यात्रा की भाव भूमिका -
भावों की अतल गहराई लिए हम इस यात्रा पर जा रहे थे। यही वह वंग भूमि है जिसने हर तरह की विभूतियों से इस भारतभूमि को धन्य किया है और विश्व को अजस्र अनुदान देकर मानवता को कृतार्थ किया है। साहित्य हो या कला, फिल्म हो या स्वतंत्रता संग्राम - हर क्षेत्र में इसके विशिष्ट योगदान रहे हैं, और सर्वोपरि धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में तो इसका कोई सानी नहीं। श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, स्वामी प्रण्वानन्द, कुलदानंद व्रह्मचारी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी विशुद्धानंद, महायोगी श्री अरविंद, सुभाषचंद्र बोस, रविंद्रनाथ टैगोर, विपिन चंद्र पाल,....इस वीर प्रसुता दिव्य भूमि, इस तीर्थ क्षेत्र को देखने के गहरे भाव के साथ यात्रा शुरु हो चुकी थी। कॉन्फ्रेंस एक वहाना थी, लेकिन इसमें भी हम एक विद्यार्थी के ज्ञान पिपासु भाव के साथ अपने विषय क्षेत्र के नए आयामों को जानने व एक्सप्लोअर करने के भाव के साथ जा रहे थे।
दून एक्सप्रेस मेें बीते तप-योगमय लम्हे -
अगले दिन कोलकाता से पहले बर्धमान तक कुछ
सवारियां उतर चुकी थी, सो साइड लोअर बर्थ पर सीट मिलने से खिड़की से वंगाल के ग्रामीण आंचल को देखने का मौका मिला।
इस रास्ते से दिन के उजाले में यह पहला सफर था, सो बाहर के दिलकश नजारों को
निहारते रहे और यथा संभव कैमरे में केप्चर करते रहे। हर गांव, हर कस्वे, हर घर के
बाहर तलाब-तलैया और नारियल-ताड़ी के पेड़ हमारे लिए एक रोचक दृश्य़ थे। खेतो में
धान कट चुकी थी। कटी धान की ढेरियां कहीं कहीं दिख रही थी। आगे कोलकाता की ओर
बढ़ते गए तो धान के हरे भरे खेत लहलहाते मिले। पता चला की यहां बारहों महीने खेत
में चाबल की खेती होती है।  ट्रेन में मच्छी-भात क्लचर से परिचय -
अब तक हमारा परिचय कोलकाता में किसी कंपनी
में पिछले तीन दशक से काम कर रहे सज्जन जनार्दन साहब से हो चुका था। इनसे अपनी
जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए, अपनी जानकारी में बृद्धि करते रहे। पता चला मच्छी-भात
यहां लोगों का प्रिय डिश है। मच्छली को शाकाहार माना जाता है, यहां तक कि
किन्हीं पूजा में तक इनका प्रयोग होता है। हमारी जिज्ञासा गहरी हो चुकी थी कि
मच्छली शाकाहार कैसे हो सकती है। समीपतम जबाब था कि एक मच्छली घास पत्ते भर खाती
है, सो उसे शाकाहारी मच्छली माना जाता है, और उसे खाने में कोई परहेज नहीं रहता।
खैर हमें इतना समझ आ रहा था कि देश काल परिस्थिति के अनुरुप, स्थानीय मजबूरियों के
अनरुप भोजन की आदतें तय होती हैं। जैसे बर्फीले दूरस्थ ठंडे इलाकों में जहां शाक-अन्न
दुर्लभ होते हैं, वहां मांस व देसी दारु का सेवन प्रायः लोक प्रचलन रहता है।हावड़ा स्टेशन पर यादगार पल -
पुरातन विरासत को समेटे कोलकाता के दर्शन -
इतिहास से रुबरु
होने के बहाने हम शहर की एक लोकप्रिय चाय की दुकान पर रुके। यहां अभी भी चाय बनाने औऱ पिलाने की सौ साल पुरानी परम्परा
निभायी जा रही है। अंगारों की अंगीठी-चूल्हे पर पानी गर्म हो रहा था, दूसरे वर्तन
में चाय मसाला तैयार हो रहा था। तीसरे वर्तन में ग्राहकों के हिसाब से ताजा चाय
तैयार की जा रही थी। और फंटाई के साथ इसे कुल्हड़ में परोसा जाता है। पता चला कि दुकान सिर्फ रात को बारह से अढाई बजे तक ही बंद
होती है, बाकि के 20-22 घंटे यहां चाय बनती रहती है। परम्पराओं से जुड़े शहर के
तार दिल को छूने बाले लगे, जिनके बाकि दिगदर्शन अभी होने शेष थे।पुरातन विरासत पर आधुनिकता की चादर ओढ़ता शहर -
बड़ा बाजार से बाहर निकलते ही रास्ते में
सडक पर दौड़ती ट्राम दिखी, जिसकी शायद बदलते जमाने के साथ मैट्रो युग में कोई
प्रासांगिकता नहीं है, लेकिन शहर का परम्परा के निर्वाह से प्रेम यथावत जारी दिखा।
कोलकाता की गली मुहल्लों के बारे में जो बातें उपन्यासों में पड़े थे, वे हुबहू
बैसे ही यहां जीवंत दिख रही थी। आधुनिकता की दौड़ में अभी भी शहर बहुत कुछ अपनी विरासत को संजोए हुए है। अंग्रेजों के समय में
सड़कों में बिछी जल पाइपें व इनसे फूटते पानी के फब्बारे सड़कों का साफ कर रहे थे।
अब तक हम बाहर आ चुके थे, आधुनिकता को गले लगाते कोलकाता के दर्शन हो रहे थे। हम
वीआईपी सड़क से गुजर रहे थे। फलाई ओबर पता तला शहर की लाइफ लाईन है, जहां जाम से
मुक्त रास्ते पर गाड़ी को सरपट दौड़ा सकते हैं, नहीं तो कोलकाता का जाम जिंदगी की
गति को ठहराए रहता है। रास्ते में टाबर से होते हुए आगे बढ़े। राह में परिजन के
मिशन से जुड़ने की बातें, आचार्यश्री से जुड़े भाव विभोर करते संस्मरण सुनते रहे और यात्रा से जुड़े दैवीय प्रवाह को अनुभव करते रहे। रास्ते में प्रदूषण का बढ़ता
स्तर थोड़ा परेशान जरुरत करता रहा। डस्ट व धुंएं की हल्की चादर ओढे शहर पर आधुनिकता
का दंश, बढ़ते बाहनों की मार साफ झलक रही थी।दक्षिणेश्वर की एक शाम -
केंद्र के परिव्राजक के साधना-स्वाध्याय व सेवा मय जीवन और सत्साहित्य को घर-घर तक पहुंचाने के लिए चल रहे प्रसाय सर्वथा प्रेरक व अनुकरणीय लगे। आधे दाम में अब तक हजारों प्रेरक पुस्तकों को बांट चुके हैं। हर रविवार को यहाँ सामूहिक सतसंग व पंचकोषीय साधना का सत्र चलता है। युवा परिव्राजक इसमें सराहनीय योगदान दे रहे हैं। यदि ऐसे प्रयोग हर प्रज्ञापीठ-शक्तिपीठों व देवालयों में चल पड़ें तो हर देवस्थल जीवंत जाग्रत तीर्थ के रुप में अपने क्षेत्र को संस्कारित करने में समर्थ भूमिका निभा सके। क्षेत्रीय परिजनों के संस्मरणों को देखकर साफ झलक रहा था कि गुरुस्ता का आश्वासन, कि तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे, आज भी कसौटी पर खरा उतर रहा है और परिजन पूरी निष्ठा के साथ अपना अकिंचन सा ही सही, किंतु भाव भरा नैष्ठिक योगदान दे रहे हैं।....जारी,


















