शुक्रवार, 30 जून 2023

सावन में 14 घंटे का वह ऐतिहासिक सफर

                                      14 घंटे के जाम के बीच 14 घंटे का यादगार सफर

2023 के सावन का 14 घंटे का सफर, हरिद्वार से कुल्लू, हमेशा याद रहेगा। क्योंकि ऐसा जाम कभी नहीं देखा था, भोगा था और संभवतः आगे भी ऐसी नौवत नहीं आएगी। अपनी मंजिल पर पहुंचने से महज 2 घंटे पहले, ऐसे जाम में फंसे की अगले 14 घंटे, इसकी छत्रछाया में जीवन के सारे फलसफे चिदाकाश पर तैरते हुए, जीवन का गाढ़ा बोध दे गए। इस रुट पर पिछले चार दशकों के सफर की स्मृतियों का जैसे इस दौरान प्रक्षालन हुआ। दैवीय विधान के अन्तर्गत कुछ भी अनायास तो नहीं होता, ऐसा ही कुछ इस यादगार यात्रा के अनुभव रहे।

     जून के अंतिम सप्ताह के रविवार देसंविवि, हरिद्वार परिसर से हरिद्वार बस स्टैड की ओर चल पड़े थे। 4 बजे बस थी और सवा तीन चलते-चलते बच गए थे। तैयारियों की व्यवस्तता में भूल गए थे कि आज रविवार है और मालूम हो कि हरिद्वार-ऋषिकेश रोड़ पर सप्ताह अंत के दो दिनों में दिन भर वाहनो के काफिले रेंगते रहते हैं, 3-4 घंटे में 8-10 किमी का सफर पूरा होता है, और कभी तो इससे भी अधिक। आज भी वाहन ड्राईवर पहले ही चेतावनी दे रहे थे कि कल तक बस स्टैंड पहुंच जाओ, तो भी जल्दी मानना। वह पहले ही दिन की पारी में बस स्टैंड से विश्वविद्यालय परिसर तक एक राउँड में 3-4 घंटे के जाम में फंस चुका था।

     खैर हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हाँ प्लान बी जरुर था कि यदि हरिद्वार से बस छूट गई तो, किसी भी बस में चण्डीगढ़ तक निकल जाएंगे, वहाँ से किसी भी दूसरी बस में अपने गन्तव्य की ओर कूच कर जाएंगे। इसी प्लान के साथ ड्राइवर को सप्तऋषि चूंगी से मैन हाइवे (जहाँ ट्रैफिक चिंटी की चाल रेंग रहा था) से हट कर भारत माता की ओर से आगे बढ़ते हैं। इसी के समानान्तर बांध के ऊपर गंगा के किनारे से भी वैकल्पिक मार्ग है, जो दिन को बड़े बाहनों के लिए बंद रहता है। हम भारत माता वाइपास के छोर पर भूपतवाला के पास मुख्यमार्ग में निकलते हैं, हमारी किस्मत के लिए यहाँ हमारी ओर का ट्रेफिक खुल चुका था, दूसरी ओर का बंद था। सो हम कुछ ही मिनट में हर-की-पौड़ी पार करते हुए फ्लाई ओवर पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि नीचे के मार्ग में फिर जाम था। इस तरह फ्लाई ओवर के दूसरे छोर से मुड़ कर वाइं ओर से आगे बढ़ते हुए फ्लाई ओवर के नीचे से तिराहे के पार गंगनहर के समानान्तर पुलिया से पार होते हैं व अग्रसेन चौक से होकर प्रेस क्लव से होते हुए बस स्टैंड पहुँचते हैं। काऊंटर पर हरिद्वार-मानाली हिमधारा बस खड़ी थी। कन्डक्टर के ईशारे पर काउंटर पर जा पहुँचे हैं, 3 बज कर 45 मिनट हो चुके थे, 15 मिनट शेष थे। अनुमान था कि काउंटर पर भारी भीड़ होगी, जो पिछली बार हमने झेली थी। लेकिन आश्चर्य, इस बार मात्र एक सवारी खड़ी थी। हमे तुरन्त ही अपनी इच्छानुकूल खिड़की बाली 24 नम्बर सीट मिल जाती है। अंदर बस में पहुँचते हैं, एक तिहाई ही भरी थी। हमारे लिए इतनी सहजता से आज मनचाही सीट मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। हमारे प्लान बी को लागू करने की नौवत नहीं आने दी प्रभू ने।

     बस ठीक 4 बजे चल देती है, गन्तव्य तक कब पहुँचेगी, कंडक्टर ने 5,30 का समय बताया। 14 घंटे का हमारा अनुमान लगभग सही निकला, जितना औसतन इस रुट पर एक बस समय लेती है।

     हल्के अभिसिंचन के साथ यात्रा शुरु होती है। अनुमान था कि आगे भारी बारिश का सामना हो सकता है, क्योंकि 80 से 90 प्रतिशत बारिश की भविष्यवाणी गूगल देवता कर रहे थे। और पहाड़ों में तो भूसख्लन से लेकर बादल फटने की घटनाएं समाचारों में फ्लैश हो रही थी।

लेकिन हमारा यह अनुमान गलत निकला। रुढ़की – सहारनपुर से होते हुए हम मनका-मनकी के चण्डीगढ़ ढावे में शाम के अंधेरे के बीच पहुँचते हैं। रास्ते भर आसमान में हल्के बादलों के बीच ढलते सूरज के दर्शन होते रहे। रास्ते के हरे-भरे खेत, आम से लदे बगीचे, धान की ताजा रुपाई से पानी के बीच झूमते चावल के नन्हें पौधे और बीच में बरसाती जल से उफनता यमुना नदी का जलस्तर। सड़क के पास के गाँव की भी खबर लेते रहे, मोबाइल कैमरे को जूम कर इनको नजदीक लाकर केप्चर करते रहे। रास्ते का नजारा नीचे दिए विडियो लिंक में देख सकते हैं।

     मनका-मनकी ढावे तक पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी। यहाँ अपनी पसंदीदा डिश का आनन्द लिया। सवा आठ के करीब यहाँ से बस चल पड़ती है। अम्बाला को पार करते हुए 10 बजे तक चण्डीगढ़ 43 सैक्टर के बस आइएसबीटी पहुँचते हैं। और रात के अंधेरे में मोहाली, खरड़, रुपनगर से होते हुए कीरतपुर पार करते हैं।

यहाँ पर सुना था कि टनल का कार्य पुरा हो चुका है, सो आज इसमें प्रवेश के नए अनुभव को लेकर रोमाँचित थे, लेकिन बस चढाई ही चढ़ती गई और स्वारघाट के शिखर तक पहुँच गई। पता चला टनल ट्रायल के लिए बीच में खुली थी, लेकिन आज बंद थी। सो हम पुराने घुमावदार व उतार-चढ़ाव भरे रास्ते से होकर रात को लगभग 1 बजे बिलासपुर पहुँचते हैं।

यहाँ से आगे सलापड़ में सतलुज नदी को पार करते हुए, सुन्दर नगर पहुँचते हैं व आगे नैर चौक से होकर प्रातः 3 बजे तक मण्डी  बस खड़ी होती है। हल्की सी बूंदावादी के दर्शन यहाँ हो रहे थे, लेकिन आगे कई बसों व वाहनों की कतार खड़ी दिख रही थी। जल्द ही सूचना मिली कि आगे 7 मील स्थान पर लैंड स्लाइड हुआ है और ट्रैफिक जाम पड़ा है। उम्मीद थी कि जाम कुछ देर में खुल जाएगा, इस रूट में बारिश के बीच यदा-कदा भूस्खलन और फिर कुछ देर में रास्ते का खुलना आम बात है।

बाहर निकलकर जब दूसरी सबारियों से चर्चा हुई तो पता चला कि जाम कुछ अधिक लम्बा है, और लैंड स्लाइड भी कई किमी में है, 5 से 7 किमी में लैंड स्लाइट की बात हो रही थी, जो समझ नहीं आ रही थी। रात को 3 बजे तो सड़क ठीक होने से रही, अनुमान था की प्रातः 6 बजे उजाला होते ही काम शुरु हो जाएगा औऱ 8-9 बजे तक सड़क खुल जाएगी। बस में कुल 7 सवारियां थी और ड्राइवर भी सबारियों को आगे किसी बस में बिठाने की बात कर रहा था। इसी के साथ आगे बढ़ता है, लगभग मंडी बस स्टैंड से 3 किमी आगे एक विरान से स्थान पर बस खड़ी होती है, हालाँकि एक ओर बंद दुकानें थी तो दायीं और ऊपर कुछ हॉटेल, जो विराने में जंगल के नीचे खड़े थे। सुबह 8-9 बजे तक यहां किन्हीं हलचल की उम्मीद भी नहीं थी। इस बीच बारिश थोड़ा तेज हो चुकी थी और गाढ़ी थोड़ा आगे सरक चुकी थी और वायीं ओर एक रिजार्ट था, नीचे व्यास नदीं की तेज धारा। दायीं ओर ऊपर जंगल व छोडी सी पहाड़ी। आगे भी दूर पहाड़ियों के दर्शन यहाँ से हो रहे थे, जो अंशतः बादलों से ढके थे।

प्रकृति की गोद में अद्भुत नजारे के बीच जैसे हमारी प्रातःकालीन संध्या हो रही थी। हमारी कोई चिरआकाँक्षित इच्छा इस सबके बीच पूरा हो रही थी। पूरा बस खाली थी, तीनों सीटों पर कभी पीठ के बल, तो कभी करवट लेते हुए नींद पूरी करते हैं। उठकर पीछे सड़क के किनारे एक पगडंडी के साथ थोड़ा ऊपर जंगल में जाकर हल्का होते हैं, पास के जल स्रोत में हाथ धोते हैं।

पुनः बस में बैठकर साथ में लाए दाल-मौंठ, न्यूट्री-च्वाइस बिस्कुट व का नाश्ता करते हैं, जल के साथ मुख शुद्धि करते हैं। ड्राइवर से टायलेट के सुविधा की पूछते हैं, तो निराशाजनक उत्तर मिलता है, लगा कि आज इस जंगल में हठयोग करना पड़ेगा। 400 मीटर पीछे एक ढावा भी दिख गया था, लेकिन कुछ भी भारी खाने से परहेज करते रहे। पास की दुकान से 25 रुपए के 3 केले व साल्टेड़ मूंगफली लिए। किसी तरह से आज का दिन पार करना था, लगा प्रीमिटिव सरवाइल तथा मैन वर्सेज वाइल्ड सीरियल्ज के एडवेंचर की इच्छा को पूरी करने का प्रभु मौका दे रहा था। बहुत देख लिए यू-ट्यूब पर, आज कुछ प्रैक्टिकल हो जाए।

ऐसे में दिन के 12 बज गए, फिर 1, 2 और 3। बारह घंटे जाम में फंस कर बीत चुके थे। बीच में खबर मिल चुकी थी कि जाम खुलने बाला है, लेकिन फिर खबर आई और कन्डकटर के पास वीडियो भी कि ऊपर से दूसरा लैंड स्लाइड हो चुका है। लगा कि आज का हढयोग तो भारी पड़ने वाला है। अब तक हम दो पत्रिकाओं, एक पुस्तक को पढ़ चुके थे व सारे आइजियाज को पन्नों में उतार चुके थे।  

ऐसे में उक्ता कर पास की सबारी से अपनी व्यथा सुनाते हैं, तो पता चला की पीछे 500 मीटर पर एक पेट्रोल पंप है व वहाँ फ्रेश होने की सुविधा है। अपना लैप्टॉप पीठ पर टांगे हम बिना देरी किए चल पड़े और वहाँ 2-3 पुरुषों को मेल काउंटर पर खड़ा पाकर राहत की सांस लिए। फिमेल काउंटर पर दर्जनों की भीड़ थी। जल्द ही अंदर प्रवेश मिलता है व हल्का होकर भारी राहत की सांस लेते हैं।

लगा कि दैवी कृपा भी तप के चरम पर ही बरसती है। यही बात सुबह ही ड्राइवर कहे होते, या किसी सवारी से पता चली होती, तो इतना लम्बा हठयोग न करना पड़ता।

लगभग साढ़े चार बज चुके थे। पता चला की जाम खुल चुका है। कई किमी लम्बे जाम को खुलने में आधा घंटा लगा, पहले ऊपर के बाहर नीचे आते गए। फिर हमारा नम्बर आया, लगभग 5 पजे हमारी गाड़ी बाकि वाहनों के काफिले के साथ आगे सरक रही थी। 14 घंटे के ऐतिहासिक जाम के बीच हम आज जैसे एक चिरस्मरणीय अनुभव लेकर जा रहे थे। हमारे लिए ये किन्हीं ऐतिहासिक पलों से कम नहीं थे। आप चाहें तो आगे की वीडियो में जाम के नजारे को नीचे दिए लिंक में देख सकते हैं। यह इस मायने में विशेष है कि इस रुट पर गुजरने वाली 14 घंटे की सभी देशी-विदेशी, डिलक्स, आर्डिनरी, सरकारी व प्राइवेट गाडियों तथा विभिन्न प्रकार के ट्रक, कारें व अन्य वाहनों के दिग्दर्शन कुछ मिनट में आप कर पाएंगें औऱ कुछ के नाम, रुप व डिजायन को देखकर आप चकित भी हो सकते हैं और कुछ रोचक व रोमाँचक जानकारियों आपको मिल सकती हैं। आगे 7 व 9 मील के लैंडस्लाइट प्वाइँट को भी आप इसमें देख सकते हैं।

आगे पँडोह को पार करते ही यहाँ के डैम के बरसाती स्वरुप को कैप्चर किए। जल की वृहद राशि, भयावह फब्बारे के रुप में आसमां को छुते हुए नीचे गिरती है। पंडोह को पार करते हुए रास्ते में टनल के कार्य रोमाँचित करते हैं और एक बिंदु पर इनमें प्रवेश करने का संयोग बनता है। इनकी सफाइ, लाइटिंग, टेक्नोलॉजी व पॉलिश अटल टनल को भी फेल कर रही थी। हनोगी माता के पीछे के गगनचूंबी पहाड़ के बीच आगे बढ़ते यह टनल इंजीनियरिंग के चमत्कार का एक वेजोड़ नमूना है। इसमें कार्यरत कम्पनी, कर्मचारी, इंजीनियर पर इनके नीति निर्माता नेतृत्व सभी साधुवाद के पात्र हैं।

टनन के बाहर निकलते-निकलते अंधेरा हो चुका था। थ्लौट से गुजरते हुए, ओउट टनल से गुजरते हैं, जो अब एक आदिम सुरंग प्रतीत हो रह थी। आउट के बाद पनारसा के पहले अंधेरे में पहाड़ों के शिखर पर बिजली महादेव के दर्शन हो रहे थे। आगे का सफर सड़क के दोनों ओर की बिजली की चकाचौंध के बीच पूरा होता है। इस तरह रात को 9 बजे हम कुल्लू के ढालपुर मैदान (अठारह करड़ू री सोह) में प्रवेश करते हैं और कुछ ही मिनट में सरबरी नदी को पार करते हुए सर्वरी बस स्टैंड पर पहुँचते हैं।

इस तरह 14 घंटे के जाम के बीच 14 घंटे का यह सफर कई ऐतिहासिक यादों का साक्षी बना, जो जीवन में पहली बार घटित हो रहा था। इसलिए स्मृति पटल पर चिरअंकित रहेगा। 

बुधवार, 31 मई 2023

पहचानें अपना जीवन का मौलिक लक्ष्य

 

अन्तःप्रेरणा संग उठाएं साहसिक कदम

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है। बिना लक्ष्य के व्यक्ति उस पेंडुलम की भांति होता है, जो इधर-ऊधर हिलता ढुलता तो रहता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर व्यक्ति की ऊर्जा यूँ ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है और हाथ कुछ लगता नहीं। फिर कहावत भी है कि खाली मन शैतान का घर। लक्ष्यहीन जीवन शैतानियों में ही बीत जाता है, निष्कर्ष ऐसे में कुछ निकलता नहीं। पश्चाताप के साथ इसका अंत होता है और बिना किसी सार्थक उपलब्धि के एक त्रास्द कॉमेडी के रुप में वहुमूल्य जीवन का अवसान होता है। अतः जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है।

लेकिन जीवन लक्ष्य निर्धारण में प्रायः चूक हो जाती है। अधिकाँशतः बाह्य परिस्थितियाँ से प्रभावित होकर हमारा जीवन लक्ष्य निर्धारित होता है। समाज का चलन या फिर घर में बड़े-बुजुर्गों का दबाव या बाजार का चलन या फिर किसी आदर्श का अंधानुकरण जीवन का लक्ष्य तय करते देखे जाते हैं। इसमें भी कुछ गलत नहीं है यदि इस तरह निर्धारित लक्ष्य हमारी प्रतिभा, आंतरिक चाह, क्षमता और स्वभाव से मेल खाता हो। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो फिर जीवन एक नीरस एवं बोझिल यात्रा बन जाती है। हम जीवन में आगे तो बढ़ते हैं, सफल भी होते हैं, उपलब्धियाँ भी हाथ लगती हैं, लेकिन जीवन की शांति, सुकून और आनन्द से वंचित ही रह जाते हैं। हमारी अंतर्निहित क्षमता प्रकट नहीं हो पाती, जीवन का उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो पाता। पेशे के साथ व्यक्तित्व में जो निखार आना चाहिए वह नहीं आ पाता।

क्योंकि जीवन के लक्ष्य निर्धारण में अंतःप्रेरणा का कोई विकल्प नहीं। अंतःप्रेरणा सीधे ईश्वरीय वाणी होती है, जिससे हमारे जीवन की चरम संभावनाओं का द्वार खुलता है। हर इंसान ईश्वर की एक अनुपम एवं बैजोड़ कृति है, जिसे एक विशिष्ट लक्ष्य के साथ धरती पर भेजा गया है, जिसका कोई दूसरा विकल्प नहीं। अतः जीवन लक्ष्य के संदर्भ में किसी की नकल नहीं हो सकती। ऐसा करना अपनी संभावनाओं के साथ धोखा है, जिस छोटी सी चूक का खामियाजा जीवन भर भुगतना पड़ता है। यह एक विडम्बना ही है कि मन को ढर्रे पर चलना भाता है। अपने मौलक लक्ष्य के अनुरुप लीक से हटकर चलने का साहस यह नहीं जुटा पाता और भेड़ चाल में उधारी सपनों का बोझ ढोने के लिए वह अभिशप्त हो जाता है। ऐसे में अपनी अंतःप्रेरणा किन्हीं अंधेरे कौनों में पड़ी सिसकती रहती है और मौलिक क्षमताओं का बीज बिना प्रकट हुए ही दम तोड़ देता है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि व्यक्ति अपने सच का सामना करने का साहस कर पाता। अंतर्मन से जुड़कर अपने मूल बीज को समझ पाता। बाहर प्रकट होने के लिए कुलबुला रहे प्रतिभा के बीज को निहार पाता। अपनी शक्ति-सीमाओं को, अपनी खूबी-न्यूनताओं को देख कर अपनी अंतःप्रेरणा के अनुरुप जीवन लक्ष्य के निर्धारण का साहसिक कदम उठा पाता, जिसमें आदर्श की बुलंदियाँ भी होती और व्यवहार का सघन पुट भी। ऐसे में नजरें आदर्शों के शिखर को निहारते हुए, कदम जड़ों से जुड़े हुए शनै-शनै मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे होते।

ऐसा न कर पाने का एक प्रमुख कारण रहता है, दूसरों से तुलना व कटाक्ष में समय व ऊर्जा की बर्वादी। अपनी मौलिकता की पहचान न होने की बजह से हम अनावश्यक रुप में दूसरों से तुलना में उलझ जाते हैं। भूल जाते हैं कि सब की अपनी-अपनी मंजिलें हैं और अपनी अपनी राहें। इस भूल में छोटी-छोटी बातों में ही हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन बैठते हैं। इस बहकाव में अपने स्वधर्म पर केंद्रित होने की वजाए हम कहीं ओर उलझ जाते हैं। ऐसे में अपने मौलिक बीज को निहारने-निखारने की शांत-स्थिर मनःस्थिति ही नहीं जुट पाती। मन की अस्थिरता-चंचलता गहरे उतरने से रोकती है। एक पल किसी से आगे निकलने की खुशी में मदहोश हो जाते हैं, तो अगले ही पल दूसरे से पिछड़ने पर अंदर ही अंदर कुढ़ते व घुटते रहते हैं। बाहर की आपा-धापी और अंधी दौड़ में कुछ यूँ उलझ जाते हैं कि अपने मूल लक्ष्य से चूक जाते हैं।

ऐसे में जरुरत होती है, कुछ पल नित्य अपने लिए निकालने की, एकाँत में शांति स्थिर होकर बैठने की और गहन आत्म समीक्षा करने की, जिससे कि अपनी प्रतिभा के मौलिक बीज को खोदने-खोजने की तथा इसके ईर्द-गिर्द केंद्रित होने की। प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय इसमें बहुत सहायक होता है। इसके प्रकाश में आत्म समीक्षा व्यक्तित्व की गहरी परतों से गाढ़ा परिचय कराने में मदद करती है। अपने व्यवहार, स्वभाव एवं आदतों का पेटर्न समझ आने लगता है। इसी के साथ अपने मौलिक स्व से परिचय होता है और जीवन का स्वधर्म कहें या वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट होता चलता है।

खुद को जानने के प्रयास में ज्ञानीजनों का संगसाथ बहुत उपयोगी सावित होता है। उनके साथ विताए कुछ पल जीवन की गहन अंतर्दृष्टि देने में सक्षम होते हैं। जीवन की उच्चतर प्रेरणा से संपर्क सधता है, जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है। भीड़ की अंधी दौड़ से हटकर चलने का साहस जुट पाता है और जीवन को नयी समझ व दिशा मिलती है। जीवन नई ढ़गर पर आगे बढ़ चलता है। वास्तव में अपनी मूल प्रेरणा से जुड़ना जीवन की सबसे रोमाँचक घटनाओं में एक होती है। इसी के साथ जीवन के मायने बदल जाते हैं, जीवन अंतर्निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति का एक रोचक अभियान बन जाता है।

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

खेल जन्म-जन्मांतर का है ये प्यारे

 

जब न मिले चित्त को शांति, सुकून, सहारा और समाधान

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता है, जिनका तात्कालिक कोई कारण समझ नहीं आता और न ही त्वरित कोई समाधान भी उपलब्ध हो पाता। ऐसे में जहाँ अपना अस्तित्व दूसरों के लिए प्रश्नों के घेरे में रहता है, वहीं स्वयं के लिए भी यह किसी पहेली से कम नहीं लगता।

यदि आप भी कुछ ऐसे जीवन के अनुभवों से गुजर रहे हैं, या उलझे हुए हैं, तो मानकर चलें कि यह कोई बड़ी बात नहीं। यह इस धरती पर जीवन का एक सर्वप्रचलित स्वरुप है, माया के अधीन जगत का एक कड़ुआ सच है। वास्तव में येही प्रश्न, ये ही समस्याएं, येही बातें जीवन को ओर गहराई में उतरकर अनुसंधान के लिए प्रेरित करती हैं, समाधान के लिए विवश-वाधित करती हैं।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यवहार में व्यक्तित्व की परिभाषा खोजने वाला आधुनिक मनोविज्ञान मन की पहेलियों के समाधान खोजते-खोजते फ्रायड महोदय के साथ वीसवीं सदी के प्रारम्भ में मनोविश्लेषण की विधा को जन्म देता है। फ्रायड की काम-केंद्रित व्याख्याओं से असंतुष्ट एडलर, जुंग जैसे शिष्य मनोविश्लेषण कि विधा में नया आयाम जोड़ते हैं। इनके उत्तरों में अपने समाधान न पाने वाले मैस्लो मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं (Hierarchy of Needs) की एक श्रृंखला परिभाषित कर जाते हैं, जिनमें अध्यात्म को भी स्थान मिल जाता है।

इससे भी आगे जीवन को समग्रता में समझने की कोशिश में मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक मनोविज्ञान पर शोध-अनुसंधान कर रहे हैं। हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व योग-मनोविज्ञान के रुप में अष्टांग योग का एक व्यवहारिक एवं व्यवस्थित राजमार्ग उद्घाटित किया था, जिसका अनुसरण करते हुए व्यक्ति अपने जीवन की पहेली को सुलझा सके। क्योंकि यह कोई बौद्धिक तर्क-वितर्क तक सीमित विधा नहीं, बल्कि जीवन साधक बनकर अस्तित्व के साथ एक होने व जीने की पद्वति का नाम है।

यहाँ हर घटना कार्य-कारण के सिद्धान्त पर कार्य कर रही है। हम जो आज हैं, वो हमारे पिछले कर्मों का फल है और जो आज हम कर रहे हैं, उसकी परिणति हमारा भावी जीवन होने वाला है। वह अच्छा है या बुरा, उत्कृष्ट है या निकृष्ट, भव्य है या घृणित, असफल है या सफल, अशांत-क्लांत है या प्रसन्न-शांत – सब हमारे विचार-भाव व कर्मों के सम्मिलित स्वरुप पर निर्धारित होना तय है।

यही ऋषि प्रणीत कर्मफल का अकाट्य सिद्धान्त ईश्वरीय विधान के रुप में जीवन का संचालन कर रहा है। यदि हम पुण्य कर्म करते हैं, तो इनके सुफल हमें मिलने तय हैं और यदि हम पाप कर्म करते हैं, तो इनके कुफल से भी हम बच नहीं सकते। देर-सबेर पककर ये हमारे दरबाजे पर दस्तक देते मिलेंगे। इसी के अनुरुप स्वर्ग व नरक की कल्पना की गई है, जिसे दैनिक स्तर पर मानसिक रुप से भोगे जा रहे स्वर्गतुल्य या नारकीय अनुभवों के रुप में हर कोई अनुभव करता है। मरने के बाद शास्त्रों में वर्णित स्वर्ग-नरक का स्वरुप कितना सत्य है, कुछ कह नहीं सकते, लेकिन जीते-जी शरीर छोड़ने तक इसके स्वर्गोपम एवं मरणात्क अनुभवों से गुजरते देख स्वर्ग-नरक के प्रत्यक्ष दर्शन किए जा सकते हैं।

दैनिक जीवन की परिस्थितियों, घटनाओं व मनःस्थिति में भी इन्हीं कर्मों की गुंज को सुन सकते हैं और गहराई में उतरने पर इनके बीजों को खोज सकते हैं। नियमित रुप से अपनाई गई आत्मचिंतन एवं विश्लेषण की प्रक्रिया इनके स्वरुप को स्पष्ट करती है। कई बार तो ये स्वप्न में भी अपनी झलक-झांकी दे जाते हैं। दूसरों के व्यवहार, प्रतिक्रिया व जीवन के अवलोकन के आधार पर भी इनका अनुमान लगाया जा सकता है। एक साधक व सत्य-अन्वेषक हर व्यक्ति व घटना के मध्य अपने अंतर सत्य को समझने-जानने व खोजने की कोशिश करता है।

जब कोई तत्कालिक कारण नहीं मिलते तो इसे पूर्व जन्मों के कर्मों से जोड़कर देखता है औऱ जन्म-जन्मांतर की कड़ियों को सुलझाने की कोशिश करता है। यह प्रक्रिया सरल-सहज भी हो सकती है औऱ कष्ट-साध्य, दुस्साध्य भी। यह जीवन के प्रति सजगता व बेहोशी पर निर्भर करता है। माया-मोह व अज्ञानता में डूबे व्यक्ति के जीवन में ऐसे अनुभव प्रायः भुकम्प बन कर आते हैं, शॉकिंग अनुभवों के आँधी-तुफां तथा सुनामी की तरह आते हैं तथा अस्तित्व को झकझोर कर जीवन व जगत के तत्व-बोध का उपहार दे जाते हैं।

इन्हीं के मध्य सजग साधक समाधान के बीजों को पाता है, जबकि लापरवाह व्यक्ति दूसरों पर या नियति या भगवान को दोषारोपण करता हुआ, इन समाधान से वंचित रह जाता है। वस्तुतः इसमें स्वाध्याय-सतसंग से प्राप्त जीवन दृष्टि व आत्म-श्रद्धा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। और इनके साथ गुरुकृपा व ईश्वर कृपा का अपना स्थान रहता है। अतः आत्म-निष्ठ, ईश्वर परायण व सत्य-उपासक साधक कभी निराश नहीं होते। गहन अंधकार के बीच भी वे भौर के प्रकाश की आश लिए आस्थावान ह्दय के साथ दैवीय कृपा के प्रसाद का इंतजार करते हैं और देर-सबेर उसे पा भी जाते हैं।

मंगलवार, 31 जनवरी 2023

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान

 

जीवन – मृत्यु का शाश्वत चक्र, वियोग विछोह और गहन संताप

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान,

प्रश्नों के अंबार हैं जेहन में, कितनों के उत्तर हैं शेष,

लेकिन मिलकर रहेगा समाधान, है ये पूर्ण विश्वास ।0


आज कोई बिलखता हुआ छोड़ गया हमें,

लेकिन इसमें उसका क्या दोष,

उसे भी तो नहीं था इसका अंदेशा,

कुछ समझ नहीं आया प्रभु तेरा ये खेल 1

 

ऐसे ही हम भी तो छोड़ गए होंगे बिलखता कभी किन्हीं को,

आज हमें कुछ भी याद तक नहीं,

नया अध्याय जी रहे जीवन का अपनों के संग,

पिछले बिछुड़े हुए अपनों का कोई भान तक नहीं ।2

 

ऐसे में कितना विचित्र ये चक्र सृष्टि का, जीवन का,

कहीं जन्म हो रहा, घर हो रहे आबाद,

तो कहीं मरण के साथ, बसे घरोंदे हो रहे बर्वाद,

कहना मुश्किल इच्छा प्रभु तेरी, लीला तेरी तू ही जाने ।3

 

ऐसे में क्या अर्थ है इस जीवन का,

जिसमें चाहते हुए भी सदा किसी का साथ नहीं,

बिछुड़ गए जो एक बार इस धरा से,

उन्हें भी तो आगे-पीछे का कुछ अधिक भान नहीं ।4

 

कौन कहाँ गया, अब किस अवस्था में,

काश कोई बतला देता, दिखला देता,

जीवन-मरण की गुत्थी को हमेशा के लिए सुलझा देता,

लेकिन यहाँ तो प्रत्यक्ष ऐसा कोई ईश्वर का विधान नहीं ।5

 

ऐसे में गुरुजनों के समाधान, शास्त्रों के पैगाम,

शोक सागर में डुबतों के लिए जैसे तिनके का सहारा,

संतप्त मन को मिले कुछ सान्तवना, कुछ विश्राम,

स्रष्टा का ये कृपा विधान भी शायद कुछ कम नहीं ।6

 

बाकि तेरी ये सृष्टि, तेरा ये खेल प्रभु तू ही जाने,

यहाँ तो प्रश्नों के लगे हैं अम्बार और बहुतों के हैं शेष समाधान,

लेकिन अन्तर में लिए धैर्य अनन्त, है तुझ पर विश्वास अपार,

किश्तों में मिल रहे उत्तर, आखिर हो कर रहेगा पूर्ण समाधान ।7

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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

जीवन दर्शन - मन की ये विचित्र माया

 

बन द्रष्टा, योगी, वीर साधक


 
                             मन की ये माया

गहन इसका साया

चुंगल में जो फंस गया इसके

तो उसको फिर रव ने ही बचाया ।1।

 

खेल सारा अपने ही कर्मों का

इसी का भूत बने मन का साया

आँखों में तनिक झाँक-देख लो इसको

फिर देख, ये कैसे पीछ हट जाए ।2।

 



मन का बैसे कोई वजूद नहीं अपना

अपने ही विचार कल्पनाओं की ये माया

जिसने सीख लिया थामना इसको

उसी ने जीवन का आनन्द-भेद पाया ।3।

 

वरना ये मन की विचित्र माया,

गहन अकाटय इसका आभासी साया

नहीं लगाम दी इसको अगर,

तो उंगलियों पर फिर इसने नचाया ।4।

 

बन योगी, बन ध्यानी, बन वीर साधक,

देख खेल इस मन का बन द्रष्टा

जी हर पल, हर दिन इसी रोमाँच में

देख फिर इस जगत का खेल-तमाशा ।5।


रविवार, 25 दिसंबर 2022

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय

मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है।

लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल में सारे सपने चकानाचूर हो जाते हैं व जीवन शून्य पर आकर खड़ा हो जाता है।

जो भी हो, मृत्यु एक अकाट्य सत्य है, देर सबेर सभी को इससे होकर गुजरना है, किसी को पहले तो किसी को बाद में, सबका नम्बर तय है, बल्कि जन्म लेते ही इसकी उल्टी गिनती शुरु हो चुकी होती है। हर दूसरे व्यक्ति के मौत के साथ इसकी सूचना की घण्टी बजती रहती है, लेकिन मन सोचता है कि दूसरों की ही तो मौत हुई है, हम तो जिंदा है और मौत का यह सिलसिला तो चलता रहता है, मेरी मौत में अभी देर है। यह मन की माया का एक विचित्र खेल है। लेकिन हर व्यक्ति की सांसें निर्धारित हैं, यहाँ तक की मृत्यु का स्थान और तरीका भी। हालाँकि यह बात दूसरी है इस सत्य से अधिकाँश लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। केवल त्रिकालदर्शी दिव्य आत्माएं व सिद्ध पुरुष ही इसके यथार्थ से भिज्ञ रहते हैं।

जब कोई पूरी आयु जीकर संसार छोड़ता है, तो उसमें अधिक गम नहीं होता, क्योंकि सभी इसके लिए पर्याप्त रुप से तैयार होते हैं, विदाई ले रही जीवात्मा भी और उसके परिवार व निकट परिजन भी। लेकिन जब कोई समय से पहले इस दुनियाँ को अल्विदा कह जाता है, या काल का क्रूर शिंकंजा उसको हमसे छीन लेता है या कहें भगवान बुला लेता है, तो फिर एक बज्रपात सा अनुभव होता है, एक भूचाल सा आ जाता है, जिसमें शुरु में कुछ अधिक समझ नहीं आता। व्यक्ति अपनी कॉम्मन सेंस के आधार पर स्थिति को संभालता है, परिस्थिति से निपटता है। ऐसे में अपनों का व शुभचिंतकों का सहयोग-सम्बल मलमह का काम करता है। धीरे-धीरे कुछ सप्ताह, माह बाद व्यक्ति इस शोकाकुल अवस्था से स्वयं को बाहर निकलता हुआ पाता है।

इस तरह काल जख्म को भरने की अचूक औषधि सावित होता है। लेकिन जख्म तो जख्म ही ठहरे। कुरेदने पर, यादों के ताजा होने पर यदा-कदा रुह को कचोटने वाली वेदना के रुप में उभरते रहते हैं, जो हर भुगत भोगी के हिस्से में आते हैं। ऐसे स्थिति में भावुक होना स्वाभाविक है, आंसुओं का झरना स्वाभाविक है, ह्दय में भावों का स्फोट स्वाभाविक है। लेकिन रोते-कलपते ही रहा जाए, शोक ही मनाते रहा जाए, तो इसमें भी समाधान नहीं, किसी भी प्रकार तन-मन व आत्मा के लिए यह हितकर नहीं। इस स्थिति से उबरने के लिए हर धर्म, संस्कृति व समाज में ऐसी सामूहिक व्यवस्था रहती है, कि शोक बंट जाता है व परिवार का मन हल्का होता है। सनातन धर्म में इसके निमित तेरह दिन, एक माह या चालीस दिन तथा इससे आगे तक धार्मिक कर्मकाण्डों का सिलसिला चलता रहता है, जिनका शोक निवारण के संदर्भ में अपना महत्व रहता है। हर वर्ष पितृ-पक्ष में श्राद्ध तर्पण का विधान इसी तरह का एक विशिष्ट प्रयोग रहता है।

इनके साथ अपनी शोक-वेदना को सृजनात्मक मोड़ दिया जाता है। इसमें जीवन-मरण, लोक-परलोक व अध्यात्म से जुड़ी पुस्तकों का परायण बहुत सहायक रहता है। इनसे एक तो सांत्वना मिलती है, दूसरा इनके प्रकाश में जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि व समझ विकसित होती है, जो इस शोकाकुल समय को पार करने में बहुत कारगर रहती हैं।

साथ ही समझ आता है, कि धरती अपना असली घर नहीं, असली घर तो आध्यात्मिक जगत है, जहाँ जीवात्मा देह छोड़ने के बाद वास करती है। हालाँकि इस मृत्युलोक और जीवात्मा जगत के बीच यात्रा का सिलसिला चलता रहता है, जब तक कि जीवात्मा मुक्त न हो जाए। इस प्रक्रिया पर थोडा सा भी गहराई से चिंतन व विचार मंथन जाने-अनजाने में ही व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन की गहराइयों में प्रवेश दिला देता है। और इसके साथ जीवन-मरण, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, कर्मफल सिद्धान्त जैसी बातें गहराई में समझ आने लगती हैं। समझ आता है कि जन्म-मरण का सिलसिला न जाने कितना बार घटित हो चुका है और आगे कितनी बार इससे गुजरा शेष है, जब तक कि कर्मों का हिसाब-किताब पूरा न हो जाए।

समझ आता है कि धरती पर जन्म अपने कर्मों के सुधार के लिए होता है, यह धरती एक प्रशिक्षण केंद्र है, कर्मभोग की भूमि है और साथ ही कर्मयोग भूमि भी, जहाँ एक अच्छे एवं श्रेष्ठ जीवन जीते हुए अपना आत्म परिष्कार करते हुए, जीवात्मा जगत में अपने स्तर को उन्नत करना है। संयम-सदाचार से लेकर सेवा साधना आदि के साथ अपने सद्गुणों का विकास करते हुए जीवात्मा अपने कर्म सुधार कर सकती है तथा इनके अनुरुप जीवात्मा जगत में उच्चतर लोकों में स्थान मिलता है।

इन सबके साथ जीवन-मरण का खेल और मृत्यु की अबुझ पहेली के समाधान तार हाथ में आने शुरु हो जाते हैं व धरती पर एक सार्थक जीवन के मायने व अर्थ समझ आते हैं। सांसारिक मोह-माया व अज्ञानता-मूढ़ता की बेहोशी टूटती है व एक नए होश, जोश व समझ के साथ जीवन के क्रियाक्लापों का पुनर्निधारण होता है। इस सबमें ईश्वर या किसी दूसरे को दोषी मानने की भूल से भी बचाव होता है। अंततः अपने कर्मों के ईर्द-गिर्द ही सब केंद्रित समझ आता है - जन्म भी, मृत्यु भी, स्वर्ग भी, नरक भी, पुनर्जन्म भी और अन्ततः मुक्ति भी। इसके साथ ही हर स्तर पर अपनी भूल-चूक, त्रुटियों व गल्तियों के सुधार, अपने दोषों के परिमार्जन व अपने कर्मों के सुधार की प्रक्रिया अधिक प्रगाढ़ रुप में गति पकड़ती है।

इस तरह मृत्यु के सत्य से दीक्षित पथिक इस धरती रुपी सराय का बेहतरतम उपयोग करता है और जब मृत्यु रुपी दूत दस्तक दे जाता है, तो पथिक अपनी अर्जित धर्म-पुण्य और सत्कर्मों की पूँजी के साथ बोरिया-बिस्तर समेटते हुए इस धरती पर एक प्रेरक विरासत छोड़ते हुए महायात्रा के अगले पड़ाव की ओर बढ़ चलता है।

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