गर्मी की मार, राहत की
बौछार और उभरता जीवन दर्शन
इस वार गर्मी की जो मार पड़ी है, वह लम्बे समय
तक याद रहेगी। मार्च से शुरु, अप्रैल में सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए, मई में अपने
चरम को छूती हुई, जून में हीट वेव के रुप में देश के एक बढ़े हिस्से को एक धधकती
भट्टी में तपाती हुई, वर्ष 2024 की गर्मी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है और
साथ ही गहरा संदेश भी दे गई है। यदि मानव चेतता है, तो उसे आगे ऐसे गर्मी की
नरकाग्नि में नहीं झुलसना पड़ेगा, लेकिन मानव की फितरत है कि इतनी आसानी से सुधरने
वाला नहीं। अपने सुख-भोग और सुविधाओं में कटौती करने के लिए शायद ही वह राजी हो।
हर वर्ष पर्यावरण संतुलन, जलवायु परिवर्तन पर
विश्व स्तर पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहते हैं, लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात।
कोई भी विकसित राष्ट्र अपने ग्रीनहाउस व कार्वन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने
वाला नहीं। गर्मी में चौबीसों घंटों ऐसी की भी सुविधा चाहिए और तापमान भी नियंत्रण
में रहे, ये कैसे संभव है। थोड़ा सा गर्मी को बर्दाश्त करते हुए, प्राकृतिक जीवन
शैली को अपनाने के लिए कितने बड़े देश तैयार हैं। देशों की बातें छोड़ें, हम अपने
देश, समाज, पड़ोस, घर की ही बात कर लें। आइने में तस्वीर साफ है। कोई इतनी आसानी
से सुधरने के लिए तैयार नहीं है। कोविड काल जैसा एक झटका ही उसे थोड़ी देर के लिए
होश में ला सकता है। लेकिन फिर स्थिति सामान्य होने पर वह सबकुछ भूल जाता है। यही
इंसानी फितरत है, जो किसी बड़े व स्थायी बदलाव व सुधार के प्रति सहजता से तैयार
नहीं हो पाती।
हालांकि प्रकृति अपने ढंग से काम करती है, वह
इसमें विद्यमान ईश्वर के ईशारों पर चलती है। वह जब चाहे एक झटके में इंसान की अकल
को ठिकाने लगा सकती है। फिर युगपरिवर्तन की बागड़ोर काल के भी काल स्वयं महाकाल के
हाथों में हो, तो फिर अधिक सोचने व चिंता की जरुरत नहीं। वह उचित समय पर अपना
हस्तक्षेप अवश्य करेगा। हम तो अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करते रहें, अपने कर्तव्य
का निर्वाह जिम्मेदारी से करते रहें, इतना ही काफी है। और इससे अधिक एक व्यक्ति कर
भी क्या सकता है। अपनी जड़ता व ढर्रे में चलने के लिए अभ्यस्त समूह के साथ माथा
फोड़ने में बहुत समझदारी भी तो नहीं लगती।
लेकिन जो ग्रहणशील हैं, समझदार हैं, संवेदशनशील
हैं, अस्तित्व के सत्य को जानने व इसे परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट हैं, उनसे तो
बात की ही जा सकती है। इस बार की गर्मी के सवक सामूहिक रुप में स्पष्ट थे,
व्यैक्तिक रुप में भी कई चीजें समझ में आई, जिन्हें यहाँ साझा कर रहे हैं, हो सकता
है कि आप भी इनसे बहुत कुछ समहत हों, तथा इसी दिशा में कुछ एक्टिविज्म की सोच रहे
हों।
गर्मी बढ़ती गई, हम भी इसको सहते गए। टॉफ फ्लोर
में कमरा होने के नाते तपती छत व दिवारों के साथ कमरा भी तपता रहा और अपने चरम पर
हमें याद है, जब हीट वेव अपने चरम पर थी, रात को 2 बजे जब नींद खुलती तो पंखे गर्म
हवा ही फैंक रहे थे, चादर गर्म थी, विस्तर पसीने से भीगा हुआ। किसी तरह रातें कटती
रहीं। फिर शरीर की एक आदत है कि इसे जिन हालातों में छोड़ दें, तो वह स्वयं को ढाल
लेता है। मन ने जब स्वीकार कर लिया की इस गर्मी में रहना है, तो शरीर भी ढल जाता
है। जब दिन में अपने कार्यस्थल तक तपती धूप में चलते, तो श्रीमाँ की एक बात याद
आती। सूर्य़ का एक भौतिक स्वरुप है तो दूसरा आध्यात्मिक। इसके आध्यात्मिक स्वरुप का
भाव-चिंतन करते हुए सोच रही कि इसके ताप के साथ तन-मन की हर परत के कषाय-कल्मष गल
रहे हैं। ऐसा करने पर राह में दिन का सूर्य का ताप अनुकूल प्रतीत होता। लगा कि
सूर्य के साथ एक आत्मिक रिश्ता जोड़कर इसे भी तप-साधना का हिस्सा बना सकते हैं।
फिर याद आती साधु-बाबाओँ की, जो तपती भरी दोपहरी में भी चारों ओर कंडों-उपलों में
आग लगाकर इसके बीच आसन जमाकर पंचाग्नि तप करते हैं। याद आती कुछ साधकों की जो
धधकती आग पर चलने के करतव दिखाते। संभवतः एक विशिष्ट मनःस्थिति में यह सब कुछ संभव
होता है।
याद आता रहा युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री
का तपस्वी व्यक्तित्व, जो सबसे ऊपरी मंजिल में कमरा होते हुए भी गर्मियों में भी
अपने लिए पंखें का उपयोग नहीं करते थे, जब मेहमान आते, तो उनका पंखा चलता। बिना
पंखें के गर्मी में भी उनकी तप साधना, अध्ययन लेखन व सृजन साधना निर्बाध रुप में
चलती रहती।
लेकिन परिस्थितियों की मार के आगे सामान्य मन के
प्रयास शिथिल पड़ जाते हैं। इसी बीच कार्यस्थल पर अनिवार्य सामूहिक कार्य से घंटों
ऐसी में बैठना पड़ा, जो सुविधा से अधिक कष्टकर प्रतीत होता रहा। और तीन-चार दिन,
दिन भर ऐसी में घंटों बैठने की मजबूरी और शेष समय तथा रात भर कमरे में तपती छत के
नीचे की आँच। दोनों का विरोधाभासी स्वरुप तन-मन पर प्रतिकूल असर डालता प्रतीत हुआ।
लगा कि ऐसी में रहना बहुत समझदारी वाला काम नहीं।
जब बाहर का तापमान 40, 42, 45 डिग्री सेल्सियस
चल रहा हो तो ऐसी के 18, 16 या 20-24 डिग्री सेल्सियस की ठंड में रहना कितना उचित
है, ये विचार करने योग्य है। शायद ही इस पर कोई अधिक विचार करता हो। क्योंकि इस
ऐसी में भी जब पूरी स्पीड में पंखे चलते दिखते हैं, तो यह सोच ओर पुष्ट हो जाती
है। अंदर बाहर के तापमान में 20 से लेकर 30 डिग्री का अंतर, तन-मन की प्रतिरोधक
क्षमता पर कितना असर डालता होता, सोचने की बात है। हमारे विचार में यह गैप जितना
कम हो, उतना ही श्रेष्ठ है।
हमारा स्पष्ट विचार है कि ऐसी जैसी सुविधाओं का
गर्मी के मौसम में इतना ही मसकद हो सकता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क सामान्य ढंग से
काम करता रहे। परिवेश व कमरे का तापमान इतना रहे कि दिमाग सामान्य ढंग से काम करता
रहे। अत्य़धिक कष्ट होने पर थोड़ी देर के लिए मौसम के हिसाव से सर्दी के विकल्प
तलाशे जा सकते हैं, लेकिन इसे बिना सोचे समझे ढोना, अति तक ले जाना और जीवनशैली का
अंग बनाना, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करना है, अपनी जीवट की जड़ों पर
प्रहार करने जैसा है, जो किसी भी रुप में समझदारी भरा काम नहीं।
गर्मी की लहर के चरम पर जून के तीसरे सप्ताह में
प्री मौनसून वारिश की बौछारों के साथ हीट वेब की झुलसन से कुछ राहत मिली। ऐसे लगा
कि जनता की सम्वेत पुकार पर ईश्वर कृपा बादलों से बारिश की बूंदों के रुप में बरस
कर सबको आशीर्वाद दे रही हो। इस बारिश की टाइम्गिं भी कुछ ऐसी थी, कि एक विशिष्ट
कार्य पूरा होते ही, जैसे इसकी पूर्णाहुति के रुप में राहत की बौछार हुई। जो भी
हो, हर सृजन साधक अनुभव करता है कि तप के चरम पर ही ईश्वर कृपा वरसती है। जीवन के
इस दर्शन को अस्तित्व के गंभीर द्वन्दों के बीच अनुभव किया जा सकता है।
जीवन के उतार चढ़ाव, गर्मी-सर्दी, सुख-दुःख,
मान-अपमान, जय-पराजय, जीवन-मरण के बीच भी जो धैर्यवान हैं, सहिष्णु हैं, सत्यनिष्ठ
हैं, धर्मपरायण हैं, ईश्वरनिष्ठ हैं - वे इस सत्य को बखूवी जानते हैं। तप के चरम
पर दैवीय कृपा अजस्र रुपों में बरसती है और सत्पात्र को निहाल कर देती है। आखिर हर
घटना, हर संयोग-वियोग के पीछे ईश्वरी इच्छा काम कर रही होती है, और साथ ही समानान्तर
अपने कर्मों का हिसाव-किताव चल रहा होता है। लेकिन जो भी होता है, अच्छे के लिए हो
रहा होता है। धीर-वीर इसके मर्म को समझते हैं और हर द्वन्दात्मक अनुभव के बीच निखरते
हुए, उनके कदम जीवन के केंद्र की ओर, इसके मर्म के समीप पहुँच रहे होते हैं।
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