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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-1


नीलकंठ महादेव ऋषिकेश-पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र का एक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जो अपनी पौराणिक मान्यता, प्राकृतिक मनोरमता और धार्मिक महत्व के कारण पर्यटकों, खोजी यात्रियों, श्रद्धालुओं एवं प्रकृति प्रेमियों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2003 में देसंविवि बायो-इंफोर्मेटिक्स ग्रुप के साथ सम्पन्न पहली यात्रा के बाद यहाँ की पिछले पंद्रह वर्षों में विद्यार्थियों, मित्रों व परिवारजनों के साथ दर्जन से अधिक आवृतियाँ पूरी हो चुकी हैं। हर बार एक नया रोमाँच, नयी ताजगी, नयी चुनौतियाँ, नए सबक व कृपावर्षण से भरे अनुभव जुड़ते जाते हैं।

आज फिर यात्रा का संयोग बन रहा था, कहीं कोई योजना नहीं थी। जिस तरह कुछ मिनटों में इसकी रुपरेखा बनीं, लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। रास्ते में पता चला कि आज के ही अमावस्य के दिन ठीक 8 वर्ष पूर्व एमजेएमसी बैच 2010-12 के साथ यहाँ की यात्रा सम्पन्न हुई थी। आज पूरी टीम को शामिल न कर पाने का मलाल अवश्य रहा, लेकिन इसकी भरपाई किसी उचित अवसर पर पूरा करेंगे, इस सोच के साथ हल्के मन के साथ यात्रा पर आगे बढ़े। इस बार की यात्रा इस मायने में नयी थी कि हम पहली वार इस ट्रेक पर हरिद्वार चंड़ीपुल से होकर चीलारेंज से प्रवेश कर रहे थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य से जड़ा हुआ एक बहुत ही सुंदर, एकांतिक एवं रोमाँचक मार्ग है। गंग नहर और राजाजी टाईगर रिजर्व से होकर घने जंगलों से गुजरता जिसका रास्ता स्वयं में बेजोड़ है।

चीला रेंज से होकर सफर – चंड़ी चौक से होकर बना चंड़ी पुल क्षेत्र का सबसे लम्बा पुल है, जहाँ से गंगाजी का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। कुंभ के दौरान इसके दोनों ओर बसे बैरागी द्वीप में तंबुओं की कतार देखने लायक रहती है। इसके वाईं ओर दिव्य प्रेम सेवा मिशन का कुष्ठ आश्रम पड़ता है, जो सेवा साधना की एक अनुपम मिसाल है। 
पुल से आगे की सड़क नजीबावाद, हल्दवानी-पंतनगर, अल्मोड़ा-नैनीताल की ओर जाती है अर्थात, यह कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश का द्वार है। यहाँ से बाईं ओर मुड़ते ही कुछ दूरी पर गंगाजी एवं नीलपर्वत के बीच ऐतिहासिक सिद्धपीठ दक्षिणकाली मंदिर आता है, जिसकी स्थापना बाबा कामराजजी द्वारा लगभग 800 वर्ष पूर्व की गयी थी, यह सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
यहीं से दायीं ओर पहाड़ी पर स्थापित चंड़ीदेवी माता का मंदिर है, जो लगभग 1.5 किमी ट्रेकिंग का सफर है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी मेंं इसकी स्थापना की थी। पहाड़ी पर उड़नखटोला से भी पहुँचने की भी उम्दा व्यवस्था है।

रास्ता आगे घने जंगल में प्रवेश करता है, यह राजाजी टाइगर रिजर्व का क्षेत्र आता है। हरे-भरे आच्छादन के बीच बलखाती मोड़दार सड़कें इसकी विशेषता हैं। रास्ते में हरिद्वार बैराज से आता मार्ग पड़ता है, जो सिर्फ सरकारी व छोटे वाहनों के लिए खुला होता है। यहां से आगे रास्ते में नांले पड़ते हैं, जो इस मौसम में कलकल बह रही जलराशि से गुलजार थे।
प्रायः इस राह में हिरनों के झुंड़ मिलते हैं, मोर के दर्शन भी सहज ही होते हैं, जो आज संयोगवश नहीं हो पाए। कुछ ही देर में राजाजी नेशनल पार्क का गेट आता है। ऑफ सीजन होने के कारण आज यहाँ माहौल शांत था।
यहाँ सीजन में सफारी जीपें और पालतु हाथियों के झुंड रहते हैं। रिजर्व के जंगल में जीप सफारी का लगभग 33 किमी सफर बेहद रोमाँचक रहता है, जब घने जंगल से होते हुए उतार-चढ़ाव भरे नदी-नालों व घाटियों के बीच चीतल, साँभर, हाथी, मोर, यहाँ तक कि बाघ जैसे जंगली जानवरों तथा पक्षियों को नजदीक से देखने का मौका मिलता है।
कुछ ही मिनटों में हम चीलारेंज के बिजली घर से होकर गुजर रहे थे। सुरक्षाकारणों से यहाँ फोटोग्राफी मना है। यहाँ बिजलीघर से गिरती वृहद जलराशि और नहर के रास्ते इसका निकास, सब दर्शनीय रहता है। इसको नीलधारा कहते हैं, जो आगे घाट नम्बर 10 के पास सप्तसरोवर की ओर से आ रही गंगा की धारा में मिलती है, जहाँ गंगाजी हरिद्वार क्षेत्र में अपने शुद्धतम रुप में प्रकट होती हैं।

इस बिजली घर से आगे का नजारा नहर के किनारे बढ़ता है, जो स्वयं में एक मनभावन सफर रहता है। नहर के किनारे हरे-भरे वृक्ष, इनकी पृष्ठभूमि में घने जंगल, वायीं ओर गंगाजी की जलधार और उस पार घाटी का नजारा तथा शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं – सब मिलकर सफर का खुशनुमा अहसास दिलाते रहते हैं।
आगे रास्ते में गंगाभोगपुर तल्ला गाँव पड़ता है, बीच में खेत और लगभग वृताकार में इनको घेरे घर, एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। यहाँ दिव्य प्रेम सेवा मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ आश्रम के व स्थानीय बच्चों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है। गांव को एक आदर्श गाँव का रुप देने के प्रयास यहाँ देखे जा सकते हैं।

आगे पुल पारकर दायीं ओर गंगाभोगपुर मल्ला से रास्ता गुजरता है। यहाँ से सीधा रास्ता बिंध्यवासनी मंदिक तक बाहन से होकर जाता है, लेकिन आगे नीलकंठ के लिए यहाँ से पैदल ही चलना पड़ता है। लेकिन हमारा सफर पूरी तरह से जीप सफारी का था, सो हम नहर के वांएं किनारे ऋषिकेश बैराज तक नहर के किनारे आगे बढ़ते रहे। बीच में बरसाती नाला पड़ता है, जिसे हम कई वर्षों से बरसात में यातायात को ध्वस्त करते देख रहे हैं, अभी पुल नहीं बन पाया है। आज भी हम इसी के बीच बनी कच्ची सड़क से बहते पानी के बीच सड़क पार किए।
थोड़ी देर में ऋषिकेश बैराज आती है, जहाँ गंगाजल का एक हिस्सा नहर से होकर चीलारेंज की ओर बहता है तो शेष हिस्सा गंगाजी की मुख्यधारा से होकर वीरभद्र, रायावाला से होकर सप्तसरोवर के आगे घाट नम्बर10 पर नीलधारा में मिलता है। यहाँ तक नहर के किनारे का सफर सचमुच में बहुत ही अद्भुत रहता है, यथासंभव इसके मनोरम दृश्य को अपने मोबाईल में कैप्चर करते रहे।

बैराज के थोड़ी दूरी पर दाईं ओर का सीधा पगड़ंडी वाला मार्ग पहाड़ी की रीढ़ पर बसे गंगादर्शन ढावा तक जाता है, लेकिन घने जंगल, खुंखार जानवरों व बरसात में ध्वस्थ पगडंडियों के चलते यह पर्यटकों के लिए बंद रहता है। क्षेत्रीय लोग हालांकि अपने रिस्क पर अपने अनुभव के आधार पर इस मार्ग से आवागमन करते रहते हैं। 
आज से ठीक आठ वर्ष पूर्व हम अमावस्य की घुप अंधेरी रात में पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग में लगभग दो-अढाई घंटे भटकते हुए बाहर निकले थे, जिसका वर्णन अगली पोस्ट के अंत में करेंगे।

यहाँ से आगे की सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है। रास्ते भर कहीं नाले, तो कहीं झरने हमारा स्वागत करते रहे। हरा-भरा घना जंगल हमारी राह का सहचर रहा। वन गुर्जरों की वीरान बस्ती के दर्शन भी राह में हुए, जिनका जीवन दूर से देखने पर बहुत रोचक लगता है।
रास्ते में रामझूला से नीलकंठ के पैदल मार्ग के दर्शन हुए। लंगूरों के झुंड यहाँ इकट्ठा थे। ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चन्ना खाने के अभ्यस्थ हैं। ये झुंडों में रहते हैं, इनसे यदि भय न खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।

लक्ष्मण झूला का नजारा – यहाँ से पार करते ही कुछ मिनटों में हम ऐसे बिंदु पर पहुँचे, जहाँ से रामझूला तो पीछे छुट चुका था लेकिन लक्ष्मण झूले का नजारा प्रत्यक्ष था। यह क्षेत्र आजकल योग एवं अध्यात्म केपिटल के रुप में प्रख्यात है, जहाँ विदेशी पर्याप्त संख्या में शांति की खोज में भारतीय अध्यात्म, चिकित्सा एवं योग का अपनाते देखे जा सकते हैं।
लक्ष्मण झुले के ईर्द-गिर्द पूरा शहर बसा है, एक के ऊपर, दूसरे कई मंजिलों ऊँचे भवनों का नजारा हतप्रत करता है, लगता है जैसे कंकरीट का जंगल खड़ा हो चुका है। इन भवनों के जमघट के बीच बढ़ती जनसंख्या का दबाव, मानवीय लोभ, बेतरतीव पर्यटन और प्रकृति के साथ खिलवाड़ की विसंगतियाँ प्रत्यक्ष दिखती हैं।
पृष्ठभूमि में कुंजा देवी की चोटी, पहाड़ों से होकर जा रही सड़कें हमें नीरझरना-कुंजापूरी के सफर की याद दिला रही थी। कुछ यादगार स्नैप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।

गंगा किनारे सफर का रोमाँच – लक्ष्मण झूला को पार कर हम गंगाजी के किनारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में बानर सेना के दर्शन बीच-बीच में होते रहे। लगा कि यात्रियों के द्वारा दया एवं कौतुकवश इनको दिए जा रहे चारे के कारण इनकी आदतें कितना बिगड़ चुकी हैं। दिन भर जंगलों में उछल-कूद व भोजन की खोज  की बजाए, अब ये सड़क के किनारे ठलुआ बैठकर, भिखारी की तरह भोजन के इंतजार में रहते हैं।
रास्ते में दायीँ ओर की पहाडियों से आ रहे नालों व झरनों में पानी की प्रचुरता एक सुखद एहसास दिला रही थी, लगा इस वर्ष सितम्बर माह में लगातार हुई बारिश यहाँ भी फलित हुई है। क्षेत्र के जलस्रोत पूरी तरह से रिचार्ज हो चुके हैं। वायीं ओर गंगाजी की ओर दनदनाते हुए वह रहे पहाड़ी नाले रास्ते भर इसकी झलक दिखा रहे थे।

हेंवल नदी के किनारे – रास्ते में गंगाजी से हटते ही गढ़वाल हिमालय से आने वाली हेंवल नदी भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। आज इसमें भी भरपूर जलराशि दिख रही थी। इसके नीलवर्णी जल में लोग पूरी मोजमस्ती करते दिखे। इसकी पानी इतना साफ था कि इसके तल के दर्शन तक स्पष्टतयः हो रहे थे। इसके किनारे बसे गाँव व कैंपिक साइट्स के दृश्य बहुत संदुर दिखते हैं, मन कर रहा था कि कभी फुर्सत में यहाँ की शांत वादियों में कुछ दिन विता सकते हैं, खासकर नदी के उस पार के जंगल में एक गुफा तलाशकर।

मौनी बाबा, मायादेवी के चरणों में – अब रास्ता पहाड़ियों की चढ़ाईयों को पार कर रहा था, सड़क के किनारे बनी चट्टियां चाय-नाश्ता के लिए यात्रियों का इंतजार व स्वागत कर रही थी। हम कुछ ही मिनटों में पहाडियों के चरणों में थे, जिसके शिखर पर मंदिर की पताका लहरा रही थी। पता चला कि ये महामाया का मंदिर है, जहाँ तक चढ़ने के लिए कई सौ सुंदर सीढ़ियाँ की सड़क बनीं हैं। 
इसी के पास सड़क के किनारे मौनी बाबा की कुटिया का बोर्ड मिला। यहाँ तो हम नहीं जा पाए, लेकिन रामझूला से नीलकंठ पैदल मार्ग पर चट्टान की गोद में बसे मौनी बाबा के आश्रम की याद बरबस ताजा हो गयी, जहाँ कभी तीर्थयात्रियों के लिए चाबल-कड़ी का भंडारा चौबीस घंटे चलता रहता था।
अब हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीलकंठ महादेव महज 5 किमी दूर थे। उस पार पहाड़ों की गोद में बसे गाँव, सीढ़ीदार खेतों में पक रही धान की फसल सफर के आनन्द में एक नया रोमाँच घोल रही थी।  
यात्रा वृतांत का अगला भाग आप इसके खण्ड-2, पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद में पढ़ सकते हैं। 

गुरुवार, 31 मई 2018

यात्रा वृतांत – जब आया बुलावा बाबा तुंगनाथ का, भाग-2


अगस्त्यमुनि से तृतीय केदार तुंगनाथ का रोमाँचक सफर 



चोपता की ओर अगस्त्यमुनि से आगे रास्ते में सुदूर केदारनाथ साइड़ के हिमाच्छादित पर्वतों के दर्शन श्रद्धापूरित रोमाँच के भाव जगा रहे थे। रास्ते में ही पहाडों की गोद में विशेषकर ऊँचाईयों में बसे गाँवों व घर को देखकर हमेशा की तरह रोमाँच हो रहा था कि लोग इस ऊँचाई पर कैसे रहते होंगे, प्रकृति की नीरव गोद में यहाँ जीवन कितना शांत व निश्चिंत होता होगा। 
रास्ते में ही बारिश का अभिसिंचन शुरु हो चुका था। हम इसे प्रकृति के स्वागत का एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस केदारनाथ की राह पर आगे बढ़ रही थी। बीच में रास्ता दाईं ओर ऊखीमठ की ओर मुड़ जाता है। 

पहाड़ों का असली सौंदर्य यहाँ से शुरु होता है। दूर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं लुका छुपी करती हुई सफर के आनन्द को बढा रही थीं। पहाड़ काटकर बनाए गए सीढ़ीनुमा खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। इसमें उपजे शुद्ध आर्गेनिक अन्न, फल व सब्जियाँ कितने स्वादिष्ट व पौष्टिक होते होंगे, कल्पना कर रहे थे। लेकिन  इनमें खेती कितना श्रमसाध्य होती होगी, इसका भी अनुमान लगा रहे थे। 
रास्ते में कई छोटे गाँव, ढावे व कस्वों को पार करते हुए अब हमारा सफर घने जंगल में प्रवेश कर चुका था। हम बीच में ही उखीमठ को पार कर चुके थे। 
मालूम हो कि ऊखी मठ क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। लगभग 4300 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह तीर्थ रुद्रप्रयाग से 41 किलोमीटर की दूरी पर है। सर्दियों के दौरान केदारनाथ और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की जाती है। मान्यता है कि उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन की गयी थी। उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा।
 अब हम उखीमठ से चोपता की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में लंगूरों के झुंड के दर्शन यहाँ के एकांतिक एवं सघन वन परिवेश का संदेश दे रहे थे। बाबा लोग पैदल ही यात्रा पर अलमस्त अंदाज में धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। रास्ते में पग-पग पर जल स्रोत की प्रचुरता के दर्शन बहुत सुखद अनुभूति देते रहे, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इतने सघन बनों नें जल के स्रोत्र फूटना स्वाभाविक है। 


सफर के साथ रास्ते में देवदार व बाँज के पेड़ हिमालयन ऊँचाइयों में प्रवेश का शीतल अहसास दिला रहे थे। लो, अब तो बढ़ती ऊँचाईयों के साथ मार्ग में लम्बी व मोटी हरि पत्तियों बाले बुराँश के पेड़ भी सड़क के दोनों ओर हमारा स्वागत कर रहे थे। ड्राइवर के साथ केविन में बैठे होने के कारण रास्ते के सौंदर्य का भरपूर आनन्द लेते रहे और मोबाइल में यथासम्भव हर सुंदर दृश्य को केप्चर करते रहे।
चोपता से ऊपरइस तरह हम अंततः चोपता पहुँच जाते हैं। मालूम हो कि इस क्षेत्र को उत्तराखण्ड का मिनी स्विटजरलैंड कहा जाता है। इस राह से गुजरा यात्री इस उपमा के अर्थ को भली भांति समझ सकता है। चोपता की राह में सड़क के किनारे कुछ समतल स्थलों पर तम्बू लगे मिले। पता चला कि यहाँ ट्रेकिंग करने वालों के लिए कैंप्स में ठहरने की व्यवस्था रहती है। यह भी मालूम हो कि चोपता ही उत्तराखण्ड का एकमात्र बुग्याल जड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोटर मार्ग बीचों-बीच से होकर जाता है और यात्री गाडियों में बैठे-बैठे सफर का भरपूर लुत्फ उठाते हुए जंगल पार करते हैं।
चोपता में ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी। स्वाटर, जैकेट व टोपी मफलर सब बाहर निकल चुके थे। पूरी तरह से मुस्तैद होकर काफिला चोपता में बस से उतरकर तृतीय केदार तुंगनाथ की ओर बढ़ चलता है। यहाँ से आगे लगभग 4 किमी ट्रैकिग करनी थी।
मंजिल की ओर काफिले में कई वैरायटी के यात्री थे। कुछ एक दम फिट व रफ टफ, तो कुछ औसतन व कुछ पहली बार पहाड़ में पधारे और वह भी 1000 फीट से अधिक ऊँचाई पर। सो अनुमान था कि सभी एक साथ आगे नहीं बढ़ पाएंगे व सभी तुंगनाथ पहुँच जाए, यह भी उम्मीद नहीं थी। अतः जो जहाँ तक हो आया, बहुत है, रास्ते में हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य़ व दिव्य स्पर्श की एक झलक तो मिल ही जाएगी, आखिर सारा क्षेत्र तो बाबा का ही है। इस भाव के साथ काफिला आगे बढ़ता है। 

तुंगनाथ का इतिहास - मालूम हो कि तुंगनाथ पंचकेदार में तीसरे नम्बर पर आता है और यह विश्व का सबसे अधिक ऊँचाई (12073 फीट) पर स्थित शिवलिंग है और ये केदारनाथ और बद्रीनाथ के ठीक बीच में स्थित है। यह मंदिर लगभग १,००० वर्ष पुराना माना जाता है। मान्यता है कि पाण्डवों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बनाया गया था, जो कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार के कारण पाण्डवों से रुष्ट थे। मान्यता प्रसिद्ध है कि इस मंदिर में भगवान शिव की भुजा व ह्दयक्षेत्र की पूजा होती है। 


तुंगनाथ के बर्फानी दर्शन सफर के दौरान बाबा की कृपा कुछ ऐसी रही कि प्रकृति यात्रियों के सर्वथा अनुकूल रही। चार कि.मी. की कहीं ढलानदार तो कहाँ कुछ खड़ी चढाई पथिकों के उत्साह, जीवट व साहस की भरपूर परीक्षा ले रही थी। 
तुंगनाथ पहुँचने के पूर्व ही सड़क के किनारे जमी बर्फ के दर्शन के साथ ही जैसे थके यात्रियों की सारी थकान छूमंतर हो जाती है, एक नयी ऊर्जा का संचार होता है और मजेदार बात यह रही कि तुंगनाथ पहुँचने पर समूह का स्वागत अभिसिंचन बर्फ के फाहों के साथ होता है। 

मई माह में भी रास्ते के दोनों ओर जमी बर्फ और साथ में बर्फवारी के  दर्शन, सब बाबा की अजस्र कृपा व इस सीजन का एक विरल संयोग था। बर्फानी बाबा की उपस्थिति प्रत्यक्ष अनुभव हो रही थी। विधि विधान से पूजा के साथ काफिला मंदिर के बाहर प्रागण में आता है और यहाँ से हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाओं के क्षितिज तक पसरे स्वर्गोपम सौंदर्य का विहंगावलोकन करता है। 
मार्ग में राज्य पक्षी मोनाल के दर्शन हुए, जो इस इलाके में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रायः इनके दर्शन तीर्थयात्रियों को होते रहते हैं, हालाँकि इनको कैमरे में केप्चर कर पाना काफी दुष्कर रहता है, क्योंकि ये स्वभाव से बहुत शर्मीले और फुर्तीले होते हैं।

प्रख्यात चंद्रशिला यहाँ से 2-3 किमी आगे है, लेकिन समय की सीमा में यहाँ का सफर सबके साथ संभव नहीं था। दो तीन टुकड़ियों में काफिला बारी-बारी बाबा के दर्शन कर यहाँ के दिव्य एवं रोमाँचक परिवेश का आनन्द लेता है।
मंदिर के कौने में अंधेरे को आलोकित करता अखण्ड दीपक तमसो मा ज्योतिर्गमय के दिव्य भाव को जगा रहा था।
मंदिर के बाहर सभी यथासंभव फोटोज व सेल्फी के साथ कुछ यादगार पलों को केप्चर करते हैं। यहाँ से सुदूर बर्फ से ढ़की चोटियाँ व नीचे घाटी के दर्शन अवर्णनीय अनुभव रहे
, जो ताऊम्र स्मरण करने पर चित्त को आल्हादित करते रहेंगे। खासकर जो पहली बार जीवन में बर्फ के दर्शन किए, उनके लिए यह अनुभव दुवारा आने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
राह में स्वास्थ्य कारणों से आगे न बढ़ पाने वालों के साथ भी बाबा की कृपा एवं प्रकृति का उपहार अपने ढ़ंग से बरसता रहा। पीछे मुड़ने का कोई कारण नहीं था, सो रास्ते में थोड़ा-थोड़ा विश्राम करते हुए आगे सरकते रहे। मार्ग में नीचे घाटी के पार सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं पर बरसते काले-काले बादलों का दृश्य दर्शनीय था। 
बापिस आ रहे यात्रियों से पता चला कि पास में ही एक टी-स्टाल है, सो हिम्मत कर वहाँ तक पहुँचने की कोशिश में धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। मोड़ से इसकी झलक पाकर खुशी का ठिकाना न रहा कि इसके नीचे एक बड़ा बुगियाल(घास का पहाड़ी मैदान) पसरा है। सो ट्रेकिंग मार्ग से उतर कर बुगियाल के मखमली गलीचे में चहल कदमी करते हुए प्रकृति की गोद में विचरण का आनन्द लेते रहे। 
कभी घास पर लेटकर तो कभी पत्थर के आसन पर बैठकर, तो कभी चट्टानों पर खड़े होकर, तो कभी चट्टानी विस्तर पर लेटकर। रास्ते में इस सीजन में भी पीले रंग के जंगली फूलों का गलीचा बिछा मिला। हालाँकि इस क्षेत्र में हर तरह के रंग-विरंगे फूलों के दर्शन अगस्त-सितम्बर माह में अपने चरम पर होते हैं, जो यहाँ जड़ी-बूटियों के फूलने का सीजन होता है। जबकि जनवरी-फरवरी माह में यह सारा भूक्षेत्र बर्फ की मोटी चादर औढ़े शीतनिद्रा की अवस्था में होता है।

सामने प्रत्यक्ष खड़ी हिमाच्छादित चोटियां हिमालय के आंचल में विचरण का गाढ़ा अहसास करा रही थी। धीरे-धीरे ये हिमाच्छादित पर्वत बादलों से ढक गए थे और स्पष्ट रुप में वहाँ ऊँचाईयों में बर्फवारी शुरु हो चुकी थी, जिसकी फुहार जल्द ही यहाँ भी हल्की बुंदाबांदी के रुप में शुरु हो चुकी थी और वातावरण में ठंड़क बढ़ रही थी। 
ठंड़ से निजात पाने के लिए समूह सड़क के किनारे बने टी-स्टाल में शरण लेता है।
 तन में ढके हुए कपडे कम पड़ रहे थे। ठंड़क सीधे अंदर बदन में चुभ रही थी व ठंड़ के कारण कंपकपी छूट रही थी। ठंड़ से कुछ राहत पाने के लिए टी-स्टाल में जल रहे चूल्हे की शरण में जाते हैं, गर्म चाय व मैग्गी के साथ कुछ राहत महसूस करते हैं ओर आगे गए काफिले की बापसी का इंतजार करते हैं। 

खाली समय में यहाँ की अलग-अलग लोकेशन के साथ कुछ यादगार फोटोज कैप्चर करते रहे। और जब पता चलता है कि काफिला ऊपर से बापिस आ रहा है तो धीरे-धीरे बापिस चोपता की ओर चल पड़े।



मार्ग में बुराँश फूल के वृक्ष बहुतायत में लगे मिले। राह में गुजर रहे स्थानीय लोगों से पूछने के बाद भी यह प्रश्न अनुतरित रहा कि ये स्वयं ही इस तादाद में यहाँ लगे या किसी सुनियोजित रीति से इन्हें यहाँ रोपा गया। मजेदार बात यह है कि यहाँ बुराँश की सभी किस्में उपलब्ध हैं।
सबसे नीचे सुर्ख लाल रंग के बुराँश, जिनके पेड़ ऊँचाई लिए होते हैं। फिर ऊँचाईयों पर हल्के गुलाबी रंग के बुराँश, जो झाड़ियों में लगे होते हैं और सबसे अधिक ऊँचाइयों पर सफेद रंंग के बुरांश। इस सीजन में वृक्षों से फूल लगभग झड़ चुके थे। विशेषज्ञों के अनुसार, फूलों के साथ लकदक बुराँश के दर्शन के लिए अप्रैल माह सबसे सही रहता है।
आधे मार्ग में बापसी पर बाबा तुंगनाथ के प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने का हल्का सा मलाल अवश्य रहा, लेकिन पूरा ग्रुप यात्रा को सकुशल पूरा कर जीवन के कुछ यादगार लम्हों को समेटकर बापिस आ रहा है, यह सुकून साथ में था। फिर सबकुछ एक ही यात्रा में पूरा हो, यह भी तो जरुरी नहीं। कुछ अगली यात्रा के लिए, इस भाव के साथ हल्के मन के साथ बस में अपनी सीट ग्रहण किए।
गोचर की ओरढलती शाम तक सभी चोपता बापिस आ चुके थे। अंधेरा होने से पूर्व बस चोपता से चल पड़ती है। तुंगनाथ व राह में मिले रोमाँचक अनुभव के बीच काफिला सुखद अनुभूतियों के साथ रोमाँचित था। अगले दो-तीन घंटे में बस उसी रास्ते से रुद्रप्रयाग पहुँचती है, जिससे होकर गई थी।
अंधेरे में बाहर के दृश्यों के अवलोकन का कोई सवाल नहीं था। रात के अंधेरे में वृक्षों व पहाडों के काले साय के बीच सरपट दौड़ती बस और इसकी रोशनी ही प्रत्यक्ष थे, जिनका अवलोकन एक अलग ही अनुभव दे रहा था। थकावट के कारण अधिकाँश यात्री विश्राम व निद्रा की गोद में विचरण कर रहे थे। हम अब तक के सुरक्षित सफर के लिए बाबा की अजस्र कृपा को अंतःकरण की गहराईयों से अनुभव कर रहे थे। 
राह में नींद के झौंको के बीच पता ही नहीं चला कि कब बस रुद्रप्रयाग के बाद नागरसु से होते हुए गौचर पहुँच चुकी है, जहाँ गढ़वाल मंडल निगम के गेस्ट हाउस में रात के रुकने का ठिकाना था।
रात को भोजन के बाद कौतुहल वश एक राउंड बाहर मैदान का लगा आए, अंधेरे में पास खड़े पहाडियों में टिमटिमाते घर एक अलग ही नजारा पेश कर रहे थे। दिन के उजाले में इनके दर्शन व गोचर के नाम के रहस्य का अनावरण सुबह किया जाना था। इसी भाव के साथ राह की सुखद यादों के साथ निद्रादेवी की गोद में चले जाते हैं।
 
यात्रा का अगला भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हरियाली माता के देश में
 
यदि आपने यात्रा का पिछला भाग न पढ़ा हो तो, आगे पढ़ सकते हैं - तुंगनाथ यात्रा, भाग-1

 

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