रविवार, 26 अप्रैल 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बचपन का पर्वत प्रेम और ट्रैकिंग एडवेंचर, भाग-1

बीहड़ वन की गोद में विताए वो यादगार रोमाँचक पल
बचपन में जब से होश संभाला, पहाड़ हमेशा मन को रोमाँचित करते रहे और साथ ही गहरी जिज्ञासा के भाव भी जगाते रहे। हमारा घर दो पहाड़ों के बीच फैली 2 से 3 किमी हल्की ढलानदार घाटी में स्थित था। जब भी घर की खिड़कियों या आँगन से झांकते तो दोनों और से गगनचुंबी पर्वतों से घिरा पाते। साथ ही उत्तर और दक्षिण में दोनों ओर फैली 30-40 किमी लम्बी घाटी का आदि अंत भी पर्वतों में ही पाते।
कुल मिलाकर स्वयं को चारों ओर से कितनी ही पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा पाते, लेकिन सबसे प्रत्यक्ष थे घर के पूर्व और पश्चिम में खड़े समानान्तर दो आसमान छूते पहाड़, जहाँ से होकर क्रमशः सुबह सूर्य भगवान प्रकट होते और शाम को पर्वत के पीछे छिप जाते। दोनों पहाड़ों को ब्यास नदी की अविरल धारा विभाजित करती, जिसका कलकल निनाद ब्रह्ममुहूर्त में कानों में एक दिव्य अनुभूति के साथ गुंजार करता। हमारा गाँव ब्यास नदी के वायीं ओर मौजूद था, अतः इस साईड के पहाड़ गाँव के लोकजीवन से सीधे जुड़े हुए थे। नदी के उस पार के पहाड़ों से परिचय थोड़ा कम था, क्योंकि वहाँ जाना कम होता।
इन पहाड़ों के उपर क्या है, हमेशा ही बालमन के कौतुहल का विषय रहते। ये पहाड़ तो सीधा आसमाँ को छूते प्रतीत होते हैं, तो क्या वहाँ पहुँचकर सीढ़ियों के सहारे आसमान तक पहुँचा जा सकता है। और फिर बादल घिरने पर तो कितना सारा पानी आसमान से बरसता है, तो क्या वहाँ पर कोई बड़ी सी झील है, जो बरसात में फूट पड़ती है। जो भी हो बचपन की ये जिज्ञासाएं थोड़ा बड़ा होते-होते कुछ समाधान पाने लगीं, जब इन पहाड़ों से विचरण कर आए घर के बड़े-बुजुर्गों की कथा-किवदंतियाँ एवं रोमाँचक गाथाएं सुनने को मिलती। हर श्रवण के साथ इनको प्रत्यक्ष देखने की तमन्ना और बलवती हो जाती। अंततः ऐसा संयोग बना अपने गाँव के वरिष्ठ भाईयों के साथ घूमने का, जो पहले वहाँ अपने मवेशियों के साथ हो आए थे तथा रास्ते से भली भांति परिचित थे। मालूम हो कि हमारे यहाँ तब गैर-दूधारु पालतु मवेशियों को जंगल में ग्वालों की देखरेख में भेजने का चलन था, जो बर्फ पिघलने के बाद अप्रैल से ठण्ड बढ़ने के पहले सितम्बर-अक्टूबर माह तक वहाँ रहते थे।
संभवतः यह अक्टूबर का माह था, सन तो याद नहीं। 1980 के दशक का पूर्वार्ध रहा होगा।
इस यात्रा के साथ हम पहली बार इन पहाड़ों से प्रत्यक्ष परिचय पाने वाले थे. इनसे सीधा साक्षात्कार करने वाले थे, जिनको निहारते-निहारते हम बचपन से किशोरावस्था की दहलीज तक आ पहुँचे थे। घर वालों व गांववासियों का हमेशा ही सबाल रहता था कि इन पहाड़ों में रखा क्या है, जो हमेशा ही इनके बारे में इतने लालायित रहते हो। इनके प्रति अज्ञात से आकर्षण का जवाब तो हमारे पास भी नहीं था, लेकिन कुछ तो बात है इन पहाड़ों में, जो इनको देखने व सोचने भर से हमारा दिल धड़कता था। फिर वर्तमान से असंतुष्ट और सदा अज्ञात को जानने-अन्वेषण करने और नित नए शिखरों के आरोहण का नैसर्गिक जज्बा हिलोरें मार रहा था, जो हर जिज्ञासु इंंसान की फितरत रहती है।
खैर हम अपनी आवश्यक तैयारी के साथ प्रातः तड़के घर से कूच कर जाते हैं। साथ में देशी घी, मक्खन, गुड़, सत्तु, चाबल, दाल, आलू, तेल-मसाला, चाकू, लाठी आदि मार्ग के पाथेय रखते हैं। साथ ही कुछ अखरोट व घर के संग्रहित सेब आदि फल। रास्ते में नाश्ता के लिए परौंठा आदि की व्यवस्था भी नानी अम्मा ने कर रखी थीं। धीरे-धीरे हमारी टोली गाँव के ऊपर पहाड़ की ओर आरोहण शुरु करती है। गाँव की वस्तियाँ, खेत-बगीचे आदि पीछे छूटते जाते हैं। कझोरा नाले से हम शांभल (दारु हल्दी) झाड़ियों से भरे ढलानदार विरान ढलान से होकर उपर चढ़ते हैं, फिर कझोरा नाला पार कर हल्की चढ़ाई बाले रास्ते कोहू (जंगली जैतून) के घने जंगल के बीच सीधा कोहू री धारा स्थान पर पहुंचते हैं, जहाँ चट्टानी विश्राम स्थल पर कोहू का इक्लौता पुराना एवं वृहद पेड़ था। थके राहियों को इसकी शीतल छाया और प्राकृतिक हवा कुछ मिनटों में तरोताजा कर देती। यह एक ऐसा बिंदु था, जहाँ से नीचे घर-गाँव के विहंगम दृश्य़ प्रत्यक्ष थे।
यहां नीचे सीधी गहरी खाईयों में सेऊबाग नाला अदृश्य रुप में बह रहा था, जो नीचे झरने के पास प्रकट होता है। यहाँ पहाड़ के आर-पार इक्का-दुक्का घर ही दिख रहे थे। तरोताजा होकर यहाँ से बायीं ओर खेत की मेड़ के साथ आगे बढ़े, जहाँ जंगली कैक्टस के सफेद फूल हमारा स्वागत कर रहे थे। यहाँ के दायीं ओर नाले की साईड के ढलानदार बुग्याल घास के लिए प्रख्यात हैं। जिनमें कई फुट लम्बी घास उगी रहती। गाँव की महिलाएं इनको काटकर घर ले जाती। मवेशियों के लिए भी यह आदर्श चरागार रहती। लेकिन आगे गहरी खाई के कारण खतरनाक भी था, एक कदम की भी चूक सीधे खाई में समाधी लगा सकती थी।
इसको पार करते ही हम पत्थरों के बने दूसरे विश्राम स्थल थोड़ी पहुंचे। यहाँ से कुछ आगे नए गाँव एवं घाटी के दर्शन होते हैं।
  फाडमेह गाँव सामने था, जो हमारे गाँव से नहीं दिखता। यहाँ थान देवता का मंदिर है, जिनको माथा टेकते हुए हम यहाँ से कोई 1-1.5 किमी की ऊँचाई पर बनोगी गाँव पहुँचते है, जो गिरमल देवता का स्थल है। हमारे घर से यहाँ के प्रत्यक्ष दर्शन हर रोज सुबह-शाम होते, आज हम यहाँ से नीचे अपने घर-गाँव के दर्शन कर रहे थे और यहां से गुजरते हुए गिरमल देवता को रास्ते से ही माथा टेकते हुए आगे बढ़ जाते हैं। अपने बुआ के बेटे पुना भाई साहब के खेत एवं बगीचे में पूरे अधिकार के साथ कुछ भुट्टा और ताजा लाल सेब तोड़कर रास्ते के लिए रख लेते हैं। इस ऊँचाई में सेब अभी पेड़ों में बचे थे, जबकि हमारे गाँव की निचली ऊँचाईयों के पेड़ों में इनके दर्शन दुर्लभ थे। ज्ञात हो कि उस दौर में हमारे गाँव के निचले ईलाके में सेब का व्यवसायिक चलन अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था, बस शौकिया तौर पर घर के आस-पास लगाए पेड़ ही सेब से लदे होते थे, जबकि बनोगी गाँव की ऊँचाई में हमारे पुना भाई साहब एक प्रगतिशील बागवान के रुप में पूरा बगीचा तैयार कर चुके थे।
कुछ मिनटों में हम गाँव के ऊपर नरेयंडी स्थल पर पहुँचते हैं, जो देवताओं का पावन स्थल है। फागली (देवताओं का वार्षिक उत्सव) जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम यहीं सम्पन्न होते हैं। कुछ ही मिनटों में हम सब देवदार के गगनचूंबी वृक्षों के बीच विचरण कर रहे थे। नीचे पनाणी शिला की देवस्थली के दूरदर्शन हो रहे थे और आगे देवदार का घना जंगल। जहाँ थक जाते वहाँ विश्राम के लिए बने चट्टानी चबूतरों पर बैठ जाते और आराम करते।
 रास्ते में भूख काफी तेज लग रही थी, सो रास्ते में ही नाश्ता करते हैं और फिर घने जंगल के बीच आगे बढ़ते हैं। रास्ते में मातन छेत स्थान से गुजरते हैं, जहाँ देवदार के जंगलों के बीच कुछ मैदान सरीखे खेत दिखे, जिनमें बहुतायत में शैयण नाम की झाड़ियाँ लगीं थी, जिनकी मजबूती एवं लचक के कारण इनका प्रयोग रस्सी की भांति लकड़ी के लट्ठों को खींचने या घास को बाँधने में होता है।
इनकी झाड़ियों के बीच अचानक पक्षियों के झुंड की आवाजाही प्रतीत होती है, छोटे बच्चों के साथ पूरा झुंड तेजी से दौड़ता हुआ सामने से गुजरता है। इस फुर्तीले एवं शर्मिले पक्षी को हम पहली बार देख रहे थे, जो जंगल की इस ऊँचाई में ही विचरण करता है व यहाँ इसको कड़ेशा या जंगली मुर्गा (Kalij pheasant) कहते हैं। इसके बाद कुछ जंगल को पार करते ही हम अपने आज के गन्तव्य स्थल रेऊँश पहुँचते हैं, जहाँ वन विभाग का सरकारी विश्राम गृह बना है। यहीं से होकर नग्गर-बिजली महादेव कच्ची सड़क जाती है। विश्राम गृह में तो ताले लटके थे, लेकिन निर्जन होने के चलते इसका खुला बरामदा और स्टोर रुम हमारे लिए रात्रि विश्राम का कामचलाऊ ठिकाना बन गए। चौकीदार को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी।
यहाँ से नीचे कूल्लू घाटी का विहंगम नजारा दिख रहा था। कुल्लू के पार दशहरे का ढालपुर ग्राऊंड सब यहाँ से दिख रहे थे। यहाँ पर फर-फर कर बहती ठण्डी हवा सफर की गर्मी और थकान को जैसे अपने साथ उड़ा ले रही थी।

इसके दायं, बाँए और पीछे देवदार के घने जंगल थे। साथ ही देवदार, कायल के साथ रई, तोष के जंगल भी यहाँ बहुतायत में दिखे, जिनके पेड़ों की रंगत, पत्तियों के आकार से इनको पहचाना जा सकता है। नए आगंतुक के लिए इन एक समाऩ दिखने वाले गगनचूम्बी वृक्षों में अंतर कर पाना काफी कठिन होता है।
यहाँ जल की धाराएं चारों और बह रही थीं, साथ ही पीछे नल की सुबिधा थी। कुछ पल विश्राम कर, कुछ फल-फूल खाकर हम आसपास सड़क के साथ आगे बढ़ते हैं और इसके दोनों ओर के निर्जन जंगलों को एक्सप्लोअर करते हैं। यहाँ वन विभाग की नर्सरी देखते हैं।
  बाढ़ लगे इसके संरक्षित क्षेत्र से परिचित होते हैं, जो कस्तुरी मृग एवं मोनाल पक्षी के लिए जाना जाता है, हालाँकि हमें इनके दर्शन नहीं हो पाए। गेस्ट हाउस के पीछे फुआल (गड़रिए) अपनी भेड़-बकरियों के साथ आज डेरा जमाए हुए थे। उनसे बकरी का दूध मिलता है और हम भी साथ लाए फल फूल उन्हें देते हैं। इनसे पता चलता है कि इन जंगलों में भालू रहते हैं। इंसान से वे प्रायः दूर ही रहते हैं, मवेशियों का रात में शिकार करते हैं। दिन में प्रायः निर्जन एकांत में विश्राम करते हैं। हमारे लिए यह राहत भरी बात थी।
आज की रात का भोजन साथ लाए सामान के साथ जंगली चूल्हे में तैयार करते हैं, साथ ही दिन भर की रोमाँचक यादों को ताजा करते हैं और कल की प्लानिंग करते हैं तथा भोजनोपरान्त कुछ गप्प-शप के बाद निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं।
अगले दिन बीहड़ वन में ट्रैकिंग के रोमाँचक सफर को अगले भाग में पढ़ सकते हैं, बचपन का पर्वत प्रेम और ट्रैकिंग एडवेंचर, भाग-2 में। (जारी)


रविवार, 29 मार्च 2020

नवरात्रि साधना का व्यवहारिक तत्वदर्शन

नवरात्रि साधना का राजमार्ग
 
नवदुर्गा

 आजकल नवरात्रि का पर्व अपने पूरे जोरों पर है, आज इसका पांचवाँ दिन है, जो सकन्द माता के लिए समर्पित है। पहले दिन शैलपुत्री के रुप में साधक का संकल्प, ब्रह्मचर्य के तप में तपते हुए (ब्रह्मचारिणी), माँ चंद्रघंटा के दिव्य संदेशों को धारण करते हुए, माँ कुष्माण्डा से इस पिण्ड में व्रह्माण्ड की अनुभूति का वरदान पाते हुए आज बाल यौद्धा के रुप में माँ की गोद में जन्म लेता है। जो क्रमशः भवानी तलवार को धारण करते हुए (माँ कात्यायनी), सकल आंतरिक-बाहरी असुरता का संहार करते हुए (माँ कालरात्रि) एक महान रुपाँतरण (माँ गौरी) के बाद  अंतिम दिन सिद्धि (माँ सिद्धिदात्रि) को प्राप्त होता है।

यह नवरात्रि वर्ष में दो वार ऋतु संधि की वेला में आती है, जिसका विशिष्ट महत्व रहता है। यह तन-मन में ऋतु बदलाव के साथ होने वाले परिवर्तनों के साथ सूक्ष्म लोक में उमड़ते-घुमड़ते दैवीय प्रवाह के साथ जुडने एवं लाभान्वित होने का विशिष्ट काल रहता है। ऋषियों ने इसके सूक्ष्म स्वरुप को समझते हुए इस काल को विशिष्ट साधना से मंडित किया। गायत्री परिवार में नैष्ठिक साधक चौबीस हजार का एक लघु अनुष्ठान करते हैं, जिसमें प्रतिदिन 27 से 30 माला का जप किया जाता है, जिसकी पूर्णाहुति दशांश हवन के साथ होती है। शक्ति उपासक इस दौरान दुर्गासप्तशती के परायण के साथ भगवती की उपासना करते हैं।
 
माँ ब्रह्मचारिणी

इस पृष्ठभूमि में नवरात्रि की साधना के व्यवहारिक तत्वदर्शन को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है, क्योंकि प्रायः लोगों को एक हठयोगी की भाँति नौ दिन उग्र तप करते देखा जाता है, जिसमें कुछ भी बुराई नहीं है। लेकिन नौ दिन के बाद उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया व आगे कितना इसको मेंटेन रखा, देखने पर अधिकाँशतः निराशा होती है। अनुष्ठान के बाद फिर येही साधक ऐसा जीवन यापन करते देखे जाते हैं, जिसका साधना से कोई लेना देना नहीं होता। जैसे कि साधना नौ दिन का एक कृत्य था, जिसे पूरा होते ही फिर खूंटी पर टाँग कर रख दिया और अब इसे अगली नवरात्रि में फिर धारण करना है।
 
इसमें चूक शायद हमारी अध्यात्म तत्व एवं साधना की व्यवहारिक समझ का रहता है। नवरात्रि साधना की पूर्व संध्या पर जब संकल्प लिया जाता है, तो उसमें माला का संकल्प तो रहता है, कुछ मौटे-मौटे नियमों को पालन का भी भाव रहता है, लेकिन जीवन साधना को समग्र रुप में निभाने का इसमें प्रायः अभाव देखा जाता है। परमपूज्यगुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा ने अध्यात्म को जीवन साधना कहा है, जिसमें उपासना, साधना, अराधना की त्रिवेणी का संगम रहता है। यह जीवन की समग्र समझ के साथ किया गया पुरुषार्थ है, जीवन के किसी एक अंश को लेकर किया जा रहा हठयोग नहीं। यह एक राजमार्ग है, जिसके परिणाम दूरगामी होते हैं, जो दूरदर्शी संकल्प के साथ सम्पन्न होता है।
 
माँ कुष्माण्डा

यह व्यक्ति का अपने ईमानदार मूल्याँकन के साथ शुरु होता है, कि वह खड़ा कहाँ है। अनुभव यही कहता है कि माला की संख्या चाहे तीन ही हो, लेकिन जीवन साधना 24 घंटे की होनी चाहिए। समाज में ही नहीं, एकांत में साधक के पल सोते-जागते होशोहवाश में बीतने चाहिए। इसमें स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन-मनन का सघन पुट होना चाहिए। कसा हुआ आहार-विहार, कसी हुई दिनचर्या, सधा हुआ सकारात्मक-संतुलित वाणी-व्यवहार और आदर्शां में सतत निमग्न भाव चिंतन। बिना महापुरुषों के संसर्ग एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग के यह कहाँ संभव हो पाता है। बिना उच्चतर ध्येय के तप-साधना मात्र अहं के प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा का एक छद्म प्रयोग भर होता है, जिसके वारे में प्रायः साधक शुरुआती अवस्था में स्वयं भी भिज्ञ नहीं होते। लेकिन तत्वदर्शी सारी स्थिति को समझ रहे होते हैं।
 
माँ सकन्दमाता

इस समझ के अभाव में नौरात्रि में लोगों को ऐसे कृत्यों को साधना मानने की भूल करते देखा जाता है, जिनका जीवन साधना, जीवन परिष्कार, चित्तशुद्धि से अधिक लेना देना नहीं होता। जैसे मौनव्रत। एक विद्यार्थी, एक शिक्षक, एक गृहस्थ, एक व्यवसायी, एक सामाजिक प्राणी के लिए यह संभव नहीं होता। इस मौन को मेंटेन करने में जितना चक्कलस उठाना पड़ता है, उसमें जीवन की शांति, स्थिरता सब भंग हो रही होती है। कुछ इस बीच कोई काम नहीं करने को अपनी महानता मान बैठते हैं। जबकि स्वधर्म का पालन, कर्तव्य निष्ठ जीवन ऐसे में साधना की सबसे बडी कसौटी होती है। साधना जीवन से पलायन नहीं, इसकी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी होती है।
 
इसी तरह भूखे प्यासे रह कर, ठंड व गर्मी में शरीर को अनावश्यक रुप में तपाकर-कष्ट देकर, एक आसन में शरीर को तोड़ मरोड़ कर किए जाने वाले हठयौगिक प्रयोगों का जीवन साधना से अधिक लेना देना नहीं रहता। कुछ पहुँची हुई आत्माएं इसका अपवाद हो सकती हैं, लेकिन सर्वसाधारण के लिए ये प्रयोग अपनी समग्रता में नामसमझी भरे कदम ही रहते हैं।

क्योंकि नवरात्र साधना का उद्देश्य जीवनचर्या को, आहार-विहार, विचार-व्यवहार को ठोक-पीट कर ऐसे आदर्श ढर्रे में लाना है कि वह जहाँ खड़ा है, उससे एक पायदान ऊपर उठकर अगले छः माह जीवन को उच्चतर सोपान पर जी सके। यह चरित्र निर्माण की सूक्ष्म एवं ठोस प्रक्रिया है, जो क्रमिक रुप में शनै-शनै मन को अधिक शांत, स्थिर, सशक्त एवं सकारात्मक अवस्था की ओर ले आए। ये साधना की व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। यदि साधना व्यक्ति को इस ओर प्रवृत कर रही है, तो उसके सारे प्रयोग सार्थक माने जाएंगे। 
 

और यदि नवरात्रि के बाद भी व्यक्ति की आदतों में सुधार नहीं हो रहा, जीवन शैली उसी ढर्रे पर रहती है, चिंतन सकारात्मक नहीं होता, जीवन कुण्ठाओं एवं घुटन से भरा हुआ है, भावनाएं उदात नहीं हो रही, अपने ईष्ट आराध्य एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग नहीं बढ़ रहा, तो फिर गहन आत्म-समीक्षा की आवश्यकता है। 
 
माँ सिद्धिदात्रि
 नवरात्रि साधना बिना अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग किए देखासुनी महज एक हठयौगक क्रिया भर नहीं है, यह तो साधक को जीवन के परमलक्ष्य की ओर प्रवृत करने वाले राजमार्ग पर चलने का नाम है, जिसके व्यवहारिक मानदण्डों को साधक गुरु के बचनों एवं शास्त्रों के सार को समझते हुए स्वयं अपनी स्थिति के अनुरुप निर्धारित करता है।
 
    दुर्गासप्तशति भगवती के उपासकों के बीच एक लोकप्रिय ग्रंथ है, जिसमें भगवती के नौ स्वरुपों का वर्णन इस प्रकार से है -
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्रीनवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।
 
माँ दुर्गा

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...