गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-2

 

लखनऊ से अयोध्या और अवध विश्वविद्यालय कैंपस


लखनऊ से अयोध्या तक का आगे का सफर सावरमती एक्सप्रेस से पूरा होता है। ट्रेन रात को 1 बजे थी, सो हमारे पास तीन घंटे स्टेशन पर बिताने की चुनौती थी। जिस स्टेशन में उतरे, उसी के वातानुकूलित (एसी) विश्राम कक्ष में सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पहली मंजिल पर पहुँचते हैं, रजिस्टर में अपना नाम पता व ट्रैन का पीएनआर आदि दर्ज कर विश्राम कक्ष में बैठते हैं। इसी बीच डॉ. दिलीपजी अपनी खोजवीन कर चुके थे। पता चला कि हमारी ट्रेन पास के बड़े या मुख्य स्टेशन के प्लेटफॉर्म से चलेगी और वहाँ रुकने की ओर वेहतर व्यवस्था भी है। सो हम इस भवन से बाहर निकल दूसरे स्टेशन में प्रवेश करते हैं।

विश्राम कक्ष में पहुँचने पर देखते हैं कि यहाँ एसी के साथ सोफा युक्त बैठने की व्यवस्था थी। 20 रुपए प्रति घँटा प्रति व्यक्ति के हिसाब से शुल्क लिया जा रहा था। चाय नाश्ते की सारी सुविधाएं भी यहाँ उपलब्ध थी। मोबाइल चार्जिंग की तो विशेष व्यवस्था थी, कितने सारे प्वाइंट्स सामने दीवार पर टंगे थे। चाय-कॉफी के साथ वाशरुम टॉयलेट की उचित सुविधा थी तथा सबकुछ चकाचक साफ था। बाहर की गर्मी में राहत एक बड़ी बात थी। हालाँकि लेटने की सुविधा नहीं थी, लेकिन भीड़ कम होने पर कमर सीधी कर सकते थे। और कई लोग तो जैसे चादर तान कर खर्राटे भर रहे थे। हालाँकि भीड़ बढ़ने पर उनको जगा दिया जा रहा था

रात को 1 बजे विश्राम गृह से बाहर निकलते हैं। वहाँ रहते कुछ तो सफर की थकान व नींद की कामचलाउ भरपाई हो गई थी, हालांकि नींद हॉवी थी। रात 1.30 बजे रेल चल पड़ती है, एसी ट्रेन में ठंड ठीक-ठाक लग रही थी, सो टोपा निकालकर व चादर तानकर राहत की सांस लेते हैं। अगले दो-अढ़ाई घंटे कैसे नींद में बीते, पता ही नहीं चला। प्रातः 4 बजे अयोध्या कैंट पर रेल खड़ी होती है।

स्टेशन पर उतरते ही तीर्थक्षेत्र अयोध्या धाम को भाव निवेदन करते हैं। स्टेशन से बाहर निकलकर चाय की टपरी पर कुल्हड़ चाय का आनन्द लेते हैं।


सुबह की ठंड में यह एक राहत देने वाला व तरोताजा करने वाला अनुभव था। साथ में फैन के साथ कुछ पेट-पूजा की भी कामचलाउ व्वस्था हो रही थी। इतनी देर में प्रो. अनुराग पहुंच चुके थे, वे अपने वाहन में यूनिवर्सिटी के गैस्ट हाउस तक छोड़ते हैं। मैनेजमेंट स्कूल के एकांतिक परिसर में गैंदा लाल दीक्षित वीआईपी अतिथि गृह बना हुआ है, जो विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय का भी निवास स्थान है। इस एकांत शांत लोकेशन के आसपास मोर के बोलने की आवाज़ें आ रही थी, ऐसा लग रहा था कि जैसे ये प्रातः हमारे आगमन का स्वागत गीत गा रहे हों।

प्रबन्धन स्कूल के इसी परिसर में पर्यटन, खेल, इंजीनियरिंग कालेज भी मौजूद हैं। कैंपस के अंदर ही कई हॉस्टल भी हैं, जो मुख्य मार्ग तक जोड़ते कैपस के अंदर विराजमान लिंक रोड़ के दोनों ओर व्यवस्थित हैं। लिंक मार्ग की चौड़ी सड़क प्राकृतिक सुषमा से भरे परिवेश से होकर गुजरती है और यात्रियों के लिए एक सुखद अहसास दिलाती है। प्रातः-सांय टहलने के लिए भी यह मार्ग हमें आदर्श लगा। अतिथि घर के आगे पता चला कि 500 बीघा और भूमि है, जहाँ अवध विश्वविद्यालय परिसर का विस्तार होना है। अवध विश्वविद्याल का मुख्य कैंपस लगभग 3 किमी दक्षिण की ओर है, जहाँ क्रांफ्रेंस होनी थी।

अतिथि गृह पहुँचकर स्नान के बाद तरोताजा होकर विश्राम करते हैं। रास्ते भर की अधूरी नींद व थकान के चलते, नींद कुछ ऐसे गहरी आती है कि कुछ सुध-बुध नहीं रहती और चित्र-विचित्र स्वप्नों के साथ नींद पूरा होती है। जब आँख खुलती है, तो सुबह के दस बज चुके थे। क्रांफ्रेस कल 4 जुलाई को प्रातः 8-9 बजे से थी। सो आज का दिन शेष था, जो राममंदिर दर्शन व अय़ोध्या धाम के अन्य तीर्थों के तीर्थाटन के लिए सुरक्षित था। (भाग-3 में पठनीय)

अवध विश्वविद्यालय में AEDP पर क्रांफ्रेंस प्रतिभागिता

4 जुलाई को प्रातः तैयार होकर, 8 बजे वाहन से अवध विवि मुख्य कैंपस पहुंचते हैं। विश्वविद्यालय का कैंपस पहली ही नज़र में अपनी भव्य उपस्थिति के साथ चित्त को आल्हादित करता है। काफी पुराने वृक्षों के बीच इसके सुंदर भवनों का संयोजन किसी भी प्रकृति प्रेमी को गहरा सुकून देने के लिए पर्याप्त है।

कैंपस में सजे पांडालों में पंजीयन होता है और फिर लान में सजे दूसरे पांडाल में नाश्ता, यहीं दोपहर का लंच भी रहा। बीच-बीच में जलपान भी चलता रहा। यहाँ पर खान-पान की उमदा व्यवस्था काविले तारीफ लगी।

इस क्रांफ्रेंस में सेंट्रल जोन अर्थात मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड के उच्च शिक्षण संस्थानों के शैक्षणिक प्रतिनिधि आए थे। लगभग 500 प्रतिभागियों एवं विवि के दर्शकों के साथ हॉल खचाखच भरा हुआ था। आयोजन स्वामी विवेकानन्द सभागर में सम्पन्न होता है और संयोग से आज स्वामीजी की पुण्य तिथि (4 जुलाई) भी थी।

ठीक 10 बजे कार्यक्रम शुरु होता है। यूजीसी के पूर्व चेयरमैन एम. जगदीशजी इसकी केंद्रिय भूमिका में थे। यूजीसी के ही ज्वांइंट सचिव अविचल कपूर, अंडर सचिव मीना मेनन भी उपस्थित थे, जिनसे संक्षिप्त मुलाकात का बीच में अवसर मिलता है। दिन भर विशेषज्ञों के सत्र चलते रहे, जिनमें कई विषय विशेषज्ञ एवं कुलपति स्तर के शैक्षणिक अधिकारी थे। प्रश्नोत्तरि का क्रम एम.जगदीशजी ही कुशलतापूर्वक संभालते रहे।

समाप्न समारोह में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री और शिक्षा मंत्री भी उपस्थित रहे। यूजीसी के सचिव डॉ. मनीष जोशीजी भी इस सत्र में अपने उद्बोधन के साथ मंत्रियों व प्रतिभागियों का स्वागत किया। शेष विशेषज्ञों का जमाबड़ा हर सत्र में प्रतिभागियों को अपने ज्ञान व अनुभवों से प्रकाशित करता रहा। और दर्शकों ने भी पर्याप्त प्रश्न पूछे, जिससे पूरी क्राँफ्रेंस इंटरएक्टिव मोड में रही, जिसे ज्ञान के आदान-प्रदान की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है।

कांफ्रेस का उद्देश्य एईडीपी के अर्थ, प्रयोजन, आवश्यकता व महत्व को समझाना था और स्नातक स्तर पर इसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना था। जिससे उद्योग से शैक्षणिक संस्थान सीधे जुड़कर छात्र-छात्राओं को रोजगार से अबसर सुनिश्चित करवा सके। एप्रेंटसशिप के दौरान भी इसमें छात्र-छात्राओं के लिए समुचित अनुदान की व्यवस्था है, इस रुप में इसे ओन जॉब ट्रेनिंग (OJT) भी कह सकते हैं। एम जगदीशजी से ब्रेक में व्यक्तिगत संवाद भी संभव हुआ, जिसमें अपनी एईडीपी और एनईपी-2020 से जुड़े कुछ अहं प्रश्नों पर चर्चा हुई।

क्रांफ्रेंस से हम इस आशय के साथ बापिस आए कि अपने विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर एईडीपी पाठ्यक्रमों को लागू करना है। जिस पर कार्य विश्वविद्यालय के नेतृत्व में कार्य चल रहा है और आशानुकूल तीव्रता के साथ आगे बढ़ रहा है। वर्ष 2026 के अकादमिक सत्र से स्नातक स्तर पर ऐसे पाठ्यक्रम के लागू होने की संभावना है।

क्रांफ्रेस समाप्त होने पर अपने गेस्ट हाउस से समान समेटकर अयोध्या धाम स्टेशन पहुँचते हैं।


यहाँ का स्टेशन अयोध्या जंक्शन से एकदम दूसरी दिशा में और राममंदिर के बहुत समीप है। स्टेशन में भी राममंदिर की प्रतिकृति बनी हुई है और अंदर प्रवेश करने पर गिलहरी की मूर्ति ध्यान आकर्षित करती है।

पूरा स्टेशन साफ-सूथरा और एसी सुविधा से लैंस है, जहाँ के बडे-बड़े हाल में यात्री बहुत आराम से विश्राम कर रहे थे। यहीं पर रेल्वे स्टेशन के आहार केंद्र IRTC में रात का भोजन करते हैं। रेट 70, 120 से लेकर 150 रुपए तक के थे। यहाँ अपनी भूख के अनुकूल भोजन लेकर बाहर एक बेंच पर कुछ विश्राम करते हैं। साथ ही मोबाइल चार्ज करते हैं और ट्रेन का समय होने पर लिफ्ट से ऊपर चढ़कर फिर नीचे उतरते हैं औऱ दो नम्बर प्लेटफॉर्म पर अपनी रेल का इंतजार करते है।

ट्रेन रात 8.20 बजे स्टेशन पर आती है, जो तीन घंटे लेट थी। रेल चुनिंदा स्टेशनों से होते हुए हरिद्वार पहुँचती है। रेल हर स्टेशन पर काफी समय रुक कर आगे बढ़ती है और हरिद्वार पहुँचते-पहुँचते छः घंटे लेट होती है। इसमें क्या स्पेशल था, ये समझ नहीं आया। पानी की भी उचित व्यवस्था डिब्बे में नहीं थी, हालाँकि फोन करने पर तत्काल अगले स्टेशन पर समाधान मिला। इसमें सरकार को दोष नहीं दे सकते,  रेल में बैठे कर्मचारियों की लापरवाही इसमें अधिक दिख रही थी।

लेट होने के कारण हम प्रातः छः बजे की बजाए 12 बजे हरिद्वार पहुँचते हैं और 1 बजे तक अपने कैंपस में पदार्पण करते हैं। इस तरह 15 घंटे के लम्बे सफर के साथ हमारी पहली अयोध्या धाम की यात्रा पूरी होती है।


जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-1

                                           मेरी पहली वंदे भारत एक्सप्रेस रेल यात्रा

हरिद्वार स्टेशन पर वंदे भारत एक्सप्रेस का आगमन

पहली बार अयोध्या जाने का अवसर बन रहा था, वह भी एक नई रेल में। वहाना एक काँफ्रेंस का था, लेकिन अहसास हो रहा था कि जैसे अयोध्या धाम से राम लल्ला, भगवान रघुनाथ का बुलावा आया हो। अयोध्या धाम के साथ रामलल्ला के चिरप्रतिक्षित दर्शन करेंगे। साथ में जा रहे थे डॉ. दिलिप सराह, जिनके साथ यात्रा का संयोग मई माह की केंद्रीय संस्कृत विवि, देवप्रयाग क्रांफ्रेंस में भी बना था। टिकट से लेकर रुकने आदि की व्यवस्था में इनका सहयोग काविले ताऱीफ रहा।

वन्दे भारत एक्सप्रेस, मालूम हो कि प्रधानमंत्री मोदीजी की एक महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है और इसे एक सफल प्रयोग कह सकते हैं। मेक इन इंडिया के तहत यह लगभग पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक से बनी रेल हैं। यह अपनी हाइ-स्पीड़, स्वच्छता व किफायती दरों पर सुविधाओं के लिए जानी जाती है। बाहर से देखने पर कुछ-कुछ बुलेट ट्रेन का फील दे जाती है। एयरोडाइनमिक के सिद्धान्तों पर इसकी संरचना हुई है, जिससे यह हवा के प्रतिरोध को सक्षमता के साथ चीरते हुए गति पकड़ने व अपने मंजिल की ओर गतिशील होने में सक्षम है।

वंदे भारत एक्सप्रेस में डब्बे के अंदर का नज़ारा

इसमें मेट्रो की तरह स्वचालित दरबाजे हैं, जिनसे प्रवेश होता है, जो स्वतः ही यात्रियों के अंदर-बाहर निकलने पर खुल जाते हैं। अंदर जाने पर एकदम हवाई जहाज का लुक दिखता है। बस इसमें ऊपर लगेज बॉक्स खुले रहते हैं। सीट आरामदायक थी, सामने सीट के पीछे जालीदार बक्से में हल्का सामान रख सकते थे। इसमें लगी पट्टी फोल्ड होकर टेबल का काम कर रही थी। एक अखबार भी रो में पढ़ने के लिए उपलब्ध था। पानी की बोटल को रखने के लिए नीचे गोल खाँचा बना हुआ था और मोबाइल चार्ज के लिए हर सीट के नीचे चार्जिंग प्वाइंट था।

हवाई यात्रा का फील देती बंदे भारत एक्सप्रेस में एयर हॉस्टेस की जगह पुरुष हॉस्ट थे, जो यात्रियों की खाने-पीने की सुविधाओं का पूरा ध्यान रख रहे थे। पूरी मुस्तैदी से मिल रहे निर्देशों का पालन कर रहे थे। देहरादून से चलने के कारण स्वाभाविक रुप से उत्तराखण्ड के परिधान व टोपी को पहने हुए थे। ज्वालापुर को पार करते ही आगे के मार्ग में हरे-भरे खेत-खलिहान, गन्ने के नन्हें पौध, पोपलर के वृक्षों की कतारें स्वागत करती रहीं। कहीं-कहीं गाँव व कस्वों के दर्शन होते रहे और साथ छोटे पुल मिलते रहे।

इनके बीच विशेष ध्यान आकर्षित करता है एक विशाल नदी पर बना पुल, जो पूछने पर पता चला कि हम गंगा नदीं के ऊपर से गुजर रहे हैं। यह बालावाली का क्षेत्र था, जिसे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश का सीमा विभाजक (बोर्डर रेखा) पुल माना जाता है। बरसाती जल में उफनती, वृहद जलराशि से समृद्ध गंगा नदी के विस्तार को हम यथासंभव कैमरे में केप्चर करते रहे, जिसकी एक झलक आप नीचे वीडियो में देख सकते हैं।

रास्ते में सफर के लगभग आधा-पौन घंटा बाद ही चाय-नाश्ता सर्व किया जाता है। एक प्लेट में चॉक्लेटी फ्लेवर का पॉपकार्न पैकेट, एक छोटा हल्दीराम का नमकीन पैकेट और गर्मागर्म कचौरी, साथ में टोमेटो सोस और कॉफी पाउच, इस किट में थे। रेलनीर पानी की बोटल भी रास्ते में सभी यात्रियों को थमा दी गई थी। इस तरह यात्रा की शुरुआत नाश्ते के एक बेहतरीन अनुभव के साथ होती है। परिचारक चॉक्लेट, मैगी आदि लेकर घूम रहे थे। साथ ही चाय व कोल्ड ड्रिंक्स भी। हमें लगा शायद सब मुफ्त में बाँटा जा रहा हो, लेकिन चाय का ऑर्डर देने के बाद पता चला कि इनकी कीमत बसूली जा रही थी। इस तरह सफर के साथ नाश्ता और रात का भोजन ही फ्री में था, जो कि टिकट बुकिंग के समय दिए विकल्प के चयन के आधार पर तय था। जिनका टिकट बुकिंग के दौरान यह ऑपशन छूट गया हो, वे उचित दाम चुका कर नाश्ता, डिन्नर आदि कर सकते हैं।

नई ट्रेन के नए अनुभव के साथ सफर आगे बढ़ता जा रहा था। दोनों ओर गाँव, खेत-बगीचों के वही हरे-भरे दृश्य स्वागत कर रहे थे। कहीं बरसात के जल से बने तालाब भी दिख रहे थे। जब रेल थोड़ा धीरे होती तो, यथा संभव बाहर के मनोरम दृश्यों को कैप्चर करने का प्रय़ास कर रहे थे। इस तरह शाम का अंधेरा छा रहा था और लो रात का भोजन भी आ गया। इसमें दो रोटी, पुलाव, दाल, पनीर सब्जी, सलाद व रसगुल्ला आदि थे। कुल मिलाकर भोजन पेटभराउ था, न अधिक न कम। साथ ही स्वादिष्ट और पौष्टिक भी।

रात का भोजन (Dinner)

वंदे भारत रेल की साफ-सफाई व्यवस्था काविले तारीफ लगी। प्रसाधन सुविधा में हवाई जहाज की तरह बायोवैक्यूम शौचालय बनाए गए हैं, जिनके साथ साफ-सफाई, की उचित व्यवस्था सुनिश्चित हो रही थी। जल और सोप सोल्यूशन की उचित व्यवस्था थी, जो प्रायः दूसरी रेलों में बहुत खस्ता हालत में रहते हैं। बाकि यात्रियों की भी जिम्मेदारी बनती है, कि सरकार द्वारा उपलब्ध सुविधाओं का सावधानी व जिम्मेदारी से उपयोग करते हुए इन्हें दुरुस्त रखने में मदद करें। यात्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से प्रत्येक डिब्बे में सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं।

वंदे भारत रेल में जीपीएस सिस्टम लगा हुआ है, जो आने वाले स्टेशनों की जानकारी देता है। देहरादून से लखनऊ जंक्शन पर चलने वाली वंदे भारत रेल रास्ते में चार स्टेशन पर ही रुकती है – हरिद्वार, नजीबाबाद, मुरादाबाद और बरैली। बरैली और लखनऊ की राह में शाहजहाँपुर, हरदोई जैसे स्टेशन आते हैं, लेकिन रेल यहाँ नहीं रुकती। देहरादून से 2:25 PM पर छूटने वाली वंदे भारत का रास्ते में पहुँचने व छूटने का मानक समय कुछ इस तरह से है – हरिद्वार (3:26-3:31 PM), नजीबाबाद जन्कशन (4:17-4:19  PM) मुरादाबाद जन्कशन (5:40-5:45 PM), बरैली जन्कशन (7:00-7:02) और लखनऊ जन्कशन (10:40 PM)। इस तरह देहरादून से लखनऊ की कुल दूरी 544 किमी रहती है, जबकि हरिद्वार से कुल 492 किमी का रेल सफर तय कर हम मंजिल पर पहुँचते हैं।  

हरे भरे खेत बागानों से गुजरता रेल सफर

इस तरह हमारी वंदे भारत एक्सप्रेस औसतन 70 किमी प्रति घंटे के साथ मंजिल पर पहुँचती है। जबकि दावा किया जाता है कि यह ट्रेन 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार के साथ यात्रा कर सकती है। जो भी हो इस रेल में यात्रा बहुत ही स्थिर व सुखद रही, कहीं झटकने लगने की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ा। फिर बड़े-बड़े सीसों की खिड़कियों से बाहर के नजारे दिन के उजाले में यात्रियों को मश्गूल रखते हैं और रात की टिमटिमाती रोशनियाँ भी एक नया अनुभव देती हैं।

इस तरह हम सात घंटे के सफर के बाद रात साढ़े दस बजे लखनऊ पहुँचते हैं। नई ट्रेन में यह यात्रा हमारे जीवन के सबसे सुखद और यादगार अनुभवों में से एक रही। हम अपने अनुभव के आधार पर यात्रियों को भारतीय रेल्वे की वंदे भारत सेवा में एक बार सफर का सुझाव दे सकते हैं, जो आपके जीवन का एक वेहतरीन अनुभव सावित होगा तथा किसी भी रुप में घाटे का सौदा नहीं लगेगा।
बाहर से वंदे भारत एकस्प्रेेस का नज़ारा

सोमवार, 30 जून 2025

सत्य का संधान, स्थापना धर्म की


सत्य का संधान, स्थापना धर्म की,

किसने कहा कि है कार्य सरल-सहज, खेल बच्चों का,

स्वयं प्रभु आते हैं धरा पर इसको संभव बनाने।

 

लेकिन उनके साथी सहचर अंश होने के नाते,

हर संवेदनशील इंसान, जाग्रत जीवात्मा को उतरना पड़ता है मैदान में,

नहीं चुप रह सकती झूठ व असुरता का नग्न नृत्य को देख,

 करती है कुछ प्रयास इनसे जूझने, दूर करने के लिए,

 अपने स्तर पर, अपने ढंग से, अपनी क्षमता के अनुरुप।

 


अपने भोलेपन, मासूमियत में नहीं समझ पाती स्वरुप जगत का,

पहले सब अच्छे लगते हैं, उसे अपने जैसे, सरल-सहज,

सच्चे ईमानदार समझदार, गुरु के भक्त, वंदे सब प्रभु के।

 

लेकिन समय के साथ, कटु यथार्थ से पड़ता है जब वास्ता,

पता चलता है कि सबके अपने-अपने अर्थ, अपनी-2 परिभाषा,

 सत्य की, धर्म की, अच्छाई-बुराई और जीवन के मकसद की,

नहीं जीवन सरल इतना, शाश्वत वक्रता की यह विचित्र सृष्टि।

 

सूक्ष्म स्वार्थ-अहंकार, राग-द्वेष, महत्वाकाँक्षाएं सबकी अपनी-2,

ऐसे में सत्य-न्याय, धर्म-इमान, सही-गलत की बातें सापेक्ष,

सब अपनी-अपनी समझ, अनुभव, पूर्वाग्रह व समझ के चश्में से देख रहे।

 

जब अपने-परायों का भेद मुश्किल, तो बदल जाते हैं मायने धर्म स्थापना के,

ऐसे में जग के भोलेपन की भ्रम मारीचिका का टूटना है स्वाभाविक,

और अंधकार की शक्तियों का है वजूद अपना, सत्ता अपनी, संसार अपना।

 

नहीं चाहते ये परिवर्तन अभी वाँछित, अपनी शर्तों पर जीने के ये आदी,

नहीं औचित्य से मतलब इन्हें अधिक, बस अपने वर्चस्व की है इन्हें चिंता भारी,

इन पर न आए आँच तनिक भी, सत्य, न्याय, इंसानियत से नहीं इन्हें अधिक मतलव।

 

जाने-अनजाने में हैं ये हिस्सा समस्या के, शांति-समाधान में नहीं इनको अधिक रुचि,
आलोक सत्य का, प्रकाश धर्म का, तलवार न्याय की, हैं सीधे इनके वर्चस्व को चुनौती,

तिनका-2 जोड़ खड़ा मायावी महल, सत्य की एक चिंगारी से हो सकता है भस्म तत्क्षण।

 

अंधकार की इन शक्तियों का निकटतम संवाहक है बिगड़ैल मन अपना,

छिपे पड़े हैं, जिसके चित्त में महारिपु वासना-त्रिष्णा-अहंता, राग-द्वेष के अनगिन,

ये भी कहाँ बदलने के लिए हैं तैयार, आलस-प्रमाद में पड़े उनींदे, कम्फर्ट जोन के आदी।

 

इन्हीं से है समर पहला, बाहर के धर्मयुद्ध का मार्ग तभी खुलेगा,

इसलिए कठिन विकट मार्ग सत्य संधान का, धर्म स्थापना का,

स्वयं से है युद्ध जहाँ पहला, पहले साधना समर में उतरना होगा।

 

फिर अधर्म-अन्याय के विरुद्ध, सत्य-धर्म-औचित्य की दूधारी तलबार लेकर,

काल के तेवर को समझते हुए, महाकाल की इच्छा का अनुगमन करना होगा।

हरिद्वार से कुल्लू, वाया बस, जून 2025 का एक यादगार सफर

 

हरिद्वार से कुल्लू, वाया बस, जून 2025 का एक यादगार सफर

प्रश्नों के चक्रव्यूह से बाहर निकालता एक यादगार सफर

हरिद्वार से कुल्लू का सफर कई बार कर चुका हूँ, लेकिन इस वार का सफर एक नई ताजगी व रोमाँच से भरा हुआ था। अमूमन हरिद्वार से हमारा लोकप्रिय सफर हिमधारा सेमी डिलक्स में सांय 4 बजे प्रारम्भ होता रहा है, जो चण्डीगढ़ से लेकर हिमाचल के मंडी तक रात के अंधेरे में ही तय होता रहा है और प्रातः नौ बजे तक अपने गन्तव्य तक पहुँचाता है। इस बार हम ट्रैब्ल प्लान का शीर्षासन करते हुए 14 जून 2025 के दिन प्रातः पौने पाँच बजे की बस में हरिद्वार से चढ़ते हैं, बस सामान्य श्रेणी की थी, लेकिन सीटें किसी भी रुप में सेमी डिलक्स से कम नहीं थी, बस में एसी की सुविधा नहीं थी, जिसकी पूर्ति रास्ते का हवादार सफर करता रहा।

बल्कि हरिद्वार से देहरादून तक के एक घंटे के सफर में तो ठंड़क अहसास होता रहा, लगा टोपा या मफलर साथ लिए होते, तो बेहतर रहता। आगे तो अपने टॉउल को सर पर लपेट पर काम चलाते रहे। ठीक सात बजे देहरादून से बस आगे बढ़ती है। राह के कई पड़ावों व खेत-खलिहानों को पार करते हुए हम पौंटा साहिव पहुँचते हैं। यहाँ यमुना नदी पर बना पुल और इसके वाईं ओर राइट बैंक पर दशम गुरुगोविंद सिंह जी के स्वर्णिम काल का साक्षी गुरुद्वारा पौंटा साहिब सदैव ही गहनतम भाव-श्रद्धा के साथ नतमस्तक करता है।

इसके आगे कुछ देर तक मैदानी क्षेत्र को पार करने के बाद क्रमिक रुप से पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश होता है और घाटी के शिखर पर नाहन की ओर बढ़ता सफर नीचे के विहंगम दृश्य से आल्हादित करता है। नीचे दूर-दूर तक फैली हरी-भरी घाटी और मार्ग की मनोरम दृश्यावली निश्चित रुप से सफर में नया रस घोल रही थी।

नाहन बस स्टैंड पर कुछ देर रुकने के बाद पहाड़ से नीचे उतरते हुए वाया अम्ब, नारायण गढ़ा आदि स्थानों से होते पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता है। सिटी ब्यूटीफुल के दर्शन निश्चित रुप में सदैव ही सुखद अनुभव रहता है। माँ चण्डी देवी के नाम से चण्डीगढ़ का शहर पड़ा है। जिसका मंदिर पास के चण्डीमाजरा स्थान पर है। यहाँ से गुजरते हुए आदिशक्ति का भाव सुमरण के साथ ही शहर में प्रवेश होता है।

रास्ते में आम के बगीचों के बीच काफी देर तक सफर एक नया अनुभव रहता है। इस बगीचे की कहानी तो मालूम नहीं, लेकिन इसके बीच सफर एक सुखद अहसास दिलाता है। मेहनतकश बागवानों की किसानी संघर्ष की याद दिलाता है।

थोड़ी देर में चण्डीगढ़ 43 सेक्टर पहुँचते हैं, जहाँ नया आइएसबीटी स्टेशन है। कुछ देर रिफ्रेश होने के बाद यहाँ से सफर आगे बढ़ता है। इस तरह आज दिन के उजाले में चण्डीगढ़ शहर के दर्शन करते हुए पंचकुला साइड से एंटर होते हैं और मोहाली साईड से बाहर निकलते हैं। चण्डीगढ़ को सिटी ब्यूटीफुल क्यों कहा जाता है, राह के प्राकृतिक नज़ारों, सुव्यवस्थित टॉउन प्लानिंग को देखकर स्पष्ट होता है। रास्ते में चौराहे पर बस के जाम में खड़ा रहने के चलते थोड़ा गर्मी का अहसास भी हो रहा था। बस स्टैंड पर पहुंच कर कोल्ड कॉफी के साथ इसकी कुछ भरपाई करते हैं।

दिन के उजाले में मोहाली से गुजरते हुए रुपनगर (रोपड़) को पार करते हैं, बीच में ब्यास-सतलुज नदी के सम्मिलित जल की नीली धारा वाली नहर को पार करते हैं और हमारी बस रुकती है, कीरतपुर के लगभग 4 किमी पहले....स्थान पर, जो पंजाबी जायके वाले ढावों के लिए प्रख्यात है। हमारी बस भी शुद्ध वैष्णों ढावे के सामने खड़ी होती है। यहाँ की पंजाबी थाली व अन्त में लस्सी के गिलास के साथ पूर्णाहुति करते हैं और यहाँ बाहर काउंटर पर खड़े बंधु से बात कर अपनी सहज जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।

स्थान की विशेषता पूछने पर पता चला कि यह इलाका अन्न उत्पादन के लिए प्रख्यात है, क्योंकि यहाँ की उर्बर भूमि और जल की प्रचुरता के कारण ऐसा संभव रहा है। अतः यहाँ लोगों का प्रमुख पेशा अन्न उत्पादन के साथ ढावों के माध्यम से अपने उत्पादों का व्यवसाय है। अपनी गाय-भैंसों के साथ यहाँ दूर-दही व घी की भी प्रचुरता रहती है। अपने खेतों से साग-सब्जी व दाल आदि शुद्ध रुप में सहजता से उपलब्ध रहती है। जलस्रोत के रुप में पास बहती नहर व नदी है। इस प्राकृतिक जल व खाद्य उत्पादन के कारण संभवतः यहाँ के भोजन में एक विशेष स्वाद रहता है।

ढावे के परिसर में ही पास ग्रामीण परिवेश के मध्य खड़ी गाय, बछड़े के बूत राहगीरों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। जहाँ सेल्फी के लिए लोगों की भीड़ लगी थी। खासकर महिलाएं बाल्टी हाथ में लेकर गाय को दुहने का अभिनय कर रही थी और रील बनाकर जीवन को धन्य अनुभव कर रही थी। बच्चे भी इसका पूरा आनन्द लेते दिख रहे थे। उनके लिए खेलने के लिए झूले से लेकर स्लाइडिंग स्लोप्स की मिनी पार्क जैसी सुविधा पास में थी। हालांकि यहाँ पर्याप्त गर्मी का अहसास हो रहा था, लेकिन ठंडी लस्सी के साथ इसको बैलेंस करते हैं।

भोजन से तृप्त होकर सभी बस में चढ़ते हैं और कुछ ही देर में कीरतपुर साहिब पार करते हैं। हमारे दिन में सफर करने का वास्तविक मकसद अगले कुछ मिनटों में पूरा होने वाला था। मालूम हो कि पुराना रुट वाया पहाड़ी के टॉप पर स्वारघाट, फिर कई घाटी-मोड़ व पुलों को पारकर बिलासपुर शहर, आगे घाघस तथा सतलुज नदी के उपर स्लापड़ पुल पार कर पूरा होता था। नया रुट पहाड़ों को खोदकर बनाई गई लगभग आधा दर्जन सुरंगों के कारण वाइपास वाला है, इससे सफर लगभग दो घंटे कम हो गया है। इस रुट पर पुराने कोई स्टेशन नहीं आते। बल्कि सतलुज नदी व इसके भाखडा बाँध पर रोकने से बनी गोविंद सागर झील (हालाँकि इस समय जल सामान्य स्तर पर था, सो झील का स्वरुप महज नदी के प्रवाह तक सीमित था)  की परिक्रमा करता हुआ एक नया अनुभव रहा।

रास्ते में पड़ते नए गाँव, खेत-खलिहान, पुल आदि हमारी पहली दृष्टि के लिए कौतुक का विषय थे, जानने की कोशिश कर रहा था कि पुराने रुट से हम कितना पास या दूर सफर कर रहे हैं। क्योकि बीच में एक तिराहें पर शिमला जाने का भी साइनबोर्ड लगा था। और आगे पुल को पार करते ही बिलासपुर शहर के भी दूरदर्शन हो रहे थे। इसके साथ स्पष्ट था कि हम बिलासपुर के एक दम दूसरी ओर सतलुज नदी के किनारे समानान्तर मार्ग से आगे बढ़ रहे थे।

जो पहाडियों के आंचल में बसे गाँवों-कसवों के मध्य आगे बढ़ता हुआ आगे एक टलस से गुजरता है। अब सामने घाघस की सीमेंट फैक्ट्री के दूरदर्शन हो रहे थे। अतः स्पष्ट था कि हम घाघस और सलापड़ के समानान्तर चल रहे थे। आगे पुनः एक सुरंग से गुजरते हुए हम हरावाग के पास कहीं पहुंचते हैं, जहाँ थोड़ी देर में आगे सुन्दरनगर शहर आता है। आगे का सफर पुराने मार्ग से होकर था। हालाँकि पता चला कि इसमें भी सुरंगे बन रहीं हैं और भविष्य में और शॉर्टकट वाइपास बनने बाले हैं।

आज हमारा सफर सुंदरनगर से नैर चॉक और फिर मंडी पहुंचता है। शाम हो चली थी। यहाँ से पंडोह की ओर बढ़ते हैं। फिर डैम को पाकर आगे सुरंग के रास्ते बाहर थलौट के पास निकलते हैं, अंत में एक सुरंग को पार कर आउट आता है, जिसका जिक्र हम एक अन्य ब्लॉग व वीडियो में कर चुके हैं। शाम का अंधेरा छा चुका था। आगे पनारसा, नगवाईं, बजौरा और भुंतर पार करते हुए ढालपुर मैदान और फिर कुल्लू आता है। बस मानाली जा रही थी, जो सेऊबाग राइट बैंक पौने नौ बजे पहुंचती है। वहाँ अपने भाई संग बाहन में नौ बजे घर पहुंचता हूँ। इस तरह सौलह-सत्रह घंटे का थकाउ किंतु यादगार बस का सफर पूरा होता है।

घर के सदस्यों को मिलने के बाद गर्मजल में स्नान के साथ सफर की थकान दूर होती है। और आज के सफर में नए रुट को दिन के उजाले में प्रत्यक्ष अनुभव कर रोमाँचित हो रहा था कि आज रुट का नक्शा मेरे दिमाग में क्लीयर हो गया है। जो पिछले कई वर्षों से मेरे लिए प्रश्नों से भरा हुआ एक चक्रव्यूह बना हुआ था।    

चुनींदी पोस्ट

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