तमसो मा ज्योतिर्गमय
नाव वहाँ डूबी, जहाँ पानी सबसे कम गहरा था,
नहीं तो परायों की क्या विसात, अपनों के बल हम अकेले ही जमाने पर भारी थे।
मासूमियत में कह गए थे बातें अपने दिल की सर्वहित
में,
नहीं मालूम था कि सामने दिल में खोट गहरी थी।
हमें तो लूटने की आदत रही हर मासूम अदा पर अपनेपन
में,
नहीं मालूम था कि सामने चाल शातिर गहरी चल रही थी।
आत्मीयता संवेदना की जहाँ हो रही थी बातें बड़ी गहरी,
नहीं मालूम था कि वहीं इनकी कब्र खुदने जा रही थी।
ऐसे में सफर रहा कुछ ऐसा, राह में सबसे कमजोर कढ़ियां पुल बनती गई,
था जिन पर गरुर बहुत, वही मंजिल के अंतिम मोड़ पर दगा दे गई।
फिर भी नहीं अधिक गिला-शिक्वा अस्तित्व की इन चालों से,
इनको इनका कर्मफल मुबारक, हम तो अपनी राह चल पड़े।
शुक्र ही मनाऊं अंधेरे का, जो दीया सा जलने की
सार्थकता दे गए,
वाकी सब इच्छा महाकाल की, हम भी अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले।