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रविवार, 21 दिसंबर 2025

मरणोतर जीवन रहस्य

 

पितर हमारे अदृश्य सहायक, भाग-2


सतत अनुग्रह बरसाने वाले सदाशय पितर –

मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय रहता है, उसमें जीवात्मा क्या करता है, कहाँ रहता है, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में भी विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं, पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस अवधि में उसे अशरीरी, किंतु अपना मानवी अस्तित्व बनाए हुए रहना पड़ता है।

जीवन मुक्त आत्माओँ की बात दूसरी है। वे नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरान्त पुनः अपने लोक को लौट जाती हैं। इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तियों का न तो मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है। किंतु सामान्य आत्माओं के बारे में यह बात सही नहीं है।

वे अपनी अतृप्त कामनाओं, विछोह, संवेदनाओं, राग, द्वेष की प्रतिक्रियाओं से उद्गिन रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व वाले जन्मकाल की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकती, पर सूक्ष्म शरीर से भी वे जिस-तिस को अपना परिचय देती हैं। उस स्तर की आत्माएं भूत कहलाती हैं।

वे दूसरों को डराती या दबाव देकर अपनी अतृप्त अभिलाषाएं पूरी करने में सहायता करने के लिए बाधित करती हैं। भूतों के अनुभव प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं। पर जो आत्माएं भिन्न प्रकृति की होती हैं, वे डराने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं, उनके आधार पर यह मान्यता बन गई है कि वहाँ पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएं डेरा डाले पडी हैं। इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राह्म लिंकन की है। ये आत्माएं वहाँ रहने वालों को कभी कष्ट नहीं पहुँचाती। वस्तुतः उपद्रवी आत्माएं तो दुष्टों की ही होती हैं।

मरण के समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति लेकर मरने वाले अक्सर भूत-प्रेत की योनि भुगतते हैं, पर कई बार सद्भाव सम्पन्न आत्माएं भी शांति और सुरक्षा के उद्देश्य लेकर अपने जीवन भर सम्बन्धित व्यक्तियों को सहायता देती-परिस्थितियों को सम्भालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। पितृवत् स्नेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका कार्य होता है।

पितर ऐसी उच्च आत्माएं होती हैं जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने उच्च स्वभाव संस्कार के कारण दूसरों को यथासम्भव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती हैं। सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियाँ भी अधिक होती है। उनका जिनसे सम्बन्ध हो जाता है, उन्हें कई प्रकार की सहायताएं पहुँचाती हैं। भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाईयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं।

ऐसी दिव्य आत्माएं, अर्थात पितर सदाशयी, सद्भाव-सम्पन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असन्तुष्ट होतीं तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।

पितर वस्तुतः देवताओं से भिन्न किंतु सामान्य मनुष्य से उच्च श्रेणी की श्रेष्ठ आत्माएं हैं। वे अशरीरी हैं, देहधारी से सम्पर्क करने की उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। हर किसी से वे सम्पर्क नहीं कर सकतीं। कोमलता और निर्भीकता, श्रद्धा और विवेक दोनों का जहाँ उचित संतुलन सामंजस्य हो, ऐसी अनुकूल भाव-भूमि ही पितरों के सम्पर्क के अनुकूल होती है। सर्व साधारण उनकी छाया से डर सकते हैं, जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। इसलिए वे सर्व साधारण को अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देतीं। वे उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही अपनी उपस्थिति प्रकट करती और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग-दर्शन कराती हैं।

अवांछनीयता के निवारण, अनीति के निकारण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये उच्चाशयी पितर आत्माएँ करती हैं। अतः भूत-प्रेतों से विरक्त रहने, उनकी उपेक्षा करने औऱ उनके अवांछित-अनुचित प्रभाव को दूर करने की जहाँ आवश्यकता है, वहीं पितरों के प्रति श्रद्धा-भाव दृढ़ रखने, उन्हें सद्भावना भरी श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर उनकी सहायता से लाभान्वित होने में पीछे नहीं रहना चाहिए। (जारी, शेष अगले ब्लॉग में...)


रविवार, 30 नवंबर 2025

मरणोतर जीवन रहस्य

 

पितर हमारे अदृश्य सहायक, भाग-1


अदृश्य जगत अपने आप में एक परिपूर्ण संसार है, जहाँ सूक्ष्म जीवधारियों की एक अनोखी दुनियाँ है।...शरीर छोड़ने के उपरान्त नया जन्म मिलने की स्थिति आने तक मनुष्यों को इसी क्षेत्र में रहना पड़ता है। भूत-प्रेतों की, देवी-देवताओं की, लोक-लोकान्तरों की, स्वर्ग-नरक की चर्चा प्रायः होती ही रहती है। ऐसे प्रमाण उदाहरण आए दिन मिलते रहते हैं जिनमें दिवंगत मनुष्यों के साथ सहयोग या विग्रह करने की जानकारियाँ मिलती हैं। मनुष्यों की तरह इनकी भी एक दुनियां है। चूँकि ये सभी मनुष्य शरीर को छोड़कर ही उस क्षेत्र में पहुँचे हैं, इसलिए स्वभावतः इस संसार के साथ सम्पर्क साधने की इच्छा होती होगी। कठिनाई एक ही है कि जीवित या दिवंगत आत्माओं में से किसी को भी यह अनुभव नहीं है कि पारस्परिक सम्पर्क-साधना और आदान-प्रदान का सिलसिला चलाना किस प्रकार सम्भव हो सकता है।...आत्मिकी में वह सामर्थ्य है कि वह इन दोनों लोगों के बीच भावनात्मक एवं क्रियात्मक सहयोग का द्वार खोल सके। 

प्रेत – क्रुद्ध, असन्तुष्ट, दुर्गतिग्रस्त आत्माओं को कहते हैं और पितर वे हैं, जो श्रेष्ठ समुन्नत जीवन जीते रहे हैं। वे जीवनकाल की तरह, मरणोत्तर स्थिति में पहुँचने पर भी किसी को सहायता पहुंचाने और परिस्थितियाँ अच्छी बनाने में योगदान करना चाहते हैं। ऐसी आत्माओं की सहायता से कितनों ने ही कितने ही प्रकार के महत्वपूर्ण अनुदान प्राप्त किए हैं। 

शास्त्रों में विभिन्न लोकों का वर्णन मिलता है, जिनमें जीवन मुक्त आत्माएं विचरण करती हैं एवं शरीरधारी पृथ्वीवासियों की मदद हेतु सतत् तत्पर रहती हैं। इन लोकों को भौतिकी के डायमेन्शन के आधार पर नहीं समझा जा सकता, क्योंकि सूक्ष्म होने के कारण इनकी स्थिति चतुर्थ आयाम से भी परे होती है। किन्तु साधना पुरुषार्थ से अर्जित दिव्य दृष्टि सम्पन्न शरीरधारी साधक स्वयं को सूक्ष्म रुप में बदलकर  अथवा स्थूल स्थिति में इन आयामों के रहस्यमय संसार का दिग्दर्शन कर सकते हैं। इस संसार में अपने कर्मों के अनुरुप सूक्ष्म आत्माएं फल पाती हैं एवं उसी आधार पर एक निश्चित अवधि तक उन्हें उसमें रहना पड़ता है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है। 

शास्त्रों के अनुसार जन्म-मरण के चक्र में घूमता हुआ जीव स्वर्ग-नरक, प्रेत-पिशाच, पितर, कृमि-कीटक, पशु एवं मनुष्य योनि प्राप्त करता है। इस दौरान उसे जो-जो गतियाँ प्राप्त होती हैं, शास्त्रों में उन्हें दो भागों में बाँटा गया है – कृष्ण या शुक्ल गति। इन्हें धूमयान तथा देवयान भी कहा गया है। छान्दोग्योपनिषद में इन गतियों और जीवात्मा की विभिन्न स्थितियों को विस्तार से वर्णन किया गया है। 

अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति पृथ्वी पर बैठे-बैठे ही समस्त लोकों व उनमें निवास कर रही सूक्ष्म आत्माओं से सम्पर्क साधने में समर्थ होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सूक्ष्म सत्ताएं अन्तरीक्षीय लोकों में ही नहीं, प्रत्युत पृथ्वी पर भी निवास करती हैं। वे अपनी ओर से शरीरधारियों से सम्पर्क स्थापित करने का पूरा प्रयास करती हैं, परन्तु सूक्ष्म जगत से अनभिज्ञ मनुष्य समुदाय के भयभीत होने से वे संकोच करती हैं, जबकि द्रष्टा साधक उनसे पूरा सहयोग लेते हुए स्वयं को नहीं, अपितु जीवधारी समुदाय को परोक्ष के वैभव से लाभान्वित कराते हैं। 

इस प्रकार शास्त्र वचनों में परोक्ष जगत एवं वहाँ रहने वाली अदृश्य सूक्ष्म आत्माओं के अस्तित्व के समर्थन में तो प्रतिपादन मिलते ही हैं, पृथ्वी पर बसने वाली श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा उनसे सम्पर्क स्थापित कर आदान-प्रदान के प्रसंग भी प्रकाश में आते हैं। 

वास्तव में अदृश्य जगत अपने आप में परिपूर्ण रहस्य रोमांच से भरी एक दुनियां है। वह उतनी ही विलक्षण है, जितनी कि हमारी निहारिका, सौर मण्डल एवं ब्रह्माण्ड का यह पूरा दृश्य परिकर है।...जो दृश्यमान नहीं है, ऐसा अदृश्य लोक मरणोत्तर जीवनावधि में रह रहे जीवधारियों का भी है जिसके प्रमाण, उदाहरण आए दिन मिलते रहते हैं। पितर एवं अदृश्य सहायक यहीं रहते हुए निर्धारित समय व्यतीत करते हैं एवं समय आने पर समान गुणधर्मी आत्माओं से अपना सम्पर्क जोड़कर स्नेह-सौजन्य-सहयोग का सिलसिला चलाते हैं। पितरगण अपने जीवनकाल की ही तरह मरणोत्तर स्थिति मरणोत्तर स्थिति में भी किसी के काम आने, सहायता पहुंचाने अथवा हितकारी परिस्थितियाँ बनाने में योगदान करना चाहते हैं। आत्मिकी का यह अध्याय रहस्यपूर्ण तो है ही, अपने आप में शोध का विषय भी है। (जारी, शेष अगले अंक में...)

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