गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-1

                                           मेरी पहली वंदे भारत एक्सप्रेस रेल यात्रा

हरिद्वार स्टेशन पर वंदे भारत एक्सप्रेस का आगमन

पहली बार अयोध्या जाने का अवसर बन रहा था, वह भी एक नई रेल में। वहाना एक काँफ्रेंस का था, लेकिन अहसास हो रहा था कि जैसे अयोध्या धाम से राम लल्ला, भगवान रघुनाथ का बुलावा आया हो। अयोध्या धाम के साथ रामलल्ला के चिरप्रतिक्षित दर्शन करेंगे। साथ में जा रहे थे डॉ. दिलिप सराह, जिनके साथ यात्रा का संयोग मई माह की केंद्रीय संस्कृत विवि, देवप्रयाग क्रांफ्रेंस में भी बना था। टिकट से लेकर रुकने आदि की व्यवस्था में इनका सहयोग काविले ताऱीफ रहा।

वन्दे भारत एक्सप्रेस, मालूम हो कि प्रधानमंत्री मोदीजी की एक महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है और इसे एक सफल प्रयोग कह सकते हैं। मेक इन इंडिया के तहत यह लगभग पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक से बनी रेल हैं। यह अपनी हाइ-स्पीड़, स्वच्छता व किफायती दरों पर सुविधाओं के लिए जानी जाती है। बाहर से देखने पर कुछ-कुछ बुलेट ट्रेन का फील दे जाती है। एयरोडाइनमिक के सिद्धान्तों पर इसकी संरचना हुई है, जिससे यह हवा के प्रतिरोध को सक्षमता के साथ चीरते हुए गति पकड़ने व अपने मंजिल की ओर गतिशील होने में सक्षम है।

वंदे भारत एक्सप्रेस में डब्बे के अंदर का नज़ारा

इसमें मेट्रो की तरह स्वचालित दरबाजे हैं, जिनसे प्रवेश होता है, जो स्वतः ही यात्रियों के अंदर-बाहर निकलने पर खुल जाते हैं। अंदर जाने पर एकदम हवाई जहाज का लुक दिखता है। बस इसमें ऊपर लगेज बॉक्स खुले रहते हैं। सीट आरामदायक थी, सामने सीट के पीछे जालीदार बक्से में हल्का सामान रख सकते थे। इसमें लगी पट्टी फोल्ड होकर टेबल का काम कर रही थी। एक अखबार भी रो में पढ़ने के लिए उपलब्ध था। पानी की बोटल को रखने के लिए नीचे गोल खाँचा बना हुआ था और मोबाइल चार्ज के लिए हर सीट के नीचे चार्जिंग प्वाइंट था।

हवाई यात्रा का फील देती बंदे भारत एक्सप्रेस में एयर हॉस्टेस की जगह पुरुष हॉस्ट थे, जो यात्रियों की खाने-पीने की सुविधाओं का पूरा ध्यान रख रहे थे। पूरी मुस्तैदी से मिल रहे निर्देशों का पालन कर रहे थे। देहरादून से चलने के कारण स्वाभाविक रुप से उत्तराखण्ड के परिधान व टोपी को पहने हुए थे। ज्वालापुर को पार करते ही आगे के मार्ग में हरे-भरे खेत-खलिहान, गन्ने के नन्हें पौध, पोपलर के वृक्षों की कतारें स्वागत करती रहीं। कहीं-कहीं गाँव व कस्वों के दर्शन होते रहे और साथ छोटे पुल मिलते रहे।

इनके बीच विशेष ध्यान आकर्षित करता है एक विशाल नदी पर बना पुल, जो पूछने पर पता चला कि हम गंगा नदीं के ऊपर से गुजर रहे हैं। यह बालावाली का क्षेत्र था, जिसे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश का सीमा विभाजक (बोर्डर रेखा) पुल माना जाता है। बरसाती जल में उफनती, वृहद जलराशि से समृद्ध गंगा नदी के विस्तार को हम यथासंभव कैमरे में केप्चर करते रहे, जिसकी एक झलक आप नीचे वीडियो में देख सकते हैं।

रास्ते में सफर के लगभग आधा-पौन घंटा बाद ही चाय-नाश्ता सर्व किया जाता है। एक प्लेट में चॉक्लेटी फ्लेवर का पॉपकार्न पैकेट, एक छोटा हल्दीराम का नमकीन पैकेट और गर्मागर्म कचौरी, साथ में टोमेटो सोस और कॉफी पाउच, इस किट में थे। रेलनीर पानी की बोटल भी रास्ते में सभी यात्रियों को थमा दी गई थी। इस तरह यात्रा की शुरुआत नाश्ते के एक बेहतरीन अनुभव के साथ होती है। परिचारक चॉक्लेट, मैगी आदि लेकर घूम रहे थे। साथ ही चाय व कोल्ड ड्रिंक्स भी। हमें लगा शायद सब मुफ्त में बाँटा जा रहा हो, लेकिन चाय का ऑर्डर देने के बाद पता चला कि इनकी कीमत बसूली जा रही थी। इस तरह सफर के साथ नाश्ता और रात का भोजन ही फ्री में था, जो कि टिकट बुकिंग के समय दिए विकल्प के चयन के आधार पर तय था। जिनका टिकट बुकिंग के दौरान यह ऑपशन छूट गया हो, वे उचित दाम चुका कर नाश्ता, डिन्नर आदि कर सकते हैं।

नई ट्रेन के नए अनुभव के साथ सफर आगे बढ़ता जा रहा था। दोनों ओर गाँव, खेत-बगीचों के वही हरे-भरे दृश्य स्वागत कर रहे थे। कहीं बरसात के जल से बने तालाब भी दिख रहे थे। जब रेल थोड़ा धीरे होती तो, यथा संभव बाहर के मनोरम दृश्यों को कैप्चर करने का प्रय़ास कर रहे थे। इस तरह शाम का अंधेरा छा रहा था और लो रात का भोजन भी आ गया। इसमें दो रोटी, पुलाव, दाल, पनीर सब्जी, सलाद व रसगुल्ला आदि थे। कुल मिलाकर भोजन पेटभराउ था, न अधिक न कम। साथ ही स्वादिष्ट और पौष्टिक भी।

रात का भोजन (Dinner)

वंदे भारत रेल की साफ-सफाई व्यवस्था काविले तारीफ लगी। प्रसाधन सुविधा में हवाई जहाज की तरह बायोवैक्यूम शौचालय बनाए गए हैं, जिनके साथ साफ-सफाई, की उचित व्यवस्था सुनिश्चित हो रही थी। जल और सोप सोल्यूशन की उचित व्यवस्था थी, जो प्रायः दूसरी रेलों में बहुत खस्ता हालत में रहते हैं। बाकि यात्रियों की भी जिम्मेदारी बनती है, कि सरकार द्वारा उपलब्ध सुविधाओं का सावधानी व जिम्मेदारी से उपयोग करते हुए इन्हें दुरुस्त रखने में मदद करें। यात्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से प्रत्येक डिब्बे में सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं।

वंदे भारत रेल में जीपीएस सिस्टम लगा हुआ है, जो आने वाले स्टेशनों की जानकारी देता है। देहरादून से लखनऊ जंक्शन पर चलने वाली वंदे भारत रेल रास्ते में चार स्टेशन पर ही रुकती है – हरिद्वार, नजीबाबाद, मुरादाबाद और बरैली। बरैली और लखनऊ की राह में शाहजहाँपुर, हरदोई जैसे स्टेशन आते हैं, लेकिन रेल यहाँ नहीं रुकती। देहरादून से 2:25 PM पर छूटने वाली वंदे भारत का रास्ते में पहुँचने व छूटने का मानक समय कुछ इस तरह से है – हरिद्वार (3:26-3:31 PM), नजीबाबाद जन्कशन (4:17-4:19  PM) मुरादाबाद जन्कशन (5:40-5:45 PM), बरैली जन्कशन (7:00-7:02) और लखनऊ जन्कशन (10:40 PM)। इस तरह देहरादून से लखनऊ की कुल दूरी 544 किमी रहती है, जबकि हरिद्वार से कुल 492 किमी का रेल सफर तय कर हम मंजिल पर पहुँचते हैं।  

हरे भरे खेत बागानों से गुजरता रेल सफर

इस तरह हमारी वंदे भारत एक्सप्रेस औसतन 70 किमी प्रति घंटे के साथ मंजिल पर पहुँचती है। जबकि दावा किया जाता है कि यह ट्रेन 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार के साथ यात्रा कर सकती है। जो भी हो इस रेल में यात्रा बहुत ही स्थिर व सुखद रही, कहीं झटकने लगने की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ा। फिर बड़े-बड़े सीसों की खिड़कियों से बाहर के नजारे दिन के उजाले में यात्रियों को मश्गूल रखते हैं और रात की टिमटिमाती रोशनियाँ भी एक नया अनुभव देती हैं।

इस तरह हम सात घंटे के सफर के बाद रात साढ़े दस बजे लखनऊ पहुँचते हैं। नई ट्रेन में यह यात्रा हमारे जीवन के सबसे सुखद और यादगार अनुभवों में से एक रही। हम अपने अनुभव के आधार पर यात्रियों को भारतीय रेल्वे की वंदे भारत सेवा में एक बार सफर का सुझाव दे सकते हैं, जो आपके जीवन का एक वेहतरीन अनुभव सावित होगा तथा किसी भी रुप में घाटे का सौदा नहीं लगेगा।
बाहर से वंदे भारत एकस्प्रेेस का नज़ारा

सोमवार, 30 जून 2025

सत्य का संधान, स्थापना धर्म की


सत्य का संधान, स्थापना धर्म की,

किसने कहा कि है कार्य सरल-सहज, खेल बच्चों का,

स्वयं प्रभु आते हैं धरा पर इसको संभव बनाने।

 

लेकिन उनके साथी सहचर अंश होने के नाते,

हर संवेदनशील इंसान, जाग्रत जीवात्मा को उतरना पड़ता है मैदान में,

नहीं चुप रह सकती झूठ व असुरता का नग्न नृत्य को देख,

 करती है कुछ प्रयास इनसे जूझने, दूर करने के लिए,

 अपने स्तर पर, अपने ढंग से, अपनी क्षमता के अनुरुप।

 


अपने भोलेपन, मासूमियत में नहीं समझ पाती स्वरुप जगत का,

पहले सब अच्छे लगते हैं, उसे अपने जैसे, सरल-सहज,

सच्चे ईमानदार समझदार, गुरु के भक्त, वंदे सब प्रभु के।

 

लेकिन समय के साथ, कटु यथार्थ से पड़ता है जब वास्ता,

पता चलता है कि सबके अपने-अपने अर्थ, अपनी-2 परिभाषा,

 सत्य की, धर्म की, अच्छाई-बुराई और जीवन के मकसद की,

नहीं जीवन सरल इतना, शाश्वत वक्रता की यह विचित्र सृष्टि।

 

सूक्ष्म स्वार्थ-अहंकार, राग-द्वेष, महत्वाकाँक्षाएं सबकी अपनी-2,

ऐसे में सत्य-न्याय, धर्म-इमान, सही-गलत की बातें सापेक्ष,

सब अपनी-अपनी समझ, अनुभव, पूर्वाग्रह व समझ के चश्में से देख रहे।

 

जब अपने-परायों का भेद मुश्किल, तो बदल जाते हैं मायने धर्म स्थापना के,

ऐसे में जग के भोलेपन की भ्रम मारीचिका का टूटना है स्वाभाविक,

और अंधकार की शक्तियों का है वजूद अपना, सत्ता अपनी, संसार अपना।

 

नहीं चाहते ये परिवर्तन अभी वाँछित, अपनी शर्तों पर जीने के ये आदी,

नहीं औचित्य से मतलब इन्हें अधिक, बस अपने वर्चस्व की है इन्हें चिंता भारी,

इन पर न आए आँच तनिक भी, सत्य, न्याय, इंसानियत से नहीं इन्हें अधिक मतलव।

 

जाने-अनजाने में हैं ये हिस्सा समस्या के, शांति-समाधान में नहीं इनको अधिक रुचि,
आलोक सत्य का, प्रकाश धर्म का, तलवार न्याय की, हैं सीधे इनके वर्चस्व को चुनौती,

तिनका-2 जोड़ खड़ा मायावी महल, सत्य की एक चिंगारी से हो सकता है भस्म तत्क्षण।

 

अंधकार की इन शक्तियों का निकटतम संवाहक है बिगड़ैल मन अपना,

छिपे पड़े हैं, जिसके चित्त में महारिपु वासना-त्रिष्णा-अहंता, राग-द्वेष के अनगिन,

ये भी कहाँ बदलने के लिए हैं तैयार, आलस-प्रमाद में पड़े उनींदे, कम्फर्ट जोन के आदी।

 

इन्हीं से है समर पहला, बाहर के धर्मयुद्ध का मार्ग तभी खुलेगा,

इसलिए कठिन विकट मार्ग सत्य संधान का, धर्म स्थापना का,

स्वयं से है युद्ध जहाँ पहला, पहले साधना समर में उतरना होगा।

 

फिर अधर्म-अन्याय के विरुद्ध, सत्य-धर्म-औचित्य की दूधारी तलबार लेकर,

काल के तेवर को समझते हुए, महाकाल की इच्छा का अनुगमन करना होगा।

हरिद्वार से कुल्लू, वाया बस, जून 2025 का एक यादगार सफर

 

हरिद्वार से कुल्लू, वाया बस, जून 2025 का एक यादगार सफर

प्रश्नों के चक्रव्यूह से बाहर निकालता एक यादगार सफर

हरिद्वार से कुल्लू का सफर कई बार कर चुका हूँ, लेकिन इस वार का सफर एक नई ताजगी व रोमाँच से भरा हुआ था। अमूमन हरिद्वार से हमारा लोकप्रिय सफर हिमधारा सेमी डिलक्स में सांय 4 बजे प्रारम्भ होता रहा है, जो चण्डीगढ़ से लेकर हिमाचल के मंडी तक रात के अंधेरे में ही तय होता रहा है और प्रातः नौ बजे तक अपने गन्तव्य तक पहुँचाता है। इस बार हम ट्रैब्ल प्लान का शीर्षासन करते हुए 14 जून 2025 के दिन प्रातः पौने पाँच बजे की बस में हरिद्वार से चढ़ते हैं, बस सामान्य श्रेणी की थी, लेकिन सीटें किसी भी रुप में सेमी डिलक्स से कम नहीं थी, बस में एसी की सुविधा नहीं थी, जिसकी पूर्ति रास्ते का हवादार सफर करता रहा।

बल्कि हरिद्वार से देहरादून तक के एक घंटे के सफर में तो ठंड़क अहसास होता रहा, लगा टोपा या मफलर साथ लिए होते, तो बेहतर रहता। आगे तो अपने टॉउल को सर पर लपेट पर काम चलाते रहे। ठीक सात बजे देहरादून से बस आगे बढ़ती है। राह के कई पड़ावों व खेत-खलिहानों को पार करते हुए हम पौंटा साहिव पहुँचते हैं। यहाँ यमुना नदी पर बना पुल और इसके वाईं ओर राइट बैंक पर दशम गुरुगोविंद सिंह जी के स्वर्णिम काल का साक्षी गुरुद्वारा पौंटा साहिब सदैव ही गहनतम भाव-श्रद्धा के साथ नतमस्तक करता है।

इसके आगे कुछ देर तक मैदानी क्षेत्र को पार करने के बाद क्रमिक रुप से पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश होता है और घाटी के शिखर पर नाहन की ओर बढ़ता सफर नीचे के विहंगम दृश्य से आल्हादित करता है। नीचे दूर-दूर तक फैली हरी-भरी घाटी और मार्ग की मनोरम दृश्यावली निश्चित रुप से सफर में नया रस घोल रही थी।

नाहन बस स्टैंड पर कुछ देर रुकने के बाद पहाड़ से नीचे उतरते हुए वाया अम्ब, नारायण गढ़ा आदि स्थानों से होते पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता है। सिटी ब्यूटीफुल के दर्शन निश्चित रुप में सदैव ही सुखद अनुभव रहता है। माँ चण्डी देवी के नाम से चण्डीगढ़ का शहर पड़ा है। जिसका मंदिर पास के चण्डीमाजरा स्थान पर है। यहाँ से गुजरते हुए आदिशक्ति का भाव सुमरण के साथ ही शहर में प्रवेश होता है।

रास्ते में आम के बगीचों के बीच काफी देर तक सफर एक नया अनुभव रहता है। इस बगीचे की कहानी तो मालूम नहीं, लेकिन इसके बीच सफर एक सुखद अहसास दिलाता है। मेहनतकश बागवानों की किसानी संघर्ष की याद दिलाता है।

थोड़ी देर में चण्डीगढ़ 43 सेक्टर पहुँचते हैं, जहाँ नया आइएसबीटी स्टेशन है। कुछ देर रिफ्रेश होने के बाद यहाँ से सफर आगे बढ़ता है। इस तरह आज दिन के उजाले में चण्डीगढ़ शहर के दर्शन करते हुए पंचकुला साइड से एंटर होते हैं और मोहाली साईड से बाहर निकलते हैं। चण्डीगढ़ को सिटी ब्यूटीफुल क्यों कहा जाता है, राह के प्राकृतिक नज़ारों, सुव्यवस्थित टॉउन प्लानिंग को देखकर स्पष्ट होता है। रास्ते में चौराहे पर बस के जाम में खड़ा रहने के चलते थोड़ा गर्मी का अहसास भी हो रहा था। बस स्टैंड पर पहुंच कर कोल्ड कॉफी के साथ इसकी कुछ भरपाई करते हैं।

दिन के उजाले में मोहाली से गुजरते हुए रुपनगर (रोपड़) को पार करते हैं, बीच में ब्यास-सतलुज नदी के सम्मिलित जल की नीली धारा वाली नहर को पार करते हैं और हमारी बस रुकती है, कीरतपुर के लगभग 4 किमी पहले....स्थान पर, जो पंजाबी जायके वाले ढावों के लिए प्रख्यात है। हमारी बस भी शुद्ध वैष्णों ढावे के सामने खड़ी होती है। यहाँ की पंजाबी थाली व अन्त में लस्सी के गिलास के साथ पूर्णाहुति करते हैं और यहाँ बाहर काउंटर पर खड़े बंधु से बात कर अपनी सहज जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।

स्थान की विशेषता पूछने पर पता चला कि यह इलाका अन्न उत्पादन के लिए प्रख्यात है, क्योंकि यहाँ की उर्बर भूमि और जल की प्रचुरता के कारण ऐसा संभव रहा है। अतः यहाँ लोगों का प्रमुख पेशा अन्न उत्पादन के साथ ढावों के माध्यम से अपने उत्पादों का व्यवसाय है। अपनी गाय-भैंसों के साथ यहाँ दूर-दही व घी की भी प्रचुरता रहती है। अपने खेतों से साग-सब्जी व दाल आदि शुद्ध रुप में सहजता से उपलब्ध रहती है। जलस्रोत के रुप में पास बहती नहर व नदी है। इस प्राकृतिक जल व खाद्य उत्पादन के कारण संभवतः यहाँ के भोजन में एक विशेष स्वाद रहता है।

ढावे के परिसर में ही पास ग्रामीण परिवेश के मध्य खड़ी गाय, बछड़े के बूत राहगीरों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। जहाँ सेल्फी के लिए लोगों की भीड़ लगी थी। खासकर महिलाएं बाल्टी हाथ में लेकर गाय को दुहने का अभिनय कर रही थी और रील बनाकर जीवन को धन्य अनुभव कर रही थी। बच्चे भी इसका पूरा आनन्द लेते दिख रहे थे। उनके लिए खेलने के लिए झूले से लेकर स्लाइडिंग स्लोप्स की मिनी पार्क जैसी सुविधा पास में थी। हालांकि यहाँ पर्याप्त गर्मी का अहसास हो रहा था, लेकिन ठंडी लस्सी के साथ इसको बैलेंस करते हैं।

भोजन से तृप्त होकर सभी बस में चढ़ते हैं और कुछ ही देर में कीरतपुर साहिब पार करते हैं। हमारे दिन में सफर करने का वास्तविक मकसद अगले कुछ मिनटों में पूरा होने वाला था। मालूम हो कि पुराना रुट वाया पहाड़ी के टॉप पर स्वारघाट, फिर कई घाटी-मोड़ व पुलों को पारकर बिलासपुर शहर, आगे घाघस तथा सतलुज नदी के उपर स्लापड़ पुल पार कर पूरा होता था। नया रुट पहाड़ों को खोदकर बनाई गई लगभग आधा दर्जन सुरंगों के कारण वाइपास वाला है, इससे सफर लगभग दो घंटे कम हो गया है। इस रुट पर पुराने कोई स्टेशन नहीं आते। बल्कि सतलुज नदी व इसके भाखडा बाँध पर रोकने से बनी गोविंद सागर झील (हालाँकि इस समय जल सामान्य स्तर पर था, सो झील का स्वरुप महज नदी के प्रवाह तक सीमित था)  की परिक्रमा करता हुआ एक नया अनुभव रहा।

रास्ते में पड़ते नए गाँव, खेत-खलिहान, पुल आदि हमारी पहली दृष्टि के लिए कौतुक का विषय थे, जानने की कोशिश कर रहा था कि पुराने रुट से हम कितना पास या दूर सफर कर रहे हैं। क्योकि बीच में एक तिराहें पर शिमला जाने का भी साइनबोर्ड लगा था। और आगे पुल को पार करते ही बिलासपुर शहर के भी दूरदर्शन हो रहे थे। इसके साथ स्पष्ट था कि हम बिलासपुर के एक दम दूसरी ओर सतलुज नदी के किनारे समानान्तर मार्ग से आगे बढ़ रहे थे।

जो पहाडियों के आंचल में बसे गाँवों-कसवों के मध्य आगे बढ़ता हुआ आगे एक टलस से गुजरता है। अब सामने घाघस की सीमेंट फैक्ट्री के दूरदर्शन हो रहे थे। अतः स्पष्ट था कि हम घाघस और सलापड़ के समानान्तर चल रहे थे। आगे पुनः एक सुरंग से गुजरते हुए हम हरावाग के पास कहीं पहुंचते हैं, जहाँ थोड़ी देर में आगे सुन्दरनगर शहर आता है। आगे का सफर पुराने मार्ग से होकर था। हालाँकि पता चला कि इसमें भी सुरंगे बन रहीं हैं और भविष्य में और शॉर्टकट वाइपास बनने बाले हैं।

आज हमारा सफर सुंदरनगर से नैर चॉक और फिर मंडी पहुंचता है। शाम हो चली थी। यहाँ से पंडोह की ओर बढ़ते हैं। फिर डैम को पाकर आगे सुरंग के रास्ते बाहर थलौट के पास निकलते हैं, अंत में एक सुरंग को पार कर आउट आता है, जिसका जिक्र हम एक अन्य ब्लॉग व वीडियो में कर चुके हैं। शाम का अंधेरा छा चुका था। आगे पनारसा, नगवाईं, बजौरा और भुंतर पार करते हुए ढालपुर मैदान और फिर कुल्लू आता है। बस मानाली जा रही थी, जो सेऊबाग राइट बैंक पौने नौ बजे पहुंचती है। वहाँ अपने भाई संग बाहन में नौ बजे घर पहुंचता हूँ। इस तरह सौलह-सत्रह घंटे का थकाउ किंतु यादगार बस का सफर पूरा होता है।

घर के सदस्यों को मिलने के बाद गर्मजल में स्नान के साथ सफर की थकान दूर होती है। और आज के सफर में नए रुट को दिन के उजाले में प्रत्यक्ष अनुभव कर रोमाँचित हो रहा था कि आज रुट का नक्शा मेरे दिमाग में क्लीयर हो गया है। जो पिछले कई वर्षों से मेरे लिए प्रश्नों से भरा हुआ एक चक्रव्यूह बना हुआ था।    

शुक्रवार, 30 मई 2025

देवप्रयाग की एक यादगार और रोमाँचक यात्रा

 

शिक्षा, संस्कार और उत्कृष्टता की त्रिवेणी

आज बहुत समय बाद देवप्रयाग तक जाने का संयोग बन रहा था। संयोग कहें, या की संगम का बुलावा। जॉलिग्रांट अस्तपताल में पारिवारिक उपचार के लिए गया था, ऑनलाइन संगोष्ठी में प्रतिभाग की योजना थी, लेकिन गोष्ठी के संयोजक डॉ. स्नेहीजी से संवाद के बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि लगा ऑफलाइन ही इसमें प्रतिभाग करना बेहतर रहेगा और परिस्थितियाँ भी अनुकूल बनती गई। यह सब दैव कृपा व संगम तीर्थ का आवाह्न मान हम दोपहरी में सफर पर निकल पड़ते हैं।

साथ में युवा शिक्षक डॉ. दिलीप सराह थे। हरिद्वार से देवप्रय़ाग तक काफी अर्से बाद जा रहे थे, सो रास्ते में सड़कों पर हुए कार्य को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि सड़कें काफी चौड़ी हो चुकी हैं, फोरलेन पर कार्य जोरों से चल रहा है। ऋषिकेश के पास वीकेंड के कारण थोड़ा जाम रहा, लेकिन आगे का सफर एक दम सपाट एवं सुखद रहा। एक-दो स्थान पर भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों पर चल रहे कार्य के कारण थोड़ा अबरोध अवश्य मिला। कुल मिलाकर हम सवा तीन घंटे में, साढ़े पाँच बजे तक देवप्रयाग पहुँच जाते हैं।

रास्ते में व्यासी, कोडियाला जैसे चिरपरिचित स्टेशन आते हैं, जहाँ यात्री चाय-नाश्ता के लिए रुकते हैं। फिर शिवपुरी आता है, जहाँ चम्बा की ओर से सुरकुंडा पहाड़ियों से निस्सृत हेम्वल नदी गुजरती है और गंगाजी में समा जाती है। इन्हीं के बीच बजी जंपिंग के कुछ प्रयोग चलते हैं, जो शाम की चमचमाती रोशनियों में एक अलग ही नज़ारा पेश करते हैं। यहीं से रिवर केंपिंग साइट्स तथा राफ्टिग की भी शुरुआत होती, जो बाहर से आए पर्यटकों के बीच साहसिक रोमाँच का एक लोकप्रिय शग्ल रहता है।

रास्ते में तीन पानी स्थान भी उल्लेखनीय हैं, जहाँ कभी जल के तीन स्रोत थे। हम भी एक स्रोत से जल भरते हैं, जल एकदम ठण्डा व स्वाद में भी बेहतरीन निकला। आगे रास्ते में रेलमार्ग के कार्य का भी दर्शन होता है, जहाँ स्टेशन के लिए वृहद संरचना जुटाई जा रही है और गंगाजी के पार सुरंग से रास्ता बनने की तैयारी दिखी।

रास्ते भर पहाड़ों के शिखर व आंचल में बसे घर-गाँव हमेशा की तरह हमे रोमाँचित करते रहे। प्रश्न एक ही उठता रहा कि बिमार होने पर यहाँ के लोग किस तरह अस्तपाल पहुँचते होंगे। और बच्चों के पढ़ाई की व्यवस्था कैसे होती होगी। हालाँकि अधिकांश गाँव तक सड़कों का जाल बिछा दिख रहा था, कुछ ही घर सड़कों से काफी दूर दिख रहे थे।

देवप्रयाग पहुँचते ही संगम के दूरदर्शन होते हैं, देवप्रयाग बस स्टेंड से पहले ही हमारा वाहन दायीं ओर मुड़ जाता है, सामने केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का विहंगम परिसर ध्यान आकर्षित कर रहा था। हर यात्री यहाँ से गुजरते हुए इस नवनिर्मित विश्वविद्यालय के भव्य परिसर को देखते ही कुछ पल के लिए आश्चर्यचकित होकर स्तम्भित हुए बिना नहीं रह सकता।

थोड़ी देर में नीचे गंगा नदी पर पुल पार कर हम कुछ मिनट में विश्वविद्याल के गेस्ट हाउस के सामने पहुँचते हैं, जो संभवतः परिसर का पहला भवन भी है। यहाँ फ्रेश होकर हम बाहर कैंपस के दर्शन के लिए निकलते हैं। शहर के प्रदूषण से दूर यहाँ के एकांतिक परिसर की शुद्ध आवोहवा किसी वरदान से कम नहीं लग रही थी। कैंपस की लोकेशन ऐसी जगह है, जहाँ हर पल हवा के तेज झौंके बहते रहते हैं। इस गर्मी के मौसम में तो यह बहुत सुकूनदायी लग रहा था लेकिन हम कल्पना सर्दी के मौसम की कर रहे थे, जब यहाँ विचरण करना काफी चुनौतीपूर्ण रहता होगा।

सड़क के नीचे अकादमिक ब्लॉक के भव्य भवन दिखे, सड़क के ऊपर पहाड़ी के आंचल में हॉस्टल के दर्शनीय भवनों की श्रृंखला तथा बीच में खेल का चौड़ा मैदान। साईड़ में नीचे दक्षिण की ओर स्टाफ क्वार्टर। शाम हो चुकी थी, कैंपस की कैंटीन व स्टोर बंद हो चुके थे। सो हम कैंपस के बाहर निकल कर थोड़ा नीचे मार्केट में पहुँचते हैं। साबुन सर्फ आदि दैनिक आवश्यकताओं के कुछ सामान खरीदते हैं। थोड़ा नीचे अलकनंदा नदी पर एक पुराना पुल दिख रहा था, उस तक पहुँचने का भी दुस्साहस कर बैठते हैं, लेकिन पुल के बीच से नीचे संगम काफी दूर लगा, सो दूर से ही प्रणाम कर उलटे पाँव बापिस होते हैं और राह की खड़ी चढ़ाई के संग कैंपस तक पहुँचते हैं।

ऐसे में कपड़े पसीने से तर हो चुके थे। फ्रेश होकर गर्मागर्म चाय पीते हैं। गेस्ट हाउस में किचन, दूध, चाय पत्ती, व चीनी आदि की उम्दा व्यस्था थी। साथ में आए डॉ. दिलीपजी की चाय बनाने की विशेषज्ञता से आज परिचित हुए। एकाउटेंसी से जुड़े होने के कारण वे चाय के अभ्यस्त हैं और चाय बनाने में भी एक्सपर्ट। थके होने पर उम्दा चाय की प्याली निसंदेह रुप से सदैव एक तरोताजा करने वाला अनुभव रहती है। सो दो दिन इसका भरपूर लाभ लेते रहे। हम यहाँ चाय की वकालत नहीं कर रहे, इसके अन्य स्वस्थ विकल्प भी आजमाए जा सकते हैं, लेकिन देश, काल परिस्थिति के अनुरुप अपने यथार्थ का यहाँ वर्णन कर रहे हैं।

सांय एक सत्र फेकल्टी डेवेल्पमेंट पर होता है, विषय था – शिक्षकों का सर्वांगीण विकास एवं गुणवत्तापरक शिक्षा। लेक्चर से अधिक यह अपने अनुभवों को साझा करने का उपक्रम था, जिसे लगा सभी प्रतिभागियों ने बेहतरीन ढंग से ह्दयंगम किया।

रात को भोजनोपरान्त गेस्ट हाउस में शयन का क्रम बनता है। गेस्ट हाउस की वाल्कनी से नीचे वालगंगा के दर्शन प्रत्यक्ष थे। थोड़ी ही दूरी में भगीरथी और अलकनन्दा के संगम होता है, जो हॉस्टल से दृश्य नहीं था, लेकिन यहाँ गंगा मैया का बालरुप हमारे सामने से कुछ दूरी पर प्रत्यक्ष प्रवाहमान था। हम वाल्कनी में इसका दर्शन कर धन्य अनुभव कर रहे थे। और संगम की तीर्थ चेतना की ऊर्जा यहाँ तक जैसे हमारी रुह को स्पर्श कर रही थी। सामने पहाड़ों में बसे गाँवों की टिमटिमाती रोशनी हमें अपने गृह प्रदेश में बचपन की यादों को ताजा कर रही थी। ऐसा ही दृश्य पिछले वर्ष गंगोत्री धाम यात्रा के दौरान धराली (कल्प केदार) से सामने मुखबा गाँव के हुए थे।

इन्हीं भावों के सागर में गोते लगाते हुए रात बीती। कल की तैयारियाँ भी चल रही थी, सो रात को शयन में थोड़ा विलम्ब हो जाता है, लेकिन नींद में उपरोक्त भाव हॉवी रहे। औऱ प्रातः ब्रह्ममुहुर्त में ही उठने का क्रम बनता है। स्नान, ध्यान व अपनी अकादमिक तैयारी के साथ फिर थोड़ा विश्राम करते हैं। छः बजे चाय की चुस्की के साथ बाहर मोर्निंग वाक होती है। पहाड़ियों से घिरे विश्वविद्याल के कैंपस और नीचे देवप्रयाग के संगम, उस पार तमाम पहाड़ी गाँव, सबका मनोरम दृश्य निहारते हुए आज की प्रातः हमारे लिए एक अद्वितीय एवं यादगार अनुभव थी, जो चिरकाल तक अंकित रहेगी।

इसी क्रम में नाश्ता के बाद दिन की बाकि प्रस्तुतियाँ होती हैं। एक एनईपी-2020 के अनुरुप पाठ्यक्रम निर्माण और आउटकम आधारित शिक्षा पर तथा दूसरी मूल्यपर शिक्षा, स्व-नेतृत्व व अकादमिक-प्रशासनिक उत्कृष्टता पर थी। ब्लॉग लेखन पर भी एक रोचक सत्र चला, जिसमें लगभग सभी प्रतिभागियों के ब्लॉग तैयार हो गए थे। सत्र समाप्ति के बाद सबसे विदा लेते हुए हम हॉस्टल आते हैं। लगा कि परिसर में जैसे हम शिक्षा, संस्कार और उत्कृष्टता की त्रिवेणीं में डुबकी लगा रहे हैं। हालाँकि ये एक बीजारोपण जैसा संयोग लगा, जिसकी सुखद परिणतियाँ तो काल के गर्भ में छिपी हुई हैं।

यहाँ पिछले आगमन का भी संक्षिप्त चर्चा करना चाहूँगा, जब हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रविंद्र बर्तवालजी के निमन्त्रण पर भारतीय संदर्भ में शोध-अनुसंधान एवं भाषाई विमर्श (हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी एवं लोक भाषा के संदर्भ में) विषय पर एक गोष्ठी के अंतर्गत 30 जनवरी, 2017 के दिन यहाँ आए थे। हालाँकि तब यह परिसर निर्माणाधीन था और उस पार ही सड़क के किनारे एक होटल में कार्यक्रम हुआ था।

शाम को ही आज बापिसी का क्रम था। सो अपने वाहन से नीचे पुल से होते हुए गंगा नदी के किनारे इसे रोकते हैं। दो पुल पार कर संगम तक पहुँचते हैं। राह के परिक्रमा पथ का वीडियो आप नीचे देख सकते हैं और रास्ते के मनोरम दृश्य को अनुभव कर सकते हैं, जहाँ एक ओर श्रीनगर की ओर से आ रही अलकन्दा नदी को पार करते हुए नीचे देवप्रयाग संगम का विहंगम दृश्य दर्शनीय है तो ऊपर केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का भव्य परिसर।

संगम का दृश्य को स्वयं में मनोहारी था, तीर्थ चेतना की ऊर्जा से आवेशित। इसमें डुबकी लगा कर लोग धन्य अनुभव कर रहे थे। हम तीर्थ का पावन जल साथ लाते हैं। यहाँ सूर्य और चंद्र गुफा के भी दर्शन किए और बापिस वाहन में आते हैं। रास्ते में ही भगवान राम का मंदिर पड़ता है। मान्यता है कि रावण के बध के पश्चात प्रायश्चित स्वरुप वे यहाँ रुक कर प्रायश्चित तप किए थे। देवप्रयाग और ऋषिकेश के मध्य वशिष्ट गुफा पड़ती है। लक्ष्मण झूला के पास लक्ष्मण तथा ऋषिकेश में भरत व शत्रुधन की तपःस्थली मानी जाती है।  

बापिसी में पुल को पार करते हुए केंदीय संस्कृत विश्वविद्यालय परिसर के विहंगम दर्शन होते हैं। इसको विदा करते हुए, यादगार स्मृतियों के साथ अपने गन्तव्य की ओर कूच करते हैं। रास्ते भर गढ़वाल हिमालय की पहाडियों के मध्य सफर का रोमाँचक अनुभव लेते रहे। आप भी नीचे के वीडियो को देखकर इसमें भागीदार बन सकते हैं। कहीं नीचे घाटी में गंगाजी के दर्शन होते हैं, तो कहीं लंगूर सड़क के किनारे दिन भर की थकान मिटा रहे थे।

रास्ते में हमारे चालक रवि राह में पड़ने वाले पर्यटक स्थलों के प्रति हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करते रहे, जिनका जिक्र हम यात्रा के प्रारम्भ में भी कर चुके हैं। इस तरह शिवपुरी के पास के बजी जंपिग साइट, राफ्टिंग जोन, कोडियाला-ब्यासी, दुगढ़ा (नीरझरना) आदि से होकर ऋषिकेश पहुँचते हैं, जहाँ शहर की टिमटिमाती रोशनियाँ गंगाजी में एक अद्भुत दृश्य पेश कर रही थी। ऋषिकेश के ट्रेफिक को पार कर हम रात सवा नौ तक विश्वविद्याल परिसर पहुंचते हैं।

सफर का सार यह रहा कि सरकार जिस तरह से सड़कों पर कार्य कर रही है वह सराहनीय है। इससे सफर का समय कम हो रहा है और अधिक सुकूनदायी भी बन रहा है, बस ध्यान साबधानी पूर्वक ड्राइविंग का है। रेल्वे ट्रेक खुलने से पर्यटन का नया अध्याय शुरु होने वाला है। गंगा में राफ्टिंग व अन्य पर्यटन को थोड़ा इकोफ्रेंडली बनाने की आवश्यकता है। जिम्मेदार पर्यटन समय की माँग है। बाकि अकादमिक कार्यक्रम एवं आदान-प्रदान होते रहने चाहिए, जिससे हमारे शिक्षक श्रेष्ठतम शिक्षा के साथ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता की ओर बढ़ते हुए एक सशक्त भारत, समृद्ध प्रदेश एवं संस्कारवान पीढ़ी के निर्माण की परिकल्पना को साकार कर सके। पूरा विश्व आशाभरी निगाहों से भारत की ओऱ देख रहा है।

देवप्रयाग से ऋषिकेश तक का वीडियो नीचे देख सकते हैं -

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

श्रेय का अधिकार तो सब चाहते हैं

 

कीमत चुकाने के लिए कितने हैं तैयार


आगे तो सब बढ़ना चाहते हैं मंजिल तक,

लेकिन पिछली खाई पाटने को कितने हैं तैयार।1

सफलता का सेहरा पहन सब चाहते हैं सजना संवरना,

अनवरत असफलता का दंश झेलने को कितने हैं तैयार।2

कंगूरे का क्लश तो हर कोई चाहता है बनना,

लेकिन गुमनामी में गलने को कितने हैं तैयार।3


श्रेय का तो हर कोई चाहता है अधिकारी बनना,

लेकिन पूरी कीमत चुकाने को कौन है तैयार।4

सिंहासन की चाहत भी रखता है हर कोई,

काँटे का ताज पहनने को कौन है तैयार।5

प्रकाश की चाहत भी है सभी के उर में,

लेकिन अंधकार से भिड़ने को कौन है तैयार।6


गुरुत्ता का श्रेय भी सभी चाहते हैं सहजता से,

शिष्यत्व की तपन में गलने को कितने तैयार।7

अमृत की चाह भी सब रखते हैं एक डुबकी में,

लेकिन विषपान के लिए कितने हैं तैयार।8

शिखर की चाहत तो हर कोई रखता है दिल में,

लेकिन पर्वत के आरोहण के लिए कितने हैं तैयार।9


मन का सुकून भी हर कोई चाहता है जीवन में,

लेकिन शांति के पथ पर चलने को कितने हैं तैयार।10

धर्म-अध्यात्म की अनुभूति भी हर इंसान चाहता है जेहन में,

लेकिन इँसानियत की नेक राह पर चलने को कितने सचेष्ट-तैयार।11

 संत सुधारक नायक का श्रेय भी सभी चाहते हैं सपने में,

आदर्श की खातिर शहीद होने के लिए कितने हैं तैयार।।12


गुरुवार, 20 मार्च 2025

जीव को शिव का नेह भरा निमंत्रण

एक्ला चलो रे


वो तुमको कितना समझ पाएंगे, कहना कुछ कठिन

तुम अपने ह्दय के भावों को निचोड़कर भी,

जीवन भर का सार रख दो सामने तश्तरी में,

ज़रुरी नहीं कि वो उसे समझ सकें, उसकी कदर कर पाएं।।


नासमझी में, अपनी मूढ़ता की बेहोशी में,

हो सकता है वे उसे ठुकरा दें,

दुत्कार कर, लांछन तक लगाकर,

तुम्हें गुनाहगारों की पंक्ति में खड़ा कर दें।।

समय-समय की बात है ये,

किसी को इसका क्या कसूर दें,

कुछ अपने रहे शायद पुण्य क्षीण, कुछ उनका समय खास,

गहराई में झाकें, तो नियति के ये पल निर्णायक, नहीं कुछ यहाँ अनायास।।


झाँक रहा इनमें अपने जन्म-जन्मांतरों के पुण्यों का प्रसाद,

आभासित अभिशाप के बीच भी दैवीय कृपा जैसे बरस रही बनकर वरदान,

चित्त की शाश्वत बक्रता का हो रहा यहाँ जैसे गहनतम उपचार,

जन्मों से बिछड़े जीव को मिल रहा जैसे शिव का नेहभरा निमंत्रण, प्यार-दुलार।।

चुनींदी पोस्ट

Travelogue - In the lap of Surkunda Hill via Dhanaulti-Dehradun

A blessed trip for the seekers of Himalayan touch Surkunda is the highest peak in Garwal Himalayan region near Mussoorie Hills wi...