मणीकर्ण तीर्थ से मलाणा वाया रसोल टॉप
दिन 4 –
मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर
दिन 5 – रसोल
टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,
दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से
रसोल टॉप की ओर
प्रातः स्नान के बाद क्लार (सुबह का नाश्ता व लंच) करके देव काफिला बापिस कसोल की और कूच करता है। पार्वती नदी पर बने कसोल पुल को पार कर काफिला नई घाटी में प्रवेश करता है।
उस पार छलाल गाँव के पीछे से होते हुए काफिला बढ़ी-बढ़ी चट्टानों और चीढ़ के जंगल को पार करते हुए रसोल गाँव की ओर बढ़ता है। पूरी यात्रा की सबसे खड़ी चढ़ाई इस हिस्से में थी।
मार्ग में बुराँश के सुर्ख लाल फूल से लदे वृक्ष यात्रियों का स्वागत करते हैं, जो रास्ते भर बहुतायत में दिखते रहे। रसोल गाँव को बीच से पार करते हुए कुछ यात्री आगे के मार्ग के लिए यहाँ की दुकानों से कुछ राशन भी खरीदते हैं।
रसोल गाँव को पार करते-करते जोर की बारिश शुरु हो जाती है, पथरीला रास्ता और फिसलन भरा हो जाता है। इसी के साथ रसोल गाँव के पीछे खड़ी चढ़ाई को धीरे-धीरे पार करते हुए काफिला आगे बढ़ता है। इसे पार करते हुए 6.35 बजे काफिला रसोल टॉप के नीचे खेचुमारु स्थान पर रुकता है। यहीं पर रात्रि विश्राम व भोजन की व्यवस्था होती है और प्रातः यहाँ से रवाना होते हैं।
देव काफिले में 50-60 सदस्य देवता (की टीम) के
साथ के थे, जिनमें 10-12 बाजा बजाने बाले बजंतरि, 10 नरकाहल बजाने वाले। फिर सभी
देवी-देवताओं के एक-एक गुर व पजियारे। 8 बारी और उनके साथ 1 संगी, इस तरह 16 और
इनके साथ कारदार सहित देवता के अन्य सेवक। इनके भोजन की व्यवस्था देवता की तरफ से
होती थी। इनका भोजन बड़े पतीले (पोतलू) व वर्तनों में तैयार होता है। पहले देवता
को भोग लगता है और फिर भोजन-प्रसाद ग्रहण किया जाता है और फिर वर्तन साफ। इसके बाद
की आगे की यात्रा शुरु होती थी। बाकि 200 लोग अपना-अपना भोजन अपने समूह में बनाते
हैं।
दिन 5 – रसोल टॉप से होकर मलाणा गाँव,
प्रातः 6.45 पर काफिला खेचुमारु से रवाना होता है और एकदम खडी चढाई के साथ रसोल टॉप पहुँचता है, जहाँ हल्के स्नोफाल के साथ स्वागत होता है। लगता है कि जैसे घाटी की देवशक्तियों द्वारा देव काफिले का विशिष्ट स्वागत-अभिसिंचन किया जा रहा हो।
रसोल टॉप से उस पार सीधे दूर चंद्रखणी धार (रिज) प्रत्यक्ष दिख रही थी, जिसे घाटी का पावन क्षेत्र माना जाता है। रसोल टॉप पर पहले से जमी हुई बर्फ भी मौजूद थी, जिस के संग अगले आधे घंटे का सफर तय होता है।
टॉप से नीचे उतरते हुए सुबह 10.30 तक छोरोवाई स्थान पर पहुँचते हैं, जहाँ बारिश शुरु हो जाती है।
यहां से मलाणा गाँव के दर्शन घाटी के उस पार प्रत्यक्ष थे। विश्व का प्राचीनतम लोकतंत्र मलाना कभी अपनी पुरातन संस्कृति व घर-गांव के लिए जाना जाता था। लेकिन आज यह आधुनिकता के दौर में प्रवेश कर शहरनुमा लुक ले चुका है। हरी चादर से ढके चार मंजिला घर यहाँ की बढ़ती समृद्धि औऱ आधुनिकता की कहानी व्यां करते हैं। पुराने घर कुछ ही शेष बचे हैं।
घाटी के बीच में नीचे मलाणा नाला बह रहा था। जैसे ही खाना बनाना शुरु करते हैं बारिश और तेज हो जाती है और झमाझम बारिश के बीच चुल्हे जलते हैं, भोजन तैयार होता है। सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और दोपहर के 2.30 बजे तक बारिश में चलते रहते हैं। यहाँ से सीधा नीचे मलाणा नाला पहुँचते हैं। और फिर नाले को पार करते हुए देव काफिला चढाईदार मार्ग पर सीधे मलाना गाँव की ओर बढ़ता है।
रास्ते में ही लैंड स्लाईड की लोमहर्षक घटना घटती है, जिसमें मल्बे के साथ एक बहुत बड़ी चट्टान ऊपर से नीचे गिरती है, जिसकी चपेट में 8-10 लोग बाल-बाल बचते हैं। लगा जैसे दैवी संरक्षण ने रक्षा क्वच की भाँति सबको सुरक्षित इस प्राकृतिक आपदा के पार लगा दिया हो।
मलाना पहुँचने पर मलाणा वासियों द्वारा देव काफिले के देउड़ुओं की भावभरी आव-भगत होती है। हर घर के लिए 2-4 खिंडु (मेहमान) बाँटे जाते हैं। गाँववासी उसी हिसाब से मेहमानों को अपने-अपने घर में ठहराते हैं, भोजन कराते हैं। यह स्वागत व मेहमानवाजी कुल्लू घाटी की देवसंस्कृति की आतिथ्य-सत्कार परम्परा का एक अहं हिस्सा है। घरों में आग के चुल्हे व तंदूर जल रहे थे। सभी गीले कपड़े सुखाते हैं। बाहर ठंड का अनुमान लगा सकते हैं, जो यह गाँव 9,938 फीट उंचाई पर बसा है। रात्रि विश्राम के बाद सुबह 6 बजे देव काफिला देव प्रांगण (देउए-री-सोह) में एकत्र होते हैं, और 6.40 पर आगे के लिए कूच करते हैं।
मलाणा गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों के बीच
काफिला आगे बढ़ता है। धीरे-धीरे गाँव को पार करते हुए ऊपर पहुंचता है और गाँव नीचे
रह जाता है। (जारी...)
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