर पहुँच चुके थे।
 
यह हरियाली माता का मंदिर था, जिसके दर्शन का संयोग बापसी में बनता है। यहाँ से कुछ सौ मीटर की दूरी पर हम सड़क से नीचे उतरते हुए अपने गन्तव्य पर पहुँच चुके थे, जो था जगत सिंह जंगलीजी का मिश्रित वन। (क्रमशः जारी...)
 
यात्रा का अगला हिस्सा आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - जगतसिंह जंगलीजी के मिश्रित वन में।



गुरुवार, 31 मई 2018

यात्रा वृतांत – जब आया बुलावा बाबा तुंगनाथ का, भाग-2


अगस्त्यमुनि से तृतीय केदार तुंगनाथ का रोमाँचक सफर 



चोपता की ओर अगस्त्यमुनि से आगे रास्ते में सुदूर केदारनाथ साइड़ के हिमाच्छादित पर्वतों के दर्शन श्रद्धापूरित रोमाँच के भाव जगा रहे थे। रास्ते में ही पहाडों की गोद में विशेषकर ऊँचाईयों में बसे गाँवों व घर को देखकर हमेशा की तरह रोमाँच हो रहा था कि लोग इस ऊँचाई पर कैसे रहते होंगे, प्रकृति की नीरव गोद में यहाँ जीवन कितना शांत व निश्चिंत होता होगा। 
रास्ते में ही बारिश का अभिसिंचन शुरु हो चुका था। हम इसे प्रकृति के स्वागत का एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस केदारनाथ की राह पर आगे बढ़ रही थी। बीच में रास्ता दाईं ओर ऊखीमठ की ओर मुड़ जाता है। 

पहाड़ों का असली सौंदर्य यहाँ से शुरु होता है। दूर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं लुका छुपी करती हुई सफर के आनन्द को बढा रही थीं। पहाड़ काटकर बनाए गए सीढ़ीनुमा खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। इसमें उपजे शुद्ध आर्गेनिक अन्न, फल व सब्जियाँ कितने स्वादिष्ट व पौष्टिक होते होंगे, कल्पना कर रहे थे। लेकिन  इनमें खेती कितना श्रमसाध्य होती होगी, इसका भी अनुमान लगा रहे थे। 
रास्ते में कई छोटे गाँव, ढावे व कस्वों को पार करते हुए अब हमारा सफर घने जंगल में प्रवेश कर चुका था। हम बीच में ही उखीमठ को पार कर चुके थे। 
मालूम हो कि ऊखी मठ क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। लगभग 4300 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह तीर्थ रुद्रप्रयाग से 41 किलोमीटर की दूरी पर है। सर्दियों के दौरान केदारनाथ और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की जाती है। मान्यता है कि उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन की गयी थी। उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा।
 अब हम उखीमठ से चोपता की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में लंगूरों के झुंड के दर्शन यहाँ के एकांतिक एवं सघन वन परिवेश का संदेश दे रहे थे। बाबा लोग पैदल ही यात्रा पर अलमस्त अंदाज में धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। रास्ते में पग-पग पर जल स्रोत की प्रचुरता के दर्शन बहुत सुखद अनुभूति देते रहे, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इतने सघन बनों नें जल के स्रोत्र फूटना स्वाभाविक है। 


सफर के साथ रास्ते में देवदार व बाँज के पेड़ हिमालयन ऊँचाइयों में प्रवेश का शीतल अहसास दिला रहे थे। लो, अब तो बढ़ती ऊँचाईयों के साथ मार्ग में लम्बी व मोटी हरि पत्तियों बाले बुराँश के पेड़ भी सड़क के दोनों ओर हमारा स्वागत कर रहे थे। ड्राइवर के साथ केविन में बैठे होने के कारण रास्ते के सौंदर्य का भरपूर आनन्द लेते रहे और मोबाइल में यथासम्भव हर सुंदर दृश्य को केप्चर करते रहे।
चोपता से ऊपरइस तरह हम अंततः चोपता पहुँच जाते हैं। मालूम हो कि इस क्षेत्र को उत्तराखण्ड का मिनी स्विटजरलैंड कहा जाता है। इस राह से गुजरा यात्री इस उपमा के अर्थ को भली भांति समझ सकता है। चोपता की राह में सड़क के किनारे कुछ समतल स्थलों पर तम्बू लगे मिले। पता चला कि यहाँ ट्रेकिंग करने वालों के लिए कैंप्स में ठहरने की व्यवस्था रहती है। यह भी मालूम हो कि चोपता ही उत्तराखण्ड का एकमात्र बुग्याल जड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोटर मार्ग बीचों-बीच से होकर जाता है और यात्री गाडियों में बैठे-बैठे सफर का भरपूर लुत्फ उठाते हुए जंगल पार करते हैं।
चोपता में ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी। स्वाटर, जैकेट व टोपी मफलर सब बाहर निकल चुके थे। पूरी तरह से मुस्तैद होकर काफिला चोपता में बस से उतरकर तृतीय केदार तुंगनाथ की ओर बढ़ चलता है। यहाँ से आगे लगभग 4 किमी ट्रैकिग करनी थी।
मंजिल की ओर काफिले में कई वैरायटी के यात्री थे। कुछ एक दम फिट व रफ टफ, तो कुछ औसतन व कुछ पहली बार पहाड़ में पधारे और वह भी 1000 फीट से अधिक ऊँचाई पर। सो अनुमान था कि सभी एक साथ आगे नहीं बढ़ पाएंगे व सभी तुंगनाथ पहुँच जाए, यह भी उम्मीद नहीं थी। अतः जो जहाँ तक हो आया, बहुत है, रास्ते में हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य़ व दिव्य स्पर्श की एक झलक तो मिल ही जाएगी, आखिर सारा क्षेत्र तो बाबा का ही है। इस भाव के साथ काफिला आगे बढ़ता है। 

तुंगनाथ का इतिहास - मालूम हो कि तुंगनाथ पंचकेदार में तीसरे नम्बर पर आता है और यह विश्व का सबसे अधिक ऊँचाई (12073 फीट) पर स्थित शिवलिंग है और ये केदारनाथ और बद्रीनाथ के ठीक बीच में स्थित है। यह मंदिर लगभग १,००० वर्ष पुराना माना जाता है। मान्यता है कि पाण्डवों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बनाया गया था, जो कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार के कारण पाण्डवों से रुष्ट थे। मान्यता प्रसिद्ध है कि इस मंदिर में भगवान शिव की भुजा व ह्दयक्षेत्र की पूजा होती है। 


तुंगनाथ के बर्फानी दर्शन सफर के दौरान बाबा की कृपा कुछ ऐसी रही कि प्रकृति यात्रियों के सर्वथा अनुकूल रही। चार कि.मी. की कहीं ढलानदार तो कहाँ कुछ खड़ी चढाई पथिकों के उत्साह, जीवट व साहस की भरपूर परीक्षा ले रही थी। 
तुंगनाथ पहुँचने के पूर्व ही सड़क के किनारे जमी बर्फ के दर्शन के साथ ही जैसे थके यात्रियों की सारी थकान छूमंतर हो जाती है, एक नयी ऊर्जा का संचार होता है और मजेदार बात यह रही कि तुंगनाथ पहुँचने पर समूह का स्वागत अभिसिंचन बर्फ के फाहों के साथ होता है। 

मई माह में भी रास्ते के दोनों ओर जमी बर्फ और साथ में बर्फवारी के  दर्शन, सब बाबा की अजस्र कृपा व इस सीजन का एक विरल संयोग था। बर्फानी बाबा की उपस्थिति प्रत्यक्ष अनुभव हो रही थी। विधि विधान से पूजा के साथ काफिला मंदिर के बाहर प्रागण में आता है और यहाँ से हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाओं के क्षितिज तक पसरे स्वर्गोपम सौंदर्य का विहंगावलोकन करता है। 
मार्ग में राज्य पक्षी मोनाल के दर्शन हुए, जो इस इलाके में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रायः इनके दर्शन तीर्थयात्रियों को होते रहते हैं, हालाँकि इनको कैमरे में केप्चर कर पाना काफी दुष्कर रहता है, क्योंकि ये स्वभाव से बहुत शर्मीले और फुर्तीले होते हैं।

प्रख्यात चंद्रशिला यहाँ से 2-3 किमी आगे है, लेकिन समय की सीमा में यहाँ का सफर सबके साथ संभव नहीं था। दो तीन टुकड़ियों में काफिला बारी-बारी बाबा के दर्शन कर यहाँ के दिव्य एवं रोमाँचक परिवेश का आनन्द लेता है।
मंदिर के कौने में अंधेरे को आलोकित करता अखण्ड दीपक तमसो मा ज्योतिर्गमय के दिव्य भाव को जगा रहा था।
मंदिर के बाहर सभी यथासंभव फोटोज व सेल्फी के साथ कुछ यादगार पलों को केप्चर करते हैं। यहाँ से सुदूर बर्फ से ढ़की चोटियाँ व नीचे घाटी के दर्शन अवर्णनीय अनुभव रहे
, जो ताऊम्र स्मरण करने पर चित्त को आल्हादित करते रहेंगे। खासकर जो पहली बार जीवन में बर्फ के दर्शन किए, उनके लिए यह अनुभव दुवारा आने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
राह में स्वास्थ्य कारणों से आगे न बढ़ पाने वालों के साथ भी बाबा की कृपा एवं प्रकृति का उपहार अपने ढ़ंग से बरसता रहा। पीछे मुड़ने का कोई कारण नहीं था, सो रास्ते में थोड़ा-थोड़ा विश्राम करते हुए आगे सरकते रहे। मार्ग में नीचे घाटी के पार सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं पर बरसते काले-काले बादलों का दृश्य दर्शनीय था। 
बापिस आ रहे यात्रियों से पता चला कि पास में ही एक टी-स्टाल है, सो हिम्मत कर वहाँ तक पहुँचने की कोशिश में धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। मोड़ से इसकी झलक पाकर खुशी का ठिकाना न रहा कि इसके नीचे एक बड़ा बुगियाल(घास का पहाड़ी मैदान) पसरा है। सो ट्रेकिंग मार्ग से उतर कर बुगियाल के मखमली गलीचे में चहल कदमी करते हुए प्रकृति की गोद में विचरण का आनन्द लेते रहे। 
कभी घास पर लेटकर तो कभी पत्थर के आसन पर बैठकर, तो कभी चट्टानों पर खड़े होकर, तो कभी चट्टानी विस्तर पर लेटकर। रास्ते में इस सीजन में भी पीले रंग के जंगली फूलों का गलीचा बिछा मिला। हालाँकि इस क्षेत्र में हर तरह के रंग-विरंगे फूलों के दर्शन अगस्त-सितम्बर माह में अपने चरम पर होते हैं, जो यहाँ जड़ी-बूटियों के फूलने का सीजन होता है। जबकि जनवरी-फरवरी माह में यह सारा भूक्षेत्र बर्फ की मोटी चादर औढ़े शीतनिद्रा की अवस्था में होता है।

सामने प्रत्यक्ष खड़ी हिमाच्छादित चोटियां हिमालय के आंचल में विचरण का गाढ़ा अहसास करा रही थी। धीरे-धीरे ये हिमाच्छादित पर्वत बादलों से ढक गए थे और स्पष्ट रुप में वहाँ ऊँचाईयों में बर्फवारी शुरु हो चुकी थी, जिसकी फुहार जल्द ही यहाँ भी हल्की बुंदाबांदी के रुप में शुरु हो चुकी थी और वातावरण में ठंड़क बढ़ रही थी। 
ठंड़ से निजात पाने के लिए समूह सड़क के किनारे बने टी-स्टाल में शरण लेता है।
 तन में ढके हुए कपडे कम पड़ रहे थे। ठंड़क सीधे अंदर बदन में चुभ रही थी व ठंड़ के कारण कंपकपी छूट रही थी। ठंड़ से कुछ राहत पाने के लिए टी-स्टाल में जल रहे चूल्हे की शरण में जाते हैं, गर्म चाय व मैग्गी के साथ कुछ राहत महसूस करते हैं ओर आगे गए काफिले की बापसी का इंतजार करते हैं। 

खाली समय में यहाँ की अलग-अलग लोकेशन के साथ कुछ यादगार फोटोज कैप्चर करते रहे। और जब पता चलता है कि काफिला ऊपर से बापिस आ रहा है तो धीरे-धीरे बापिस चोपता की ओर चल पड़े।



मार्ग में बुराँश फूल के वृक्ष बहुतायत में लगे मिले। राह में गुजर रहे स्थानीय लोगों से पूछने के बाद भी यह प्रश्न अनुतरित रहा कि ये स्वयं ही इस तादाद में यहाँ लगे या किसी सुनियोजित रीति से इन्हें यहाँ रोपा गया। मजेदार बात यह है कि यहाँ बुराँश की सभी किस्में उपलब्ध हैं।
सबसे नीचे सुर्ख लाल रंग के बुराँश, जिनके पेड़ ऊँचाई लिए होते हैं। फिर ऊँचाईयों पर हल्के गुलाबी रंग के बुराँश, जो झाड़ियों में लगे होते हैं और सबसे अधिक ऊँचाइयों पर सफेद रंंग के बुरांश। इस सीजन में वृक्षों से फूल लगभग झड़ चुके थे। विशेषज्ञों के अनुसार, फूलों के साथ लकदक बुराँश के दर्शन के लिए अप्रैल माह सबसे सही रहता है।
आधे मार्ग में बापसी पर बाबा तुंगनाथ के प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने का हल्का सा मलाल अवश्य रहा, लेकिन पूरा ग्रुप यात्रा को सकुशल पूरा कर जीवन के कुछ यादगार लम्हों को समेटकर बापिस आ रहा है, यह सुकून साथ में था। फिर सबकुछ एक ही यात्रा में पूरा हो, यह भी तो जरुरी नहीं। कुछ अगली यात्रा के लिए, इस भाव के साथ हल्के मन के साथ बस में अपनी सीट ग्रहण किए।
गोचर की ओरढलती शाम तक सभी चोपता बापिस आ चुके थे। अंधेरा होने से पूर्व बस चोपता से चल पड़ती है। तुंगनाथ व राह में मिले रोमाँचक अनुभव के बीच काफिला सुखद अनुभूतियों के साथ रोमाँचित था। अगले दो-तीन घंटे में बस उसी रास्ते से रुद्रप्रयाग पहुँचती है, जिससे होकर गई थी।
अंधेरे में बाहर के दृश्यों के अवलोकन का कोई सवाल नहीं था। रात के अंधेरे में वृक्षों व पहाडों के काले साय के बीच सरपट दौड़ती बस और इसकी रोशनी ही प्रत्यक्ष थे, जिनका अवलोकन एक अलग ही अनुभव दे रहा था। थकावट के कारण अधिकाँश यात्री विश्राम व निद्रा की गोद में विचरण कर रहे थे। हम अब तक के सुरक्षित सफर के लिए बाबा की अजस्र कृपा को अंतःकरण की गहराईयों से अनुभव कर रहे थे। 
राह में नींद के झौंको के बीच पता ही नहीं चला कि कब बस रुद्रप्रयाग के बाद नागरसु से होते हुए गौचर पहुँच चुकी है, जहाँ गढ़वाल मंडल निगम के गेस्ट हाउस में रात के रुकने का ठिकाना था।
रात को भोजन के बाद कौतुहल वश एक राउंड बाहर मैदान का लगा आए, अंधेरे में पास खड़े पहाडियों में टिमटिमाते घर एक अलग ही नजारा पेश कर रहे थे। दिन के उजाले में इनके दर्शन व गोचर के नाम के रहस्य का अनावरण सुबह किया जाना था। इसी भाव के साथ राह की सुखद यादों के साथ निद्रादेवी की गोद में चले जाते हैं।
 
यात्रा का अगला भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हरियाली माता के देश में
 
यदि आपने यात्रा का पिछला भाग न पढ़ा हो तो, आगे पढ़ सकते हैं - तुंगनाथ यात्रा, भाग-1

 

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