हठयोग से बचें, मध्यमार्ग का वरण करें
नवरात्रि सनातन धर्म की अध्यात्म परम्परा का
एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो वर्ष में दो बार क्रमशः मार्च और सितम्बर माह में
क्रमशः चैत्र वासंतीय नवरात्रि और आश्विन शारदीय नवरात्रि के रुप में देशभर में
धूमधाम से मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त दो बार क्रमशः आषाढ़ और माघ माह में गुप्त
नवरात्रि के रुप में भी इसका समय आता है, जो सर्वसाधारण के बीच कम प्रचलित है।
नवरात्रि वर्ष भर की ऋतु संध्या के मध्य के पड़ाव हैं, जब सूक्ष्म प्रकृति एवं जगत में तीव्र हलचल होती है और स्थूल रुप में यह ऋतु परिवर्तन का दौर रहता है। इस संधि वेला में एक तो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से और दूसरा आध्यात्मिक दृष्टि से नवरात्रि साधना का विधान सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने सोच समझकर रचा है। और भगवती की उपासना के साथ स्थूल एवं सूक्ष्म प्रकृति के संरक्षण संबर्धन का संदेश भी इन नवरात्रियों में छिपा रहता है।
इस समय व्रत उपवास एवं अनुशासन से देह मौसमी
विकारों से बच जाता है और ऊर्जा के संरक्षण एवं अर्जन के साथ साधक आने वाले समय के
लिए तैयार हो जाता है। मन भी आवश्यक शोधन की प्रक्रिया से गुजर कर परिष्कृत हो जाता
है और व्यक्ति बेहतरीन संतुलन एवं दृढ़ता को प्राप्त कर जीवन यात्रा की चुनौतियां
का सामने करने के लिए तैयार हो जाता है। सामूहिक चेतना के परिष्कार का उद्देश्य भी
इसके साथ सिद्ध होता है।
नवरात्रि के दौरान शक्ति उपासना भारतीय अध्यात्म परम्परा की एक विशिष्ट विशेषता को भी दर्शाता है। भारत में ईश्वर को जितने विविध रुपों में पूजा जाता है, वह स्वयं में विलक्षण है। यहाँ तो नदी, पहाड़ों, पर्वतों, वृक्षों से लेकर जीव-जंतुओं में, यहाँ तक कि पाषाण में भी भगवान की कल्पना कर उसे जीवंत किया जाता है। नवरात्रि में देवी के दिव्य नारी रुप में ईश्वर की उपासना का भाव है, जो मुख्यतया शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा है। हालाँकि देश के विभिन्न क्षेत्रों में देवी की, भगवती की, माँ दुर्गा की उपासना नाना रुपों में प्रचलित है, जिसे किसी साम्प्रदाय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह तो लोक आस्था का पर्व है, जो हर क्षेत्र में अपनी क्षेत्रीय भाषा में वहाँ के भजन, कीर्तन व विधि-विधान के साथ मनाया जाता है।
जो भी हो नवरात्रि में माँ दुर्गा की उपासना नौ
रुपों में की जाती है। जो नारी शक्ति के रुप में भगवती की विभिन्न अवस्थाओं को
दर्शाते हैं। शैलपुत्री हिमराज हिमालय की पुत्री के रुप में भगवती की प्रतिष्ठा
है, ब्रह्मचारिणी के रुप में भगवती के कन्या रुप में, तपस्विनी स्वरुप की उपासना
की जाती है। चंद्रघण्टा भगवती की किशारोवस्था के दिव्य स्वरुप की कल्पना है, तो
कुष्माण्डा ब्रह्माण्ड को स्वयं में धारण करने में सक्षम भगवती के यौवनमयी दिव्य स्वरुप
को दर्शाती है। सकन्दमाता के रुप में देवी देवसेनापति कार्तिकेय की मातृ शक्ति के
रुप में पूजित हैं, तो कात्यायनी के रुप में वे अपने कुल एवं प्रजा की रक्षा के
लिए खड़गधारिणी माँ भवानी के रुप में विद्यमान हैं।
कालरात्रि के रुप में भगवती सत्य, धर्म एवं श्रेष्ठता की विरोधी प्रतिगामी और आसुरी शक्तियों के जड़मूल उच्छेदन एवं परिष्कार के लिए कटिबद्ध विकराल एवं प्रचण्डतम शक्ति की द्योतक हैं, तो महागौरी के रुप में देवी का शांत-सौम्य, दिव्य एवं सात्विक प्रौढ़ स्वरुप व्यक्त होता है औऱ सिद्धिदात्री के रुप में वे भक्तों की मनोकामना को पूर्ति करने वाली, सिद्धियों की अधिष्ठात्री करुणामयी माँ हैं और दुर्गा के रुप में उपरोक्त सभी रुपों का सम्मिलित रुप अष्टभूजाधारिणी, सिंहारुढ़ दुर्गा शक्ति रुप में प्रत्यक्ष है।
इस तरह शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा,
कुष्माण्डा, सकन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिदधिदात्री के रुप में
भगवती के नौ स्वरुपों की उपासना की जाती है। इसके अतिरिक्त मूल रुप में सृष्टि की
आदि स्रोत के रुप में वे आद्य शक्ति माँ गायत्री-दुर्गा के रुप में पूजित हैं।
सृजन, पालन एवं ध्वंस की शक्ति के रुप में क्रमिक रुप में महासरस्वती, महालक्ष्मी
एवं मकाहाली के रुप में पूजित-वंदित हैं।
साधना विधान – नवरात्रि के प्रारम्भ में घर के पावन कौने या पूजा कक्ष में भगवती की दिव्य प्रतिमा के साथ कलश एवं अखण्ड दीपक की स्थापना की जाती है, जहाँ नवरात्रि संकल्प के बाद नित्य पूजा, जप-ध्यान एवं साधना का क्रम चलता है। अपनी श्रद्धा अनुसार गायत्री उपासना, नवाण मंत्र जप, दुर्गा सप्तशती पाठ आदि का साधना विधान सम्पन्न होता है। पूजा-पाठ, उपासना एवं स्वाध्याय परायण की नियमितता के साथ साधना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
इन नौ दिनों में नियम, व्रत एवं संयम का
विशेष ध्यान रखा जाता है। जिसमें अपनी क्षमता के अनुसार उपवास से लेकर मौन व्रत
आदि का अभ्यास किया जाता है। युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी ने तप के अंतर्गत
12 विधानों का वर्णन किया है, जौ हैं - अस्वाद तप, तितीक्षा तप, कर्षण तप, उपवास,
गव्य कल्प तप, प्रदातव्य तप, निष्कासन तप, साधना तप, ब्रह्मचर्य तप, चान्द्रायण
तप, मौन तप और अर्जन तप। (गायत्री महाविज्ञान, भाग-1, पृ. 182-188) इन्हें साधक
अपनी स्थिति एवं क्षमता के अनुरुप पालन कर सकता है।
यहाँ किसी भी नियम व्रत में अति से सावधान रहना चाहिए। जो सहज रुप में निभे, बिना मानसिक संतुलन खोए, वही स्थिति श्रेष्ठ रहती है। नियम व्रत का स्वरुप कुछ ऐसा हो, जिसका परिणाम नौ दिन के बाद एक परिमार्जित जीवन शैली एवं श्रेष्ठ भाव-चिंतन के रुप में आगे भी निभता रहे। साधना के संदर्भ में व्यवहारिक नियम एक ही है कि जहाँ खड़े हैं, वहाँ से आगे बढ़ें। देखा देखी कोई अभ्यास न करें और हठयोग से बचें।
इस दौरान भगवती की कृपा बरसे, इसके
लिए नारी शक्ति को भगवती का रुप मानते हुए पवित्र दृष्टि रखें, घर-परिवार में नारी
का सम्मान करें। इसी तरह बाहर प्रकृति के प्रति भी सम्मान एवं श्रद्धा का भाव रखें
और तदनुरुप पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन में अपना योगदान दें। नवरात्रि के अंत में
कन्या पूजन, प्रीतिभोज एवं यज्ञादि के साथ पूर्णाहुति की जाती है और उचित जल स्रोत
में देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
नवरात्रि के दौरान उपासना-साधना के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी जुड़ा हुआ है। अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं व्यवसायिक जीवन के दायित्वों की कीमत पर किए गए साधना-अनुष्ठान को बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। साथ ही इस दौरान झूठ, प्रपंच, ईर्ष्या-द्वेष, कामचौरी, आलस, प्रमाद आदि से दूर रहें। इस तरह जीवन साधना के समग्र भाव के साथ किया गया नवरात्रि का व्रत-अनुष्ठान हर दृष्टि से साधक का उपकार करने वाला रहता है और साधक भगवती की अजस्र कृपा को जीवन में नाना रुपों में बरसते हुए अनुभव करता है।