पितर हमारे अदृश्य सहायक,
भाग-2
मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय
रहता है, उसमें जीवात्मा क्या करता है, कहाँ रहता है, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में
भी विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं, पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस
अवधि में उसे अशरीरी, किंतु अपना मानवी अस्तित्व बनाए हुए रहना पड़ता है।
जीवन मुक्त आत्माओँ की बात दूसरी है। वे नाटक
की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरान्त पुनः अपने
लोक को लौट जाती हैं। इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तियों का न तो
मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है। किंतु सामान्य आत्माओं के बारे में
यह बात सही नहीं है।
वे अपनी अतृप्त कामनाओं, विछोह, संवेदनाओं,
राग, द्वेष की प्रतिक्रियाओं से उद्गिन रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व वाले जन्मकाल
की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना
बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकती, पर सूक्ष्म
शरीर से भी वे जिस-तिस को अपना परिचय देती हैं। उस स्तर की आत्माएं भूत कहलाती
हैं।
वे दूसरों को डराती या दबाव देकर अपनी अतृप्त
अभिलाषाएं पूरी करने में सहायता करने के लिए बाधित करती हैं। भूतों के अनुभव
प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं। पर जो आत्माएं भिन्न प्रकृति की होती हैं,
वे डराने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में
समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं, उनके आधार पर यह मान्यता
बन गई है कि वहाँ पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएं डेरा डाले पडी हैं।
इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राह्म लिंकन की है। ये
आत्माएं वहाँ रहने वालों को कभी कष्ट नहीं पहुँचाती। वस्तुतः उपद्रवी आत्माएं तो
दुष्टों की ही होती हैं।
मरण के समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति लेकर
मरने वाले अक्सर भूत-प्रेत की योनि भुगतते हैं, पर कई बार सद्भाव सम्पन्न आत्माएं
भी शांति और सुरक्षा के उद्देश्य लेकर अपने जीवन भर सम्बन्धित व्यक्तियों को
सहायता देती-परिस्थितियों को सम्भालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने
अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। पितृवत् स्नेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका
कार्य होता है।
पितर ऐसी उच्च आत्माएं होती हैं जो मरण और
जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने उच्च स्वभाव संस्कार के
कारण दूसरों को यथासम्भव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति
अधिक होती हैं। सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियाँ भी अधिक होती
है। उनका जिनसे सम्बन्ध हो जाता है, उन्हें कई प्रकार की सहायताएं पहुँचाती हैं।
भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की
कठिनाईयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं।
ऐसी दिव्य आत्माएं, अर्थात पितर सदाशयी,
सद्भाव-सम्पन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असन्तुष्ट होतीं
तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।
पितर वस्तुतः देवताओं से भिन्न किंतु सामान्य
मनुष्य से उच्च श्रेणी की श्रेष्ठ आत्माएं हैं। वे अशरीरी हैं, देहधारी से सम्पर्क
करने की उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। हर किसी से वे सम्पर्क नहीं कर सकतीं। कोमलता
और निर्भीकता, श्रद्धा और विवेक दोनों का जहाँ उचित संतुलन सामंजस्य हो, ऐसी
अनुकूल भाव-भूमि ही पितरों के सम्पर्क के अनुकूल होती है। सर्व साधारण उनकी छाया
से डर सकते हैं, जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। इसलिए वे सर्व साधारण को
अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देतीं। वे उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही
अपनी उपस्थिति प्रकट करती और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग-दर्शन कराती
हैं।
अवांछनीयता के निवारण, अनीति के निकारण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये उच्चाशयी पितर आत्माएँ करती हैं। अतः भूत-प्रेतों से विरक्त रहने, उनकी उपेक्षा करने औऱ उनके अवांछित-अनुचित प्रभाव को दूर करने की जहाँ आवश्यकता है, वहीं पितरों के प्रति श्रद्धा-भाव दृढ़ रखने, उन्हें सद्भावना भरी श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर उनकी सहायता से लाभान्वित होने में पीछे नहीं रहना चाहिए। (जारी, शेष अगले ब्लॉग में...)

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